
‘गिरमिटिया जीवन’ और मेरी कविताएँ
– डॉ. दीप्ति अग्रवाल
कविता
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद
कोई चाहे तो भी रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सच्चाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इंसान
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
जुलूसों की तरह निकले
नारों की तरह लगे
और चुनावों की तरह जीतें
वह आदमी की भाषा में
कहीं किसी तरह जिंदा रहे बस।“
– कुँवर नारायण1
मैंने भी कुँवर नारायण की ‘कविता’ की भांति कविता को आदमी की भाषा में जिंदा रखने के लिए ही एक छोटा सा प्रयास किया है और मेरी कविताओं का विषय है ‘गिरमिट जीवन’। गिरमिट एग्रीमेंट शब्द का अपभ्रंश है। ये श्रमिक अधिकतर पाँच वर्ष के एग्रीमेंट के तहत भारत से 1835 से 1920 की अवधि में मॉरीशस (1834), गयाना (1838), त्रिनिदाद (1845), दक्षिणअफ्रीका (1860), सूरीनाम (1873) और फ़ीजी (1879) आदि देशों में जाने-अनजाने, बहला- फुसला कर ले जाए गए थे।2 ये श्रमिक ‘गिरमिटिए’ कहलाए क्योंकि ये श्रमिक अमूमन पाँच वर्ष के अग्रीमेंट के तहत आए थे और अग्रीमेंट शब्द ही का अपभ्रंश ‘गिरमिट’ कहलाया और श्रमिक ‘गिरमिटिए’कहलाए।3 इन गिरमिटियों (श्रमिकों) के कष्टपूर्ण अनुभवों को संपूर्णता से कविता में ढालना बहुत दुष्कर कार्य है क्योंकि उनके कष्ट, पीड़ा, संवेदना को मैंने सिर्फ विभिन्न पुस्तकालयों में पढ़ा है, वहाँ के लोगों के साक्षात्कारों से सुना है विभिन्न वृत्तचित्रों और सोशल मीडिया की सहायता से जाना है लेकिन भोगा नहीं है। असली यथार्थ की अभिव्यक्ति तो भुक्तभोगी ही भली भांति कर सकता है लेकिन गहन अध्ययन से कुछ हद तक मैं भी उन श्रमिकों की अनुभूतियों से जुड़ पायी हूँ और उनका इतिहास पढ़ते हुए मेरी भी आँखें बहुत बार नम हुई है। मेरी अधिकतर कविताएँ सच्ची घटनाओं पर आधारित है और एक तरह से ‘गिरमिट इतिहास’ का दस्तावेजीकरण करती हैं। ये कविताएँ भारत के उन शूरवीरों को श्रद्धांजली है जिन्होंने अपने कठोर परिश्रम से दारूण कष्ट सहकर भी अपना अस्तित्व बनाए रखा और आने वाली पीढ़ियों को बेहतर भविष्य दिया। काल के जिस क्रम से अनुबंधित श्रमिक इन 6 देशों मॉरीशस, गयाना, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम और फ़ीजी में ले जाये गए थे। मैंने भी अपनी कविताओं का क्रम उन्हीं देशों के आधार पर रखा है।
मेरी पहली कविता ‘अप्रवासी घाट’ मॉरीशस के अप्रवासी घाट की तस्वीरों में से एक तस्वीर से प्रेरित है जिसमें एक पाषाण शिला पर श्रमिक के नंगे पैरों के निशान बने हुए है जो प्रतीकात्मक रूप में भारत से मॉरीशस आए गिरमिटियों के मॉरीशस में पड़े पहले कदम दर्शाते हैं।4 जैसे ही मैंने यह तस्वीर देखी पहला ख्याल दिमाग में ये आया क्या वो श्रमिक नंगे पैर थे? और इस कविता का सृजन हुआ। वर्तमान में मॉरीशस का अप्रवासी घाट पोर्ट लुईस में स्थित एक पर्यटक स्थल है जिसे ब्रिटिश उपनिवेश ने विभिन्न देशों से आने वाले अनुबंधित और ठेके पर आने वाले श्रमिकों के लिए बनवाया था।1849 से 1923 की अवधि के दौरान तकरीबन आधा मिलियन भारतीय अनुबंधित श्रमिकों ने सबसे पहले यहाँ कदम रखे और उसके बाद उन्हे ब्रिटिश उपनिवेश के विभिन्न बागानों में भेजा गया। आज यह अप्रवासी घाट मॉरीशस के इतिहास और संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।5
अप्रवासी घाट
पत्थर पर पड़े
गिरमिटियों के कदमों के निशान
देखते ही पहला ख्याल कौंधा
क्या वे नंगे पैर थे?
जो छप गए उनके पैर
कैसा मंजर रहा होगा ना!
क्या क्या घुमड़ रहा होगा मन में ?
अनजान धरती, अनजान देश
अनजान लोग, अनजान हवा
छोटी सी पोटली बगल में
दबा कर आ गए इतनी दूर
राम नाम का गुटखा और लोटा डंडा
क्या कर देंगे बेड़ा पार?
‘एटलस’ जहाज में चढ़ाया अराकाटी ने
भेजा इतनी दूर
क्या पाँच बरस के गिरमिट के बाद
वापसी भी होगी गाँव में?
कहाँ हैं किसी भी पत्थर के नीचे सोना?
हाँ खून जरूर बन गया पसीना
कर दिया जंगल में मंगल
गोरों ने बटोरें नोटों के बंडल
गिरमिटियों के खून पसीने ने उगाया सोना
वर्तमान पीढ़ी है शुक्रगुजार उनकी
पूजती है उन छपे पैरों को आज भी।
वो महज पत्थर पर छपे पैर नहीं
पहचान है आज बसे भारतवंशियों
के अस्तित्व की,
उनके कठोर श्रम की।
मेरे दूसरी कविता ’गर्भनाल’ गयाना की गुयात्रा बहादुर की पुस्तक ‘कूली वुमेन द ओडिसी ऑफ इंडेंचर’ से प्रेरित है।गयाना में जन्मी, न्यूयार्क में रहने वाली गुयात्रा कैसे भारत से अपने आपको जुड़ा हुआ महसूस करती है, ये इस पुस्तक में वर्णित है।6 यह उपन्यास अपनी पहचान तलाशने वाली गुयात्रा या उसकी परदादी की कहानी भर नहीं है बल्कि औपनिवेशिक काल में जितने भी लोगों ने इतिहास के कालखंड में प्रवासित होकर भारतीय डायस्पोरा का निर्माण किया और जो अपनी जड़ें तलाश रहे हैं, उन सबकी कहानी है। उनके पिता की दादी सुजारिया कैसे उत्तर भारत से गयाना पहुंची और कैसे गुयात्रा के पिता लाल बहादुर का जीवन गयाना में कटता है और एक दिन वे एक बेहतर जिंदगी की तलाश में अपने बच्चों को लेकर न्यूयॉर्क चले जाते है। लेकिन गुयात्रा का रंग रूप,हिन्दी फिल्मे, गाने, देवी देवताओं की तस्वीरें, भारत की संस्कृति, अपनी जड़ों की खोज उन्हें भारत खींच लाती है। वे भारत से अपने आपको जुड़ा हुआ महसूस करती है।7 एक साक्षात्कार में भी गुयात्रा बताती है कि जब वे 20 वर्ष की थी तब उनके पिता ने उन्हें गुयात्रा की परदादी के बारे में बताया था कि 1903 में उनकी परदादी ने गर्भावस्था में अकेले कलकत्ता छोड़ा था। उनका कहना ही कि शायद उनके पिता की इतने बरस तक की चुप्पी जानबूझ कर थी। लेकिन उनका सोचना है कि बहुत से मामलों में बहुत से संस्मरण तो वक्त के साथ मिट जाते हैं।उन्होने यह भी बताया कि इस किताब को लिखने के लिए वे अपनी परदादी का गाँव ढूँढने के लिए बिहार के ग्रामीण हिस्सों में गई थी।8उपन्यास में वर्णित घटनाएँ कि किस तरह 29 जुलाई 1903 को क्लाइड नामक जहाज से गर्भवती सुजारिया गयाना के लिए रवाना होती है और जहाज में ही बच्चे को जन्म देती है किस तरह गुयात्रा के पिता गयाना से न्यूयॉर्क प्रवासित होते हैं जो उनको जादू के डब्बे में पैर रखने जैसा महसूस होता है। लेखिका इस तथ्य को मानती है कि हालांकि उसने उसके माता पिता और दादा दादी कभी भारत नहीं गए थे लेकिन भारत का धर्म और बॉलीवुड उन्हे भारत की ओर खींचता था। जब वे 16 वर्ष बाद न्यू यॉर्क से अपनी जन्मभूमि गयाना जाती है तब अनुभव करती है कि आज भी गयाना के प्रवासी अपने आपको भारतीय मानते हैं। लेखिका अपने आपको अमेरिकी मानती है उनका कहना है कि ऐसा कैसे हो सकता है कोई किसी देश में पैदा हुआ हो और वहीं पर उसकी परवरिश हुई हो वह भारतीय कैसे हो सकता है? लेकिन साथ-साथ लेखिका की कद-काठी, रंग-रूप, आस्था, विश्वास उनको भारतीयता का भी एहसास कराते है। वे भावनात्मक रूप से भारतीय है तभी तो वे अपनी पहचान तलाशने भारत आती है।9
गर्भनाल
दादी का देश भारत
पिता का गुयाना
मेरा अमेरिका
मेरे बच्चों का पता नहीं…
क्या पता…
भारत हो जाये ?
पूरा हो जाये वृत्त
सारे देशों की संस्कृति
को कर आत्मसात
बन जाएँ फिर से भारत
ना भी बने तो क्या ?
कुछ न कुछ तो है इस देश में
चुम्बकीय आकर्षण
क्यों आँखें चमक जाती हैं इस नाम से
या गर्भनाल का संबंध
है इतना गहरा इतना अटूट
कौन जानता है …
मेरी तीसरी कविता ‘पोस्टकार्ड’ के सृजन की प्रेरणा मुझे एक आलेख को पढ़ कर मिली जिसमे त्रिनिदाद में जन्मी रेणुका महाराज ने भारतीय गिरमिट श्रमिक महिलाओं की पोस्टकार्ड पर छपी फोटो को टैक्नीकलर में करके प्रदर्शनी लगाई थी।जिससे मुझे पता चला कि औपनिवेशिक व्यवस्था ने भोले भाले भारतीयों को भरमाने के लिए कितने कितने प्रपंच रचे थे जिनमे से एक था व्यावसायिक फोटोग्राफर से सोने चांदी के गहने कपड़ों से लदी-फदी भारतीय औरतों की तस्वीरें खिंचवा कर पोस्टकार्ड पर छपवाना और उन पोस्टकार्ड पर ‘गिरमिटिए’ भारत अपने रिशतेदारों को पत्र लिखते थे जिससे भारतीयों को लगता था कि दूर त्रिनिदाद में तो बहुत सुख सुविधा और पैसा है।10 और अध्ययन करने पर पता चला कि उन औरतों को ‘कूली बेली’ कहा जाता था लेकिन असलियत तो यहाँ आने के बाद ही पता चलती थी। लेकिन तब तक वे श्रमिक उनके जाल में फंस चुके होते थे और वापसी का कोई रास्ता नहीं बचता था और हार कर वे उस सब को ही अपनी नियति मान लेते थे और यह चक्र चलता रहता था।त्रिनिदाद में एक फ्रांसीसी फेलिक्स मोरिन काफोटोग्राफी का स्टुडियो था पोर्ट ऑफ स्पेन में, 1869 1890 तक। जिसमें उन्होने भारतीय श्रमिक औरतों के विभिन्न आकर्षक फोटो खींचे और उन फोटो को पोस्टकार्ड पर छापा। गयपिलाई ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि गिरमिट प्रथा के साथ बहुत कुछ जुड़ा है जिसे तरजीह नहीं दी गई है और वो उकसाने वाला है। “यह भारत में रहने वाले लोगों के लिए एक तरह का विज्ञापन था गुयातरा बहादुर ने कहा के ये पोस्टकार्ड एक तरह से उपनिवेश में जनसम्पर्क बढ़ाने का काम कर रहे थे।11
पोस्टकार्ड
पारबती कहती थी
चीनीदाद भेज दो मुझे भी बापू
रमिया का पोस्टकार्ड आया हैं वहाँ से
खूब गहने कपड़ों से लदी औरतें रहती हैं वहाँ पर
और यहाँ भारत में?
पेट भर रोटी भी नहीं
जेवर कपड़ा तो दूर की बात
एक दिन भाग गई पारबती
किसी के साथ
सुना किसी पंडित से बतला रही थी
पुलिया के नीचे
उसके बाद कोई खबर नहीं
एक दिन आया वही रंगीन पोस्टकार्ड
लेकिन इबारत आंसुओं से भरी
सब झूठ था बापू
सब झूठ
दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत
मार कुटाई अलग
पेट भी नहीं भरता
दुखता है हाड़ गोड़
जहां-तहां हाथ भी लगा देता है
मुँहझौसा सरदरवा
मौका मिले तो गोरा भी नहीं चूकता
मनमानी करने से
बापू सबको कह दे
फाड़ कर फेंक दे ये पोस्टकार्ड
ये तो गोरन की चाल है
भारतीयों को भरमाने की
कोई मत आना चीनीदाद
यहाँ की चीनी में है
हमारी हड्डियों की खाद
हमारे खून से होती हैं
ईख की सिंचाई
कोई मत आना चीनीदाद
बापू रोक ले सबको
मत आने देना चीनीदाद…
मेरी चौथी कविता ‘गुलामी’ भवानी दयाल सन्यांसी की आत्मकथा‘प्रवासी की आत्मकथा’ पुस्तक से प्रेरित है। भवानी दयाल के माता-पिता अनुबंधित श्रमिक के तौर पर दक्षिण अफ्रीका आए थे। भवानी बताते हैं कि उनकी माता मोहिनी देवीबाल-विधवा थी। वे अयोध्या सरयू स्नान के लिए गई थी और भीड़ में अपने साथियों से बिछड़ गई थी और एक त्रिपुंडवेशधारी पंडित जो वास्तव में एक दलाल था उनको बहला फुसला कर डीपो भिजवा देता है और डीपो से वे कलकत्ता की यात्रा करती हैं जहां से वे दक्षिण अफ्रीका आई। इसी तरह उनके पिता जयराम भी जमींदार द्वारा अपमानित किए जाने पर गाँव छोड़ देते हैं और अराकाटी के फंदे में फंस कर डीपो पहुँच जाते है और वहीं दक्षिण अफ्रीका जाते हुए उनकी मुलाक़ात मोहिनी देवी से होती है और वे दोनों परस्पर जोड़ा बनाना स्वीकार कर लेते हैं। एक गिरमिटिया गुलाम का दाम 20 पाउंड था। उनके मातापिता के पाँच वर्ष का गिरमिट पूरा हुआ और उन्होने नेटाल में ही बसने का निश्चय किया लेकिन नेटाल में भारत की बड़ी बेइज्जती और बदनामी हो रही थी। वह निरा कुली-कबाड़ियों का देश समझा जाता था। भवानी के पिता ने भारत वापस लौटने का फैसला किया लेकिन भारत में तो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, परिस्थितियाँ और अधिक भयावह थी। अंग्रेजों का गुलाम भारत उस समय भयंकर गरीबी, जहालत, शोषण, रूढ़िवादिता के दौर से गुजर रहा था।अत: साढ़े आठ साल बाद भवानी ने गृह कलह से तंग आकर भारत छोड़ दिया और वापस दक्षिण अफ्रीका आ गए। वहाँ रहकर उन्होने प्रवासी भारतीयों गिरमिट मजदूरों के हित के लिए कार्य करना आरंभ किया और गांधीजी के ‘सत्याग्रह आंदोलन’ में सक्रिय रहने के अपराध में वे जेल भेजे गए। वहाँ जेल के ‘गोरे’अधिकारी और ‘काले’कर्मचारी किस प्रकार भारतीयों पर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन इस कविता में किया गया है।12
गुलामी
डरबन का सेंट्रल जेल
या मध्य युग का कसाईखाना
या सभी अंग्रेजों का जेलखाना
शैतान की औलाद गोरे पहरेदार
उनसे क्रूर उनके काले गुलाम
हाँ ये बात और है
खाना भरपेट मिलता था
लात, डंडे, मुक्के खा-खा कर
मुटिया गए थे हम
वैसे भी खाना तो इतना गँधाता
कुत्ता भी सूंघने के बाद ना खाता
ओढ़ने बिछाने को बहुत कुछ था
दुख की चादर ओढ़ो
उसी को बिछा लो
चाहे तकिया बना लो
पहनने के कपड़े इतने सुवासित होते
कि पहनते ही दम घुटने लगता
बहुत सी भाषाएँ सीखी
अंग्रेज़ कहता
ओ ‘कुली’ कुत्ता मुँह बंद कर(यू कूली डॉग शट अप)
नहीं तो खींच लूँगा जुबान
हबशी सिपाही चिल्लाता
ओ ‘मकुला’ छेछे (अरे कूली जल्दी कर)
मैंने जवाब दिया
मिनी फिगीले माँझे(मैं तो अभी अभी आया हूँ )
किटकिटाए दाँत काले ने
दबोची मेरी गर्दन
नंगा ही खींचा मुझे बाहर
अत्याचार के खिलाफ
लड़ना भी वही सीखा
शिकायत की
पर गवर्नर भी चोर का मौसेरा भाई
गोरा
दिखाया शब्दकोश में कूली शब्द
अर्थ मजदूर अत:कोई अपराध नहीं
फिर शुरू ज़ोर जुल्म की नंगी नुमाइश
पीटा प्रागजी को बूटों से
घसीटा उन्हें कंकरीली धरती पर
दी आधी खुराक
किया सत्याग्राहियों ने अनशन
हुई शिकायतें दूर
यह सच है गुलामी
सिखाती हैं क्रूरता
पर यह भी सच है
गुलामी कायरता भी सिखाती है
गुलामी अत्याचार से लड़ना भी सिखाती है
गोरों के बदलते ही बदल गए काले भी
बुलाने लगे ‘बाबा’
‘मकूला’ की जगह
फिर खत्म की गई एक दिन ‘गिरमिट प्रथा’
नई पीढ़ी को मिली विद्या और धन
विरासत में
और छा गए भारतवंशी
पूरे विश्व में अपनी प्रज्ञा और श्रम के बल पर।
मेरे पाँचवी कविता ‘यादें ’सूरीनाम के गिरमिटियों को समर्पित है। इस कविता की प्रेरणा मुझे सूरीनाम का सृजनात्मक साहित्य पढ़कर हुई। चित्रा गयादीन, जीत नाराइन, देवानंद, शिवराज, सूर्यप्रसाद बीरे, हरिदेव सहतू, अमर सिंह राणा आदि के पद्य और गद्य पढ़ कर सूरीनाम के गिरमिटियों के दैनिक जीवन में दुख कष्ट से अभिभूत होकर मैंने यह कविता लिखी।13
यादें
बैठी हूँ शुगर फ़ैक्टरी के खंडहरों में
चमगादड़ सी फड़फड़ा रही है यादें
केतारी के बोझ तले दबे बाबा
या दबे थे अपने दु:खों से…. पता नहीं
चूल्हे पे पकता था भोजन
या आजी के सपने …पता नहीं
ओखरी में मूसर से धान कूटती माई
या अपनी तकलीफ़ें …पता नहीं
मचान पर धुलते थे बर्तन
या उनके अरमान …पता नहीं
हाँ इतना जरूर पता है
उनके खून पसीने से मिट्टी बनी सोना
उनके दूध ने हममें फूंके प्राण
उन्होने हमें बनाया ‘कुली’ से कुलीन
ना हमें ‘कुली’ बनने में शर्म थी
ना कुलीन बनने का घमंड
वे अमर हैं, इतिहास में, हममें,
हमारी पीढ़ियों में
जय गिरमिटिया! जय सूरीनाम !
जय भारत!
मेरी छठी कविता ‘जड़ें’ फ़ीजी के नामचीन और ऑस्ट्रेलिया नेशनल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्रिज वी. लाल की पुस्तक ‘फीजी आधी रात से आगे’ से प्रेरित है। यह कविता एक तरह से उनके जीवनकाल की कुछ स्मृतियों का संकलन है जो मैंने इस पुस्तक में पढ़ी थी। प्रोफेसर के आजा भारत से अनुबंधित श्रमिक के तौर पर आए थे और वह प्रोफेसर को भारत में अपने गाँव बहराईच में बीते अपने बचपन की बातें बताते थे। प्रोफेसर कई बार सोचते थे कि वह तो भारत से जुड़े हुए है लेकिन आगे आने वाली पीढ़ी तो भारत से और भारत की भाषा हिन्दी से जुड़ नहीं पाएगी। लेकिन अचानक एक दिन प्रोफेसर का बेटा कहता है,पापा अगर मुझे मौका मिला दूसरी भाषा सीखने का, तो मैं हिन्दी सीखना चाहूँगा, अपने बच्चों को एक बार भारत लेकर जाऊंगा।“14 इन सब बातों से प्रेरित होकर मैंने यह कविता लिखी :
जड़ें
जन्मभूमि फ़ीजी
कर्मभूमि ऑस्ट्रेलिया
फिर भारत क्या?
मानो तो सब कुछ
नहीं तो कुछ भी नहीं
जड़ें तो यहीं थी ना
और जड़ से ही मैं हूँ
बचे है बाबा के सुनाए
स्मृतियों के खंडहर
तरसते रहे एक बार गाँव जाने को
अंत समय तक आँखो में था भारत
आज पूरे विश्व में हैं हम भारतवंशी
माना लोहा सबने हमारी जिजीविषा का ,
श्रम का और बुद्धि का भी
पर ऐसा क्यों?
हम माइनस से शुरू करके भी
यहाँ तक पहुँच गए
और गाँव वहीं का वहीं
वैसे का वैसा
आज आज़ादी के 70 साल बाद भी?
जैसा बाबा ने छोड़ा था
तभी शायद मेरे बेटे ने कहा
जब आया मेरे साथ बनारस ,पिंडदान करने
पापा ,अच्छा है बाबा चले गए यहाँ से
तभी आप कुछ बने और हम भी
मैंने तो फिर भी बाबा के साथ जिया है
भारत को
पर मेरे बच्चें….उन्होंने नहीं
जितना मैं जुड़ा हूँ भारत से
वो नहीं
फिर भी नहीं जानता था
जड़ें कहाँ तक जाती हैं
कल बेटा बोला अंग्रेज़ी में
पापा हिंदी सीखनी है
अपने बच्चों को
भारत ले जाना है
मैं आह्लादित…आँखें नम
बाबा की तस्वीर के आगे नत.
संदर्भ
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- गंभीर सुरेन्द्र.गयाना देश में हिन्दी की कहानी पृ47.प्रवासी भारतीयों में हिन्दी की कहानी(संपा) सुरेन्द्र गंभीर महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा. भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली 2017
- Apravasi Ghat High Res Stock Images| shutterstock https//www.shutterstock.com
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- Bahadur Gaiutra..Coolie Woman The Odessey of Indenture Hachette Book Publishing India Pvt.Ltd Gurgaon-India
- Munos Delphine.2019.”Indo -centricity and Diaspora:Writing back to the new India in M.G. Vasanji’s A Place Within :Rediscovering India and Guiatra Bahadur :The Odessey of Indenture.”Special Issue”Imaginary Homelands :South Asian Literatures in Diaspora “.Ed Claudine Le Blanc and Nicolas Dejenne. DESI(Diasporas :Erudes des Singularities Indiennes)
- Bareak Max.A Conversation With: Author Gaiutra Bahadur.The Newyork Times November21 2013https://india.blogs.nytimes.com/2013/11/21/a-conversation-with- author-gaiutra-bahadur/
- जितेंद्र. कुली वुमेन:द ओडिसी ऑफ इंडेंचर गिरमिटिया सांस्कृतिक पहचान का संघर्ष और मूल के तलाश की एक अनकही कहानी, प्रवासी संसार, जनवरी-जून 2017, दिल्ली.
- Persard C Suzanne. India Abroad In new exhibition, Trinidadian-born Renluka Maharaj reimagines Indian indentureship in technicolour Nov.14,2020 https://scroll.global/978422/in-new-exhibition-Trinidadian-born-Renluka-Maharaj-reimagines-Indian-indentureship-in- technicolour
- Henna Sharma. Why Indian Women Became the faces of these Victorian-era postcards 24 December 2020. https://www.cnn.com
- संन्यासी, भवानी दयाल.प्रवासी की आत्मकथा,(संपा)मंगलमूर्ति. अनामिका पब्लिशर्ज एन्ड डिस्ट्रीब्यूटर्ज़ ;दिल्ली2017 पृ 22,74-76
- वर्मा विमलेश कान्ति/भावना सक्सेना. सूरीनाम का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा. 2015
- लाल ब्रिज वी. फ़िजी यात्रा आधी रात से आगे, (अनु) सत्या श्रीवास्तव. नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया.2005.