
ध्रुव तारा कभी अस्त नहीं होता..
– राजेश्वर वशिष्ठ
डॉ. विश्वास अपने चेम्बर से निकलने ही वाले थे कि लैंड-लाइन फोन बज उठा। आमतौर पर यह फोन इन दिनों गुमसुम और उदास ही रहता है, कोई कॉल आती नहीं है; सब लोग मोबाइल फोन पर ही संपर्क करते हैं। उन्होंने फोन उठाया और ध्यान से सुनने लगे।
‘डॉ. विश्वास, मैं वसंत विहार से सरिता मल्होत्रा बोल रही हूँ। मुझे आपकी सहायता चाहिए!’
‘मैडम, हर कॉउंसलर ज़रूरतमंद की सहायता के लिए ही होता है, आप मेरे स्टाफ से संपर्क करके अपनी सुविधानुसार एप्वाइंटमेंट लेकर मुझसे मिल सकती हैं।’ डॉ. विश्वास ने बड़े प्रोफेशनल तरीके से जवाब दिया।
‘डॉ. फोन मत काटिएगा, इस नम्बर को खोजने के लिए मुझे काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी है, मैं ब्लाइंड हूँ और इन दिनों कई तरह की परेशानियों से जूझ रही हूँ। हारी नहीं हूँ पर ज़िंदा रहने के लिए किसी उचित परामर्श की अपेक्षा रखती हूँ। आपकी फीस देने में समर्थ हूँ।’
डॉ. विश्वास फिर से अपनी कुर्सी पर बैठ गए। उन्हें तारा का स्मरण हो आया, जिसकी मृत्यु कुछ साल पहले हो गई थी। तारा उनकी बहन थी, जो जन्म से देखने में अक्षम थी। तारा से जुड़े कितने ही सुखद-दुखद अनुभव थे; बड़ी बात यह थी कि लम्बी बीमारी के बाद तारा ने उनकी गोद में सिर टिकाए हुए अंतिम सांस ली थी।
‘क्या आपने फोन काट दिया? आपकी आवाज़ नहीं आ रही है …. तो आप भी किसी ब्लाइंड को काउंसलिंग नहीं देना चाहते। कोई डॉक्टर होते हुए ऐसा करे, यह दुखदाई है।’ सरिता मल्होत्रा को ग़ुस्सा आ रहा था।
‘नहीं मिस मल्होत्रा, मैं आपको सुन रहा हूँ। मैं मैडिकल इथिक्स को ऊँचा स्थान देता हूँ और अपनी जिम्मेवारी को भी समझता हूँ। क्षमा करें मैं किसी स्मृति में चला गया था। आप मुझसे चाहे जितनी देर बातें कर सकती हैं। अब क्लीनिक का समय नहीं है, कोई पेशेंट प्रतीक्षा में नहीं है।’ डॉ. विश्वास ने कहा।
‘शुक्रिया, मेरा अनुभव ऐसा ही रहा है, लोग हमें इसलिए ट्रीट करने से बचते हैं क्योंकि हम इमोशनली स्टेबल नहीं होते, बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं। डॉक्टर, हम अपने जीवन में इतनी बार घायल हो चुके होते हैं कि कई बार हमारे ज़ख्म बिना टच हुए भी दर्द करने लगते हैं। सॉरी, मैंने आपको ग़लत समझा। फिर भी क्या मुझे बताएंगे आपको किस ब्लाइंड की याद आई? ज़रूर कोई ब्लाइंड पेशेंट रहा होगा।’
‘नहीं, कोई ब्लाइंड पेशेंट, कभी मेरे पास काउंसलिंग के लिए नहीं आया। आप चाहें तो मुझे अपनी समस्या बता सकती हैं। फीस की चिंता मत कीजिए, जब आप स्वस्थ हो जाएंगी, तब दे दीजिएगा।’
उन दोनों के बीच समय थम-सा गया था। डॉ. विश्वास सरिता में तारा को देख रहे थे। उन्हें याद आ रहा था कि तारा भी अपने प्रश्न का तुरंत प्रत्युत्तर न मिलने पर हाइपर हो जाती थी। क्या सरिता को भी किसी ने धोखा दिया होगा? वह तारा को उसके दुख से बाहर क्यों नहीं ला पाया था? दृष्टि-बाधा, मनुष्य के जीवन में संभवतः सबसे प्रभावी अपंगता है। शिक्षा, धन और अनुभव इनके जीवन में साथ तो देते हैं पर पूरी तरह से नहीं, अवसर मिलते ही भरे-पूरे लोग बेरहम होकर इनके साथ अन्याय कर देते हैं।
‘डॉ. विश्वास मैं एक बिजनेस फैमिली से संबंध रखती हूँ। हमारी एक गारमेंट मैंयुफेक्चरिंग युनिट है, जिसे मेरे पिता जी ने आरम्भ किया था। मैंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अपनी बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई की और उसके बाद अपने पिता के व्यवसाय को संभाल लिया था। छोटा भाई इंजीनियर बना और यूएस में सैटल हो गया। जब पापा की हार्ट अटैक से मृत्यु हुई, मैं 26 साल की थी। जैसा कि हमारे परिवारों में होता है, माँ ने चाहा कि मैं अब शादी कर लूँ। इत्तिफाक देखिए, मेरी माँ ने एक ऐसा लड़का भी खोज लिया जो जेएनयू में समाजशास्त्र पढ़ा रहा था और हमारे यहाँ घर दामाद बनने को तैयार हो गया। बदकिस्मती यहीं से शुरु होती है।’ सरिता की आवाज़ काँप रही थी।
‘ओह तो आप जन्म से दृष्टि-बाधित नहीं हैं। संभवतः किसी दुर्घटना में आपकी दृष्टि चली गई?’
‘जी, डॉक्टर। पहले मुझे सुन लीजिए।
मेरा विवाह असफल रहा। यह बाद में पता चला कि मेरे पति मिस्टर अजय मंडल ने हमारे कारोबार और आर्थिक स्थिति को देख कर मुझसे विवाह किया था। उनकी वास्तविक दिलचस्पी राजनीति में थी और उन्हें दिल्ली में किसी मजबूत सहारे की ज़रूरत थी। उनकी माँ यानी मेरी सास, मेरी माँ के साथ पटना में उन दिनों पढ़ी थी, जब मेरे नाना जी पटना में पोस्टिड थे। यह कनेक्शन वहीं से चल कर आया था।
धीरे-धीरे मेरे और अजय के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी थीं, उन्होंने कई बार मेरी कंपनी से धोखा-धड़ी करते हुए पैसा निकाला, जैसा उन्हें नहीं करना चाहिए था। मुझे पता चल गया था कि वह कोई एनजीओ बना कर बड़ा आर्थिक अपराध करना चाहते हैं। उनकी संगत सही नहीं थीं, वह एल्कोहलिक भी हो गए थे।’ सरिता बता रही थी।
काउंसलर का काम हालांकि बोलना कम और सुनना ज़्यादा होता है फिर भी डॉ. विश्वास कहानी के उस बिंदु तक पहुँचने की जल्दी में थे जहाँ सरिता ने अपनी दृष्टि को खोया होगा। सरिता की कहानी तारा के जीवन से बिलकुल भिन्न है, अब तक यह स्पष्ट हो चुका था।
‘तो सरिता जी, वह दुर्घटना कब घटित हुई?’
‘मैं बताती हूँ। मेरा विवाह लगभग पाँच वर्ष चला, फिर डिवोर्स हुआ और मैं उस उलझन से निकल कर बाहर आ गई। कठिन परिस्थितियों में भी मैंने अपने बिजनेस को इग्नॉर नहीं किया। मेरी कंपनी के कर्मचारी सही तरीके से काम करते रहे और प्रॉफिट वगैरह ठीक-ठाक मिलता रहा।
मेरे डिवोर्स ने मुझे कम, मेरी माँ को अधिक कष्ट पहुँचाया। वह मानती थीं कि मुझे उनके ग़लत निर्णय की सज़ा मिली। वह शुगर, बीपी जैसी कई बीमारियों की शिकार हो गईं और अगले पाँच वर्षों में उनका देहांत हो गया। मैं अकेली ज़रूर थी लेकिन कमज़ोर नहीं थी, अपना काम ठीक से देख रही थी। प्रेम या विवाह जैसी स्थितियों से मेरा विश्वास उठ चुका था।
इस पूरे घटनाक्रम में छोटे भाई की उपस्थिति कहीं नहीं थी, वह तो माँ की मृत्यु पर भी भारत नहीं आया।’ सरिता ने कहा।
‘अब आप किस आयु वर्ग में हैं? मुझे पूछना तो नहीं चाहिए, लेकिन यह जान लेने से, मेरे लिए कोई सुझाव या विमर्श देना आसान हो जाएगा।’ डॉ. विश्वास ने पूछा।
‘मैं पचास की हो गई हूँ और पिछले पाँच वर्षों से ब्लाइंड हूँ।’ सरिता मल्होत्रा ने बिना किसी विचलन के बता दिया।
‘तारा जीवित होती तो वह भी पचास की ही होती। वह मुझसे पाँच साल छोटी थी। वह जन्म से ही दृष्टि-बाधित थी।’डॉ. विश्वास ने कह दिया।
‘कौन तारा?’ सरिता ने पूछा।
‘सॉरी, मुझे उसका नाम नहीं लेना चाहिए था। तारा मेरी छोटी बहन थी, जिसकी मृत्यु कुछ वर्षों पूर्व हुई है। वह जीवन भर मेरे साथ ही रही।’
‘आपकी पत्नी ने उसे अपने साथ रखने को लेकर कभी मतभेद जाहिर नहीं किया?’ सरिता ने प्रश्न किया।
‘मैंने ऐसा होने ही नहीं दिया। माता-पिता की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी। तारा के प्रति लोगों के व्यवहार को देखते हुए, यह मेरा ही निर्णय था कि मुझे विवाह नहीं करना चाहिए। हमारे पेशे में कहा जाता है – ज़िंदगी की दौड़ में असफलताओं से जूझने वाले लोग ही सफल काउंसलर बनते हैं।’
‘दुनिया में अब भी ऐसे लोग होंगे, मैंने कल्पना नहीं की थी। मैं जानती हूँ, एक दृष्टि-बाधित व्यक्ति का खयाल रखना कितना कठिन है। तारा का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि उसे आप जैसा भाई मिला। मुझे तो जीवन में हर कीमत चुका कर भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला, जो स्नेह भाव से मेरा खयाल रख पाता। मेरी समस्या है कि कोई मुझ जैसा व्यक्ति, साइटिड लोगों पर कैसे विश्वास करे, जब वे उसे कदम-कदम पर धोखा दे रहे हों, उसकी परिस्थिति के प्रति संवेदनशील न हों।’ सरिता ने कहा।
‘सरिता जी, साइटिड व्यक्ति निर्दयता पूर्वक ब्लाइंड्स का शोषण करते पाए जाते हैं, ऐसा मैंने खूब देखा है। कई बार उनकी संवेदनशीलता भी एक लौकिक दिखावा होती है, वे तो खुद के लिए वाह-वाही कमा रहे होते हैं।
उन दिनों तारा समाजशास्त्र में डॉक्ट्रेट कर रही थी। उसे अकसर अपने गाइड के पास विचार विमर्श के लिए जाना होता था। दूसरे छात्र आते तो वे तुरंत अपना काम करके लौट जाते पर गाइड महोदय उस बेचारी को घंटों बिठा कर रखते। उनकी पत्नी कई बार तारा को ताना देती – क्या करोगी लेक्चरर बन कर, क्लास में विद्यार्थी बैठे हैं या नहीं तुम तो देख ही नहीं पाओगी। तुम्हें तो गाना-बजाना सीखना चाहिए था। उसके गाइड कहते – लड़की, तुम एक अच्छे बच्चे का भविष्य खा जाओगी, तुम लोगों का तो जॉब में कोटा होता है।
तारा जब मुझे यह सब बताती थी तो मैं भीतर तक टूट जाता। समाज का असली चेहरा मेरे सामने होता। फिर भी तारा ने सभी तरह की प्रताड़नाएँ सहते हुए अपना डॉक्टरेट पूरा किया और उसकी नौकरी इंदिरा गर्ल्ज़ कॉलेज में लग गई।’ यह सब बताते हुए डॉ विश्वास के चेहरे पर विषाद तैर रहा था।
‘नौकरी के बाद तो तारा का जीवन सैटल हो गया होगा?’ सरिता ने पूछा।
‘ऐसा मुझे भी लगा था…. पर सब वैसा नहीं था जैसा होना चाहिए। बहुत सारी समस्याएँ थीं। मैंने उसके लिए अलग से गाड़ी और ड्राइवर का प्रबंध किया था। लेकिन ड्राइवर कॉलेज के द्वार के भीतर प्रवेश नहीं कर सकता था, उसे किसी से सहयोग की अपेक्षा होती थी जो उसे उसके क्लास-रूम तक पहुँचा कर आए। ऐसा ही लौटते समय भी होता था। कॉलेज की लड़कियाँ उसकी उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ जाती थीं। कई बार साथी प्राध्यापक भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते थे। उन्हें लगता था कि तारा वेतन तो उनके बराबर पाती है लेकिन उतना काम करना उसके लिए संभव नहीं है। हमारे सामने सामाजिक न्याय, एक शब्द बन कर रह जाता था।’ डॉ. विश्वास ने कहा।
‘मैं समझ सकती हूँ। मैं एक कंपनी की मालिक हूँ, हर सहायता के लिए मेरे पास अलग-अलग परिचारिकाएँ हैं, फिर भी मैं खुश नहीं हूँ। मुझे हर पल लगता है कि वे अपनी ड्यूटी बड़े मशीनी ढंग से पूरी कर रही हैं। कोई आत्मीय जुड़ाव नहीं है उनका मेरे साथ। तारा के पास तो आप जैसा भाई था।’ सरिता ने कहा।
‘आत्मीय जुड़ाव या खून के रिश्ते का संबंध जो भी कह लीजिए, कई बार ग़लत भी समझ लिया जाता है। अधिकार भावना की अधिकता उसे भी बोझिल बना देती है। ऐसे क्षण मुझे भी देखने पड़े थे।’
‘ऐसा क्या हुआ?’सरिता ने पूछा।
‘समय हमारी परीक्षा भी लेता है। कुछ वर्ष ठीक से गुज़रे, फिर एक दिन तारा ने मुझे बताया कि वह अपने कॉलेज के एक विधुर प्रोफेसर से विवाह करना चाहती है जिसके दो वयस्क बच्चे हैं। मेरे लिए यह एक बड़ा झटका था, तारा ने इस संबंध के विषय में मुझे कभी नहीं बताया था। उसने क्यों नहीं बताया मुझे? शायद इसलिए कि मैं इस बेमेल रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाता।
मैंने तारा को समझाया कि प्रोफेसर वर्मा तुम्हारा ख्याल नहीं रख पाएंगे, हो सकता है उनके बच्चे भी तुम्हें स्वीकार न करें। पर वह अपनी ज़िद पर अड़ी रही, उसने मुझे यहाँ तक कह दिया कि मैं अविवाहित रह गया हूँ, इसलिए मैं उसे विवाह करते हुए नहीं देखना चाहता। मेरे लिए यह चरम दुर्भाग्य की स्थिति थी।’ डॉ. विश्वास की आँखें भर आई थीं।
‘मुझे भरोसा नहीं हो रहा है कि मैं इसी दुनिया के ही एक पुरुष से बात कर रही हूँ। बात जब निजी स्वार्थ की आती है, हम प्रायः दूसरों के सारे त्याग और सुकर्म भूल जाते हैं। तारा अपवाद न बन सकी। फिर क्या हुआ उस संबंध का?’
‘उस दिन तारा का जन्मदिन था। जब मैं क्लीनिक से लौटा तो अपने साथ बहुत सारे फूल लेकर आया था। तारा फूलों की सुगंध से उनके रंग बता देती थी। मैं उसे बहुत सारी खुशी देना चाहता था। पर तारा घर में नहीं थी। उसने अपने ड्राइवर को छुट्टी दे दी थी और प्रोफेसर वर्मा के साथ जाकर, उनसे कोर्ट मैरिज कर ली थी। वह अपने पीछे एक छोटी-सी चिट छोड़ कर गई थी – जिस पर लिखा था – आज मैं विवाह कर रही हूँ। मैं तुम्हारे पिंजरे से बाहर निकल कर आसमान मापना चाहती हूँ। तुमने मेरी कदम-कदम पर सहायता इसलिए की, ताकि मैं कभी सक्षम न बन पाऊँ। अब मुझे इस घर में नहीं लौटना है। बेहतर होगा तुम भी विवाह कर लो।
मैं कई सप्ताहों तक रोता रहा। जब मेरे पेशेंट मुझसे शिकायत करने लगे तो मैं फिर से, ख़ुद को संभाल कर अपने प्रोफेशन में लौटा। सच कहूँ तो तब मेरी काउंसलिंग मेरे पेशेंट्स ने की।’ डॉ. विश्वास ने बताया।
‘ओह, वेरी सैड, ऐसा भी हो सकता है, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती।
दुख आते हैं जीवन में, अचानक बिना बताए। मेरे जीवन में सब ठीक जैसा ही चल रहा था। मैं अपने बिजनेस में बेहतर कर रही थी। विदेशों से बड़े ऑर्डर मिल रहे थे। मेरा स्टाफ अच्छा था, उन पर भरोसा किया जा सकता था। उम्र भी कब की चालीस पार कर चुकी थी और जीवन जी लेने के लिए है, यह मुझे समझ आ गया था।
2019 की मई का महीना था, शायद 27-28 मई, हम तीन मित्रों ने सैर-सपाटे के लिए उत्तराखंड के पहाड़ों पर जाने का निर्णय लिया। मेरे जनरल मैनेजर ने दबी ज़ुबान में कहा भी कि बरसातें शुरु होने वाली हैं, आप पहाड़ों पर जाने से बचें, लैंड स्लाइड का खतरा रहता है। मैंने मुस्कुराकर अपना घिसा-पिटा मज़ाक दोहरा दिया – मेरे लिए किसे रोना है, अभी मौत नहीं आने वाली। – आप इस कंपनी के काम-काज को देखते रहिए।
मौत मेरे लिए नहीं आई। रुद्र प्रयाग से आगे हल्की बरसात थी और हम ड्राइवर के साथ अपनी यात्रा पर आगे बढ़ रहे थे। कुछ आगे चल कर पहला लैंड स्लाइड मिला लेकिन ड्राइवर ने थोड़ी जगह से ही गाड़ी को आगे बढ़ा लिया। मेनका और शालिनी डर रहे थे, उनका कहना था कि हमें कोई सुरक्षित स्थान देख कर यात्रा स्थगित कर देनी चाहिए, पर कहाँ था सुरक्षित स्थान? मैंने कहा मैं आगे ड्राइवर के साथ बैठती हूँ, तुम डरो मत, हम कहीं न कहीं पहुँच ही जाएंगे।
जब तीन दिनों के बाद देहरादून के अस्पताल में मुझे होश आया तो मैं पट्टियों में लिपटी थी। न जाने कितने फ्रेक्चर थे और मेरी आँखों से लगातार ब्लड आ रहा था। शीशा, पत्थर कुछ भी लगा होगा। मेनका, शालिनी और ड्राइवर तीनों की मृत्यु हो चुकी थी। सेना और पुलिस के लोगों ने हमारी कार को नदी से निकाला था। पुलिस के मुताबिक पहाड़ से गिरे एक बोल्डर ने हमारी गाड़ी को हिट किया था और गाड़ी सड़क से नीचे नदी में गिर पड़ी थी। मुझे कुछ भी याद नहीं था।
दिल्ली लाए जाने के बाद भी मैं महीनों अस्पताल में रही पर मैं ब्लाइंड हो चुकी थी। इस जीवन को स्वीकार करना आसान नहीं था पर धीरे-धीरे मैंने आदत को बन जाने दिया। शुरु के दिनों में स्टाफ ने काफी सहयोग किया पर वे जान गए थे कि अब मैं विवश हूँ, मेरे नियंत्रण में अब वह बात नहीं रही।’ उदासी भरे स्वर में सरिता ने कहा।
‘ओ, नो… किसी के साथ ऐसा भी हो सकता है, मेरी कल्पना से परे है। दृष्टिवान होकर, दृष्टि को खोना सचमुच कितनी बड़ी यंत्रणा है, मैं अनुमान लगा सकता हूँ। रास्ता तुम्हारे दिमाग़ में दिखाई देता है, पर वह ज़मीन पर खो जाता है।
तारा की बात अलग थी, उसे प्रकाश का अर्थ ही नहीं मालूम था। वह जन्म से ही ब्लाइंड थी। तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति में संतोष करना कैसे संभव हो सकता है, जबकि तुम्हारे पास पूर्व संचित अनुभव है। कितनी झल्लाहट और लाचारी का एहसास होता होगा।’ डॉ. विश्वास काँप रहे थे।
‘तारा के साथ क्या हुआ था?’
‘वही जिसका मुझे अंदेशा था। साल भर तक तारा मुझसे नाराज़ रही। मेरा फोन नहीं उठाया। मैं उसके घर गया तो मुझसे नहीं मिली। मुझे लगा कि अगर वह मुझे भुला कर खुश रह सकती है तो मुझे इस स्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए।
एक दिन तारा का फोन आया कि तुरंत आ जाओ, मैंने आत्महत्या का प्रयास किया है। मैं चाहती हूँ कि तुम मेरी चिता को अग्नि दो।
मैं बदहवास सा तारा के घर गया। उसके घर में कोई नहीं था, उसने अपनी कलाई की नस काट कर आत्महत्या का प्रयास किया था। वह जीवित थी, पर बेहोश थी। मैंने उसे यथा संभव उपचार दिया और डॉ. शर्मा के अस्पताल में ले गया। तारा बच गई। पुलिस केस भी नहीं हुआ।
प्रोफेसर वर्मा का मन साल भर में भर गया था। उनके बच्चों के लिए तारा उस घर में अवांछित थी। तारा का अहम् उसे मुझसे दूर रखे हुए था। जिस दिन पानी सिर के ऊपर से गुज़र गया उसने आत्महत्या का प्रयास कर लिया।
मैं अस्पताल से उसे अपने घर या कह सकती हो उसके पुराने घर ले आया। तारा बुझ चुकी थी। उसके बाद वह कभी सामान्य नहीं हो पाई। उसने कॉलेज जाने से मना कर दिया, वह घर के एक अंधेरे कमरे में सिमट कर रह गई।
लम्बे समय तक बहुत सारी बीमारियों के लिए उसका इलाज चला और कुछ वर्षों पूर्व एक दिन उसने मेरी गोद में दम तोड़ दिया। मुझे एक तारे को इतने नज़दीक से टूटते हुए देखना पड़ा।’ डॉ. विश्वास फफक-फफक कर रो पड़े।
अब किसी के पास कुछ भी नहीं था कहने के लिए। दोनों की कहानियाँ पूरी हो चुकी थीं। दोनों ने पूरी ईमानदारी के साथ अपने दुखों पर से पर्दा उठा दिया था।
‘डॉ. विश्वास क्या हम ऐसा ही जीवन जीने के लिए धरती पर आते हैं?’ सरिता ने पूछा।
‘सरिता जी, इसमें हमारा चयन कहाँ होता है? ….. हम तो कठपुतलियों की तरह हाथ-पांव हिलाते हैं, खेल के सूत्रधार तो अदृश्य होते हैं। जीवन जैसा भी हो हम उसे जीने के लिए अभिशप्त हैं। हिम्मत के साथ आगे बढ़ो… आत्मविश्वास में कमी नहीं झलकनी चाहिए। शुभकामनाएँ।’ डॉ. विश्वास ने फोन रख दिया।
सरिता ने समझ लिया था अक्षमता चाहे जितनी विशद हो, आत्मविश्वास और निरंतर प्रयास से उसे अवसर में बदला जा सकता है। अब उसे फिर से अपने काम में जुट जाना है।
ध्रुव तारा कभी अस्त नहीं होता..
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