
© अमृता खंडेराव
शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत मराठी लेखिका अमृता खंडेराव ने मराठी माध्यम के स्कूलों की बदहाली का सही हिसाब किताब लिखा है। मराठी के कंधों पर अंग्रेजी का बोझ और शिकायत किसी और बात पर की जा रही है।
उनके सवालों का जवाब कौन देगा?
उनकी मराठी पोस्ट का हिंदी अनुवाद पढ़िए
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तो, पहले मुझे जवाब दो
अगर हम अलग-अलग भाषाएं बोल, लिख और पढ़ सकते हैं, तो हम अलग-अलग संस्कृतियों से परिचित होते हैं और विभिन्न प्रकार के साहित्य का आनंद ले पाते हैं। मैंने इसी बारे में एक पोस्ट लिखी थी। कई लोगों ने मेरी पोस्ट का मूल अर्थ समझे बिना ही मान लिया कि मैंने वह पोस्ट किसी सरकारी योजना का समर्थन करने के लिए लिखी है।
अब आते हैं महत्वपूर्ण मुद्दे पर-
महाराष्ट्र में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल शुरू होने के बाद धीरे-धीरे लोग उनकी ओर आकर्षित होने लगे। दुनिया के बाजार में अपने बच्चों को पीछे न छूटने देने के लिए लोगों ने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में डालना शुरू कर दिया।
इस होड़ में बेहतरीन गुणवत्ता वाले मराठी माध्यम के स्कूल धीरे-धीरे बंद हो गए। सरकारी स्कूल खस्ताहाल हो गए। लोगों का अंग्रेजी के प्रति आकर्षण देखकर बड़े-बड़े उद्योगपति, राजनेताओं और शिक्षाविदों ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोले। आवासीय विद्यालय शुरू किए। थ्री-स्टार और फाइव-स्टार सुविधाएं देना शुरू किया।
इस चकाचौंध को देखकर लोग पागलपन की तरह उधर दौड़ने लगे। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल पैसे कमाने का साधन बन गए। स्टेट बोर्ड पैटर्न में, महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक महामंडल द्वारा निर्धारित पुस्तकें मराठी भाषा में मराठी माध्यम के स्कूलों के लिए और वही पुस्तकें अनूदित करके अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के लिए उपयोग की जाती हैं।
पाठ्यपुस्तक महामंडल द्वारा अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के लिए मराठी तृतीय भाषा की पुस्तक तैयार की जाती है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के लिए अंग्रेजी प्रथम भाषा की पुस्तक तैयार करके दी जाती है। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी इन तीन भाषाओं के साथ-साथ बाकी विषय और उनमें दिया गया कंटेंट दोनों जगह समान हैं। प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण अध्ययन और हाई स्कूल स्तर पर इतिहास-भूगोल, नागरिकशास्त्र, विज्ञान ये बुनियादी पुस्तकें बोर्ड द्वारा निर्धारित की गई हैं।
ये सभी विषय और उन विषयों की पाठ्यपुस्तकें सरकार के नियमों के अनुसार निर्धारित होने के बावजूद, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने वैल्यू एजुकेशन, जनरल नॉलेज, आर्ट एंड क्राफ्ट, ड्रॉइंग, वर्क एक्सपेरिमेंट, प्रोजेक्ट वर्कबुक जैसे कई विषय अपनी मर्जी से थोपने शुरू कर दिए। विभिन्न प्रकाशन संस्थाओं की महंगी किताबें पाठ्यक्रम में शामिल करना शुरू कर दिया।
मूल रूप से छह से सात बुनियादी विषय होने के बावजूद, पैसे कमाने और अभिभावकों को लूटने के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने अपनी मर्जी से कई विषयों की किताबें अभिभावकों पर थोपीं।
विभिन्न कंपनियों के साथ टाई-अप करके खूब कमीशन खाना शुरू कर दिया। कई क्रिश्चियन कम्युनिटी के इंग्लिश मीडियम स्कूलों में होली फेथ की किताबें छात्रों पर थोपी गईं।
साल की शुरुआत में नियमित पाठ्यपुस्तकें सिर्फ 400 से 500 रुपये की होती थीं, जबकि संस्थाओं और स्कूलों ने दस से बारह हजार रुपये की बेकार किताबें अभिभावकों के गले मढ़ना शुरू कर दिया। नर्सरी के छात्रों के हाथों में पांच से सात हजार रुपये की किताबों का गट्ठर दिया जाने लगा। आगे साल भर वे विषय कभी नहीं पढ़ाए जाते थे, लेकिन आपातकाल के रूप में परीक्षा के दौरान उन पर दस-बीस प्रश्न लिखवाते थे और उन विषयों के पेपर लेते थे, ऐसे धंधे शुरू किए।
प्री-प्राइमरी सेक्शन में क्या पढ़ाना है और कौन सी किताबें इस्तेमाल करनी हैं, इस पर सरकार का कोई बंधन न होने के कारण, एडमिशन लेते ही तीन साल के बच्चे के हाथ में दर्जनों किताबें रखी जाने लगीं।
मूर्ख अभिभावकों ने उन्हें खुशी-खुशी खरीदा, और अब भी खरीद रहे हैं। उसके खिलाफ बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।
मूल रूप से, शैक्षिक मनोविज्ञान कहता है कि पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में छात्रों को लिखना नहीं चाहिए। इस उम्र में बच्चों की मांसपेशियों पर नियंत्रण नहीं होता है, इसलिए उनके हाथों में पेंसिल पकड़कर जबरदस्ती लिखना नहीं चाहिए, यह शैक्षिक मनोविज्ञान कहता है।
लेकिन पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में दस-दस, बारह-बारह कॉपियां बच्चों से लिखवाकर भरवाई जाती हैं, इसके खिलाफ कोई क्यों नहीं बोलता?
हाई स्कूल स्तर पर जाने के बाद, मूल विषयों का बोझ बढ़ने के कारण छात्रों को इन अतिरिक्त किताबों की ओर देखने का भी समय नहीं मिलता। स्कूल में भी अकादमिक विषय पढ़ाने के लिए घंटे कम पड़ जाते हैं, इसलिए ये किताबें सिर्फ पैसे कमाने के लिए ही दी जाती हैं।
इस तरह की सैकड़ों निरर्थक किताबों से महाराष्ट्र के अभिभावकों के घरों के आले भर गए होंगे। इतने सालों में मैंने एक भी अभिभावक को इसके खिलाफ आवाज उठाते हुए नहीं देखा।
एक टीवी चैनल पर शैक्षिक विषय पर चर्चा के दौरान मैंने तत्कालीन शिक्षा मंत्री वर्षा गायकवाड़ से सार्वजनिक रूप से इस विषय पर पूछा था। उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
अंग्रेजी माध्यम के स्कूल सोने की खान हैं। यहां विभिन्न बहानों से अभिभावकों की जेब से पैसे निकालने के तरीके संस्थाओं ने तैयार किए हैं। बेकार प्रोजेक्ट तैयार करवाना, छात्रों पर अनावश्यक वर्कबुक थोपना, बेकार विषयों की हजारों रुपये की किताबें गले मढ़ना।
विभिन्न कार्यक्रमों के बहाने अभिभावकों की जेबें ढीली करना, गैदरिंग के समय पांच मिनट के कार्यक्रम के लिए हजारों रुपये के कपड़े तैयार करवाना, यह सब महाराष्ट्र के अभिभावकों ने बिना आवाज उठाए सहन किया।
और मैंने सिर्फ इस मुद्दे पर लिखा कि जितनी ज्यादा भाषाएं आएंगी, व्यक्ति उतना ही अधिक सुसंवादी और विकसित होगा, तो सब उसके खिलाफ बोलने लगे हैं।
जब अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने अभिभावकों को लाखों रुपये लूटा, तब मैं लगातार इस विषय को उठाती रही। तब अभिभावकों ने मुझे समर्थन क्यों नहीं दिया?
दरअसल, हिंदी की एक किताब से ज्यादा यह गंभीर विषय था। आज भी है।
आज जिन बच्चों के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहे हैं, वे स्कूल शुरू होने के बाद अपने बच्चों को कितने विषयों की किताबों का गट्ठर मिला, इसकी सूची बनाएं और सूचित करें।
सरकार द्वारा निर्धारित किताबों से कई गुना महंगी कितनी किताबें खरीदीं, यह बताएं। इन किताबों को लेने से संस्था को मना करें। उसके खिलाफ बोलें। हिम्मत हो तो इस विषय पर आंदोलन करें, पोस्ट लिखें।
जिन अभिभावकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन वे अपने बच्चे को पीछे न छूटने देने के लिए बेचारे अंग्रेजी माध्यम की ओर दौड़ते हैं, उन पर थोपा जाने वाला यह जजिया टैक्स पहले बंद करें। अभिभावकों को बुरी तरह लूटने वाले इस ज्वलंत
विषय पर कोई बोलने वाला है क्या?
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अमृता खंडेराव Amruta G. Khanderao (मराठी लेखिका,शिक्षिका)
(मूल मराठी से हिंदी अनुवाद)