उच्चारण के सन्दर्भ में एक भारतीय पेशेवर की व्यथा : क्या उच्चारण ज्ञान का मानक है?

~ विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र

भूमिका

भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं है, यह हमारी पहचान, संस्कृति, और समाज में स्थान का प्रतीक भी होती है। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य देश में जाकर कार्य करता है, तो वह न केवल अपने पेशेवर कौशल बल्कि अपनी भाषाई विविधता के साथ भी उस परिवेश का हिस्सा बनता है। हाल ही में एक भारतीय पेशेवर द्वारा साझा की गई एक पीड़ादायक घटना ने इस बात को फिर से रेखांकित किया कि भाषा और उच्चारण को लेकर पूर्वाग्रह अब भी कितनी गहराई से समाज में जड़े जमाए हुए हैं।

एक 32 वर्षीय भारतीय पेशेवर, जो अमेरिका में एक क्लाइंट टीम के साथ पिछले एक वर्ष से कार्यरत हैं, ने Reddit पर अपनी व्यथा साझा की। उन्होंने बताया कि एक बैठक में, जब उन्होंने एक वरिष्ठ सहकर्मी से परियोजना की प्रगति पूछी, तो उन्हें यह कहकर चुप करा दिया गया कि उनका उच्चारण समझ नहीं आता।

यह कथन न केवल अपमानजनक था, बल्कि व्यावसायिक मर्यादा की सीमा को भी पार कर गया। व्यक्ति ने लिखा कि उन्होंने हमेशा स्पष्ट और पेशेवर संवाद की कोशिश की है, और अब तक किसी और ने उनकी भाषा या उच्चारण को लेकर कोई आपत्ति नहीं की।

यह प्रश्न अब सतह पर आ जाता है—क्या उच्चारण से किसी के ज्ञान, समझ या पेशेवर क्षमता का आकलन किया जाना चाहिए? क्या कोई व्यक्ति जो ‘ मातृभाषा से प्रभावित ‘  अंग्रेज़ी बोलता है, स्वाभाविक रूप से कम सक्षम माना जाएगा?

भाषा सीखने की प्रक्रिया में उच्चारण एक पहलू भर है। विश्व में अंग्रेज़ी अब एक वैश्विक भाषा बन चुकी है, और उसमें विविध उच्चारण होना स्वाभाविक है—भारतीय, ब्रिटिश, अमेरिकी, ऑस्ट्रेलियन, अफ्रीकी, और सिंगापुरियन—हर एक का अपना लहजा है। यदि कोई व्यक्ति स्पष्ट और समझने योग्य बात कर रहा है, तो उसका उच्चारण भले ही अलग हो, उससे उसके ज्ञान की गुणवत्ता नहीं घटती।

भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश लोग दो या दो से अधिक भाषाएँ जानते हैं, बहुभाषिकता एक सामान्य बात है। यह तथ्य कि कोई व्यक्ति अंग्रेज़ी के साथ-साथ अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा, और संभवतः एक विदेशी भाषा भी जानता है, उसकी बौद्धिक क्षमता और अनुकूलनशीलता का प्रमाण होना चाहिए। पर अफ़सोस की बात है कि कई बार यही विविधता विदेशी कार्यालयों में पूर्वाग्रह का कारण बन जाती है।

किसी का उच्चारण “शुद्ध” न होना, यह नहीं दर्शाता कि वह व्यक्ति संवाद स्थापित नहीं कर सकता। संवाद की प्रभावशीलता का आधार है स्पष्टता, आत्मविश्वास, और पारस्परिक सम्मान— उच्चारण नहीं।

एक अनाम यूज़र ने इस घटना पर टिप्पणी की, “अगर किसी का उच्चारण समझ नहीं आता, तो सामान्य प्रतिक्रिया होगी कि उनसे धीरे या स्पष्ट बोलने को कहा जाए, न कि यह कह देना कि ‘आप बोलना बंद कर दें।'”

यह रवैया न केवल अशिष्ट है, बल्कि यह व्यावसायिक शिष्टाचार और समावेशिता के सिद्धांतों के खिलाफ है।

व्यावसायिकता और आत्मसम्मान की लड़ाई

जब इस तरह की घटना किसी कार्यस्थल पर घटती है, तो वह व्यक्ति दोहरी मार झेलता है—एक ओर व्यावसायिक अस्वीकार्यता और दूसरी ओर आत्म-संदेह। Reddit पोस्ट में व्यक्ति ने यह भी पूछा कि वे अपनी गरिमा बनाए रखते हुए, आत्मविश्वास को बिना टूटे इस स्थिति से कैसे निपटें।

इसका उत्तर है—सजगता और प्रणाली का सहारा।

सबसे पहले, ऐसे व्यवहार के विरोध में शिकायत दर्ज  कर चाहिए।

प्रबंधक या HR विभाग से परामर्श लेना आवश्यक है, क्योंकि यह मामला कार्यस्थल में भेदभाव और मानसिक उत्पीड़न की श्रेणी में आ सकता है।

इसके साथ ही, पेशेवर विकास हेतु आत्ममूल्यांकन भी ज़रूरी है—यदि कहीं संवाद कौशल में सुधार की गुंजाइश है, तो उसे अपनाना अनुचित नहीं। परंतु यह सुधार बाहरी दबाव में नहीं, बल्कि अपने आत्मविकास की भावना से प्रेरित हो।

समापन: भाषा वह पुल है जो दिलों को जोड़ता है

इस पूरी घटना ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि वैश्विक कार्यस्थलों में भाषा को लेकर कितनी गहरी संवेदनशीलता और जागरूकता की आवश्यकता है। कोई भी भाषा या उच्चारण किसी के ज्ञान, क्षमता या महत्व को परिभाषित नहीं कर सकती। भाषा का सही उद्देश्य है—जोड़ना, न कि तोड़ना।

भारतीय पेशेवरों को चाहिए कि वे अपनी भाषाई विविधता और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर गर्व करें। और वैश्विक संगठनों को चाहिए कि वे ऐसे संवाद और वातावरण को प्रोत्साहित करें जहां भाषा की विविधता को कमजोरी नहीं, बल्कि ताकत के रूप में देखा जाए। क्योंकि अंततः, उच्चारण से ज्ञान नहीं घटता—पूर्वाग्रह से घटता है।

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