
इस विशेषांक में संपादकीय – डॉ. शैलजा सक्सेना, आशा बर्मन, दीप शुक्ल, श्रुति, इंदिरा वर्मा, विजय विक्रांत, सरस दरबारी और नन्दकुमार मिश्र आदित्य की रचनाएँ संकलित हैं।
संपादकीय

डॉ. शैलजा सक्सेना
हर देश का एक स्वतंत्रता दिवस या विशेष दिन होता है। यह दिन देश के नाम का होता है। उसके निवासियों से आशा की जाती है कि वे लोग अपने देश की समृद्ध परंपराओं को याद करते हुए उसके स्वतंत्र होने या एक देश बनने की यात्रा को याद करें। कैनेडा अभी भी ब्रिटिश राज परिवार को मान्यता देता है। ब्रिटेन के ताज की ओर से एक गर्वनल जनरल को नियुक्त किया जाता है जिसके कार्यालय और खर्च की ज़िम्मेदारी कैनेडा निवासी उठाते हैं। यद्यपि इस गर्वनर का देश के कामकाज में की हस्तक्षेप नहीं रहता और ब्रिटेन की तरह ही यहाँ भी संसद के माध्यम से देश के नियम बनते और पारित होते हैं तथापि ब्रिटेन के राज के अंतर्गत इस देश को माना जाता है।
इतिहास के अनुसार 1 जुलाई, 1867 को ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका अधिनियम (जिसे आज संविधान अधिनियम, 1867 के रूप में जाना जाता है) ने कनाडा का निर्माण किया । 20 जून, 1868 को गवर्नर जनरल लॉर्ड मोंक ने एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कनाडा भर में महारानी के सभी नागरिकों से 1 जुलाई का जश्न मनाने का अनुरोध किया गया। हम २०२५ में इस देश की १५८वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं, सरकार की ओर से कुछ नि:शुल्क आयोजन होते हैं और सुंदर आतिशबाज़ी का आयोजन भी होता है। लोग घरों के बाहर कैनेडा का झँडा लगाते हैं और बार-बी-क्यू पार्टियाँ करते हैं।
कैनेडावासियों के लिए यह दिन छुट्टी मनाने का होता है। अगर यह शनिवार और रविवार के साथ पड़ जाए तो एक लंबे सप्ताहंत का आनंद लेने लोग अपने परिवारों के साथ लेक के पास बनी कॉटेज किराए पर लेकर रहने चले जाते हैं। केवल कुछ महीने की गर्मी वाले इस देश में बरसात आदि के कारण गर्मी के महीने भी पूरे नहीं मिल पाते। मई के अंत तक भी जैकेट और जून प्रारंभ में भी स्वेटर पहनने वाले हम, जून अंत में ठीक-ठाक गर्मी की आस लगाए बैठे रहते हैं। २१ या २२ जून को आधिकारिक रूप से ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ माना जाता है। इस तरह जुलाई १ के सप्ताहंत से बहुत सी आशाएँ होती हैं। कैनेडावासी हर दिन और हर घंटे का आनंद उठाना जानते हैं अत: थोड़ी सी गर्मी होते ही कायाक (छोटी नाव) या बड़ी नावें लेकर पानी का आनंद उठाने निकल पड़ते हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना है कैनेडा। पाँच बड़ी झीलें, जो अपने विस्तार में समुद्र का भ्रम देती हैं, अपने मनोहारी रूप से मोह लेती हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छोटी झीलें, नदियाँ, झरने और कनेडियन रॉकी पर्वत शृंखला अद्भुत हैं। जुलाई १, इस देश के सौंदर्य और संविधान के प्रति इसके निवासियों को सचेत करता है और रक्षा के लिए प्रेरित करता है।
इस देश ने पिछले १०० वर्षों में भारतीयों के आगमन का स्वागत किया है। पंजाब से इतने सिक्ख परिवारों ने इसे अपना घर बनाया है कि कैनेडा को ’मिनी भारत’ या ’छोटा पंजाब’ ही कहा जाने लगा है, इस तथ्य के सकारात्मकप पक्ष यह हैं कि भारत का हर सामान यहाँ मिल जाता है और हर त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है, इस बात का नकारात्मक पक्ष यह है कि हम भारतीय राजनीति और मानसिकता को इस देश में भी ले आये हैं। इस मानसिकता ने ही कनेडियन राजनीति को भी प्रभावित किया है। खालिस्तान जैसे आंदोलनों के चलते जहाँ सिक्खों का हिंदुओं के प्रति विद्वेष भाव बढ़ा है वहीं भारतीय काउंसलावासों को भी धमकियाँ देकर अस्थिरता पैदा करने की चेष्टा की गई है। आम कनेडियन इन बातों से क्षुब्ध होता है और ’अपनी’ ज़मीन पर ’दूसरों’ की लड़ाई नहीं लड़ना चाहता।
यह अस्थिरता अभी हाल की बात है अन्यथा भारतीय समाज ने कैनेडा के आर्थिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को समृद्ध करने में बहुत योगदान दिया है। भारतीय डॉक्टर, तकनीकी विशॆषज्ञों (आई.टी.) और किसानों ने इस समाज में अपने लिए आदर का स्थान बनाया है।
जुलाई १ कनेडियन संस्कृति के ’मोज़ेक’ होने की स्पष्ट करता हुआ विभिन्न देशों से आये अप्रवासियों को यह याद दिलाता है कि अधिकार के साथ कर्तव्यों का पालन करना, इस देश के नियमों को मानना आवश्यक है। हम इस बार जुलाई १ पर आपके लिए यह ’कैनेडा डे’ विशेषांक लेकर आये हैं जिसमें कैनेडा में भारतीय समाज की भूमिका भी आपको दिखाई देगी और यहाँ के हिंदी लेखकों की सक्रियता भी।
वैश्विक हिंदी.कॉम पर आपको कैनेडा के ५० से अधिक हिंदी लेखकों की उपस्थिति यह बताती है कि यहाँ हिंदी में स्तरीय लेखन हो रहा है। हिंदी की अनेक संस्थायें सक्रिय हैं और मंदिरों में हिंदी स्कूल भी चल रहे हैं। बहुत से काम अभी भी शेष हैं पर हवाओं का रुख बताता है कि नाव सही दिशा में चलती रहेगी।
जुलाई १, कैनेडा डे पर सभी कैनेडावासियों को बधाई। इस विशेषांक में दीप शुक्ल, आशा बर्मन, श्रुति, इंदिरा वर्मा, विजय विक्रांत जी, सरस दरबारी जी और नन्दकुमार मिश्र आदित्य ने अपनी रचनाएँ भेजीं। इन सभी का धन्यवाद।

आशा बर्मन
टोरंटो कैनेडा की वेदांता सोसाइटी और सूप किचन

विश्व के अनेक देशों में रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखायें हैं, जिन्हें वेदान्ता सोसाइटी कहा जाता है। टोरंटो की वेदान्ता सोसाइटी भी रामकृष्ण मिशन की एक शाखा है।
रामकृष्ण मिशन की स्थापना १ मई सन् १८९७ को ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के परम् शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने की। इसका मुख्यालय कोलकाता के निकट बेलुड़ में है। इस मिशन की स्थापना के केंद्र में वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार है। रामकृष्ण मिशन दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्मयोग मानता है जो कि हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।

वेदान्ता सोसाइटी के सभी कार्य रामकृष्ण मिशन के सिद्धांतों के आधार पर होते है। वेदान्ता सोसाइटी के कार्य कलापों में भी सेवा को बहुत महत्व दिया जाता है। स्वामी जी जीवन का एक-एक क्षण जन सेवा में लगाते थे और ऐसा ही करने के लिए सभी को प्रेरित करते थे। वे मानव सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानते थे। इसी के फलस्वरूप टोरंटो,कैनेडा की वेदान्ता सोसाइटी में सूप किचन का आरंभ 2001 में स्वामी प्रमथानंद जी की प्रेरणा से हुआ। २००३ से इस आश्रम के अध्यक्ष स्वामी कृपामयानन्द जी हैं। उनकी अध्यक्षता में सूप किचन की सेवा में अत्यंत वृद्धि हुई है। आरंभ में यहाँ सूप किचन से प्रत्येक महीने लगभग 50 लोगों को ही लाभ मिलता था लेकिन स्वामी कृपामयानन्द जी के आने के पश्चात अब कुछ ही वर्षों में सूप किचन में प्रत्येक महीने करीब 700 लोगों को खाना मिलता है। एक बार के सूप किचन आयोजन में लगभग $120 खर्च होता है, जो उन्हें स्वयंसेवकों तथा भक्तों से प्राप्त होता है। जो लोग इस सूप किचन के आयोजन कार्य में योगदान देते हैं उनकी संख्या 100 के लगभग है। यह कार्य बड़ा व्यवस्थित तथा संचालित रूप से होता है। महीने के शुरू में ही हमें पता रहता है कि हमको किस दिन जाना है। सुबह 9:30 से 1:30 बजे तक हम लोग वहां रहते हैं, हम लोगों का कार्य होता है, खाद्य पदार्थ की वस्तुएं खरीदना, खाना बनाना,लोगों तक पहुंचाना और खाने के बाद पूरे किचन की अच्छी तरह सफाई करना।
12:00 बजे तक हम लोग खाना तैयार करके उसे संस्था में पहुंचाते हैं जहां पर जरूरतमंद लोगों को खाना मिलता है। वहां से आने के बाद जितने स्वयंसेवक है, वे लोग अपने घर से ही कुछ खाद्य पदार्थ बना कर लाते हैं फिर हम लोग मिलकर खाना खाते हैं। इस प्रकार इसमें न केवल समाज सेवा होती है बल्कि हम लोगों का एक दूसरे से मिलना जुलना भी होता है। अधिकतर लोग इसमें सीनियर है, यह उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है। यहाँ १०-१२ स्वयंसेवकों के कई ऐसे ग्रुप बने हुए हैं जो एक नियत समय पर वेदांता सोसाइटी में कुछ घंटे के लिए आकर खाना बनाकर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाते हैं। सरकार द्वारा बताया गया एक सेंटर है जहां पर खाना जाता है नियमित रूप से उन्हें जैसी आवश्यकता हो उसके अनुसार खाना दिया जाता है कभी हम सूप, कभी शाकाहारी पुलाव और कभी पास्ता भी देते हैं हर भोजन के साथ उन्हें फल और सलाद भी दिया जाता है।


बहुत प्रसन्नता की बात यह है कि पिछले कई वर्षो से हमारे हिंदी राइटर्स गिल्ड से भी कई लोग यहां पर महीने में एक बार आते हैं और निस्वार्थ सेवा कर प्रसन्न होते हैं , इस कार्य से मन में बहुत शांति मिलती है क्योंकि यह एक अच्छा सेवा का कार्य है। कभी-कभी यदि स्वामी जी वहां उपस्थित हों, तो हम लोग उनके अनुरोध पर अपनी रचनाएँ भी सुनाते हैं। इससे हमारा उत्साह भी बढ़ता है।
वर्ष में एक बार किसी दूसरे स्थान से कोई स्वामी जी भी आते हैं, उनके वक्तव्य के पश्चात’ लोग उनसे प्रश्न भी पूछ सकते हैं। जैसे, इसी वर्ष 6 जुलाई 2025 को स्वामी सर्वप्रियनंद जी आएंगे।
यहां पर सितंबर के महीने में हर वर्ष सीनियर डे मनाते हैं। और उसमे सारा कार्य सीनियर लोग संभालते हैं। यहां पर धर्म के साथ कर्म का अद्भुत समन्वय है।
यहां कई सीनियर लोग ऐसा सोचते हैं कि इतने वर्ष हम लोग कैनेडा में रह रहे हैं तो हमने समाज से केवल लिया है अब हम लोग को कुछ देने का समय आ गया है । इस कार्य में अधिकतर लोग सीनियर लोग हैं जो सब मिलजुल के टीम की तरह एक निस्वार्थ सेवा में जुटे रहते हैं।
वेदांता सोसाइटी में हिंदू धर्म के सभी बड़े-बड़े पर्वों को भी मनाया जाता है – जैसे दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, दिवाली, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा इत्यादि।


मेरा व्यक्तिगत अनुभव
अवकाश प्राप्त करने के पश्चात हम लोगों के मन में एक प्रश्न उठा कि हम समय का सदुपयोग एक अर्थपूर्ण प्रकार से कैसे कर सकते हैं? तभी हमें वेदांत सोसाइटी के सूप किचन के संबंध में जानकारी मिली। हम दोनों (मैं और मेरे पति श्री अरुण बर्मन) उसके साथ युक्त हो गए। मेरा व्यक्तिगत अनुभव तो यह है कि सूप किचन में कार्य करने पर इतनी सकारात्मक ऊर्जा मिलती है कि वहां पर की गई सारी मेहनत, सारा श्रम अत्यंत ही सहज लगता है। साथ ही साथ वहां पर काम करने से हम लोग वहां रविवार के धार्मिक अनुष्ठानों में भी जाने लगे और स्वामी श्री कृपामयानंद जी की वक्तृता से भी बहुत प्रभावित हुए।
वेदांता सोसाइटी में एक स्वयंसेवक के रूप में कार्य करने से जो आनंद मिलता है उसका वर्णन करना मुश्किल है, वहां पर कुछ एक ऐसे स्वयंसेवक भी है जो तन मन धन लगाकर प्रतिदिन वहां कार्य करते हैं। उनको देखकर सभी को बहुत प्रेरणा भी मिलती है, ऐसा लगता है कि कोई एक देवी शक्ति है, जो यहां सबसे इतना कार्य करवा लेती है और एक ही उद्देश्य से जब सब लोग एक सकारात्मक कार्य करते हैं तो एक अच्छी टीम वर्क की भावना,परस्पर सहयोग की भावना उत्पन्न होती है, जो सबों को जोड़ती है।
वेदांता सोसाइटी के आश्रम में प्रमुख रूप से ठाकुर श्री रामकृष्ण देव, उनकी धर्मपत्नी शारदा मां तथा स्वामी विवेकानंद के चित्र स्थापित किए गए हैं। उसके साथ ही वहां पर बुद्धदेव और ईसा मसीह के चित्र भी लगे हैं। ठाकुर श्री रामकृष्ण जी की प्रमुख युक्ति है ‘जितने मत है उतने ही पथ हैं’ इसका अर्थ यह है कि विभिन्न धर्म के सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं,ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकार रहता है जैसे एक मोती की माला में एक तार जो सभी मोतियों को एक साथ पिरोये रखता है ,इसी प्रकार ईश्वर सभी प्राणियों में रहता है।
इस प्रकार की भावना आज के इस युग में भी जहां पर युद्ध होते रहते हैं ,ऐसी भावना की बहुत आवश्यकता है। 150 वर्ष पहले ठाकुर ने भावना की स्थापना की थी वह आज भी पहले से भी अधिक कल्याणकारी प्रतीत होती है ।
वेदांता सोसाइटी में परोपकार की भावना को बहुत महत्व दिया गया है, स्वामी विवेकानंद जी एक महान कर्मयोगी थे, उन्होंने हमें सिखाया कि यदि हम जीवन में परोपकार करें तो ईश्वर सत्य ही मिल जाएगा क्योंकि प्राणी की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह सेवा निस्वार्थ होनी चाहिए। विवेकानंद जी की वाणी जैसे हमारे संत कबीर की ही वाणी है जिन्होंने कभी कहा था कि,
वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।
शारदा माँ भी यही कहती हैं कि यदि तुम्हें गलती देखनी है तो दूसरों के मत देखो, अपनी ओर देखो। रहीमदास जी की वाणी भी यही कहती है
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा ना कोय।।
वेदांत सोसाइटी के वातावरण में संतों की वाणी प्रतिध्वनित होती है ।
सूप किचन के संबंध में मन के कुछ भावों को मैंने एक कविता के द्वारा व्यक्त किया है उसकी कुछ पंक्तियां आपके लिए प्रस्तुत है,
हमारा सूप किचन परिवार
हमारा यह ‘सूप किचन’ परिवार
सहयोग और प्रेम ही जिसका आधार।
परिवार शब्द ने दिया ऐसा एक बंधन,
जिसमें है प्रवाहित संवेदना का स्पंदन।
इस अनन्य बंधन का एक ऐसा है प्रभाव,
किसी का किसी पर, है नहीं कोई दबाव।
हम यथासमय, प्रेम से मिलते हैं,मुस्काते हैं,
वार्तालाप कर कभी हंसते, कभी खिलखिलाते हैं।
एक अदृश्य शक्ति नेपथ्य से करवाती सब काम
सभी कार्य सहज सम्पन्न होते ठाकुर के नाम।
यहां का सभी कार्य सबका ही होता है,
जिसके जो हाथ लगे, वह वही सहर्ष करता है।
होता है और भी बहुत कुछ यहाँ सूप बनाते-बनाते,
कभी रेसेपी का लेन-देन, कभी नाती-नतनी की बातें।
कभी निकट भविष्य में कुछ नया करने की योजना,
बच्चों का कैसे हो योगदान, इस विषय पर सोचना।
कभी करते संगीतचर्चा, कभी श्लोक गुनगुनाते हैं,
जन्मदिन हो तो शुभकामनाओं के गीत भी गाते हैं।
समय यहां व्यतीत होता अति ही आनंदमय,
सबका पस्पर जुड़ना ही तो है आध्यात्ममय।
बंधुत्व के सौरभ से सुरभित यह वातावरण,
वायु के कण-कण में यहां छाया है अपनापन।
चित्त को आनंदित करने का साधन यह सत है,
हमारे इस जीवन की उपलब्धि यह महत है।

दीप शुक्ला
मेरा कनाडा, मेरी कहानी : कनाडा डे पर एक आत्ममंथन
जनवरी 2018 में जब पहली बार कनाडा की धरती पर कदम रखा, तब साथ था बस एक सपना – एक बेहतर जीवन, एक सुरक्षित भविष्य।
लेकिन कनाडा ने मुझे सिर्फ अवसर ही नहीं दिए, उसने मुझे अपनाया, निखारा और मुझे मेरी पहचान दी।
आज, जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो दिल गर्व से भर जाता है।
बैंकिंग क्षेत्र में मेरा सफर कनाडा में पेशेवर पहचान बनाने का जरिया बना। ग्राहक सेवा से लेकर वित्तीय सलाह तक, मैंने न केवल एक करियर बनाया, बल्कि भरोसे और मूल्य पर आधारित जीवनशैली भी सीखी। कनाडा की पारदर्शिता और ईमानदारी ने मुझे नए आयाम दिए।
परंतु जीवन सिर्फ कार्यालयों तक सीमित नहीं रहा। समाज सेवा हमेशा मेरे हृदय के करीब रही है।
मैंने “सेवक दल” नामक एक गैर-लाभकारी संस्था की सह-स्थापना की, जिसका उद्देश्य रहा – समुदाय की सेवा करना, आयोजन में सहयोग देना और ज़रूरतमंदों की मदद करना। सेवा का यह भाव मेरे संस्कारों की पूंजी है।
तकनीक के क्षेत्र में कदम रखते हुए, मैंने एक आईटी व्यवसाय शुरू किया, जिसका उद्देश्य था कनाडा में छोटे और मध्यम व्यवसायों को डिजिटली सशक्त बनाना। यह काम मेरे लिए सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि सहयोग और सशक्तिकरण का माध्यम बना।
संस्कृति और साहित्य मेरा जीवन है। इसी भाव से मैंने “कहानी जंक्शन” की सह-स्थापना की, और फिर मंचित की – उत्तरी अमेरिका की सबसे भव्य रामलीला, वो भी पूर्ण रूप से हिंदी में। यह मंच सिर्फ नाटक का मंच नहीं था – यह संस्कृति का संगम, भाषा का उत्सव और समाज का उत्साह था।
और वर्ष 2023 और 2024 में, हमें गर्व था कि हमने North York Diwali Fest का सह-आयोजन किया – एक ऐसा उत्सव जिसने पूरे GTA में दिवाली के रंग बिखेरे। इस भव्य आयोजन को Toronto की मेयर ओलिविया चौ, और अन्य गणमान्य अतिथियों से विशेष सराहना प्राप्त हुई। यह केवल एक उत्सव नहीं था – यह एक भावना थी, जो कनाडा की बहुसांस्कृतिक आत्मा को दर्शाती है।
और अंत में – मेरी आत्मा का हिस्सा – कविता और लेखन। मैं गर्व से कहता हूँ कि आज भी मैं हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा में समर्पित हूँ। लेखनी मेरे लिए साधना है, और भाषा मेरी साधिका।
कनाडा ने मुझे न सिर्फ एक बेहतर जीवन दिया, बल्कि स्वयं को खोजने और समाज को कुछ लौटाने का अवसर दिया।
इस कनाडा डे पर मैं सिर्फ एक देश का उत्सव नहीं मना रहा,
मैं मना रहा हूँ उस भूमि का धन्यवाद – जिसने मुझे अपनाया, तराशा और पहचान दी।
धन्यवाद कनाडा!
तेरे आँगन में मेरे सपनों को पर लगे।
हैप्पी कनाडा डे!

श्रुति चौकसे
पहली बर्फ़
सुबह जब खिड़की से झांका, तो
नज़र टिकी की टिकी रह गई।
मानो हिस्सा बन गई हूँ,
किसी अद्भुत कहानी का..
जिसके पहले पन्ने पर,
बिखेर दिया हो सफ़ेद रंग किसी ने!
सफ़ेद चादर से ढक गई मेरी कार।
सूरज की किरणें छू कर धरती को,
यूँ चमक रही थीं, कि
जिनके आगे सोने की चमक भी
फीकी लग रही थी..
दूर-दूर तक कोई और रंग नहीं दिखा,
मानो, सारे रंग घुल गये इस चमकदार रंग में।
मुझसे रहा नहीं गया आख़िर ये मेरी पहली बर्फ़ थी!
जैकेट पहन कर, मैं निकल आयी ख़ुद को रंगने,
रूई के फ़ाहे सी गिरती बर्फ़ जब मेरी
काली जैकेट पर गिरी, तो लगा
जैसे हजारों सितारे जड़ दिए हों किसी ने!
जब हाथों में भरनी चाही, तो ग़ायब हो गई पल भर में ही।
लग रहा है कि स्वर्ग में आ गई हूँ।
क्या अलग होगा वो इससे?
इतना साफ़, ताज़ा और चमकदार!
इस दृश्य को जी लूँ या लिख दूँ कविता?
इसी उधेड़बुन में, लिख दिया कुछ भी,
बिना किसी तुकबंदी के..
साधारण, सादा सा, ख़ुद में पूर्ण,
रंगीन-अंतहीन दृश्य!
***** *****
कैनेडा की हिम-श्वेत धरती पर भारत का ‘बसंत’
ठिठुरती ठंड को विदा करने नया महीना आया है,
रंग बिरंगे फूल-पत्तियाँ और हरियाली लाया है।
हर जगह नयी शुरुआत है दिखती, सूरज भी इतराया है,
अपने संग बसंत जाने कितनी उम्मीदें लाया है..
ऐसी ही उम्मीद लिए, मैंने कैनेडा में क़दम रखा,
घबराहट, झिझक कुछ ऐसी,
क्या कोई बनेगा यहाँ सखा?
पर जित देखा, उत पाया मैंने, चेहरा कोई अपना।
जैसे धरती पर चमकता कोई बिछड़ा सपना..
कैनेडा के बारे में क्या लिखूँ?
ख़ूबसूरत है ये कितना!
आँखें चकाचौंध में डूब गईं, अपनाऊँ इसे मैं जितना।
अनंत फ़ैला आसमान यहाँ, रंगों में डूबा दिखता है।
नारंगी, पीला, लाल, गुलाबी,
नीले अम्बर को ढँकता है।
हाँ शोर ज़रा, सड़कों पर है, पर
असीम शांति भी मिलती है,
जब निकल जाऊँ किसी पगडंडी पर,
हरे जंगल सी दुनियाँ दिखती है..
ठण्ड के मौसम में यह, रंग सफ़ेद बिखराता है
गर्मी के समय तो जैसे, रंगों का मेला लग जाता है..
पथझड़ के महीनों में, चित्रकारी ये बन जाता है,
और बसंत में नए पत्तों को बड़े प्यार से सहलाता है।
टोरोंटो में 15 अगस्त को,
जब आज़ादी का महोत्सव देखा।
महसूस नहीं हुई दो देशों को, अलग करती कोई रेखा।
देखी हर प्रदेश की चाल-ढ़ाल
सुनी विदेश में अपनी बोलचाल!
संस्कृति देखी, नृत्य देखा,
खाया खाना कमाल।
लगा ही नहीं कोई दूजा देश,
कोई अलग टुकड़ा ज़मीन का हो!
समा लिया सबको अपने में इसने
जैसे पुर्ज़ा कोई मशीन का हो..
मैं कहती हूँ — क्या अंतर है दो देशों में?
क्या अंतर है, रहने वालों में?
कितने ही मुझ से घर छोड़कर आए
पिछले कितने ही सालों में।
एक नई दुनिया बसाने हम, पुराना सामान ले आते हैं,
कहीं भूले बिसरे सब अपने संग,
भारत का ‘बसंत’ ले आते हैं!

इंदिरा वर्मा
आप बीती! कैनडा में!
५० वर्ष से भी अधिक समय हो गया जब हम भारत व अपना परिवार तथा वहाँ के सभी बन्धन छोड़ कर यहाँ कैनेडा आ पहुँचे, आँखों में कुछ स्वप्न लिये, कुछ आशंकाये भी और बहुत सारा दुख अपना देश छोड़ने का।
बस ललक थी विदेश जाने की, बानक भी बनते गये। तैयारियाँ हो गईं, पास पोर्ट बन गये, ख़रीदारी हो गई और मैं अपने माता पिता का दिल तोड़ कर, उनके नाती नातिन को लेकर चल पड़ी। वादा तो यह किया था अस्वस्थ माँ से, कि जल्दी जल्दी आती रहूँगी पर पता नहीं था कि कहने से करना कितना कठिन हो सकता है।
आने से पहले हमारी चचेरी बहन से पत्र व्यवहार से कुछ बातें पता चलीं। वे कुछ समय से कैनडा में रह रही थीं।उन्होंने हमारी छोटी बड़ी चिन्ता का बड़ी अच्छी तरह समाधान किया तथा यह लगने नहीं दिया कि आने वाली चुनौतियों का सामना करने में हमें कोई भी कठिनाई होनी
चाहिये।
भारत छोड़ने का दिन भी आ गया और जैसे होता है, वही हुआ। हम चल तो पड़े परंतु अपने मन प्राण वहीं छोड़ दिये। मेरा तीन वर्ष का बेटा हवाई जहाज़ देखते ही, उसकी आवज सुन कर, डर कर वापस भागा, रोते हुये बोला कि वह नहीं बैठेगा हवाई जहाज़ में, वह गन्दा है, उसका यह व्यवहार देख कर हम सबकी आँखों में आँसू भर आये। शायद हम सभी यही चाह रहे थे। (उन दिनों पहुँचाने आने वाले संबंधी जहाज़ तक आ सकते थे) रोते हुये बच्चे को मेरे भाई ने गोद में उठा कर प्लेन तक पहुँचाया।रास्ता भी कट गया सोते जागते।
ख़ैर, आने पर घर जमाया तब समझ में आया कि नौकरी भी ढूँढनी चाहिये।इधर उधर बातचीत से पता चला कि उस समय यहाँ अध्यापकों की कमी थी।अपने पिता जी के प्रोत्साहन पर पढ़ाई करते रहना ख़ूब काम आया।मैंने बच्चों के स्कूल में पढ़ाने की नौकरी के लिये अर्ज़ी भेज दी। कुछ ही दिनों में इनटरवियु के लिये बुलाया गया।
अब प्रश्न यह उठा कि इनटरवयू में पहना क्या जाये।हम तो साड़ी या सलवार पहनते हुये आये थे। विदेशी पहरावा तो केवल देखा था दूसरों पर,व दूसरों पर ही ठीक लगता था। अपना पहनना तो दूर,कल्पना करना भी कठिन ही था।फिर कौन सी दुकान से क्या ख़रीदा जाये, यह
समझ भी नहीं थी। किससे पूछें क्या करें? अंग्रेज़ी लोगों के साथ कभी बातचीत भी नहीं हुई थी, इंटर्व्यू कैसे देंगे?
अन्ततः आ गया समय इंटरव्यू में जाने का। अब तो मरता क्या न करता वाली हालत हो गई,साथ ही साथ अपना देश प्रेम जागृत हो उठा। क्यों न साड़ी ही पहनी जाये?। हमारा पहरावा है और अपने विषय में भी तो कुछ बताने का यह अच्छा अवसर दिखाई दिया। जो होगा देखा जायेगा।
हाँ, इतना तो पता था कि यहाँ पर पुरुष वर्ग से इस तरह की सिचूएशन में हाथ मिलाना चाहिए। सोचा, कुछ तो विदेशी होना चाहिये।
अपने विषय की तो तैयारी थी। हल्के आसमानी रंग की साड़ी पहन, मन ही मन घबराती हुई सी पहुँची। वहाँ एक बड़े से कमरे में ले जाया गया। एक चमकती हुई मेज़ के चारों ओर चार पाचं अंग्रेज़ पुरुष बैठे थे। मुझे देखते ही वे खड़े होगये और एक एक कर के हाथ मिलाया तथा एक ख़ाली पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।मैं धन्यवाद कह कर बैठ गई।
जहाँ तक मुझे याद है, मुझे घबराई हुई देख कर, उन सबने ऐसे ही प्रश्न पूछे जिन के कारण मैं सहज हो गई व आगे पूछे गये प्रश्नों से, जो कि अधिकतर पढ़ाई आदि के विषय में ही थे, कोई कठिनाई नहीं हुई।
उल्लेखनीय यह है कि उन सभी महानुभावों ने मेरे पहरावे की प्रशंसा की व उसके विषय में जानने की उत्सुकता जताई, इस बात से मुझे यह आश्वासन मिला कि अपने नये देश में हमारा जीवन सकारात्मक ही होना चाहिये।यद्यपि कुछ वर्षों के बाद सुनने में आया कि साड़ी, बिन्दी आदि के कारण, कहीं कहीं कुछ नकारात्मक हादसे भी हो चुके हैं।
कैनेडा में आकर, हमने अपना जीवन लंडन नामक शहर में आरंभ किया। इस शहर का नाम एक अंग्रेज़, lord Simcoe ने रखा था तथा इंग्लैंड के लडंन की तरह यहाँ की एक छोटी नदी का नाम,टेमस नदी तक रख दिया। यह शहर अपने विश्व विद्यालय व सुन्दर पार्क और पास के शहर Stratford के लिये भी जाना जाता है जहाँ शेकसपियर के नाटक प्रस्तुत किये जाते हैं। दूर दूर से लोग यह नाटक देखने आते हैं।यह शहर दो बड़ी बड़ी झीलों ( Lake Huron, LakeEerie) के बीच बसा हुआ है और टोरंटो से लगभग २०० किलो मीटर की दूरी पर है।लंडन नगर कैनेडा देश के औनटेरियो प्रदेश का भाग है।
लंडन शहर का हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है, इसने न केवल हमें नये देश में एक नई दिशा दी बल्कि सारे परिवार को शिक्षा व शिक्षण की ओर प्रोत्साहित किया व एक सुन्दर भविष्य की नींव डाली।
प्रतिदिन नई बातें, नये व अद्भुत अनुभव?, उस समय ऐसा ही लगता था। पहली बर्फ़ का अनुभव भी निराला ही था।सुबह होना ही चाहती थी कि एक दिन बिस्तर पर से ही खिडकी के बाहर देखा तो कुछ बूँदें सी गिरती दिखीं। उठ कर झाँका तो बूँदे सफ़ेद होती दिखाई दीं।अरे! यह तो बर्फ़ गिर रही है। उत्साह से सबको उठाया और मैं तो जैसे कपड़ों में थी बाहर निकल पड़ी,
वह दृश्य आज भी याद है। हरी घास पर रुइया बादल जैसी बर्फ़ बिखरी हुइ व भीनी भीनी ठँड। यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं ढंग से पहने बिना ही घर से बाहर आ गई हूँ,जब हाथ पैरों में ठंडक आने लगी तब समझ में आया।
भारत में तो क्रिसमस का नाम ही सुना था। यहाँ आने पर पाया कि यह त्योहार बहुत महत्वपूर्ण है, व देखा कि बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। त्योहार आने के कुछ दिन पहले कुछ नये लोग हमारे घर मिलने आये और हम सबको अपने घर क्रिसमस पर आने का न्योता दिया।हमारे लिये यह नई बात थी,पर उन्होंने बताया कि शहर में जो नये लोग आते है उन्हें ऐसे ही विभिन्न घरों में बुलाकर स्वागत किया जाता है। खाना व उपहार आदि दिये जाते हैं।इस एक ही घटना का हम सब पर बड़ा प्रभाव पड़ा।यह प्रथा अब ना सही,पर इस देश में अभी भी बाहर से आए लोग अपनी अपनी विभिन्नताओं के साथ रहते हैं तथा यहाँ के संविधान के अनुसार किसी से भेद भाव नहीं किया जा सकता।
उन दिनों घर का भारतीय सामान हर जगह नहीं मिलता था, दूर किसी बड़े नगर या टोरोंटो जाकर लाते थे, उसका भी अपना आनन्द होता था।छुटटी के दिन सारा परिवार सामान लेने निकलता। साथ में रास्ते के लिए खाने पीने का सामान लेकर निकल पड़ते। अच्छी खासी पिकनिक हो जाती। एक परिवार के सदस्य बहुत सा सामान लाकर दूसरे परिवारों के साथ बाँट लेते। आज की तरह अपने देश वासी बहुत कम दिखाई देते। जब कभी भी मिलते, उनसे परिचय बढ़ाने का प्रयत्न होता।क्योंकि कहीं न कहीं अपना देश व देश वासी सदा ही स्मृति में रहते थे। एक बार हम पैसे देने की लाइन में थे कि कुछ दूर आगे जाते हुये एक भारतीय दंपति दिखाई दिये। उन्होंने भी हमें देखा और दौड़े हुये आये, बातचीत की तथा अपने घर ले गये। बहुत दिनों तक उनसे मित्रता बनी रही।
इसके बाद तो हमने कई नगर बदले, आवश्यकतानुसार नौकरी व स्कूल भी। नये नये अनुभव होते गये व जीवन आगे बढ़ता गया, उम्र भी। अब ५० वर्ष पीछे देखती हूँ तो लगता है,बहुत कुछ पीछे छूट गया है।चलते चलते छोटी छोटी पगडंडियाँ बड़ी, चौड़ी हो गईं हैं, कुछ सुनसान सी।
सामाजिक, तकनीकी, भौगोलिक आदि कितनी ही स्थितियाँ बदल गईं हैं तथा इनका जीवन पर प्रभाव पड़ना आवश्यक है। जीवन अपनी निश्चित गति से आगे बढ़ रहा है।
अब टोरंटो आना जाना ऐसा है जैसा पास पड़ोस में जाना। ऊँची ऊँची भव्य इमारतों ने छोटे घरों की जगह ले ली है। शौपिंग के स्थान तो अब एक छोटे मोटे नगर के बराबर हो गये हैं या यह कहना उचित होगा कि उम्र के साथ वहाँ जाना, घूमना कठिन होता जा रहा है। यह भी सच है कि दूरियाँ कम हो गईं है। जब इच्छा हो संसार के किसी भी कोने से बात हो सकती है। ५० वर्ष पहले भारत से ही बात करना असंभव सा लगता था।
कैनडा के नियमों केअनुसार अनेक देशों से लोग आते जा रहे हैं व अधिकतर स्थानों पर दिखाई देते हैं। अब किसी के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है।जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि जो परिवार बन गये हैं उन्हीं के साथ समय कम मिल पाता है।
इतने लंबे जीवन काल को यहाँ व्यतीत करके बहुधा मन में कश्मकश चलती है।
पता नहीं भारत छोड़ तो दिया, बहुत कुछ छूट भी गया जो कभी न मिलेगा दोबारा।मन भी बँट गया, तथा बँट गये तीज त्योहार, रस्में व रिवाज, मेले मिठाइयाँ!सब वहीं कहीं रह गया है। प्रयत्न यहाँ भी होते हैं सब कुछ करने के, त्योहार मनाने के, परन्तु वह भावना नहीं आती।
यह तुलना करना ही मूर्खता लगता है कि यह ठीक है या वह? इसे तुलना का विषय बनाना ही अपनी भावनाओं का उपहास करना है।
अन्त में यही कहूँगी कि अपने नये देश में जो मिला वह भी अमूल्य है तथा जो छूट गया वह भी! दोनों का स्थान ह्रदय में अमिट है, सदा रहेगा!

विजय विक्रान्त
1978 – ईरान में कैनेडा डे : याद आई उन यादों की जिन्हें इतिहास ने आज दोहराया है
इज़्राइल से युद्ध के कारण आजका ईरान बहुत सुर्ख़ियों में है। देश में चारों ओर उथल पुथल मची हुई है। इस युद्ध से हर कोई परेशान है। हालाँकि पात्र बदल गए हैं लेकिन ठीक ऐसी ही एक उथल पुथल 1970 के दशक में क्रान्ति (गृहयुद्ध) के कारण हुई थी और इसको, परिवार सहित, हम सब ने जिया था। यह बात सन 1976 की है जब, काम के सिलसिले में, मुझे मेरी कैनेडियन कंपनी ने, परिवार सहित, ईरान में बन रहे पावर प्लाण्ट के प्रॉजैक्ट के सुपर्विज़न के लिए भेझा था। शुरू शुरू में हालात ठीक थे लेकिन, शाह के ख़िलाफ़, जो राख के ढ़ेर में मामूली सी चिंगारी थी वो अब धीरे धीरे शोले का रूप धारण कर रही थी।
सितंबर 1977 में श्री कैन टेलर ने ईरान में कैनेडा के राजदूत का भार संभाला और अप्रैल/मई 1978 के आसपास ईरान में जितने भी कैनेडियन थे, उन सब का अभिवादन करते हुए शनिवार, पहली जुलाई 1978 को अपने घर “कैनेडा डे” मनाने का न्योता दिया। यही नहीं, पहली जुलाई आने से कोई पंद्रह दिन पहले एक रिमाइण्डर भी भेजा। क्योंकि कैनेडा के झण्डे में लाल रंग अधिक है इसलिए, सब को, उस दिन, कुछ लाल पहनने को भी कहा गया। क्योंकि ईरान में वीक-ऐण्ड बृहस्पतिवार / शुक्रवार को होता है और वीक-डे शनिवार से शुरू होता है, और इस बार “कैनेडा डे” शनिवार का पड़ रहा था, इस लिए उस दिन हमारी सब की दफ़तर की छुट्टी थी।
आई पहली जुलाई और हम सब, कुछ न कुछ लाल पहने हुए, अपनी अपनी पिकनिक बास्केट लेकर कैन टेलर के घर पहुँच गए। उनका इतना बड़ा घर देखकर आँखें खुली की खुली रह गयीं। सारे कंपाउण्ड में कैनेडा के छोटे छोटे झंडे लगाए हुए थे। बहुत बड़े स्विमिंग पूल के इर्द-गिर्द गद्देदार पूल-चेयर कायदे से रखी हुई थीं। पास ही में दो वैज / नॉन-वैज बार-बी-क्यों पर रोस्ट चल रहा था। एक तरफ़ बार ख़ुली हुई थी जहाँ पर हार्ड लिकर और सॉफ़्ट ड्रिंक्स थे। दूसरे एक कोने में कुछ गेम चल रही थीं। उन लोगो के लिए जो ताश खेलना चाहते थे या फिर टीवी देखना चाहते थे, घर में अन्दर जाने का दरवाज़ा खुला हुआ था। इस सब के होते हुए कैन टेलर अपने स्विमिंग ट्रँक में घूम रहे थे और सब से मिल रहे थे। आए हुए तमाम महमानों पर लाल रँग बहुत ही जच रहा था।
अपनी अपनी पसन्द के अनुसार, लोग ड्रिंक और वैज / नॉन-वैज खाने का मज़ा ले रहे थे। कुछ लोग, पूल में डुबकी का आनन्द उठा रहे थे तो कुछ लोग अपनी गप्पों में मस्त थे। पीछे एक कोने में हलका हलका म्युज़िक चल रहा था। जिन लोगों को गाने का मन करा, उनके लिए माइक तैयार था। कहने का मतलब यह है कि हर किसी के लिए कुछ न कुछ अवश्य था। सब लोग अपनी अपनी मस्ती में मस्त थे। वातावरण बहुत ही रिलेक्स और फ़्रैंडली था।
थोड़ी देर बाद स्विमिंग प्रतियोगिता के लिए सब तैराकों को बुलाया गया। यह प्रतियोगिता आजकी अंतिम और सब से रोचक आइटम थी। इसके लिए छ: तैराक पूल की कम गहराई वाली साइड पर इकठ्ठे होकर करोना बीयर की एक एक छोटी बोतल पीकर प्रतियोगिता में भाग लेने को तैयार बैठे थे।
जैसे ही सीटी बजी, वो सब पानी में कूद गए और पूल की गहरी तरफ़ तैरने लगे। जैसे ही वो वहाँ पहुँचे, खुली हुई बीयर की बोतल उनका इंतज़ार कर रही थी। वापस कम गहराई की तरफ़ जाने से पहले सब को एक एक बोतल बीयर पीना ज़रूरी था और उसके बाद ही फिर दूसरी ओर जा सकते थे। यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा और अंत में जीतने वाले तैराक को मेपल लीफ़ की बहुत ही सुंदर टीशर्ट मिली। इसके इलावा बाकी तैराकों को भी उचित इनाम दिए गए।
अब तक शाम हो चुकी थी और हम सब अपने अपने घर जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि कैन टेलर आए और इस कैनेडियन परम्परा को हर साल मनाने के लिए अगले साल आने का न्योता दिया।
यूँ तो दिल ही दिल में हम अगले साल फिर आने का प्लान बना रहे थे; लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंज़ूर था। 1978 के अंत तक हालात इतने ख़राब हो गए कि हमारे कॉनट्रैक्ट की force majeure clause के अनुसार फ़रवरी 1979 में हमें तुरंत ईरान छोड़ कर इंगलैण्ड जाने के लिए कहा गया। चलने से पहले, साथ ले जाने के लिए, अपने ज़रूरी सामान और काग़ज़ों को दो डफ़ल बैगों में भरा और बाकी सारे सामान के साथ घर को ताला लगाया। उसके बाद घर और कार की चाबियाँ दफ़तर में दे कर हम सब एक और नए सफ़र के लिए निकल पड़े।
हर साल, सारी दुनिया में, किसी न किसी तरह “कैनेडा डे” तो मनाया ही जाता है परंतु, मेरे लिए, 47 साल बाद 2025 का यह “कैनेडा डे” बहुत सारी यादगारों से जुड़ा है और बहुत विशेष है। ईरान के मौजूदा हालात को देखकर 2025 का “कैनेडा डे” उस ईरान की याद दिलाता है जब गृहयुद्ध के कारण वहाँ का सारा सिस्टम ऊपर नीचे हो गया था। ख़ुमैनी द्वारा भड़काई हुई वो क्रान्ति “मुहम्हद रज़ा शाह पहल्वी” के ख़िलाफ़ थी और उसे मजबूरन ईरान छोड़ना पड़ा था। अब जो हो रहा है वह उन्हीं मुल्लाओं के ख़िलाफ़ भी है जिन्होंने शाह को देश निकाला दिया था। पता नहीं ईरान की जंता पर क्या बीत रही होगी। जाकर देख तो नहीं सकता लेकिन जिस माहॉल से हम गुज़रे थे उसे सोचकर केवल अंदाज़ा ही लगा सकता हूँ कि आम आदमी, औरतें और बच्चे सुखी नहीं होंगे।
यहाँ मैं, अपने पाठकों को, बताना चाहूँगा कि यह वही कैन टेलर थे जिन्होंने ईरानी क्रान्तिकारियों द्वारा अमरीकी दूतावास पर कब्ज़ा करने के बाद बचे हुए छ: अमरीकनों को अपने घर में छुपा कर रखा था और समय आने पर उनको सही सलामत ईरान छोड़ने में भी पूरी सहायता की थी।

नन्दकुमार मिश्र आदित्य
मेरी कनाडा यात्रा
“वेदना की उड़ान” नवोदिता लेखिका चाँदनी समर की बहुचर्चित कृति के लोकार्पण की सूचना मिली थी मुझे पुणे में। मुजफ्फरपुर जाना आवश्यक था, लेकिन कनाडा की वीजा कह रही थी, मुंबई से यथाशीघ्र उड़ान भरनी है, अन्यथा निरस्त हो जाएगी। मैं तो निश्चिन्त था, दस वर्षों की अवधि है ना । दो चार साल बाद ही चला जाए, किंतु हिमांशु आ गया हमें लेने। उसे आशंका थी कि हम दोनों अकेले जाने में झिझकेंगे। वरिष्ठ नागरिक कोटे में व्यवस्था हो गई थी। शुभ्रांशु और दिव्यांशु की वीजा बन ही नहीं पाई थी। मातृभूमि से विलगाव हो रहा है तो अपने गांव-घर जा कुलदेवता से क्षमा प्रार्थना सहित विदा ले सकूं, किंतु नियतिकी स्वीकृति ! अपने ५२वें परिणय वार्षिकोत्सव पर यात्रा निर्धारित हुई थी २७.११.२०२४ को। डॉ बच्चन जयंती, दुलारी बिटिया भोजपुरी लोकगायिका मनीषा श्रीवास्तव का अवतरण दिवस चम्पारन या पटना बिहारमें कहीं भी होने पर साहित्यिक समारोह मनाना ही था। भारतके लिए तो अगला दिन हो चुका था, मगर कनाडा में रातके आठ बजे सत्ताइस तारीख ही थी, बहू-बेटे का भी परिणय वार्षिकोत्सव। क्या सुखद संयोग! लिहाजा टोरंटो हवाईअड्डे पर पुष्प-गुच्छ संहित गर्मजोशीसे बहूरानीने हम तीनोंका स्वागत किया।
सांताक्रुज से हीथ्रो के लिए ज्यों ही विमान ऊपर की ओर उठा, मेरी आँखें छलछला उठीं। मातृभूमि को नमन करते “दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में” पंक्तियां उभरीं जेहन में। अभि भट्टाचार्य अभिनीत नेताजी सुभाषचंद्र पर एक फिल्मी गीत की पंक्तियां भी याद आने लगीं—
“जन्मभूमि माँ, तुझे छोड़ मैं जा रहा जाने कहाँ’! जीवनका अठहत्तरवाँ साल, इस आयु में तो पिताजी महाप्रयाण भी कर चुके थे ! अपने आंसू छुपाने की मेरी पुरजोर कोशिश के बावजूद बेटे को आभास हो गया था ” दादाजी, आप चिंता क्यों कर रहे हैं? केवल तीन महीने ही तो बिताने हैं विदेशमें” मुझे बोल-भरोस देने लगा। मन हल्का करनेके लिए इधर-उधर की बातें करने लगा। हीथ्रो से दूसरा विमान उड़ता टोरंटो के लिए पाँच-छ घंटे बाद। मध्यावधि में कुछ पेय पदार्थ तो चाहिए ही। शीतल पेय के प्रस्ताव को मैंने नकारा, तो चाय की बारी आ गई। अब छ सौ रुपए की प्याली नागवार गुजर रही थी, मगर मजबूरी । पहुंचने पर एक डेढ़ घंटे रिचमंड हिल को भी लगे । सही सलामत सफर के बाद भोजनादि से निवृत्त हो आधी रात से पहले अपने कक्षों में चले हम चारों विश्राम के लिए।
अगले दिन से घर-बाहर के तापमान की अनुभूति होने क्या लगी, करनी पड़ी। तीन महीनों में ऋणात्मक अंश चार से चालीस तक की ठंडक झेलनी पड़ी। बर्फबारी का अनुभव तो जीवन में पहली बार ही हुआ था । १२.३.२०२५ वापसी यात्रा तक मौसम अनुकूल होने लगा था और होली में पुणे पहुंचने पर धनात्मक ३०-४० तापमान में बारिशका इंतजार होता रहा ।
कनाडा जाने पर जलवायु परिवर्तन के कारण गतिविधियां व्यतिक्रमित तो होंगी ही, साहित्यिक वातावरण से दूरियां भी खलेंगी, यह चिंता भी थी। पूर्व परिचित साहित्यिक मित्र एकमात्र सरन घई थे, जो ब्रैम्पटन में होंगे पचास साठ कि.मी. दूर। उनसे मिलने जाया करना भी टेढ़ी खीर। हिमांशु ने निदान ढूंढ लिया था । हिंदी राइटर्स गिल्ड का संपर्क सूत्र था पास में । सरन घईके आमंत्रण से विश्व हिंदी दिवस पर काव्यपाठ के सिलसिले में बिजनौर से अचार्य संदीप त्यागी, मथुरा से गोपाल बघेल मधु मिल गये। एच डब्ल्यू जी और महावाणिज्य दूतावासके कार्यक्रमोंमें तो पीयूष सिन्हा, देवेंद्र नाथ मिश्र, शैलजा सक्सेना, लता पांडेय, मांडवी गुप्ता, रेणु लाल, राकेश मिश्र प्रभृति दर्जनों सहित प्रतिभाओं के साक्षात्कार से विदेश में भी भारतीयता की अनुभूति होती रही। शैलजा जी से परिचय के बाद अपने विदेशी मित्रों यूरी बोत्विंकिन, दिव्या माथुर, ल्जुबिका केटिक, उषाराजे सक्सेना, तेजेंद्र शर्मा, पंखुरी सिन्हा, सुषमा मल्होत्रा, ऋतु नन्नन पांडेय से ऑनलाइन नवीकरण भी होने लगा । सुषमा जी और मधु जी भारत की हमारी ऑनलाइन गोष्ठियों में आने लगे है और हम भी इनकी गोष्ठियों में। निर्मल रोशन फाउंडेशन न्यू जर्सी से पहला संपर्क कनाडा आने पर ही हो पाया और जुलाई १३ की गोष्ठी में तो मुझे विशेष
आमंत्रण मिला है। स्थायी निवास की अनुमति भी हिमांशु ने करा दी है, तो पारिवारिक चिकित्सक भी निर्धारित करना पड़ा। वहां भी डॉक्टर हिना जावेद के मिल जाने से हिंदी में बातें करने की सुविधा से पर्याप्त संतुष्टि हुई। छुट्टियों के दिन बहू-बेटे ने भव्य मंदिरोंके दर्शन भी करवाये। कुल मिलाकर कनाडा प्रवास बर्फबारी के बावजूद बेहतर रहा।
कनाडा दिवस पर कलम और कैमरे की कारगुजारियों सहित हार्दिक शुभकामनायें !
सुन्दर विशेषांक । अपने साथ सभी सदस्यों के अनुभव जानकर अच्छा लगा । आशा जी का लेख पढ़ने की उत्सुकता रहेगी ।
वैश्विक हिन्दी परिवार का आभार !
आशा बर्मन जी का लेख बहुत सुन्दर ढंग से लिखा गया है , न केवल वेदान्त समाज के विषय में परंतु इस संस्था की अनेक गतिविधियों का विवरण भी हैं ।
इस संस्था में भाग लेकर समाज सेवा का अनुभव तो होता ही है, परस्पर आध्यात्मिक पृवृतियों का भी विकास होता है।