आदि महाकवि वाल्मीकि के अप्रतिम साहित्यिक अवदान

~ विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र

    रामायण के आदि-कवि महर्षि वाल्मीकि भारतीय साहित्य की उस जीवंत ज्योति की तरह हैं, जिसकी आलोकरेखा सदियों से हम सबकी सांस्कृतिक चेतना को आलोकित करती रही है। ऐसा कौन-सा शास्त्रीय चिन्तक, रचनाकार या पाठक है जो उनके अमर ग्रंथ रामायणम् से प्रभावित न हुआ हो? किंतु यदि आप सोचते हैं कि वाल्मीकि सिर्फ धार्मिक आख्यानों के रचनाकार हैं, तो विजय रंजन द्वारा रचित यह विलक्षण ग्रंथ आपके बोध को एक नई दिशा देने वाला है।

कृति का स्वरूप और उद्देश्य

इस ग्रंथ का नाम है “आदि-महाकवि वाल्मीकि के 10 अप्रतिम साहित्यिक अवदान”—एक ऐसे विषय पर शोध जो अब तक अकादमिक और साहित्यिक जगत में विस्मृत या उपेक्षित रहा है। लेखक विजय रंजन, एक विधिवेत्ता होने के बावजूद, भाषा, साहित्य और संस्कृति की साधना में इतने रमे हैं कि उनकी लेखनी विधि की धार से ज्यादा साहित्य की ध्वनि बन गई है। प्रस्तुत ग्रंथ में उन्होंने वाल्मीकि की रामायणम् को दस प्रमुख आधुनिक साहित्यिक वादों की कसौटी पर कस कर यह सिद्ध किया है कि इन सभी वादों के वास्तविक बीजप्रयोक्ता स्वयं महर्षि वाल्मीकि हैं।

विचारधाराओं की प्रथम झंकार

इस ग्रंथ का सबसे आकर्षक पक्ष है वह मौलिक विमर्श जिसमें रामायणम् को प्रथम मानववादी, नारीवादी, लोकवादी, प्रकृतिवादी, बिम्बवादी, राष्ट्रवादी, नयवादी, नयरसवादी, मनोवैज्ञानिक महाकाव्य तथा महत् तत्वों वाला महाकाव्य सिद्ध किया गया है। यह कोई शब्दजाल नहीं, बल्कि संदर्भों, उदाहरणों और तर्कों से परिपुष्ट विवेचन है जो आधुनिक पश्चिमी साहित्यशास्त्र को भारतीय पुरातनता की चुपचाप उपलब्धियों की ओर उन्मुख करता है।

स्थानीय से वैश्विक तक

लेखक यह भी बताते हैं कि रामायणम् सिर्फ भारत की सांस्कृतिक धारा नहीं रही, बल्कि यह बाली, जावा, स्याम, चीन जैसे देशों तक पहुँची। यह भारत की प्राचीन भाषाओं—पाली, प्राकृत, अपभ्रंश—के माध्यम से अभिव्यक्त होती रही और रामकथा वहाँ की लोक-संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है।

 लेखक की दृष्टि और सृजन-यात्रा

यह ग्रंथ केवल एक विद्वान लेखक द्वारा लिखी गई शास्त्रीय विवेचना नहीं है, बल्कि यह एक भावनात्मक अभियान का परिणाम है—जिसका आरंभ लेखक के ‘आदि श्लोक’ के प्रति उत्सुकता से हुआ और जिसकी परिणति ‘रामायणम्’ के गहन मनन में। विजय रंजन की अन्य रचनाएँ जैसे ‘कविता क्या है’, ‘साहित्यिक तुला पर वाल्मीकि-रामायण’, ‘नय रस’, और ‘भारतीय राष्ट्रवाद का क ख ग’ इत्यादि इस गहन शोध-संस्कृति का प्रमाण हैं।

असाधारण दृष्टिकोण

आज के परिप्रेक्ष्य में जब साहित्य विमर्शों का दौर है, यह ग्रंथ वादों की मौलिकता को भारत के मूल संस्कारों में देखता है। वाल्मीकि की काव्य-दृष्टि को पाश्चात्य रंगों में ढालने के बजाय उसे उस रंग में लौटा देता है जो ऋषि की लेखनी ने हजारों वर्ष पूर्व रचा था।

 एक साहित्यिक प्रकाशस्तंभ

यह ग्रंथ न केवल एक विचारोत्तेजक दस्तावेज है, बल्कि एक साहित्यिक पुनर्जागरण का घोष भी है। यह पाठकों को प्रेरित करता है कि वे ‘रामायणम्’ को केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक श्रेष्ठ सांस्कृतिक और साहित्यिक संरचना के रूप में देखें—एक ऐसी संरचना जिसमें नैतिकता, मानवता और सौंदर्य का आह्वान है।

रामायण: वाल्मीकि का सार्वकालिक महाकाव्य – न्याय, मानवता और राष्ट्र की गूंजती कविता

जब किसी काव्य को “आदि काव्य” कहा जाए और उसके रचयिता को “आदि कवि”, तो यह केवल शब्दों का सौंदर्य नहीं, बल्कि उस रचना की सार्वभौमिक महत्ता का उद्घोष होता है। वाल्मीकि की रामायण ऐसा ही एक अमर ग्रंथ है – जो केवल पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के अनेक आयामों को समेटे हुए है। यह न केवल साहित्य की अद्भुत उपलब्धि है, बल्कि जीवन, समाज, न्याय, प्रकृति, स्त्री और राष्ट्र के प्रति चेतना का जागरण है।

वाल्मीकि – “आदि महाकवि”, और रामायण – “आदि काव्य”

वाल्मीकि को आदि कवि कहे जाने के पीछे केवल उनकी प्राचीनता नहीं, बल्कि उनकी रचनात्मक विलक्षणता है। तुलसीदास ने उन्हें ब्रह्मा के समकक्ष माना और रामायण को साहित्यिक संरचना की शिल्पशाला कहा। इस काव्य में वैदिक मंत्रों की जटिलता से आगे जाकर वह भाव है, जो हर युग, हर समाज और हर व्यक्ति को छू सके – यही उसे “आदि काव्य” बनाता है।

वाल्मीकि ने अपने शोक को श्लोक में ढालते हुए एक नई साहित्यिक परंपरा की नींव रखी। क्रौंच पक्षी के वध पर निकली उनकी करुण पुकार केवल करुणा नहीं, न्याय की पहली हुंकार थी।

न्याय का केंद्रीय तत्व

रामायण की आत्मा न्याय है – व्यक्तिगत, सामाजिक और नैतिक। पुस्तक के अनुसार, रामायण का मूल उद्देश्य समाज में “अन्याय का निरोधन” और “न्याय की स्थापना” है।

राम के निर्णय – चाहे वह रावण जैसे अत्याचारी का संहार हो, कैकेयी के अन्यायपूर्ण वरदान को स्वीकारना हो या सीता का परित्याग – सभी में सार्वजनिक न्याय की झलक है।

यहाँ न्याय केवल दंड का साधन नहीं, बल्कि करुणा और कर्तव्य से जुड़ी एक उच्च भावना है – यही कारण है कि पुस्तक “न्याय रस” का प्रस्ताव करती है – एक ऐसा रस जो रामायण के भीतर की आंतरिक चेतना को परिभाषित करता है।

राम – आदर्श मानव, न कि केवल देवता

वाल्मीकि का राम, “मर्यादापुरुषोत्तम” है – वह जो भावनाओं में बहता है, रोता है, मूर्छित होता है, किन्तु फिर भी धर्म का पथ नहीं छोड़ता।

“मनुष्योऽहम्” – राम का यह उद्घोष उन्हें दिव्यता से उतार कर जनसामान्य के बीच लाता है, जिससे पाठक उनके संघर्षों में स्वयं को देख सके। राम का चरित्र मानव की श्रेष्ठता का आदर्श है, दिव्यता की दूरी का नहीं।

लोकवादी दृष्टिकोण – राजा राम और जन की प्राथमिकता

रामायण, एक लोक-केन्द्रित महाकाव्य है, जहाँ नायक की हर क्रिया जन-सुविधा और लोकमत के अनुरूप होती है।

राम का वनवास, सीता का परित्याग, यहाँ तक कि अयोध्या लौटने के बाद राज्य का विभाजन – सभी निर्णय इस बात का प्रमाण हैं कि लोकहित ही राम की नीति है।

“लोक-संग्रह” की अवधारणा इस ग्रंथ के मूल में है – यह शासन की लोकतांत्रिक चेतना का सबसे पुराना उदाहरण बनाता है।

नारीवादी विमर्श की गूंज

जहाँ अनेक प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियाँ केवल सहायक पात्र बनती हैं, वहीं वाल्मीकि की रामायण में सीता एक स्वाभिमानी, संवादशील और निर्णय लेने वाली नायिका हैं।

सीता रावण के समक्ष निर्भीक हैं, राम से असहमति जताने में संकोच नहीं करतीं, और वन में चलने का निर्णय स्वयं लेती हैं।

मंदोदरी, तारा जैसी स्त्रियाँ भी सामाजिक विमर्श में सक्रिय हैं। शूर्पणखा का चरित्र – आलोचना का विषय नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सीमाओं की ओर इशारा है।

वाल्मीकि पर्दा, सती, बाल विवाह जैसे किसी भी स्त्री-विरोधी सामाजिक संरचना का समर्थन नहीं करते – यह रामायण को “विश्व की पहली नारीवादी महाकाव्य” का स्वरूप प्रदान करता है।

प्रकृति के प्रेम में रची कविता

रामायण केवल मानव जीवन का चित्र नहीं, प्रकृति के साथ उसकी अंतःक्रिया का काव्यात्मक संकलन भी है।

सरयू और गंगा का संगम, अरण्य के विविध वृक्ष, पशु-पक्षी, ऋतुओं की छवियाँ – सब मिलकर एक ऐसा संसार रचते हैं, जिसमें प्रकृति भी एक जीवंत पात्र है।

सीता के अपहरण पर सूर्य का पीला पड़ जाना या अशोक वृक्ष की छाया में उनका बैठना – प्रकृति की मनुष्यता की ओर संकेत करते हैं। रामायण इस दृष्टि से “प्रकृतिवादी महाकाव्य” है।

राष्ट्र और मातृभूमि की भावना

रामायण में राम का राष्ट्र प्रेम एक शांत, परंतु दृढ़ राष्ट्रवाद का प्रतीक है – जो उग्र नहीं, बल्कि आत्म-त्याग से युक्त है।

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” – यह पंक्ति मातृभूमि के प्रति भक्ति को सर्वोपरि रखती है। राम लंका जैसे स्वर्णराज्य को त्यागकर अयोध्या लौटते हैं – यह निर्णय केवल प्रेम नहीं, एक राष्ट्रधर्मी उत्तरदायित्व का परिचायक है।

मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि

वाल्मीकि का रामायण भावनाओं की एक गहराई है। कैकेयी का द्वंद्व, दशरथ का अपराध-बोध, राम का संयम, मंथरा की मानसिक जटिलता – सभी पात्र एक मनोवैज्ञानिक खाका रचते हैं।

हनुमान के साहस और धैर्य की अभिव्यक्ति उन्हें केवल शक्ति का नहीं, बल्कि मानसिक सामर्थ्य का प्रतीक बनाती है।

यह ग्रंथ मानव मन की जटिलताओं का ऐसा विश्लेषण करता है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान भी सहर्ष स्वीकार कर सकता है।

काव्यात्मक उत्कृष्टता – रस, छंद और प्रतीकवाद का शिखर

वाल्मीकि की भाषा, छंद, और प्रतीकात्मकता अद्भुत है। उनके द्वारा प्रस्तुत “रामायण” केवल एक कथा नहीं, बल्कि एक गूढ़ प्रतीक है।

सीता का अशोकवाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे बैठना – उनकी आशाओं और पीड़ा का प्रतीक बनता है।

रामायण शीर्षक स्वयं “राम का अयन” – राम के जीवन और मूल्यों की यात्रा है। वाल्मीकि का प्रतीकवाद पाठकों को बार-बार गहराई में उतरने को विवश करता है।

समकालीन प्रासंगिकता और वैश्विक प्रभाव

रामायण केवल प्राचीन कथा नहीं, आधुनिक सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक नीतियों का पथप्रदर्शक बन चुका है।

इसके मूल संदेश – सत्य, न्याय, कर्तव्य और मानवता – आज भी समान रूप से आवश्यक हैं। रामायण का प्रभाव कालिदास, तुलसीदास, भवभूति से लेकर रामानंद सागर तक फैला है।

यह “सर्वज्ञानुशासनप्रदायी” ग्रंथ है – जो हर युग को दिशा देता है।

निष्कर्ष – रामायण: कालातीत और सार्वभौमिक ग्रंथ

वाल्मीकि की रामायण केवल धार्मिक या पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि न्याय, मानवता, स्त्री गरिमा, प्रकृति प्रेम और राष्ट्र निष्ठा की बहुरंगी रचना है।

यह एक ऐसा महाकाव्य है, जो हर युग में नए अर्थ देता है, नए विमर्श को जन्म देता है और हर संवेदनशील पाठक के हृदय में प्रतिध्वनित होता है।

वाल्मीकि को इसलिए “आदि कवि” कहा गया – क्योंकि उन्होंने न केवल कविता की शुरुआत की, बल्कि उसे जीवन, समाज और सृष्टि के हर कोने से जोड़ दिया।

रामायण, इस दृष्टि से, विश्व साहित्य की वह नींव है, जिस पर न केवल भारत, बल्कि मानव सभ्यता का नैतिक भवन टिका है।

– यह केवल कथा नहीं, हमारी सांस्कृतिक चेतना का मूल स्रोत है।

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विजय रंजन (लेखक)

प्रकाशक विकल्प प्रकाशन

2226/बी, पहली मंजिल, गली नं. 33 पहला पुस्ता, सोनिया विहार, दिल्ली-110090, दिल्ली

मोबाइल: 8287674809

ई-मेल: pawan.68srivastava@gmail.com

ISBN: 978-81-984299-9-5

मूल्य: 995 रुपये

आवरण डॉ. निरुपमा श्रीवास्तव

संस्करण अप्रैल, 2025

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