
– डॉ सुनीता शर्मा
पहचान
रेलवे स्टेशन के कोने में बैठी थी वह—रंग-बिरंगे कपड़ों में, आँखों में काजल, पर चेहरा बुझा हुआ।
लोग आते-जाते रहे। कोई उसे टालकर निकला, कोई हँसकर।
वह बस निहारती रही भीड़ को, जैसे किसी को ढूँढ़ रही हो।
पास बैठा एक बच्चा अचानक रोने लगा। उसकी माँ झुंझला गई।
किन्नर ने धीरे से बच्चे के पास जाकर गुनगुनाना शुरू किया—”निंदिया तू आजा…”
बच्चा शांत हो गया।
माँ ने घबरा कर बच्चे को खींच लिया और गुस्से से कहा,
“दूर रहो! हाथ मत लगाना मेरे बच्चे को!”
वह मुस्कराई नहीं।
केवल धीरे से बोली—
“मैं भी किसी की माँ थी…
पर जब जनम लेते ही मेरी कोख को ‘श्राप’ कहा गया,
तो मुझसे मेरा बच्चा छीन लिया गया।”
यह कहकर वह चुपचाप उठी और स्टेशन की भीड़ में फिर गुम हो गई।
पीछे खड़ी वह माँ पहली बार सोच रही थी—
ममता क्या सिर्फ शरीर की होती है?
या एक पीड़ा की भी पहचान होती है?