
स्थाई पता
– सच्चिदानंद जोशी
अपना भोपाल का घर समेटते हुए एक पुराना कागज हाथ लग गया, मेरे हायर सेकेंडरी बोर्ड के नामांकन पत्र का। नवीं क्लास में थे हम। तब किसी ने कहा होगा कि सम्हाल कर रखना तो इतना सम्हाला कि पचास साल हवा ही नहीं लगी कि रखा कहां रखा है।
पुराना कागज हाथ में आ जाए तो पढ़ने का मोह हो ही जाता है। पढ़ते पढ़ते देखा तो उसमें एक कॉलम था “स्थाई पता”। स्मृतियों में पिताजी आ गए जिन्होंने बड़े गर्व से खुद हमसे लिखवाया था, ” लिखो, वर्तमान पता F1 डेरा पहाड़ी छतरपुर। और स्थाई पता ..” कहते हुए उनका गला भर आया था, “स्थाई पता है, जोशी बड़ा लोहिया बाजार लश्कर ग्वालियर।” तब पूछा था उनसे कि स्थाई पता होता क्या है और उन्होंने जवाब दिया था कि जब रिटायरमेंट हो जाता है और उसके बाद जाकर जहां रहते हैं वो होता है स्थाई पता। तबसे जो भी फॉर्म हो जिसमें वर्तमान और स्थाई पता दोनों पूछे जाते हों हम गर्व से यही स्थाई पता लिखते थे। एक बार मां ने पिताजी से मजाक में पूछ भी लिया “लिखवाया तो है बड़ी शान से स्थाई पता लेकिन कभी रहोगे भी अब कभी जाकर।” थोड़ा रुककर ही सही पिताजी बोले “क्यों नहीं रहेंगे। बचपन में भी रहते ही थे। बुढ़ापे में भी जाकर वहीं रहेंगे। इतनी जगह तो अभी भी बची है वहां कि दो कमरे अपने बन जायेंगे।”
मां की बात गलत नहीं थी। हमारे स्थाई रूप से रहने की कोई जगह वहां नहीं बची थी। लेकिन हमें वो क्यों चाहिए थी। हम तो छुट्टियों में या शादी में या ग़मी में जाते। तीनों ताऊ जी के घर थे ऊपर नीचे। हर ताई जी बहुत लाड से रखतीं, पसंद का खाना, नाश्ता बनाती। कभी इधर नाश्ता तो कभी उधर खाना। कई कई बार तो इधर भी और उधर भी दो दो बार खाना। हाँ प्यार भरी डांट खाने से तो अच्छा ही था। फिर कभी इस दीदी के पास तो कभी उस दीदी के पास जाकर अपने रोजमर्रा के काम करवाना और भाई लोगो के साथ धमाचौकड़ी करते दिन गुजार देना।
सोचा नहीं कि रिटायर होने के बाद पिताजी यहां आकर रहेंगे। और जब वो नहीं रहेंगे तो हमारे जाकर रहने का तो सवाल ही नहीं था। फिर भी हर जगह स्थाई पता वही लिखा गया “जोशी बाड़ा लोहिया बाजार लश्कर ग्वालियर”।
ऐसे में एक बार बड़े भाई की नौकरी के सिलसिले में कोई वेरिफिकेशन सीधा बंबई से पहुंच गया जोशी बाड़ा। वह व्यक्ति ताऊ जी को जोर देकर कहता बुलाओ कैंडिडेट को और ताऊ जी कहते वो यहां रहता नहीं है। हार कर उसने कहा “क्या ये पता उसका ही है,” तो ताऊ जी ने कहा, “पता तो उसका ही है लेकिन रहता नहीं है।”
कालांतर में जब पिताजी रिटायर हो गए और तीनों ताऊ जी स्वर्गस्थ हो गए तो सबकी सलाह से वो बाड़ा बेचना पड़ा। स्थाई पता चला गया। घर हमसे दूर हुआ लेकिन घर वाले और नजदीक आ गए। अब लोहिया बाजार भले ही हमारे पते में नहीं है लेकिन व्हाट्सएप ग्रुप पर बदस्तूर लगा है।
हमारा स्थाई पता हिला सो हिला, लेकिन अब तो आवेदनों से वो परंपरा भी चली गई। अब तो सिर्फ कॉलम होता है “पत्र व्यवहार का पता “। आपकी मर्जी जो पता दे दो लेकिन उसके साथ बिजली का , फोन (पोस्ट पेड़) का बिल या बैंक स्टेटमेंट लगाने से आपका पता दर्ज हो जाता है।
स्थाई पते की तलाश में कई घर बदले कुछ सरकारी कुछ प्राइवेट। मां पिताजी के साथ रहे और वो जिसे स्थाई कहते उसे ही स्थाई मानते रहे। पिताजी के गुजर जाने के बाद जिस किराए के मकान में थे उससे मन उच्चट गया। तब हिम्मत करके, मां को दिखा कर एक घर खरीदा। पूजा के बाद मां ने घर को निहारते हुए कहा “बस अब और कही नहीं जायेंगे। अब हमारा जो कुछ होना है यही होगा।” और हमने हर दस्तावेज पर अपना स्थाई पता लिख दिया “50 दीपक सोसायटी चूना भट्टी भोपाल”। आधारकार्ड, पैनकार्ड, वोटर कार्ड, ये कार्ड, वो कार्ड सब जगह यही पता डलवा दिया, स्थाई पते के रूप में।
लेकिन जो हम सोचे वो हो जाए ऐसा कभी होता है क्या।
नौकरी और नौकरी में तरक्की के लिए बाहर निकलना ही पड़ा। जो बाहर निकले तो निकल ही गए। फिर मां को भी साथ आना ही पड़ा। भोपाल का पता देते तो थे लेकिन वहीं स्थिति हो गई थी “पता तो है लेकिन रहता नहीं हैं।”
स्थाई पता न होने से घबराहट होती है कभी कभी। रिटायरमेंट के बाद कहां जायेंगे ये सवाल सताता है कई बार। लेकिन इस पीढ़ी के बच्चों से उसे व्यक्त करने की भी सुविधा नहीं है। क्योंकि उनके मन में इसको लेकर कोई घबराहट नहीं है। वो हंसते है ऐसी बात सुनकर। उनके लिए नौकरी बदलना कपड़े बदलने से ज्यादा आसान है। इसलिए उनके लिए स्थान बदलना भी आसान है। स्थान बदलेगा तो पता भी बदल जाएगा। उनमें क्षमता है कि वे बार बार अपना पता बदल दें, असल में, आधार में, पैन में, वोटर आईडी में। उनके लिए पता यानी ईमेल का पता है और उनमें हौसला है कि वो जब चाहे इसे भी बदल सकते हैं। ऐसे में लगता है कि “जोशी बाड़ा लोहिया बाजार लश्कर ग्वालियर” या ” 50 दीपक सोसायटी चूना भट्टी भोपाल” क्या सिर्फ एक पता था हमारे लिए, ” स्थाई पता” या उससे बढ़कर कुछ और था जिसे शायद अगली पीढ़ी समझ ही न पाए। हम भी कहां समझ पाए थे कि पिताजी का गला क्यों भर आया था जब उन्होंने हमसे फॉर्म में लिखवाया था स्थाई पता।





