
क्यों भूल गए अपना वादा शरदिंदु भाई?
– विभा रानी
खामोशी से काम करनेवाले मैथिली के समर्थक, प्रचारक, प्रसारक शरदिन्दु शेखर चौधरी 12 जून, 2025 को हमसे विदा हो लिए। अस्वस्थ थे। जितने गंभीर रूप से वे बीमार पड़े थे, उसमें उनके लौटने की क्षीण संभावना थी। जाना सभी को है। कहा गया है न कि ‘मौत से किसकी यारी है, आज उसकी, कल मेरी बारी है’! मगर, उनका जाना क्यों हमलोगों को सबसे अधिक खल रहा है? मैथिली तो मैथिली, उनको जाननेवाले हिन्दी समुदाय के लोग भी उनकी कमी को बेहद महसूस कर रहे हैं। आखिर क्या थे हमारे शरदिन्दु भाई कि जिनके जाने से न केवल मैथिली साहित्य जगत आहत और स्तब्ध है, बल्कि वे सब भी मर्माहत हैं, जो मैथिली की दुनिया में कम विचरण करते हैं अथवा हिन्दी या अन्य भाषा या क्षेत्रों में काम करते हैं। फेसबुक पर उनके ऊपर लिखे जा रहे संस्मरण शरदिन्दु भाई के निधन के शोक के बावजूद मुझे एक सुकून दे रहे हैं कि बिना किसी बड़बोलेपन के खामोशी से काम करते हुए भी शरदिन्दु भाई अपने आचरण से कितने मुखर थे और उनके लिए सभी अपने मन के भाव व्यक्त करके बता रहे हैं कि वे क्या थे!
मुझे ऐसा इसलिए लग रहा है कि शरदिन्दु भाई मैथिली के ऐसे अनन्य उपासक रहे, जिन्होंने मैथिली के लिए बहुत खामोशी से काम किया। वे मैथिली के लेखकों और साहित्य के पाठकों तक तो पहुँचते ही रहे, सबसे महत्वपूर्ण यह कि वे मैथिली के छात्रों तक पहुँचते थे अपने शेखर प्रकाशन और मैथिली किताबों के आपूर्तिकर्ता के रूप में। इन सबमें अपने प्रखर लेखन के बावजूद उनका लेखकीय रूप छुपता सा गया, जैसे ‘पहल’ पत्रिका के प्रकाशन, सम्पादन के बाद ज्ञानरंजन जी का निजी लेखन बहुत बाधित हुआ।

शरदिन्दु जी को मैं शरदिन्दु भाई ही कहती थी। वे मुझसे बड़े थे- उम्र, ज्ञान, स्वभाव, काम सभी में। स्वभाव से गंभीर, मगर मैथिली की क्वालिटी के पारखी थे और उसके उत्थान के लिए वे किसी से भी भिड़ सकते थे। जितना मैंने उन्हें देखा और जाना था, उन्हें बहुत कम बोलता पाया था। एक बार मैं पटना स्टेशन के पास स्थित उनके प्रकाशन सह किताबों की दुकान में पहुंची थी। शरदिन्दु भाई वहाँ थे। मैथिली के एक-दो और लेखक भी थे। उन सभी से शरदिन्दु भाई ने परिचय करवाया। उन सभी ने मुझे अपनी सद्य: प्रकाशित किताबें दीं। शरदिन्दु भाई ने भी अपनी किताबें दीं। सभी के लिए चाय मँगवाई गई। हम सभी चाय पी रहे थे। देखा कि कई छात्र एक-एक कर आ रहे हैं। वे सभी बीपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। उन सभी को मैथिली की किताबें चाहिए थीं। शरदिन्दु भाई बड़ी आत्मीयता से उन सभी को उनकी ज़रूरत की किताबें निकालकर दे रहे थे। एकाध को सलाह भी दे रहे थे कि अगर आपके पास अमुक किताब नहीं है तो ले लीजिए। तैयारी में काम आएगा। एकाध ने लिए। कुछ ने अगली बार ले जाने का वादा किया यह कहते हुए कि आज उनके पास इन किताबों के लिए पैसे नहीं हैं। कई छात्रों ने उनसे पुराने प्रश्न पत्रों के नमूने मांगे। वे उतने ही सहज भाव से बोले- ‘फोटोकॉपी करवाकर दे देता हूँ। करवाने के पैसे लगेंगे।’ सभी किताबें ले गए ज़िरॉक्स करवाने के लिए।
शुरू में मैथिली मेरी भाषा नहीं थी। मेरे घर में सभी हिन्दी में ही बात करते। मेरे मोहल्लेवाले उत्तर प्रदेश के बस्ती-बलिया से माइग्रेट कर के आए थे। वे सब भोजपुरी बोलते थे। मेरे कानों में मैथिली मात्र मेरे यहाँ पूजा करवाने के लिए आनेवाले पंडित जी बच्चा झा के मंत्र और शब्द गूँजते थे। उनसे ही हम सब शुद्ध मैथिली सुनते थे। माँ के स्कूल की भी एकाध शिक्षक आपस में मैथिली में बोलती थीं। वे सभी ब्राह्मण थे और इस तरह से हमलोगों के मन में यह धारणा बैठी कि मैथिली ब्राह्मणों की भाषा है।
मुझे मैथिली नहीं आती थी। बीए में जाने के बाद यह समझ में आया कि मैथिली सीखनी चाहिए। मैं टूटी- फूटी मैथिली बोलने लगी। और, जब बोलने लगी, तो दिमागी कीड़े ने ऐसा काटा कि एक कहानी मैथिली में लिख ली। घर में ‘इंडियन नेशन ग्रुप’ का दैनिक हिन्दी अखबार ‘आर्यावर्त’ आता था। उसी में एक विज्ञापन देखा- इंडियन नेशन ग्रुप की ही मैथिली साप्ताहिक पत्रिका ‘मिथिला मिहिर’ के ‘नवतुरिया लेखन अंक’ के लिए। घबड़ाहट अब बेचैनी में बदल गई। मैं भी तो नवतुरिया यानी नवोदित ही तो हूँ।
शरदिंदु शेखर चौधरी उस समय ‘मिथिला मिहिर’ में थे। मैथिली मे लिखने का असंकट कोई आज का संकट नहीं है। उस समय भी नए लोगों की आवक बहुत कम थी। नव लेखन को बढ़ावा देने के लिए ही ‘मिथिला मिहिर’ ने यह योजना निकाली और इसका जिम्मा शरदिंदु शेखर चौधरी भाई और उनकी टीम को दे दिया गया।

‘मिथिला मिहिर’ के नवतुरिया लेखन अंक के लिए बहुत सारी कथाएं पहुंची थीं। इतनी कि एक के बदले दो अंक निकालने पड़े। मेरी कहानी पहले ही अंक में छापी गई थी। मैं तो खुशी से फूली न समा रही थी। मुझे पत्र-पत्रिका या छपने के पीछे की राजनीति या गोलमाल का क्या पता! आज भी नहीं होता है। मुझे बहुत बाद में पता चला कि मेरी यह कथा ‘कौआहंकनी’ ‘मिथिला मिहिर’ के नवतुरिया लेखन अंक के पहले अंक में कैसे छपी?
हुआ यह था कि मेरी कथा शरदिंदु भाई को बहुत पसंद आई। उनके साथ शायद अग्निपुष्प भाई भी थे। सम्पादक मंडल के बड़े-बड़े लोगों के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हुआ कि यह ‘विभा रानी’ कौन है? कोई सरनेम नहीं। कैसे पता किया जाए कि यह कौन हैं? शरदिंदु भाई ने कहा कि आप सब व्यक्ति के परिवार और सरनेम को छापना चाहते हैं अथवा रचना को? व्यक्ति के सरनेम की गुणवत्ता चाहिए अथवा रचना की गुणवत्ता?
महानुभाव लोग अभी भी ससोपंज में थे। शरदिंदु भाई ने कहा कि कहानी बहुत अच्छी है और इसमें भविष्य में मील का पत्थर साबित होने की बहुत सम्भावना है। उन्हें फिर कहा गया कि ‘ठीक है। आपको ऐसा ही लगता है तो दूसरे अंक में छाप दीजिएगा।’ शरदिंदु भाई फिर बोले कि नहीं, रचना छपेगी तो इसी अंक में। अगर नहीं छपेगी तो वे खुद को इस योजना से अलग कर रहे हैं।’
मैं तब भी पगली, आज भी वैसी ही बताह! कथा के छपने तक शरदिंदु भाई सहित कोई भी मुझे नहीं जनता था। ‘कौआहंकनी’ को जो प्रसिद्धि मिली, उसका सारा श्रेय शरदिंदु भाई को जाता है। इस तरह वे लेखक गढ़ते थे।
शरदिंदु भाई से मेरा बड़े भाई जैसा संकोच हमेशा बना रहा। वे बहुत गम्भीर रहते थे। ‘मिथिला मिहिर’ के बंद होने तक वे वहाँ रहे। फिर ‘समय-साल’ पत्रिका से जुड़े। फिर उनका पाना शेखर प्रकाशन आया। उनके मैथिली के प्रति प्रेम और निष्ठा को देख कोई भी अभिभूत हो सकता था। इतने निस्वार्थ भाव से किताबों के प्रकाशन और बिक्री में लगे रहते थे। किताबों से वास्ता रखनेवाले अब कितने लोग हैं, सभी जानते हैं। लेकिन शरदिंदु भाई जैसे संकल्प लिए हुए बैठ हों मैथिली की सेवा करने की। उन्होंने मैथिली प्रकाशन को छात्रोपयोगी भी बनाया। बीपीएससी और अन्य परीक्षाओं के काम आनेवाली किताबों के प्रकाशन, उनकी उपलब्धता आदि तय करने में वे समर्पित हो गए। किताब नहीं रहने पर उनकी फोटोकॉपी करवाकर दे देते थे। छात्र खुशी- खुशी किताब लेकर चले जा रहे थे फोटोकॉपी कराने के लिए। मैंने पूछा भी कि अगर वे नहीं लौटाएँ तो?’ वे अपनी शुभ्र दाढ़ी के भीतर से मंद मुस्कान से बोले- ‘जायत कत’? मैथिली किताब सभ ओकरा आओर के आओर भेंटतै कत’ स’? आई चलि जायत त’ काल्हि ओकरा एबाक मुंह रहतै आ यदि आबियो गेल त’ की ओकरा स’ फेर मांगब पार लागतै?’
मुझे मणिपद्म जी का उपन्यास ‘लवहरि – कुशहरि’ चाहिए था। वे बोले- ‘अभी नहीं है। मुश्किल है मिलना। फिर भी, कोशिश करता हूँ कि एक प्रति भी मिल जाए तो तुम्हें दे सकूँ।’
उपन्यास ‘लवहरि – कुशहरि’ का इंतज़ार आज भी है शरदिंदु भाई! अब कौन देगा इसे! मेरी चिंता अब वहाँ के छात्रों के लिए भी है। उनकी दुकान खुली रहेगी न! छात्रों को उनके उपयोग की किताबें मिलती रहेंगी न! मेरे मन में यह आस बनी हुई है। शरदिंदु शेखर प्रकाशन कर दिया जाए। आप हमेशा हम सबके दिल में रहेंगे शरदिंदु भाई!
किसी से कुछ कहने या मांगने का उनका स्वभाव नहीं था। अपने सिद्धांत के लिए वे किसी से भी टकराने की सामर्थ्य रखते थे। कुणाल जी कहते हैं कि वे अपनी प्रतिबद्धता के धनी व्यक्ति हैं। मैथिली में ऐसे लोग बहुत कम हैं। एक और कम हो गए।
(साभार – Vibha Rani के फेसबुक वॉल से)