
मेरे दादा
– नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
धरोहर रेवा की ओंकार ध्वनि, पलाश की सिंदुरी आभा और काल के मुख से जन्मी वह निमाड़ी रामायण है जिसे हम रामनारायण के नाम से जानते हैं।
दादा हमारे इतिहास की जगमगाती इबारत, आंखों के साकार हुए सपने, ब्रह्मगीर और सिंगाजी के भजनों की आत्मा, गणगौर के गीत और सुबह-सुबह अभिषिक्त हुए ऐसे निमाड़ी लोकदेवता हैं जिनके हाथ निमाड़ी की शब्द सम्पदा समेटते हैं और जिनके कण्ठ से निमाड़ गाता है।
उन्होंने जो कुछ भी लिखा है वह उनके अपने संघर्ष और संघर्ष से प्राप्त अनुभव की देन है और ऐसी देन पूरी तरह मौलिक होती है और इस देन में हम अपने अक्स देखते हैं, अपने प्रतिबिंब निहारते हैं। हमारा व्यक्तित्व, हमारे अनुभव, हमारी संवेदना यह सब मानो रुपांतरित हो जाते हैं और फिर मन करता है कि अब अपने पुराने स्वरूप में हम लौटे ही नहीं। दादा के लेखन की यही सबसे बड़ी विशेषता है। और इस विशेषता के दर्शन उनकी उस भाषा में होते हैं जो हमारी अपनी भाषा है, हमारे आसपास की भाषा है और जो संवाद की भाषा है। उसमें जो बिंब ढलते हैं वे बिंब हमारे आसपास के ही बिंब होते हैं। उनकी पंक्तियाँ हैं :
अगर कहीं पर्वत है
तो निश्चित मानिये
आस पास कहीं नदी भी होगी
बिना हृदय में गहरा दर्द संजोये
कोई इतना ऊँचा उठ नहीं सकता।
एक सुन्दर बिंब है जिसका शीर्षक ‘जूड़ा’ है –
काली-कलूटी लड़की रात ने,
तारों का कैसा
कस कर जूड़ा बांधा है,
कि चाँद भी उस पर मंडराने लगा
मुझे सर्वाधिक प्रिय है उनका छोटा सा निबंध ‘धुंधले कांच की दीवार’।
यह कालजयी रचना हिन्दी साहित्य की अमर रचनाओं में से एक मानी जानी चाहिए। इसमें एक व्यक्ति है जो निर्धन है, जो फूटे कप में चाय पीता है, फटी चादर बिछाकर सोता है और एक पुराना कांच जो धुंधला हो चुका है उसमें अपना प्रतिबिंब देखता है लेकिन जब कोई जाता है तो वह इन सबको छुपा देता है। वह जैसे-तैसे अपनी निर्धनता को ढंकने का प्रयत्न करता है। दादा उससे कहते हैं कि मित्र जैसे तुम हो वैसा ही मैं भी हूं। जैसा चाय का कप तुम्हारा फूटा हुआ है वैसा भी मेरा भी है, मेरे घर की चादर तुम्हारे घर की चादर से ज़्यादा फटी हुई है और मेरे पास भी तुम्हारे धुंधले कांच की तरह एक धुंधला कांच है जिसे मैं किसी अतिथि के आने पर छुपाने की कोशिश करता हूं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम दोनों वैसे ही एक-दूसरे के सामने रहें जैसे कि हम वास्तव में हैं और बजाए राजनीति और साहित्य की बातें करने से एक-दूसरे के सुख-दुख की बातें करें। वे अंत में कहते हैं कि मित्र विश्वास रखो सुख-दुख के इस समन्दर में से ही हमारे अभावों की किश्ती के पार होने का मार्ग गया है।

मेरे शीघ्र प्रकाश्य निबंध संग्रह में दादा पर लिखे गए निबंध का अंश
खंडवा में आयोजित एक कार्यक्रम में दादा और श्रद्धेय विद्यानिवास मिश्र जी तथा एक चित्र जो हाल ही में श्री हेमंत उपाध्याय ने मुझे भेजा जो उस समय का है जब मेरा स्थानांतरण खंडवा से हुआ था और दादा तथा स्वर्गीय श्रीकांत जोशीजी ने मेरे बिदाई समारोह का आयोजन किया था।
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