क्या लिखूँ आप पर…

(हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. कमल किशोर गोयनका पर आधारित अर्चना पैन्यूली का संस्मरण)

अर्चना पैन्यूली

डॉ. कमल किशोर गोयनका के कृतित्व के संबंध में कुछ न भी लिखूँ तो उससे उनके लेखकीय व्यक्तित्व में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। सहज और सरल एवं तर्कपूर्ण, प्रेमचंद स्कॉलर, हाइकू कविताओं के रचयिता,  प्रवासी हिंदी साहित्य के विशेषज्ञ डॉ. कमल किशोर गोयनका हिंदी साहित्य जगत के सितारों में से एक हैं।

मैंडॉ. गोयनका जी का नाम बचपन से ही सुन रही थी, तब से जब वे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में हिंदी के शिक्षक थे और उन्होंने प्रेमचंद पर ऐतिहासिक काम किया था। मारवाड़ी बिजनेस परिवार के डॉ. गोयनका ने साहित्य में कैसे प्रवेश किया, इसकी एक दिलचस्प कहानी है।

गाँवों से शहरों को कूच करना, स्वदेशों से विदेशों में कूच करना एक सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया है। भटकन, सुदूर अजनान जगहों में जाकर रहना इंसान की पुरानी फितरत है। कमल किशोर गोयनका जी के दादाजी सेठ बद्रीदास गोयनका मंडावा, शेखावाटी (राजस्थान) से निकल कर उत्तर प्रदेश के नगर बुलंदशहर में बस गये। डॉ. कमल किशोर गोयनका का जन्म 1938 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुआ था। उनका अधिकांश बचपन और प्रारंभिक जीवन बुलंदशहर में ही बीता। यही वह शहर था जहाँ उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति अपने शुरुआती संस्कार पाए।

बचपन बुलंदशहर में बीता, जुलाई, 1958 में बीस वर्ष की अवस्था में कमल किशोर गोयनका जी अपने मूल शहर बुलंदशहर से दिल्ली आये। तब बुलंदशहर में पोस्ट ग्रेजुएशन की कक्षाएँ नहीं थीं। दिल्ली आना और वहाँ से एम. ए. करना उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी। उनके शब्द- ‘कई बार विस्थापन जीवन की दिशा बदल देता है, जीवन संघर्ष के साथ उपलब्धियां भी हासिल कीं। दिल्ली ने मुझे रंगमंच दिया जो देश में कहीं और नहीं मिल सकता था। अगर दिल्ली नहीं आता तो प्रेमचंद के कामों की कल्पना नहीं कर सकता था।’ गौरतलब है वे प्रेमचंद के साहित्य पर पी-एच.डी. व डी.लिट्. करने वाले पहले शोधार्थी थे।

डॉ. कमल किशोर गोयनका ने दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में चालीस वर्षों तक अध्यापन किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से अवकाश प्राप्त भारत के एकमात्र शोधार्थी रहे हैं। उनका जीवन पूरी तरह से हिंदी भाषा, साहित्य और विशेषकर प्रेमचंद के साहित्य को समर्पित रहा। प्रखर शोध प्रवृत्ति वाले गोयनका जी प्रेमचंद के साहित्य के सर्वोत्तम विद्वान शोधकर्ता माने जाते हैं। प्रेमचंद पर उनकी अनेक पुस्तकें व लेख प्रकाशित हो चुके हैं।

प्रेमचन्द पर शोध

प्रेमचंद पर उनका शोध और कार्य हिंदी साहित्य में अद्वितीय है। उन्होंने प्रेमचंद के जीवन, समय, रचनाएँ और वैचारिक दृष्टिकोण पर व्यापक कार्य किया। साहित्य अकादमी द्वारा ,प्रकाशित प्रेमचंद ग्रंथावली के संकलन, संपादन एवं भूमिका-लेखन में उनकी विशेष भूमिका रही है। उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं :

  • प्रेमचन्द : एक पुनर्मूल्यांकन
  • प्रेमचन्द और उनका युग
  • प्रेमचन्द रचनावली (संपादित, 12 खंड)
  • प्रेमचन्द : जीवन और साहित्य

इन कार्यों ने प्रेमचंद के साहित्य को नए संदर्भों में पढ़ने की दृष्टि दी।

प्रवासी साहित्य में योगदान

प्रेमचंद जन्म शदाब्दी समारोह में भाग लेने के लिए गोयनका जी 1980 में मॉरीशस गये थे। मॉरीशस में उनकी भेंट अभिमन्यु अनत से हुई और उन्होंने संकल्प कर लिया कि प्रेमचंद के साथ वे प्रवासी साहित्य पर भी काम करेंगे। 1986 में उनकी प्रवासी साहित पर पहली किताब आयी- ‘अभिमन्यु अनत एक बातचीत।‘

1980 के दशक से वे निरंतर प्रवासी हिंदी साहित्य के संपर्क में रहे। उन्होंने विश्व भर के देशों – विशेषकर अमेरिका, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, कनाडा, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका आदि में रचे जा रहे हिंदी साहित्य को न केवल संकलित किया, बल्कि उसका गहन अध्ययन और विश्लेषण भी किया। उनकी पुस्तक ‘प्रवासी हिंदी साहित्य का इतिहास’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर मानी जाती है। डॉ. गोयनका जी केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने प्रवासी हिंदी साहित्य को नई दृष्टि और नए आयाम प्रदान किए, जिससे यह क्षेत्र और भी समृद्ध हुआ।

अन्य रचनात्मक कार्य

डॉ. गोयनका न केवल आलोचक थे, बल्कि एक संवेदनशील कवि भी थे। उनकी हाइकु कवितायें बड़ी प्रचलित हैं। उनकी कविताओं में भारतीय समाज की जटिलताओं, प्रवासी जीवन की स्मृतियों और सांस्कृतिक पहचान की गूँज सुनाई देती है। उन्होंने लघुकथा, संस्मरण और निबंध जैसी विधाओं में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रमुख पुरस्कार एवं सम्मान

डॉ. कमल किशोर गोयनका को साहित्य में उनके योगदान के लिए अनेक पुरस्कार एवं सम्मान से भी अलंकृत और विभूषित किया गया। उनमें से कुछ प्रमुख निम्न हैं :

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार
  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘व्यास सम्मान’ 
  • भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा सम्मान
  • नागरी रत्न सम्मान
  • भारत सरकार द्वारा साहित्य सेवा के लिए प्रशस्ति
  • विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा विशिष्ट व्याख्यान आमंत्रण

स्मृति के कुछ पल डॉ. गोयनका जी के साथ

गोयनका जी के विस्तृत लेखन का ब्यौरा देने लगूँ तो शायद एक महाकाव्य भी छोटा पड़ जाए। हनुमान जी की पूँछ और द्रौपदी के चीर की तरह उनका वर्णन जितना किया जाए, उतना ही बढ़ता चला जाता है। दीये को रोशनी दिखानी वाली बात भी होगी। गोयनका जी के साथ कुछ अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करना चाहती हूँ।

डॉ. गोयनका से मेरा प्रत्यक्ष संपर्क मई, 2016 में हुआ, जब उन्होंने लमही में प्रकाशित मेरी कहानी ‘कितनी मांएं…’ पढ़कर मुझे ईमेल भेजा। डॉ. गोयनका जैसे विद्वान, भाषाविद् और साहित्य-प्रेमी से अपनी रचना पर सराहना मिलना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात थी।

अक्सर देखा है कि वरिष्ठ और विख्यात लेखक अपने ही नाम और अहम के घेरे में सिमट जाते हैं, लेकिन गोयनका जी जैसे व्यक्तित्व इससे अलग हैं- सरल, आत्मीय और प्रोत्साहन देने वाले।

जून, 2018 में एक बार फिर उनका ईमेल मिला। इस बार मेरी कहानी ‘मैं उन्हें पहचान न सकी’ (वीणा में प्रकाशित) को लेकर था। उन्होंने लिखा : “वीणा में प्रकाशित कहानी ’मैं उन्हें पहचान न सकी’ बहुत बढ़िया कहानी है। एक भारतीय का बड़ा ही प्रभावशाली चरित्र है और हिंदू पात्र को सही संदर्भों में देखा गया है। बधाई।”

उनकी ये पंक्तियाँ मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं थीं। गोयनका जी किसी भी कथाकर की रचना में प्राप्त जिज्ञासा लेते थे और अपना फीडबैक देने से कतराते नहीं थे। यह किसी भी भाषा तथा साहित्य के उत्थान के लिए अति आवश्यक है। कृतियों का मूल्यांकन, टिप्पणियाँ, फीडबैक, समीक्षा अति आवश्यक है, जिससे किसी लेखक का साहित्य सर्जन थमता नहीं, विकसित होता है। स्थापित और प्रख्यात साहित्यकारों को अपने अहम की जटिल गुत्थी को खोल कर नये लेखकों पर उपयुक्त टिप्पणी करने से परहेज नहीं करना चाहिए, जैसे गोयनका जी नहीं करते थे। किसी रचना विशेष पर उनकी टिप्पणी विशेषकर नये या उभरते हुए लेखकों को नवीन ऊर्जा से भर देती है।

डॉ. गोयनका सभी कथाकारों को पूरा-पूरा सम्मान देते थे। अपने विचारों को किसी आक्रमक भाषा में प्रस्तुत नहीं करते। डॉ. गोयनका जी के साथ मेरा सार्थक ईमेल्स का आदान-प्रदान हुआ।

मैंने उन्हें लातविया यूनीवर्सिटी की पी-एचडी. छात्रा अलीना नीदागुन्दी, जो डायस्पोरिक इन्डियन राइटर की कृतियों पर शोध कर रही थी, का अपनी पुस्तक ‘वेयर डू आई बिलांग’ (अंगरेजी संस्करण) पर लिखा रिव्यू भेजा। 

उनका तुरंत जवाब आया : ‘धन्यवाद अर्चना जी। यह आपके रचनाकार की बड़ी उपलब्धि है। हिंदी में उपन्यास मैंने देखा नहीं है। प्रकाशक का नाम बतायें तो मंगा लूंगा। इसका शीर्षक आकर्षक है और कुछ विषय का संकेत भी देता है। अंग्रेजी अनुवाद खूब पढ़ा जा रहा है यह शुभ समाचार है। हिंदी की गति पर क्या लिखूँ ? अलीना जैसे पाठक हिंदी में नहीं हैं। हम दूसरों की प्रशंसा करना ही भूल गये हैं।

आपके उपन्यास का शीर्षक आकर्षक है और विशेष रूप से प्रवासी लेखकों के सम्मुख यह बड़ी समस्या है कि वे कहाँ के हैं, उनका देश कौन सा है और जमीन कौन सी है। मैं समझता हूँ कि आपका उपन्यास इसी विषय पर होना चाहिए। विस्थापन के साथ यह प्रश्न जुड़ा रहता है पर दो-तीन पीढ़ी के बाद धूमिल होने लगता है।

हिंदी में अधिकांश लेखक आत्ममुग्ध हैं और गुट के साथ जीते हैं तथा उनका गुट उनके लिए पुरस्कार/यश/ प्रकाशन आदि की व्यवस्था करता है। मैंने यह कष्ट 40-45 वर्ष झेला है और अभी भी कोई न कोई वामपंथी डंक मार देता है। वामपंथियों ने हिंदी में अपना कब्जा बनाये रखा और अपने प्रतिकूलों को हाशिए पर डाल दिया या गायब कर दिया। ये लोग प्रशंसा अपने लोगों की करते हैं और दूसरों की बुराई। इन्हें साहित्य नहीं पार्टी साहित्य चाहिए। आप लिखती रहें और इस राजनीति की चिंता न करें। इनका सूर्य डूब रहा है पर इनके काफी चेले विश्वविद्यालयों तथा एकेडेमियों में बैठे हैं लेकिन परिवर्तन हो रहा है। यदि मोदी सरकार को और 5 वर्ष मिले तो साहित्य में इनका वर्चस्व दिखाई नहीं देगा।” उपरोक्त ईमेल में गोयनका जी ने विस्थापन, हिंदी लेखकों व संस्थापकों के गुटों, राजनीति  पर गहरा प्रहार किया है।

  दो-ढाई सालों तक ईमेल्स द्वारा उनसे मेरा संपर्क निरंतर बना रहा, विशेष कर विश्व हिंदी सम्मेलनों के दिनों पर उनकी कई ईमेल्स आ जाती। फोन पर भी बातचीत हो जाती।

डॉ. गोयनका ने कई पत्रिकाओं से हम कथाकारों को परिचित करवाया। अभी तक साक्षात रूप में उनसे मिल नहीं पायी थी। दरअसल उनसे दो बार भेंट होती-होती रह गयी थी। दिसम्बर, 2017 में केके बिड़ला फाउंडेशन ने मेरी पुस्तक ‘पॉल की तीर्थयात्रा’ पर एक संगोष्ठी आयोजित की थी, जिसकी अध्यक्षता गोयनका जी को करनी थी। मैं उसी दिन सुबह भारत, दिल्ली पहुँची थी। सभाग्रह में मेरी आँखें उन्हें टटोल रही थीं, उनकी छवि मेरे जेहन में थी। मगर उनके स्वरूप का कोई नहीं दिखा, फिर केके बिड़ला के निदेशक श्री सुरेश ऋतुपर्ण जी ने बताया कि गोयनका जी नहीं आ पाये हैं। खुशकिस्मती से ममता कालिया जी कार्यक्रम में उपस्थित थीं। उन्होंने कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई और अध्यक्षता भी की।

दो दिन बाद में गोयनका जी से मुझे ईमेल प्राप्त हुआ:  “मुझे कार्यक्रम में न आ पाने का बहुत अफ़सोस है। आप दिल्ली में कब तक हैं? मैं आपसे मिलना चाहता हूँ।‘ मगर तब तक मैं दिल्ली से अपने होमटाउन देहरादून रवाना हो गयी थी।

दूसरी बार जुलाई, 2018 में उनसे न्यू जर्सी में मुलाक़ात होने की संभावना जगी। वे दो महीनों से अमेरिका (न्यूजर्सी) में थे और मेरा भी न्यूजर्सी जाने का कार्यक्रम था, मगर अफ़सोस से मेरे अमेरिका पहुँचने से दो दिन पहले वे भारत लौट गये। उनसे मिलना फिर रह गया। सोच रही थी, पता नहीं कब उनसे मिलना हो पायेगा। उनके व्यक्तित्व ने मुझे हमेशा विशेष रूप से प्रभावित किया है। उनसे व्यक्तिगत तौर पर मिलने के लिए लालायित थी।

उनके 80 वें जन्मदिन पर एक प्रकाशन ने मुझे उन पर एक आलेख लिखने को कहा। जब मुझे उनके 80वें जन्मदिन के विषय में पता चला तो अचरज हुआ कि वे अपने जीवन के आठ दशक पूरे करने जा रहे हैं। मुझे तो डॉ. गोयनका कभी 66-68 से अधिक लगे नहीं। फोन पर बातचीत के दौरान जब मैंने उनसे यह बात कही तो वे हंसते हुए बोले, “मैं भी अपने को अभी साठ-पैंसठ का ही समझता हूँ।“

2018 में मैंने उनसे अपने नये उपन्यास, “कैराली मसाज पार्लर” की भूमिका लिखने का अनुरोध किया। वे मॉरीशस विश्व हिंदी सम्मेलन में अत्यधिक व्यस्त थे, फिर भी वे मेरा अनुरोध मान गये। मगर भूमिका लिखने से पहले उन्होंने मेरे लेखन और नये उपन्यास से संबंधित आठ प्रश्न पूछ कर मेरा अच्छा-खासा इंटरव्यू लिया। मुझ पर उनका प्रभाव और अधिक बढ़ा।  उनके प्रश्नों ने मुझे आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित किया। जब हम कोई भी कृति लिखते हैं तो उसका उद्देश्य क्या है ? एक पाठक के रूप में मुझे अपना उपन्यास कैसे प्रभावित करेगा ? मैं क्या कहना चाह रहीं हूँ, और जो कहना चाहती हूँ वह कह पायी हूँ ? क्या मैं स्वयं उपन्यास के प्रतिपाद्य से सहमत हूँ ? उनके प्रश्नों का जवाब देते-देते मुझे एक बहुत बड़ी अंतर्दृष्टि मिली। अपनी कृति का खुद ही मूल्यांकन व विश्लेषण करने का मौका मिला।

मेरे उपन्यास के लिए डॉ. गोयनका जी की प्रखर लेखनी से सजी चार पृष्ठों की भूमिका—जिसे उन्होंने शीर्षक दिया आधुनिक सभ्यता के जंजाल में शाश्वत मानवीय रिश्तों की कहानी’— उपन्यास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंश है। इस सारगर्भित भूमिका ने न केवल कृति के महत्व को रेखांकित किया, बल्कि मेरे आत्मविश्वास को भी नई उड़ान दी। उनके भीतर के समालोचक ने जिस गहराई और साहित्यिक निष्ठा से मेरी रचना का मूल्यांकन किया, वह उनकी समाज और साहित्य के प्रति गहन समझ को दर्शाता है। हर किसी पाठक ने उनकी लिखी भूमिका को अत्यधिक सराहा है।

किसी जमाने में बुलंदशहर से दिल्ली जाना गोयनका जी के लिए बड़ी बात हुआ करती थी, अब उनके लिए एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप जाना छोटी सी बात थी। दुनिया सिकुड़ रही है और गोयनका जी ने इसे और सिकोड़ दिया था। अपने भ्रमण की वजह से गोयनका जी को भिन्न-भिन्न महाद्वीपों की रवानगी, संस्कृति, व्यावसायिकता और लोगों के बारे में अच्छी जानकारी थी।

अगस्त, 2018 में विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस में अंततः गोयनका जी से साक्षात मुलाकात हो ही गयी। हिंदी जगत के महारथी, स्वनाम धन्य, जैसा सोचा था, वैसा ही उनका स्वरूप पाया। सम्मेलन के दौरान मैंने ‘प्रवासी संसार : भाषा और संस्कृति’ में भाग लिया, जिसके अध्यक्ष डॉ. कमल किशोर गोयनका थे। ‘प्रवासी संसार : भाषा और संस्कृति’ सत्र में बड़ी दमदार प्रस्तुतियां रहीं। यह मेरा अहोभाग्य कि डॉ. कमल किशोर गोयनका जैसे विद्वान को प्रत्यक्ष तौर पर सुनने का अवसर मिला। क्या कहूँ आप पर ? कैसे करूं कविता ? किरणों का सा तेज, सागर सी गंभीरता।

एक बार उनसे मुलाकात हुई, तो वह सिलसिला धीरे-धीरे गहराता गया। नवंबर, 2019 में ‘विश्वरंग’ आयोजन के अवसर पर भोपाल में उनसे भेंट हुई, और फिर दिसंबर, 2019 में साहित्य अकादमी में पुनः साक्षात्कार हुआ। मेरे लिए यह अत्यंत गौरव का क्षण था जब वे साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित मेरे कहानी-वाचन कार्यक्रम में विशेष रूप से उपस्थित हुए।

अपनी विचारोत्तेजक टिप्पणियों से उन्होंने चर्चा को जीवंत बना दिया। कार्यक्रम के दौरान उन्होंने मुझसे यह भी कहा- “आप किसी शुभ समाचार की प्रतीक्षा करिए।” मैंने सहज उत्सुकता से पूछा, “कैसा समाचार ?” वे मुस्कुराए और बस इतना ही बोले- “प्रतीक्षा करिए।”

तीन महीने बाद, जब मुझे केंद्रीय हिंदी संस्थान से पुरस्कार मिलने की सूचना मिली, तो मैं समझ गई कि डॉ. गोयनका जी का वह इशारा उसी शुभ समाचार की ओर था।

हिंदी जगत में डॉ. कमल किशोर गोयनका का योगदान अत्यंत सराहनीय है। उन्होंने हिंदी साहित्य के माध्यम से देश-विदेश में फैले हिंदी लेखकों, पाठकों और प्रचारकों को जोड़ने का कार्य किया है, और एक प्रकार से ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को साहित्यिक धरातल पर साकार किया है।

अपनी सुदीर्घ, सत्तासी वर्ष की जीवन यात्रा में उन्होंने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है- डॉ. गोयनका के जीवन में भी कई प्रेरणादायी स्त्रियाँ रही हैं।

उनकी प्रबुद्ध और दृढ़चरित्र दादी श्रीमती कुंजिकुवर गोयनका ने पति की असमय मृत्यु के बाद अपने आठों बच्चों का अत्यंत कुशलता से पालन-पोषण किया। बुलंदशहर के शीतलगंज मोहल्ले में, उन्होंने 1916 में एक लाख रुपये की लागत से लक्ष्मी नारायण जी का एक भव्य मंदिर बनवाया, जिसके डॉ. कमल किशोर गोयनका लंबे समय तक मैनेजिंग ट्रस्टी रहे।

उनकी पत्नी, श्रीमती कुसुम गोयनका- शिक्षित, सुघड़ और साहित्यप्रेमी- सदा अपने पति के साहित्यिक जीवन में सच्ची सहभागी रहीं। उन्होंने हर कदम पर उनका सहयोग कर उन्हें न केवल एक साहित्यकार, बल्कि एक बेहतर इंसान बनने में भी मदद की।

डॉ. कमल किशोर गोयनका का साहित्यिक जीवन गहन शोध, गंभीर आलोचना और हिंदी भाषा के वैश्विक प्रसार को समर्पित रहा। उन्होंने हिंदी साहित्य को एक समृद्ध वैश्विक परिप्रेक्ष्य दिया और यह दिखाया कि साहित्य सीमाओं का मोहताज नहीं होता। उनके निधन से हिंदी साहित्य जगत ने एक महान सर्जक, आलोचक और शोधकर्ता को खो दिया है। डॉ. कमल किशोर गोयनका का निधन न केवल हिंदी जगत की एक अपूरणीय क्षति है, बल्कि प्रवासी साहित्य और प्रेमचन्द-चिंतन के क्षेत्र में एक युग का अंत भी है। उनकी स्मृति साहित्यिक जगत में सदा अमर रहेगी।

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