महात्मा गांधी

महात्मा गांधी द्वारा स्थापित आश्रम, बापू की सोच, चिंतन की प्रयोगस्थली है, उनके जीवनदृष्टि की बुनियाद है। इतिहास का एक विद्यार्थी होने के नाते जब गांधी आश्रम (फीनिक्स-1904, टॉलस्टॉय-1910, कोचरब-1915, साबरमती-1915 से सेवग्राम- 1936) के प्रयोगों पर विचार करता हूँ तो गांधी को भारतीयता का प्रतीक और भारतीय एथोस को गहराई से समझने वाले के रूप में जान पाता हूं। गांधी ने भारतीय परंपरा, दर्शन, कला के प्रतीक महावीर और बुद्ध की अहिंसक दर्शन, भक्त प्रह्लाद की सविनय अवज्ञा, राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता को अपनी प्रेरणा बनाकर तत्कालीन साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका से भारत तक भारतीय लोगों के मानवाधिकार और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले एक सिपाही के रूप खड़े नजर आते हैं। गांधी के मार्ग पर चलकर अफ्रीका में नेल्सन मंडेला, मॉरीशस में सर शिव सागर राम गुलाम मॉरीशस, फिजी में महेंद्र चौधरी, म्यांमार में आन सान्ग सु की ने संघर्ष किया और लोकतंत्र को स्थापित किया। भारत में किसान और उनके मुद्दों को महत्व देने के लिए भारत में सबसे पहले किसानों से ही जुड़ी समस्या का नेतृत्व किया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए खादी, स्वदेशी और कुटीर उद्योगों को बढ़ाने पर जोर दिया। बेरोजगारी और क्लर्क पैदा करने वाली मैकाले की शिक्षा की जगह, उन्होंने हाथ को काम और दिल को शुकून देने वाली बेसिक एजुकेशन, 1936 का प्रयोग किया। इसके साथ साथ तत्कालीन समाज की मानसिकता और स्व को ऊपर उठाने के लिए अपने आश्रम को जंगल में न बनाकर, गांव और शहर के बीच में बनाये और देश समाज की परास्त मानसिकता में शक्ति ऊर्जा भरने के लिए विविध प्रयोग उन आश्रमों में किया। इन आश्रमी प्रयोगों का संपूर्ण वर्णन अपनी पुस्तकों ‘सत्य का प्रयोग- आत्मकथा’, ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’ में  करने का साहस भी दिखाया।

उपरोक्त सभी बातों से ज्यादा मत्वपूर्ण है -तत्कालीन भारतीय जनता की सामाजिक आर्थिक और सामरिक स्थितियों को समझते हुए एवं भारत की महावीर, बुद्ध की परंपरा को आधार बनाकर भारत की स्वतंत्रता को हासिल करने की  रणनीति बनाई और लगभग 30 वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह-1906 से  भारत में चंपारण किसान सत्याग्रह-1917, खेड़ा, असहयोग 1920, नमक सत्याग्रह- 1930 और अंतिम निर्णायक करो या मरो अंग्रेज़ो भारत छोड़ो-1942 के मुख्यधारा के आंदोलनों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। और अपने जीवन की रही सही कसर और ऊर्जा 1947 के सांप्रदायिक दंगों से देश को झुलसने से बचाने में लगा दिया।

मुझे लगता है अगर गाँधी ने विदेशों में बसे भारतीय गिरमिटिया मजदूरों के अधिकार से संबंधित लड़ाई नहीं लड़े होते तो आज विदेशों में हिंदुस्तानियों को कोई पहचाने वाला भी नहीं होता।

इसके वावजूद गाँधी ने भारतीय समाज में फैले कई अंतर्विरोधों पर अपनी स्वरतंत्रता आंदोलन पर प्राथमिकता देने के कारण ध्यान नहीं दे पाए।

किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन हमें आज के चश्मे की जगह तत्कालीन सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही करना चाहिए।

साथ ही तत्कालीन समस्या और समाधान के लिए प्रयुक्त  रणनीति और टूल्स को अपने समय और समाज के मुद्दों की प्रकृति के अनुसार आजमाना चाहिए।

ध्यान रहे रणनीति और टूल्स का प्रयोग करते समय देश की अस्मिता, पहचान, परंपरा और सबसे महत्वपूर्ण जिस कारण मिटती नहीं हमारी हस्ती, वज़ह बची रहनी चाहिए। जैसे महात्मा गांधी ने अपने आंदोलनों और प्रयोगों के दौरान न केवल उन्हें बचाये ही रखा बल्कि वे उसके सबसे भरोसेमंद प्रतीक भी बन गए….

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