साहित्यसेतू :  मराठी संतों की हिंदी यात्रा

~ विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र

खंड 1: प्रस्तावना एवं लेखक का परिचय

“साहित्यसेतू” ( – पृष्ठ 1) डॉ. श्रीधर रंगनाथ कुलकर्णी ( – पृष्ठ 1, 10) द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण शोध-ग्रंथ है, जिसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय मराठी संतों के हिंदी काव्य का आलोचनात्मक विश्लेषण है। यह विश्लेषण भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास में हुए व्यापक परिवर्तनों के विशेष संदर्भ में किया गया है ( – पृष्ठ 8)। इस कृति का प्रकाशन राज्य मराठी विकास संस्था, मुंबई एवं भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर के संयुक्त तत्वावधान में हुआ है ( – पृष्ठ 3, 6, 9), जो डॉ. सौ. सरोजिनी वैद्य (निदेशक, राज्य मराठी विकास संस्था) के अथक प्रयासों से संभव हो सका ( – पृष्ठ 6)। इस प्रकार के प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा प्रकाशन स्वयं ही पुस्तक की अकादमिक गंभीरता और उसके व्यापक महत्व को रेखांकित करता है।

लेखक का परिचय एवं दृष्टिकोण

डॉ. श्रीधर रंगनाथ कुलकर्णी (जन्म: 8 दिसंबर 1916) एक प्रतिष्ठित विद्वान थे, जिन्होंने एम.ए. तथा पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। वे बहुभाषी थे और साहित्य एवं संगीत में उनकी गहन रुचि थी, जिसका प्रमाण उनकी अनेक पुरस्कृत कृतियाँ हैं ( – पृष्ठ 10, 5; )। “साहित्यसेतू” के माध्यम से लेखक का मुख्य उद्देश्य मराठी संतों द्वारा हिंदी में काव्य-रचना के गूढ़ कारणों की पड़ताल करना, हिंदी साहित्य के उद्भव एवं विकास में महाराष्ट्र की केंद्रीय भूमिका को स्थापित करना, और इस साहित्यिक परंपरा का भारत के व्यापक सांस्कृतिक जीवन से अभिन्न संबंध उजागर करना है ( – पृष्ठ 6, 14; )। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु, लेखक ने लगभग एक हज़ार वर्षों के विस्तृत कालखंड (आठवीं से अठारहवीं शताब्दी) का गहन अध्ययन किया है, जिसमें महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र और संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी, हिंदी जैसी अनेक भाषाएँ और उनके साहित्यिक स्वरूप सम्मिलित हैं ( – पृष्ठ 6)। लेखक का यह व्यापक शोध क्षेत्र और उनका बहुभाषी दृष्टिकोण उनके द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों को असाधारण विश्वसनीयता और गहराई प्रदान करता है।

लेखक की शोध-प्रक्रिया, जिसे वे स्वयं एक “आनंदयात्रा” के रूप में वर्णित करते हैं, केवल एक शुष्क अकादमिक अभ्यास मात्र नहीं है, बल्कि एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सत्य को उजागर करने की गहन आंतरिक प्रेरणा से प्रेरित है। यह सत्य है कि “महाराष्ट्रातल्या संतपरंपरेने उत्तर भारतातील सांस्कृतिक जीवनाचे व साहित्याचे पुनरुज्जीवन करण्याची अत्यंत मोलाची कामगिरी बजावलेली आहे” ( – पृष्ठ 6)। जब लेखक ने मराठी संतों के हिंदी काव्य का अध्ययन प्रारंभ किया, तो उन्हें यह एक “कोडे” (पहेली) जैसा प्रतीत हुआ, विशेषकर इस तथ्य के आलोक में कि उस काल में हिंदी भाषी क्षेत्रों में काव्य-निर्माण लगभग नगण्य था। इस जटिल पहेली को सुलझाने की जिज्ञासा ने ही उन्हें इस व्यापक कालखंड और भौगोलिक क्षेत्र के गहन अध्ययन के लिए प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें यह “महत्त्वाचे ऐतिहासिक सत्य” ज्ञात हुआ। यह दर्शाता है कि यह पुस्तक केवल तथ्यों का संकलन मात्र नहीं, बल्कि एक गहन जिज्ञासा, अथक शोध और महत्वपूर्ण खोज का प्रतिफल है।

इसके अतिरिक्त, इस पुस्तक का प्रकाशन स्वयं भी एक “सेतुबंध” का प्रतीक है, जहाँ राज्य मराठी विकास संस्था और केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान जैसे दो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संस्थान भाषाई और सांस्कृतिक अध्ययन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक साथ आए हैं ( – पृष्ठ 6, 9)। डॉ. कुलकर्णी ने स्वयं उल्लेख किया है कि यह पांडुलिपि कुछ वर्षों तक अप्रकाशित रही थी। डॉ. सरोजिनी वैद्य की पहल और भारतीय भाषा संस्थान की वित्तीय सहायता से इसका प्रकाशन संभव हो सका। यह सहयोग भाषाई राज्यों के गठन के पश्चात तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन की बढ़ती आवश्यकता को भी रेखांकित करता है, जैसा कि डॉ. सरोजिनी वैद्य ने अपने निवेदन ( – पृष्ठ 5) में भी उल्लेखित किया है। यह पुस्तक स्वयं विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक क्षेत्रों के बीच एक सेतु का कार्य करती है, और इसका प्रकाशन भी इसी उदात्त भावना का प्रतीक है।

पुस्तक का केंद्रीय तर्क (संक्षेप में)

“साहित्यसेतू” का केंद्रीय तर्क यह है कि महाराष्ट्र के संतों ने, विशेष रूप से वारकरी संप्रदाय के माध्यम से, उत्तर भारत में सांस्कृतिक और साहित्यिक पुनरुत्थान में एक “सेतु” की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भूमिका विशेष रूप से हिंदी भाषा के प्रारंभिक विकास और निर्गुण भक्ति परंपरा के प्रसार में परिलक्षित होती है ( – पृष्ठ 6, 9)। यह तर्क पारंपरिक साहित्यिक इतिहास की कई स्थापित धारणाओं को चुनौती देता है और विभिन्न क्षेत्रीय साहित्यिक परंपराओं के बीच विद्यमान गहरे और अक्सर अनदेखे किए गए अंतर्संबंधों को प्रभावशाली ढंग से उजागर करता है।

खंड 2: “साहित्यसेतूके प्रतिपाद्य विषयों का विस्तृत विश्लेषण

अध्याय 1: सेतुबंधाचे प्रयोजन (पृष्ठ 14-19)

इस अध्याय में लेखक ने पुस्तक के मूल प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए हिंदी भाषा के उद्भव और उसके प्रारंभिक साहित्य-निर्माण के संदर्भ में क्रांतिकारी स्थापनाएँ की हैं। उनका मत है कि हिंदी भाषा का जन्म हिंदी भाषी प्रदेश के बाहर हुआ और इस भाषा में साहित्य-निर्माण का प्रारंभ भी हिंदी प्रदेश के बाहर, विशेषतः महाराष्ट्र में हुआ ( – पृष्ठ 14)। वे संत नामदेव को हिंदी के आद्य कवि के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं और यह भी मानते हैं कि खड़ीबोली पर आधारित नागरी हिंदी का जन्म महाराष्ट्र की धरती पर हुआ ( – पृष्ठ 14)। इससे भी महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि मराठी संतों ने तेरहवीं शताब्दी में ही हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दे दी थी, जबकि इसे आधिकारिक दर्जा बहुत बाद में मिला ( – पृष्ठ 14)। यह दावा हिंदी भाषा के इतिहास को एक सर्वथा नवीन आयाम प्रदान करता है।

लेखक परंपरागत साहित्येतिहास लेखन की सीमाओं की भी गहन आलोचना करते हैं। उनका मानना है कि अधिकांश प्रचलित साहित्येतिहास सांस्कृतिक संदर्भों और ललितेतर साहित्य (जैसे सिद्ध साहित्य) की उपेक्षा करते हैं, जिससे साहित्यिक प्रवृत्तियों का समग्र मूल्यांकन नहीं हो पाता ( – पृष्ठ 14-15)। वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के “हिंदी साहित्य का इतिहास” का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि उसमें सिद्ध साहित्य का उल्लेख केवल भाषा की पूर्वपीठिका के रूप में किया गया है, जबकि लेखक उसके गहन सांस्कृतिक और वैचारिक महत्व पर बल देते हैं ( – पृष्ठ 15)। प्रचलित साहित्यिक इतिहासों की यह अपूर्णता उनके “संस्कृतिनिरपेक्ष” होने और केवल “ललित वाङ्मय” पर ही ध्यान केंद्रित करने के कारण है। बीसवीं सदी के मध्य तक लिखे गए इतिहास अधिकांशतः कालक्रमानुसार साहित्यिक कृतियों की सूची मात्र थे और वे सांस्कृतिक जीवन तथा साहित्य पर उसके प्रभाव को अनदेखा करते थे। यदि सिद्ध साहित्य के सांस्कृतिक और वैचारिक पहलुओं का सम्यक अध्ययन किया गया होता, तो साहित्यिक इतिहास को एक भिन्न और अधिक सार्थक दिशा मिलती। यह अंतर्दृष्टि स्वयं साहित्येतिहास लेखन की पद्धति पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है।

लेखक का एक अन्य महत्वपूर्ण तर्क यह है कि संत कबीर और सिद्धों के बीच विद्यमान लगभग तीन शताब्दियों के अंतराल को पाटने में मराठी संत परंपरा, विशेषकर संत नामदेव, ने निर्णायक भूमिका निभाई ( – पृष्ठ 16-17)। यह स्थापना महाराष्ट्र को उत्तर भारतीय संत मत के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में स्थापित करती है। “निर्गुण पंथ” को समझने में महाराष्ट्र की परंपरा की उपेक्षा से हिंदी साहित्य का अध्ययन अधूरा रह जाता है, क्योंकि इस विचारधारा का उद्भव, विकास और पोषण पहले महाराष्ट्र में हुआ और फिर संत नामदेव के माध्यम से उत्तर भारत में प्रसारित हुआ ( – पृष्ठ 17)। कबीर के निर्गुण रामोपासना को समझने के लिए महाराष्ट्र में प्रचलित तत्कालीन विचारधाराओं और मराठी संतों के हिंदी काव्य को समझना नितांत आवश्यक है। कबीर की पूर्ववर्ती परंपरा की खोज करने वाले शोधकर्ता अक्सर सिद्ध साहित्य से सीधे कबीर पर पहुँच जाते हैं, और बीच के तीन शताब्दियों के अंतराल को या तो नजरअंदाज कर देते हैं या उसे गृहीत मान लेते हैं। लेखक का दावा है कि इस “खाडीवर सेतू बांधता येतो” (खाई पर पुल बनाया जा सकता है) और इसके लिए आवश्यक साधन-सामग्री महाराष्ट्र ने सहेज कर रखी है। यह महाराष्ट्र को केवल एक क्षेत्रीय इकाई के रूप में नहीं, बल्कि एक अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में प्रस्तुत करता है।

अध्याय 2: हिन्दी भाषेचा आद्य कवी संत नामदेव (पृष्ठ 20-32)

यह अध्याय संत नामदेव को हिंदी साहित्य के आद्य कवि के रूप में सुदृढ़ता से स्थापित करने पर केंद्रित है। लेखक के अनुसार, संत नामदेव (1270-1350 ई.) ने न केवल मराठी में, अपितु हिंदी में भी विपुल काव्य-रचना की ( – पृष्ठ 23)। वे डॉ. भगीरथ मिश्र के मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि उत्तर भारत में संतमत के प्रवर्तन का श्रेय वस्तुतः नामदेव को ही जाता है, और संत कबीर के साहित्य पर नामदेव का स्पष्ट और गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है ( – पृष्ठ 20)। लेखक उन तर्कों का भी खंडन करते हैं जो नामदेव के हिंदी काव्य को “साधारण कोटि” का मानकर उनके महत्व को कम आंकते हैं ( – पृष्ठ 20)।

इस अध्याय का एक महत्वपूर्ण पक्ष “निर्गुण राम” की संकल्पना का विस्तृत विवेचन है। लेखक इस संकल्पना की एक सुदीर्घ परंपरा को रेखांकित करते हैं, जो सिद्ध सरहपा और गोरखनाथ से प्रारंभ होकर निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, नामदेव और फिर कबीर तथा गुरु नानक तक प्रवाहित होती है ( – पृष्ठ 28-29)। यह “निर्गुण राम” दशरथ पुत्र राम से भिन्न, एक विश्वव्यापक, निर्गुण परब्रह्म का वाचक है। ज्ञानेश्वरी में भी “राम” शब्द का प्रयोग इसी व्यापक तात्विक अर्थ में हुआ है ( – पृष्ठ 28-29)। लेखक संत नामदेव की गुरु-परंपरा का संबंध भी नाथ सम्प्रदाय से जोड़ते हैं, जो विसोबा खेचर के माध्यम से स्थापित होता है ( – पृष्ठ 23-24)।

संत नामदेव के संदर्भ में “सगुण” और “निर्गुण” का जो द्वंद्व अक्सर उठाया जाता है, वह मुख्यतः हिंदी साहित्य के वर्गीकरण की पद्धति के कारण उत्पन्न हुआ है, जबकि वारकरी संप्रदाय में यह भेद वस्तुतः माना ही नहीं जाता ( – पृष्ठ 26)। वारकरी संप्रदाय “सगुण निर्गुण एक गोविन्दु रे” की उदात्त धारणा रखता है। अतः, नामदेव के मराठी साहित्य में विट्ठल भक्ति और हिंदी साहित्य में निर्गुण रामोपासना को दो अलग-अलग नामदेवों की रचना मानने अथवा गुरुपदेश के पश्चात उनके विचारों में परिवर्तन मानने की आवश्यकता नहीं है, यदि वारकरी तत्वज्ञान की मूल भावना को सही ढंग से समझा जाए। यह स्थिति हिंदी साहित्य के वर्गीकरण की सीमाओं को भी उजागर करती है, जब उसे अन्य भिन्न परंपराओं पर आरोपित करने का प्रयास किया जाता है।

इसके अतिरिक्त, “राम” शब्द का औपनिषदिक “रम्” (प्राण) की कल्पना से संभावित संबंध भी इस अध्याय में इंगित किया गया है, जो इसे एक व्यापक दार्शनिक अर्थ प्रदान करता है ( – पृष्ठ 29)। लेखक “सर्वत्र रमते संचरते इति रामः” और उपनिषदों में “भूतमात्रात रमण करतो तो रम् म्हणजे प्राण” के उल्लेखों को जोड़ते हुए यह संभावना व्यक्त करते हैं कि सिद्धों और संतों का “राम” इसी व्यापक औपनिषदिक कल्पना का विस्तार हो सकता है। यह “राम” की अवधारणा को केवल नाथ संप्रदाय तक सीमित न रखकर उसे भारतीय चिंतन की एक प्राचीन और गहन धारा से जोड़ता है, जिससे इसकी दार्शनिक गहराई और अधिक स्पष्ट हो जाती है।

अध्याय 3: सिद्धसंप्रदाय आणि संतपरंपरा (पृष्ठ 33-44)

इस अध्याय में लेखक ने सिद्ध संप्रदाय और संत परंपरा, विशेष रूप से महाराष्ट्र के संदर्भ में, के बीच घनिष्ठ और अविच्छिन्न संबंधों का विस्तृत निरूपण किया है। वे इस तथ्य को उजागर करते हैं कि संत ज्ञानेश्वर से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व ही महाराष्ट्र में सिद्धों की एक सुदृढ़ परंपरा विद्यमान थी ( – पृष्ठ 34)। सिद्धों का महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने लोकभाषाओं में साहित्य-रचना की और अध्यात्म-साधना का मार्ग समाज के सभी वर्णों के लिए सुलभ बनाया, जिससे वे संत ज्ञानेश्वर के समानधर्मी और पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं ( – पृष्ठ 33)।

लेखक नाथ सम्प्रदाय को सिद्धों के विभिन्न संप्रदायों में सर्वाधिक संगठित और प्रभावशाली मानते हैं, जिसका महाराष्ट्र से अत्यंत गहरा और जीवंत संबंध था। वे महापंडित राहुल सांकृत्यायन के शोध का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि आदि सिद्ध सरहपा (आठवीं शताब्दी) से लेकर संत ज्ञानेश्वर (तेरहवीं शताब्दी) तक एक अखंड गुरु-शिष्य परंपरा उपलब्ध है, जो यह सिद्ध करती है कि नाथ सम्प्रदाय आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में निर्बाध रूप से सक्रिय और प्रभावशाली था ( – पृष्ठ 35)।

“लीळाचरित्र” (तेरहवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण मराठी ग्रंथ) में नाथ सिद्धों (जैसे गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ आदि) और उनकी विशिष्ट “सिद्धवाणी” का प्रचुर उल्लेख मिलता है, जो इस तथ्य की पुष्टि करता है कि नाथ संप्रदाय महाराष्ट्र में दीर्घकाल तक व्यापक रूप से प्रचलित था और उसकी भाषा भी तत्कालीन समाज में सुपरिचित थी ( – पृष्ठ 35-36)। सिद्धों की “वाणी” (भाषा) का क्रमिक विकास भी इस अध्याय में दर्शाया गया है, जो अपभ्रंश से प्रारंभ होकर संत नामदेव की हिंदी-सदृश भाषा तक पहुँचता है ( – पृष्ठ 38-39)। सिद्ध साहित्य की भाषा के विषय में विभिन्न मत (जैसे प्राचीन बंगाली, असमिया, मैथिली, पूर्वी हिंदी आदि) प्रचलित रहे हैं, किंतु राहुल सांकृत्यायन ने इस संदर्भ में एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसे लेखक ने भी स्वीकार किया है ( – पृष्ठ 38-39)। सिद्धों ने अपने विचारों के प्रसार के लिए लोकप्रचलित छंदों (जैसे दोहा, चौपाई) और संगीत (विभिन्न रागों में निबद्ध पद) का भी कुशलतापूर्वक प्रयोग किया ( – पृष्ठ 40)।

महाराष्ट्र में नाथ संप्रदाय के दीर्घकालिक और गहरे प्रभाव का एक संभावित कारण यह भी हो सकता है कि दक्षिण भारत तत्कालीन इस्लामी आक्रमणों से अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित रहा, जिससे धर्म-रक्षण का कार्य करने वाले विभिन्न संप्रदायों को यहाँ आश्रय और अनुकूल वातावरण मिला ( – पृष्ठ 36)। नौवीं शताब्दी के आसपास भारत पर इस्लामी आक्रमण प्रारंभ हुए थे। प्रारंभ में सिंध तक सीमित रहने के बाद ये आक्रमण धीरे-धीरे अन्य भागों में भी फैल गए। इस उथल-पुथल के दौर में दक्षिण भारत अपेक्षाकृत शांत और सुरक्षित था। आदि सिद्ध का मूल स्थान महाराष्ट्र में होने और नाथ संप्रदाय का प्रसार यहाँ पहले से ही होने के कारण, गोरखनाथ आदि सिद्धों ने संभवतः महाराष्ट्र में ही अपना संचार और कार्यक्षेत्र केंद्रित किया होगा। यह ऐतिहासिक संदर्भ नाथ संप्रदाय के महाराष्ट्र में फलने-फूलने और उसकी जड़ें गहरी होने के लिए एक अनुकूल परिस्थिति प्रदान करता है।

एक अन्य महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु यह है कि संत ज्ञानेश्वर आदि की हिंदी अथवा सिद्धवाणी में रचित रचनाएँ आज उपलब्ध क्यों नहीं हैं। इसका एक संभावित कारण देवगिरि राजवट के पतन के पश्चात महाराष्ट्र में उत्पन्न हुई गंभीर राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता हो सकती है ( – पृष्ठ 37-38)। इस काल (लगभग 1350 से 1550 ई.) में महाराष्ट्र में साहित्य-रचना अत्यंत अल्प मात्रा में हुई। यहाँ तक कि महानुभाव पंथ का महत्वपूर्ण साहित्य भी अनुयायियों द्वारा “घोककर” (कंठस्थ करके) ही बचाया जा सका। ऐसी भयावह अस्थिरता और असुरक्षा के वातावरण में, सर्वसामान्य को अपरिचित सिद्धवाणी का कंठस्थ होना और उसका अगली पीढ़ियों तक सुरक्षित रूप में पहुँचना अत्यंत कठिन रहा होगा। इसके विपरीत, संत नामदेव का निवास ज्ञानेश्वर की समाधि के पश्चात मुख्यतः महाराष्ट्र के बाहर (राजस्थान और पंजाब में) था, जहाँ उनके अनुयायियों ने उनकी “बानी” को श्रद्धापूर्वक सुरक्षित रखा। यह एक महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण है जो एक संभावित ऐतिहासिक पहेली को हल करने में सहायता करता है और नामदेव के हिंदी काव्य की उपलब्धता के कारणों पर प्रकाश डालता है।

अध्याय 4: नाथपंथ आणि वारकरी संप्रदाय (पृष्ठ 45-55)

यह अध्याय नाथपंथ और वारकरी संप्रदाय के बीच के तात्विक और साधनापरक संबंधों की गहन मीमांसा प्रस्तुत करता है। लेखक इस तथ्य पर बल देते हैं कि संत ज्ञानेश्वर, जो वारकरी संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, स्वयं नाथ संप्रदाय के अनुयायी थे और उन्होंने नाथ संप्रदाय से प्राप्त ज्ञान को अपनी कालजयी कृति “ज्ञानेश्वरी” में कुशलतापूर्वक ग्रंथित किया है ( – पृष्ठ 45)।

अध्याय में नाथ संप्रदाय के “राजयोग” (अखंड अद्वैतप्रतीति की अवस्था) की अवधारणा पर प्रकाश डाला गया है और यह बताया गया है कि संत ज्ञानेश्वर ने भक्तियोग को भी राजयोग की प्राप्ति का एक समर्थ मार्ग बताकर भक्ति को नाथ संप्रदाय की विचारधारा में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया ( – पृष्ठ 46-47)। गीता के नौवें अध्याय (“राजविद्या राजगुह्ययोग”) के महत्व को रेखांकित करते हुए लेखक स्पष्ट करते हैं कि यह अध्याय भक्त की नित्ययुक्तता और उसकी अद्वैत स्थिति का निरूपण करता है ( – पृष्ठ 48-49)।

लेखक के अनुसार, भक्ति तत्व का नाथ संप्रदाय में प्रवेश गहिनीनाथ के माध्यम से हुआ और संत ज्ञानेश्वर ने इसे लोकसंग्रह की भावना से एक युग-सापेक्ष और अधिक सुलभ रूप प्रदान किया ( – पृष्ठ 50-51)। “कैवल्य” की अवधारणा को भी इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है, जो केवल मोक्ष से परे, जीव-ब्रह्म की एकरूपता और सहज आनंद की परम अवस्था का द्योतक है ( – पृष्ठ 51-53)।

संत ज्ञानेश्वर द्वारा भक्ति को कर्म, ज्ञान और ध्यान के समकक्ष “चौथा योग” मानने की अवधारणा उस समय के प्रचलित ज्ञान-केंद्रित मोक्ष-मार्गों के लिए एक क्रांतिकारी चुनौती थी ( – पृष्ठ 45-55)। परंपरागत रूप से ज्ञानयोग को ही मोक्ष का श्रेष्ठ और लगभग एकमात्र साधन माना जाता था। ज्ञानेश्वर ने, नाथ परंपरा में भक्ति का समावेश करके, यह प्रतिपादित किया कि भक्ति भी “राजयोग” (अखंड अद्वैत प्रतीति) तक पहुँचा सकती है। यह न केवल नाथपंथ का लोकतंत्रीकरण था, बल्कि इसने भक्ति को एक उच्च दार्शनिक स्थान भी प्रदान किया, जिससे यह केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति न रहकर ज्ञान और योग के समकक्ष एक समर्थ साधना मार्ग बन गया।

“राजयोग” शब्द का प्रयोग ज्ञानेश्वरी की सांप्रदायिक प्रतियों में नौवें अध्याय के शीर्षक के रूप में मिलना, यह दर्शाता है कि ज्ञानेश्वर द्वारा प्रतिपादित भक्ति-समन्वित अद्वैत को परंपरा ने “राजयोग” के रूप में ही समझा और आत्मसात किया था ( – पृष्ठ 49)। लेखक बताते हैं कि गीता के नौवें अध्याय का मूल नाम “राजविद्या राजगुह्ययोग” है, लेकिन ज्ञानेश्वरी की कई सांप्रदायिक प्रतियों में इसे “राजयोगो नाम नवमोऽध्याय” कहा गया है। यह प्रतकर्ताओं की कोई त्रुटि नहीं, बल्कि इस बात का स्पष्ट संकेत है कि ज्ञानेश्वर को अभिप्रेत अद्वैत प्रतीति और राजयोग का समीकरण सांप्रदायिकों में भलीभाँति प्रचलित और स्वीकृत था। यह ज्ञानेश्वर के दार्शनिक योगदान की व्यापक स्वीकृति और उसके गहरे तथा स्थायी प्रभाव को दर्शाता है।

अध्याय 5: मराठी संतांची उत्तर भारतीय परंपरा : निर्गुण संप्रदाय (पृष्ठ 65-74)

इस अध्याय में लेखक ने उत्तर भारत में विकसित निर्गुण संप्रदाय को वस्तुतः मराठी संतों द्वारा प्रवर्तित परंपरा के विस्तार के रूप में प्रस्तुत किया है। उनका तर्क है कि संत ज्ञानेश्वर ने नाथ संप्रदाय की मूल तत्वप्रणाली को अक्षुण्ण रखते हुए उसमें भक्तियोग का समावेश किया, जिससे नाथ संप्रदाय को भक्ति का एक सुदृढ़ आधार प्राप्त हुआ। यही नवीन स्वरूप, जिसे महाराष्ट्र में भागवत संप्रदाय या वारकरी पंथ के नाम से जाना गया, उत्तर भारत में संत कबीर और गुरु नानक जैसे महान संतों द्वारा अपनाया और आगे बढ़ाया गया ( – पृष्ठ 65-66)।

लेखक इस बात पर विशेष बल देते हैं कि कबीर, नानक, दादू दयाल आदि निर्गुणवादी संत, यद्यपि दार्शनिक रूप से निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे, तथापि वे मूलतः भक्त थे और उनके साहित्य में भक्ति-निष्ठा का प्रबल स्वर विद्यमान है। यह भक्ति-तत्व उन्हें ज्ञानेश्वर-नामदेव द्वारा प्रवर्तित नाथपंथ के नव-संस्कारित स्वरूप से ही प्राप्त हुआ था ( – पृष्ठ 66-67)। कबीर के साहित्य में प्रयुक्त “राम” की अवधारणा भी नाथ संप्रदाय और वारकरी संप्रदाय से ही गृहीत है, जो दशरथ-पुत्र राम से भिन्न, निर्गुण परब्रह्म का वाचक है ( – पृष्ठ 67-68)। इस प्रकार, लेखक यह स्थापित करते हैं कि उत्तर भारत का तथाकथित “संत मत” वस्तुतः महाराष्ट्र के भागवत धर्म का ही हिंदी भाषा में एक नवीन आविष्कार था ( – पृष्ठ 67)।

गुरु नानक देव के साहित्य में भी निर्गुण परब्रह्म, योग-साधना और भक्ति का अद्भुत समन्वय पाया जाता है। वे भी नाथ संप्रदाय में प्रचलित शून्य की अवधारणा को आत्मसात करते हैं ( – पृष्ठ 71-72)। इसी प्रकार, दादू दयाल द्वारा संत नामदेव को गुरु-स्थान देना और उनके प्रमाण-ग्रंथ “पंचबानी” का प्रारंभ नामदेव के पदों से होना, इस परंपरा की निरंतरता और नामदेव के व्यापक प्रभाव को प्रमाणित करता है ( – पृष्ठ 73)।

“निर्गुण रामभक्ति संप्रदाय” का वर्गीकरण स्वयं में एक प्रकार का विरोधाभास लिए हुए है, क्योंकि “राम” नाम परंपरागत रूप से सगुण भक्ति से जुड़ा है, जबकि यह संप्रदाय निर्गुणवादी है। यह वर्गीकरण संभवतः तुलसीदास आदि की सगुण रामभक्ति से कबीर आदि निर्गुण संतों को स्पष्ट रूप से अलग दिखाने के उद्देश्य से हिंदी साहित्य में रूढ़ हो गया होगा ( – पृष्ठ 67)। कबीर का “राम” दशरथ पुत्र राम नहीं, बल्कि एक विश्वव्यापी, निर्गुण तत्व है। “निर्गुण रामभक्ति” शब्द का प्रयोग यह इंगित करता है कि भक्ति के लिए एक आलंबन (भले ही वह निर्गुण और निराकार हो) की आवश्यकता अनुभूत की गई, और “राम” नाम की व्यापक लोकप्रियता का उपयोग उस निर्गुण तत्व को व्यक्त करने के लिए किया गया। यह भक्ति और अद्वैत के समन्वय का एक और महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसकी जड़ें महाराष्ट्र की संत-परंपरा में गहरी थीं।

कबीर आदि निर्गुण संतों द्वारा भक्ति का पुरस्कार किया जाना, जबकि वे मूलतः ज्ञानमार्गी या योगमार्गी परंपरा (सिद्ध-नाथ) से जुड़े थे, ज्ञानेश्वर-नामदेव परंपरा के प्रभाव का सबसे बड़ा और अकाट्य प्रमाण है, क्योंकि ज्ञानदेव-पूर्व नाथ साहित्य में भक्ति तत्व का प्रायः अभाव था ( – पृष्ठ 68)। लेखक इस बात पर बल देते हैं कि अद्वैत और भक्ति का साहचर्य सामान्यतः संभव नहीं माना जाता। हिंदी के भक्ति साहित्य में विभिन्न द्वैतवादी और विशिष्टाद्वैतवादी संप्रदाय उभरे। परंतु कबीर और नानक के साहित्य में “मीच देव मीच भक्त” (मैं ही देव और मैं ही भक्त) जैसी अद्वैत अनुभूति मिलती है, जो वारकरी संप्रदाय के दर्शन के पूर्णतः अनुरूप है। यह भक्ति तत्व, जो मूल नाथपंथ में प्रमुखता से उपस्थित नहीं था, संत ज्ञानेश्वर द्वारा सफलतापूर्वक जोड़ा गया और संत नामदेव के माध्यम से उत्तर भारत तक पहुँचा, जहाँ उसने संत मत के रूप में एक नवीन और प्रभावशाली स्वरूप ग्रहण किया।

अध्याय 6 एवं 7: सगुण भक्तिपर साहित्य: नरसी मेहता (पृष्ठ 75-84) एवं मीराबाई (पृष्ठ 85-93)

इन अध्यायों में लेखक ने गुजरात के प्रसिद्ध भक्त कवि नरसी मेहता और राजस्थान की संत कवयित्री मीराबाई के सगुण भक्तिपरक साहित्य का विश्लेषण करते हुए उन्हें भी वारकरी संप्रदाय की व्यापक वैचारिक धारा से जोड़ने का प्रयास किया है। उनका मत है कि नरसी मेहता और मीराबाई के साहित्य में परिलक्षित होने वाली अद्वैत-निष्ठा उन्हें अन्य समकालीन सगुण भक्त कवियों से पृथक करती है और महाराष्ट्र की संत-परंपरा के निकट लाती है ( – पृष्ठ 75, 85)।

नरसी मेहता (लगभग 1415-1481 ई.) के गुजराती काव्य में भगवान विट्ठल के अनेक उल्लेख मिलते हैं, वे संत नामदेव का गौरवगान करते हैं, और उनके साहित्य में ज्ञानेश्वर तथा नामदेव के विचारों और अभिव्यक्तियों से अद्भुत साम्य पाया जाता है ( – पृष्ठ 76-77)। इसी प्रकार, मीराबाई (लगभग 1498-1503 ई.) के काव्य में भी विट्ठल भक्ति के पद मिलते हैं, वे मराठी संतों (जैसे नामदेव, मुक्ताबाई) का उल्लेख करती हैं, और उनकी विरह-व्यंजना ज्ञानेश्वर की विरहानियों से समानता रखती है ( – पृष्ठ 86-87)। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों भक्त कवियों के साहित्य में “निर्गुण राम” की अवधारणा का भी प्रयोग मिलता है, जो उन्हें नाथ-सिद्ध और वारकरी परंपरा से जोड़ता है ( – पृष्ठ 81-82, 90)। इस प्रकार, लेखक इन प्रसिद्ध सगुण भक्त कवियों को भी मराठी संत-परंपरा की उस व्यापक अंतर्धारा से सम्बद्ध करते हैं, जो उनके तर्कों को और अधिक विस्तार और गहराई प्रदान करती है।

नरसी मेहता और मीराबाई, जो परंपरागत रूप से सगुण कृष्ण भक्त माने जाते हैं, उनके साहित्य में अद्वैतवादी तत्वों और “निर्गुण राम” की अवधारणा का पाया जाना यह दर्शाता है कि वारकरी संत परंपरा का प्रभाव केवल निर्गुण संतों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह सगुण भक्ति की विभिन्न धाराओं में भी सफलतापूर्वक प्रवेश कर गया था ( – पृष्ठ 81-82, 90)। लेखक ने नरसी मेहता के पदों (“सगुण होय जहांलगी निर्गुण तहांलगी तेम कहे सद्‌गुरु बात साची”) और मीराबाई के पदों (“रामनाम मेरे मन वसियो”) का विश्लेषण करके यह दिखाया है कि वे भी जीव-ब्रह्म के अद्वैत और निर्गुण परब्रह्म की उपासना को अत्यधिक महत्व देते थे। यह विशेषता उन्हें उनके समकालीन अन्य सगुण कृष्ण भक्त कवियों (जैसे कि सूरदास, जो वल्लभाचार्य के अनुयायी थे और शुद्धाद्वैत का पालन करते थे) से स्पष्ट रूप से अलग करती है और महाराष्ट्र की अद्वैत-समन्वित भक्ति परंपरा के साथ मजबूती से जोड़ती है।

नरसी मेहता के काव्य में प्रयुक्त अनेक मराठी शब्द और विशिष्ट व्याकरणिक रूप ( – पृष्ठ 78, परिशिष्ट) केवल सतही भाषाई संपर्क का परिणाम नहीं माने जा सकते, बल्कि वे गहरे सांस्कृतिक और वैचारिक आदान-प्रदान के पुष्ट सूचक हैं। लेखक ने नरसी मेहता के पदों में “नरसैयाचा स्वामी” जैसे विशिष्ट मराठी प्रयोगों का उल्लेख किया है। यह तथ्य, उनकी विट्ठल भक्ति और संत नामदेव के प्रति उनके आदर भाव के साथ मिलकर, यह इंगित करता है कि गुजरात और महाराष्ट्र के बीच केवल भौगोलिक निकटता ही नहीं थी, बल्कि दोनों क्षेत्रों की संत परंपराओं का एक जीवंत और सक्रिय आदान-प्रदान भी विद्यमान था। यह “साहित्यसेतू” की मूल अवधारणा को और अधिक सशक्त और विश्वसनीय बनाता है।

अध्याय 8: अंधारातून प्रकाशाकडे (पृष्ठ 94-103)

यह अध्याय चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के मध्य महाराष्ट्र में मुस्लिम आक्रमणों के कारण उत्पन्न हुई गंभीर सांस्कृतिक अस्थिरता और उसके पश्चात संत एकनाथ द्वारा किए गए भागवत धर्म के पुनरुज्जीवन के प्रयासों पर प्रकाश डालता है ( – पृष्ठ 94)। संत एकनाथ ने न केवल ज्ञानेश्वरी का पाठ-शुद्ध संस्करण तैयार किया, अपितु “एकनाथी भागवत” की रचना करके वारकरी संप्रदाय को एक नवीन दिशा और ऊर्जा प्रदान की ( – पृष्ठ 95)। उनके द्वारा रचित “भारुड” तत्कालीन समाज में लोकप्रबोधन का एक अत्यंत प्रभावशाली माध्यम बने ( – पृष्ठ 95)।

इस अध्याय की एक महत्वपूर्ण विशेषता संत एकनाथ के हिंदी एवं दखनी काव्य का विश्लेषण है। लेखक बताते हैं कि एकनाथ ने अपने स्वधर्मियों को संबोधित करने के लिए संस्कृत-प्राकृत प्रचुर हिंदी का प्रयोग किया, जबकि परधर्मियों के साथ संवाद स्थापित करने के लिए उन्होंने अरबी-फारसी प्रचुर दखनी भाषा को अपनाया ( – पृष्ठ 96)। यह भाषिक प्रयोग एकनाथ की गहरी समाज-सुधारक और समन्वयवादी दृष्टि को परिलक्षित करता है। गोरखनाथ से लेकर एकनाथ और समर्थ रामदास तक की अटूट परंपरा में सर्वधर्म समभाव का उपदेश निरंतर प्रवाहित होता रहा ( – पृष्ठ 97)।

संत एकनाथ द्वारा विभिन्न भाषाओं (मराठी, संस्कृत-प्राकृत बहुल हिंदी, तथा अरबी-फारसी प्रचुर दखनी) का प्रयोग केवल विभिन्न दर्शक समूहों तक अपनी बात पहुँचाने की एक सतही रणनीति मात्र नहीं थी, बल्कि यह तत्कालीन बहु-सांस्कृतिक और बहु-धार्मिक समाज के साथ एक सक्रिय और सार्थक संवाद स्थापित करने का एक गहरा एवं सुविचारित प्रयास था ( – पृष्ठ 96-97)। लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि संत नामदेव के समय महाराष्ट्र में परधर्मी समाज उतना प्रभावी और संख्या में अधिक नहीं था, जितना संत एकनाथ के समय हो चुका था। एकनाथ ने इस परिवर्तित सामाजिक परिदृश्य को गहराई से समझा और यह महसूस किया कि “सामाजिक स्वास्थाच्या दृष्टीने त्या समाजाचे प्रबोधन तितकेच आवश्यक होते” (सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उस समाज का प्रबोधन भी उतना ही आवश्यक था)। उनका विभिन्न भाषाओं का यह प्रयोग उनके व्यापक सामाजिक सरोकार और “धर्मातीत” दृष्टिकोण का अकाट्य प्रमाण है, जो मूलतः सिद्धों की उदार और समन्वयवादी परंपरा से ही जुड़ा हुआ है।

उत्तर भारत में मुगल शासन के तहत विकसित हो रही सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और दक्षिण भारत में सक्रिय इस्लामी सत्ताओं के धार्मिक कट्टरता के बीच का स्पष्ट अंतर महाराष्ट्र में “स्वत्वरक्षणाच्या भावनेस अधिक निर्णायक असे स्वरूप” (स्वत्व-रक्षा की भावना को अधिक निर्णायक स्वरूप) देने में एक महत्वपूर्ण सहायक कारक सिद्ध हुआ। इसका प्रतिबिंब समर्थ रामदास के साहित्य और छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित स्वराज्य की भावना में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ( – पृष्ठ 98-99)। लेखक यहाँ अकबर द्वारा जजिया कर समाप्त करने और भारतीय कला एवं विद्या को प्रोत्साहन देने की नीति की तुलना दक्षिण की इस्लामी सत्ताओं के असहिष्णु और दमनकारी रवैये से करते हैं, विशेषकर विजयनगर साम्राज्य के पतन के पश्चात। इस प्रतिकूल और चुनौतीपूर्ण परिस्थिति ने महाराष्ट्र में स्वधर्म और स्वसंस्कृति की रक्षा को एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ज्वलंत मुद्दा बना दिया। संत एकनाथ के “रामराज्य” के स्वप्न और कालांतर में स्वराज्य की स्थापना को इसी व्यापक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यह विश्लेषण राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रतिक्रियाओं के बीच एक महत्वपूर्ण और सार्थक संबंध स्थापित करता है।

अध्याय 9: सेतू आणि संगम (पृष्ठ 104-111)

यह अध्याय पुस्तक में प्रस्तुत प्रमुख तर्कों का सार प्रस्तुत करता है और मराठी संत-परंपरा को एक व्यापक राष्ट्रीय एवं दार्शनिक संदर्भ में स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास करता है। लेखक का मानना है कि मराठी संतों द्वारा हिंदी में काव्य-रचना के मूल में महाराष्ट्र का “प्रकृतिधर्म” अर्थात एक व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण निहित था ( – पृष्ठ 105-106)। वे सातवाहन, यादव और छत्रपति शिवाजी महाराज के ऐतिहासिक उदाहरणों द्वारा महाराष्ट्र के इस उदार और राष्ट्रीय दृष्टिकोण का निरूपण करते हैं ( – पृष्ठ 105-106)।

अध्याय में सिद्धों की साधना पद्धति और उनके समाज-सुधार के कार्यों का भी उल्लेख किया गया है ( – पृष्ठ 107-108)। “कैवल्य” की गहन अवधारणा और संत ज्ञानेश्वर द्वारा भक्ति एवं ध्यानयोग के अद्भुत समन्वय पर भी प्रकाश डाला गया है ( – पृष्ठ 108-109)। लेखक यह प्रतिपादित करते हैं कि मराठी संतों ने सिद्धों की वैचारिक और भाषाई परंपरा को न केवल अक्षुण्ण रखा, अपितु उसे आगे भी बढ़ाया ( – पृष्ठ 110)।

“विश्वचि माझे घर” (संपूर्ण विश्व मेरा घर है) की उदात्त भावना, जो मराठी संतों के दर्शन का मूल है, उनकी हिंदी अथवा सिद्धवाणी में रचना करने की प्रेरणा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारक थी ( – पृष्ठ 110)। यह केवल गुरु-परंपरा का निर्वाह मात्र नहीं था, बल्कि अपने गहन विचारों और अनुभूतियों को महाराष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं से परे, अखिल भारतीय स्तर पर ले जाने की एक सचेत और सुविचारित आकांक्षा थी। लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि भारत की अन्य भाषाओं के संत साहित्य में अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में रचना करने की परंपरा सामान्यतः नहीं मिलती है। मराठी संतों का यह वैशिष्ट्य उनके “विश्वात्मक देवाच्या मुळ धारणेचा तो परिणाम असावा” (विश्वात्मक देव की मूल धारणा का ही वह परिणाम होना चाहिए)। यह उनके कार्य को केवल क्षेत्रीय न रखकर एक व्यापक अखिल भारतीय संदर्भ प्रदान करता है और उनके वैश्विक दृष्टिकोण को उजागर करता है।

संत ज्ञानेश्वर ने वैदिक परंपरा के ज्ञान और सिद्ध संप्रदाय के बीच लुप्त हो चुकी कड़ियों को पुनः जोड़कर एक “सेतुबंध” का महत्वपूर्ण कार्य किया, और साथ ही वैदिक तत्वज्ञान तथा भारतीय संस्कृति के प्रगतिशील एवं जीवंत तत्वों का अपनी समन्वयवादी विचारधारा में एक अद्भुत “संगम” भी संपन्न किया ( – पृष्ठ 110)। यह विश्लेषण ज्ञानेश्वर के योगदान को दोहरे रूप में देखता है: एक ओर वे अतीत (सिद्ध परंपरा) और वर्तमान (वैदिक परंपरा) को सफलतापूर्वक जोड़ते हैं, और दूसरी ओर वे विभिन्न दार्शनिक धाराओं का गहन संश्लेषण करके एक नवीन, सशक्त और जीवंत परंपरा का निर्माण करते हैं। यह “सेतु” और “संगम” की उपमा पुस्तक के शीर्षक “साहित्यसेतू” को सार्थकता प्रदान करती है और मराठी संत साहित्य को भारतीय तीर्थस्थान की गरिमामयी प्रतिष्ठा से अलंकृत करती है।

खंड 3: “विभाग दुसरा: संहिताका मूल्यांकन (पृष्ठ 141-215)

“विभाग दुसरा: संहिता” का मुख्य उद्देश्य पुस्तक के प्रथम विभाग में प्रस्तुत तर्कों और स्थापनाओं के लिए ठोस साहित्यिक साक्ष्य प्रदान करना है ( – पृष्ठ 18)। इस खंड में विभिन्न कालों और परंपराओं के सिद्धों एवं संतों की मूल रचनाओं का एक मूल्यवान संग्रह प्रस्तुत किया गया है। इसमें सिद्ध सरहपा, गोरखनाथ आदि की “सिद्धांची वाणी” ( – पृष्ठ 151-170), संत नामदेव की “नामवदेवजीकी मुखबानी” ( – पृष्ठ 171-188), कबीर, नानक, दादू दयाल आदि का “संक्रमणकालीन साहित्य” ( – पृष्ठ 189-199), एकनाथ, दासोपंत, तुकाराम, रामदास आदि का “वैभवकालीन काव्य” ( – पृष्ठ 200-215), और अंततः “अखेरचे पर्व” के अंतर्गत केशवस्वामी, शिवरामस्वामी, अमृतराय, माणिकप्रभु तथा इब्राहिम आदिलशाह और शाह तुराब की रचनाएँ ( – पृष्ठ 216) संकलित हैं।

यह संहिता अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम, यह विभिन्न सिद्धों और संतों के बीच वैचारिक निरंतरता का स्पष्ट प्रदर्शन करती है। सिद्धों के कर्मकांड-विरोध, आंतरिक शुद्धि पर बल, निर्गुण राम की अवधारणा आदि तत्व नामदेव, कबीर, नानक और बाद के मराठी संतों की रचनाओं में भी समान रूप से पाए जाते हैं ( – पृष्ठ 153-154, 160-161, 177-179)। दूसरे, यह भाषागत विकास का एक सजीव चित्रण प्रस्तुत करती है; अपभ्रंश से हिंदी-सदृश और फिर हिंदी एवं दखनी तक का भाषाई सफर इन रचनाओं के माध्यम से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है ( – पृष्ठ 151, 171, 200)। तीसरे, यह भक्ति और अद्वैत के समन्वय का साहित्यिक उदाहरण प्रस्तुत करती है, विशेषकर नामदेव और कबीर आदि की रचनाओं में ()। अंततः, यह सर्वधर्म समभाव की भावना के साहित्यिक प्रमाण भी उपलब्ध कराती है ( – पृष्ठ 163-165, 192, 206-207)।

“संहिता” में इब्राहिम आदिलशाह और शाह तुराब जैसे मुस्लिम कवियों एवं साधुओं की रचनाओं को सम्मिलित करना ( – पृष्ठ 216, 228-234) एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है। यह दर्शाता है कि मराठी संतों द्वारा प्रचारित सर्वधर्म समभाव और सांस्कृतिक समन्वय का प्रभाव तत्कालीन मुस्लिम समाज और उसके साहित्य पर भी पड़ा था, जो “साहित्यसेतू” की फलश्रुति का एक उल्लेखनीय पहलू है। लेखक ने “अखेरचे पर्व” के ‘ब’ विभाग को उचित ही “मराठी सांताांच्या सहदी सात्रहत्याची फलश्रुति” (मराठी संतों के हिंदी साहित्य की फलश्रुति) कहा है ( – पृष्ठ 216)। इब्राहिम आदिलशाह द्वारा अपनी रचनाओं में सरस्वती-गणेश वंदना और भारतीय संगीत रागों का प्रयोग ( – पृष्ठ 229-230) तथा शाह तुराब द्वारा समर्थ रामदास से प्रेरणा लेना और हिंदू-मुस्लिम धर्मों में तात्विक अभेद देखना ( – पृष्ठ 231-234) यह सिद्ध करता है कि संतों का मानवतावादी संदेश केवल हिंदू समाज तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने एक व्यापक और सकारात्मक सांस्कृतिक संवाद को जन्म दिया, जिसकी अनुगूंज अन्य धर्मावलंबियों की रचनाओं में भी सुनाई देती है।

“संहिता” के प्रत्येक अध्याय के प्रारंभ में दी गई “सूत्रात्मक प्रस्तावना” ( – पृष्ठ 18) और कठिन पदों के सुबोध मराठी अनुवाद पाठकों को इन प्राचीन और मध्यकालीन रचनाओं को उनके सटीक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ में समझने में अत्यधिक सहायता करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, यह खंड केवल विभिन्न रचनाओं का एक निष्क्रिय संकलन मात्र न रहकर एक सक्रिय विश्लेषणात्मक उपकरण बन जाता है। ये प्रस्तावनाएँ और अनुवाद पाठकों को उन गहन वैचारिक और भाषाई सूक्ष्मताओं तक पहुँचने में मदद करते हैं जिन्हें लेखक अपने तर्कों के समर्थन में उजागर करना चाहते हैं। यह पाठक को सक्रिय रूप से प्रस्तुत साक्ष्य का मूल्यांकन करने और लेखक द्वारा निकाले गए निष्कर्षों तक पहुँचने की बौद्धिक प्रक्रिया में भागीदार बनाता है।

सिद्धों से मराठी एवं उत्तर भारतीय संतों तक वैचारिक एवं भाषाई विकासक्रम

कालखंड (अनुमानित)प्रमुख संत/सिद्धभाषा का स्वरूप (उदाहरण)प्रमुख वैचारिक तत्वपिछली परंपरा से निरंतरताअगली परंपरा पर प्रभाव
8वीं-9वीं सदीसरहपाअपभ्रंश (उदा. “देहासामान तीथस नािी” – पृष्ठ 153)सहज शून्य, कर्मकांड विरोध, आंतरिक शुद्धिबौद्ध सहजयाननाथ संप्रदाय के लिए आधारभूमि
11वीं-12वीं सदीगोरखनाथसधुक्कड़ी/अपभ्रंश मिश्रित (उदा. “पाषािाचा देि” – पृष्ठ 160)निर्गुण राम, योग-साधना, कर्मकांड विरोध, सर्वधर्म समभाव (“सिसधमी समानत्ि” – पृष्ठ 163)सिद्ध परंपरा, सरहपा के विचारवारकरी संप्रदाय, नामदेव, कबीर पर गहरा प्रभाव
13वीं-14वीं सदीनामदेवहिंदी-सदृश/मराठी मिश्रित (उदा. “राम सबन माणि” – पृष्ठ 174)निर्गुण राम, भक्ति, जाति-पाति का खंडन, सर्वधर्म समभावगोरखनाथ, नाथ संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय (ज्ञानेश्वर)कबीर, नानक, दादू दयाल और परवर्ती मराठी संतों पर व्यापक प्रभाव; हिंदी/दखनी भाषा के विकास में योगदान
15वीं सदीकबीरसधुक्कड़ी/प्रारंभिक हिंदी (उदा. “हिदुआई आणि तुरकाई” – पृष्ठ 192)निर्गुण राम, भक्ति, सामाजिक कुरीतियों का खंडन, सर्वधर्म समभाव, रहस्यवादनामदेव, नाथ-सिद्ध परंपरानिर्गुण संत मत का प्रसार, परवर्ती संत कवियों पर प्रभाव
15वीं-16वीं सदीगुरु नानकपंजाबी/हिंदी मिश्रित (उदा. “पृथ्िी : धमसमंणदर” – पृष्ठ 196)एक ओंकार, निर्गुण ब्रह्म, भक्ति, सामाजिक समानता, कर्मकांड विरोधनामदेव, कबीर, नाथ-सिद्ध परंपरासिख पंथ की स्थापना, उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन पर प्रभाव
16वीं सदीएकनाथ, दासोपंतमराठी, हिंदी, दखनी (उदा. एकनाथ: “अन्दर राम, भीतर राम” – पृष्ठ 202)भागवत धर्म का पुनरुज्जीवन, भक्ति, निर्गुण-सगुण समन्वय, लोकप्रबोधन, सर्वधर्म समभावज्ञानेश्वर, नामदेव, सिद्ध-नाथ परंपरापरवर्ती मराठी संत साहित्य, सामाजिक-धार्मिक समन्वय
17वीं सदीतुकाराम, समर्थ रामदासमराठी, हिंदी (उदा. रामदास: “सब घि में खुदाई” – पृष्ठ 213)भक्ति, सामाजिक जागृति, कर्मठता का विरोध, राष्ट्र-चेतना (रामदास)एकनाथ, नामदेव, ज्ञानेश्वर, सिद्ध-नाथ परंपरामहाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया, सामाजिक-राजनीतिक चेतना पर प्रभाव

खंड 4: “साहित्यसेतूका समालोचनात्मक मूल्यांकन

शोध की मौलिकता एवं नवीनता

“साहित्यसेतू” अपने शोध की मौलिकता और नवीनता के कारण मध्यकालीन भारतीय साहित्य के अध्ययन में एक विशिष्ट स्थान रखती है। हिंदी साहित्य के उद्भव पर इसका दृष्टिकोण सर्वथा नवीन है, जो परंपरागत धारणाओं को चुनौती देता है ()। संत नामदेव को हिंदी के आदि कवि के रूप में और महाराष्ट्र को हिंदी भाषा (खड़ीबोली पर आधारित नागरी हिंदी) के जन्मस्थान के रूप में प्रतिपादित करना एक साहसिक और विचारोत्तेजक स्थापना है ( – पृष्ठ 14)। पुस्तक में संत नामदेव की केंद्रीय भूमिका का प्रतिपादन () और सिद्ध-नाथ-वारकरी-उत्तर भारतीय निर्गुण संत परंपरा की निरंतरता का सशक्त निरूपण () इसके शोध की मौलिकता को और पुष्ट करता है। इसके अतिरिक्त, नरसी मेहता और मीराबाई जैसे सगुण भक्त कवियों को भी इस व्यापक वैचारिक धारा से जोड़ने का प्रयास () लेखक की सूक्ष्म और समन्वयवादी दृष्टि का परिचायक है।

तर्कों एवं साक्ष्यों की प्रामाणिकता

लेखक ने अपने तर्कों की पुष्टि के लिए ऐतिहासिक, साहित्यिक और भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों का कुशलतापूर्वक समन्वय किया है ()। पुस्तक का द्वितीय खंड, “संहिता”, इन तर्कों के लिए प्रचुर और प्रामाणिक साहित्यिक प्रमाण प्रस्तुत करता है ()। तथापि, कुछ बिंदुओं पर और अधिक स्पष्टीकरण या गहन विश्लेषण की अपेक्षा की जा सकती है। उदाहरण के लिए, “हिंदी सदृश” भाषा की भाषाई विशेषताओं और आधुनिक हिंदी से उसके भिन्न स्वरूप पर और अधिक विस्तार से चर्चा की जा सकती थी ()। यद्यपि लेखक ने दखनी और खड़ी बोली के विकास में इसके योगदान का उल्लेख किया है, तथापि भाषाई विकास के विभिन्न चरणों को और अधिक स्पष्टता से रेखांकित किया जा सकता था। इसी प्रकार, हिंदी साहित्य के संदर्भ में सगुण-निर्गुण वाद की जटिलताओं और उसके वर्गीकरण की आवश्यकता पर और अधिक गहन विमर्श अपेक्षित था ()। सूफी प्रभाव के खंडन को और अधिक अकादमिक रूप से पुष्ट करने के लिए सूफी परंपरा और मराठी/उत्तर भारतीय संत परंपरा के बीच के तात्विक अंतरों का विस्तृत तुलनात्मक विश्लेषण सहायक हो सकता था ()।

मध्यकालीन भारतीय साहित्य एवं सांस्कृतिक आदानप्रदान की समझ में योगदान

इन संभावित आलोचना के बिंदुओं के बावजूद, “साहित्यसेतू” मध्यकालीन भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की हमारी समझ में एक अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान करती है। यह पुस्तक महाराष्ट्र को उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक सेतु के रूप में स्थापित करती है ()। यह निर्गुण भक्ति परंपरा की जड़ों का पुनर्मूल्यांकन करती है और दर्शाती है कि इसकी जड़ें महाराष्ट्र में कितनी गहरी थीं ()। विभिन्न भाषाओं (जैसे अपभ्रंश, हिंदी, दखनी, मराठी) के जटिल अंतर्संबंधों और उनके ऐतिहासिक विकास पर यह पुस्तक नवीन प्रकाश डालती है ()। इसके अतिरिक्त, यह मध्यकालीन भारतीय परंपरा में निहित धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय की उदात्त भावना को भी प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करती है ()।

यह पुस्तक न केवल साहित्यिक इतिहास प्रस्तुत करती है, बल्कि “राष्ट्रनिष्ठा हे महऱ्हाटी संस्कृतीचे प्रधान अंग” ( – पृष्ठ 19) (राष्ट्रनिष्ठा मराठी संस्कृति का प्रधान अंग है) जैसे तर्कों के माध्यम से महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान को एक व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने का भी स्तुत्य प्रयास करती है। लेखक का यह कहना कि उनका यह “नम्र प्रयत्न” राष्ट्रनिष्ठा को उजागर करने के लिए है, यह दर्शाता है कि पुस्तक का उद्देश्य केवल अकादमिक शोध तक सीमित नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को एक विशिष्ट राष्ट्रीय योगदान के रूप में प्रस्तुत करना भी है। यह दृष्टिकोण “साहित्यसेतू” को एक गहरे सांस्कृतिक-राजनीतिक वक्तव्य का भी आयाम प्रदान करता है।

इसके अतिरिक्त, लेखक द्वारा यह कहना कि “कर्मठतेविरुद्ध बंड करणारे संत-महात्मे… या दरीवर सेतू बांधण्याचे कार्य करीत असतात” ( – पृष्ठ 19) (कर्मठता के विरुद्ध विद्रोह करने वाले संत-महात्मा… इस खाई पर सेतु बांधने का कार्य करते हैं), संतों की भूमिका को केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में नहीं, बल्कि सक्रिय सामाजिक सुधारकों और सांस्कृतिक क्रांतिकारियों के रूप में भी देखता है, जो धर्म और समाज के बीच की बढ़ती खाई को पाटते हैं। यह पुस्तक के शीर्षक “साहित्यसेतू” को एक और गहरा अर्थ प्रदान करता है। यह सेतु केवल विभिन्न साहित्यिक या भौगोलिक परंपराओं के बीच ही नहीं, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों, विभिन्न विश्वास प्रणालियों और यहाँ तक कि धर्म के बाह्य कर्मकांडीय और आंतरिक आध्यात्मिक स्वरूपों के बीच भी है। यह संतों के कार्य को एक गतिशील, जीवंत और सामाजिक रूप से प्रासंगिक गतिविधि के रूप में प्रस्तुत करता है, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है।

खंड 5: निष्कर्ष एवं संस्तुति

पुस्तक के महत्व का सारांश

“साहित्यसेतू” मध्यकालीन भारतीय साहित्य, विशेषकर मराठी संतों के हिंदी काव्य और उनके अखिल भारतीय प्रभाव पर एक मौलिक, गहन एवं व्यापक शोध-ग्रंथ है। यह हिंदी भाषा के उद्भव, निर्गुण भक्ति परंपरा के विकास और विभिन्न क्षेत्रीय संत-परंपराओं के जटिल अंतर्संबंधों पर एक नवीन, विचारोत्तेजक और चुनौतीपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। डॉ. कुलकर्णी ने अपने विपुल पांडित्य और अथक शोध द्वारा यह सिद्ध किया है कि महाराष्ट्र की संत-परंपरा ने न केवल क्षेत्रीय स्तर पर, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय संस्कृति और साहित्य को समृद्ध करने में एक “सेतु” की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

पाठकों के लिए संस्तुति

भारतीय साहित्य, भाषा विज्ञान, सांस्कृतिक इतिहास और तुलनात्मक धर्म के शोधार्थियों, विद्यार्थियों और गंभीर पाठकों के लिए यह पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं पठनीय है। यह उन सभी के लिए अनिवार्य रूप से उपयोगी है जो भारत की समृद्ध, विविधतापूर्ण और बहुआयामी संत-परंपरा को उसकी समग्रता और गहराई में समझना चाहते हैं। इसकी भाषा शैली अकादमिक होते हुए भी सुबोध है, और विषय का प्रतिपादन तार्किक एवं क्रमबद्ध है।

अंतिम टिप्पणी

डॉ. श्रीधर रंगनाथ कुलकर्णी का यह स्तुत्य कार्य न केवल उनके गहन पांडित्य और सूक्ष्म विश्लेषण क्षमता का अकाट्य प्रमाण है, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक एकता की जड़ों को उजागर करने वाला एक महत्वपूर्ण साहित्यिक “सेतु” भी है। यह कृति भविष्य के शोध के लिए नवीन दिशाएं खोलती है और हमें अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विरासत को एक नए और व्यापक दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करती है। “साहित्यसेतू” निसंदेह भारतीय वाङ्मय की एक अमूल्य निधि है।

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