तुम्हारे बगैर मृत्यु ईश्वर!

– डॉ0 वरुण कुमार

माँ नहीं रहीं। दो महीनों तक मृत्‍यु से संघर्ष करने के बाद वे विदा हो गईं। दिमाग की नस फटने से वे पक्षाघात से ग्रस्‍त एवं अचेतावास्‍था में ही गुजर गर्हं। उन दो महीनों में अस्‍पताल के बिस्‍तर पर पड़े पड़े उनका जीवन कैसी यातना बन गया था इसे देखकर ही दहशत होती थी। धीरे धीरे नाकाम होते जाते हृदय, फेफड़ा, वृक्‍क, बिस्‍तर के भयानक घाव, नसों में छिदी नलियाँ, नाक में डाली गई नली, पेशाब की थैली, सिकुडता, विकृत होता जाता चेहरा, पहचानरहित शून्‍य निगाहें, इलाज मरहम पट्टी में दर्द से मरोडता चेहरा, बिस्‍तर के लोहे से बांध दिया गया हाथ….. देखकर जैसे कलेजे को मरोडकर रुलाई छूटती थी। एक वक्‍त में सचमुच की सुंदर रही माँ का वह विकृत करुण रूप देख पाना मुश्‍किल होता था। वे दबंग थीं, साहसी थीं, अत्‍यंत कर्मठ, जिन्‍दगी में बड़े बड़े कष्‍टों और दुखों से लोहा लिया था। चौहत्‍तर वर्ष की अवस्‍था में भी वे निरंतर सक्रिय थीं। बिस्‍तर पर उनकी पीड़ा और असहायता निहायत गलत बात, उनके प्रति अन्‍याय लगती थी। मृत्‍यु ने उन्‍हें त्राण दिया, मुक्‍ति दी, शांति दी। उनकी आत्‍मा को शांति मिले।

शांति… क्‍या कोई ऐसी चीज है आत्‍मा जिसे शांति मिलती है? कोई ईश्‍वर है जो उसे शांति देगा? सगे-संबंधियों, दोस्‍तों, सहकर्मियों के दिलासे, मोबाइल पर आते सांत्‍वना-संदेशों के बीच पूरी तीव्रता से सर उठाए इस सवाल को मैं फिलहाल के लिए दरकिनार कर माँ की अंतिम क्रियाओं में लग गया। उनकी इच्‍छा थी कि उनका अंतिम संस्‍कार अच्‍छे से किया जाए। उनकी इच्‍छा गोदान कराने की भी थी। यद्यपि वे कबीरपंथी थीं, लेकिन…

अर्थी के साथ श्‍मशान की यात्रा जैसे कोई ऐसी यात्रा थी जिसे मनुष्‍य चिरंतन काल से करता आ रहा है। नश्‍वरता की शाश्‍वतता। ईश्वर के प्रति संदेहशील होने के बावजूद मैं उन अंतिम क्रियाओं को करता जा रहा था। ‘राम नाम सत्‍य है’ का निरंतर घोष। धान के लावे को बार बार जमीन पर फेंकना। एक प्रतीक — मिट्टी से निकला यह शरीर मिट्टी में ही मिल जाता है, कि नष्‍ट होना वस्‍तुत: नष्‍ट होना नहीं है, रूप बदलना है। जिन तत्‍वों से हम बने हैं, उन्‍हीं में फिर से विलय। नश्‍वर की अनश्‍वरता। आर्य जाति ने चावल के दाने को अक्षत कहा है। ‘अक्षत’, जिसकी क्षति नहीं होती। उन्‍होंने देख लिया था कैसे चावल का दाना मिट्टी से पौधे में फलकर, पककर या पचकर रूप बदलता पुन: मिट्टी में मिल जाता है, जहाँ से वह पुन: नया जन्‍म लेता है। दु:ख से झरते आँसुओं के बीच इस अर्थ का साक्षात्‍कार क्‍या किसी अन्‍य कम मार्मिक क्षण में उस तरह संभव था? लेकिन साथ में अपने भी एक दिन इसी सफर पर निकलने का एहसास भी। माँ की दीवार हँट जाने के बाद जैसे मृत्‍यु की धूप अब सीधी अपनी ही पीठ पर पड़ रही थी।

चिता की परिक्रमा, मुखाग्‍नि, पार्थिव शरीर का अग्‍निदाह … किन किन रीतियों के क्‍या मानी खोज रहा था। और इन सबके बीच जैसे सिर पर डंडा चलाता पंडित और डोम का लालच विस्‍फारित मुख। उनकी विस्‍मित कर देनेवाली माँगें और लीचड़ मोल-भाव। शुद्ध सांसारिक, भौतिक लेन-देन। कहाँ दु:खविगलित मन, नश्‍वरता-अनश्‍वरता का द्वन्‍द्व, कहाँ यह निरी व्‍यवसायिकता। लेकिन जिनके लिए मृत्‍यु रोज का व्‍यापार हो, जीविका का आधार हो उनके लिए तो यह तोल मोल आवश्‍यकता ही हो सकता था। किंतु जिस माँ को रोज जीवित व्‍यक्‍ति के रूप में ‘मैया’ मैया कहकर पुकारता था उसके लिए मंत्रपाठ में बार बार ‘प्रेत’ शब्‍द का इस्‍तेमाल कितना विचित्र और दिल को हिला देनेवाला था। एक दिन पहले जीवित व्‍यक्‍ति को ‘प्रेत’ कहकर बुलाना कितना कारूणिक और निराशाजनक है। अपनी जन्‍मदात्री का नितांत नया, अजनबी रूप। प्रेत………..

एक विरागदग्‍ध -उन्‍मूलित मन। रोज रोज की धार्मिक क्रियाएँ। अगले तेरह दिन तक। लोग कहते हैं, यह तपस्‍या है। मुझे यह भय  की अभिव्यक्ति और अशुभ से मुक्‍ति की छटपटाहट अधिक लगती रही। आदमी के मन में समाया डर। सूतक — मृत्‍यु की छाया उनके रिश्‍तेदारों को छू गई है। पुरुषों को इससे मुक्‍त होने के लिए मुंडन कराना होगा। एक तरफ मृत्‍यु की अनिवार्यता, अनश्‍वरता का परिपक्‍व बोध, दूसरी तरफ उसकी अशुभ छाया से दूर होने की कोशिश करती रीतियाँ। अवश्‍यम्‍भावी का क्‍या निराकरण? दाह-संस्‍कार के अगले दिन दुधमुँहीं। आर्य जाति की गौ के प्रति असीमित श्रद्धा! दुधमुँहीं के बाद ही दूध और इससे बनी चीजें खाने की अनुमति होगी।

आत्‍मा घट है। यह प्रतीक इतने प्रत्‍यक्ष और भौतिक रूप में पहले कभी सामने नहीं आया था। घड़ा बांधकर लटकाया गया है। शरीर छोड़ने के बाद माँ की आत्‍मा अगले दस दिन तक घट में या घट के रूप में रहेगी। पंडित कहते हैं शरीर का आश्रय जला देने के बाद आत्‍मा क्रोधित है, उसकी शांति के लिए उसे प्रतिदिन सुबह-शाम पानी पिलाना होगा। अपनी ममतामयी माँ के लिए ऐसे स्‍वार्थी क्रोध की कल्‍पना भी अन्‍याय लगती है। घट के पेंदे में छेद है, उसके नीचे फैलायी गई गंगा की मिट्टी और रेत। घट में डाला गया जल छेद से चूकर मिट्टी और रेत पर गिर जाता है।  कबीर की पंक्‍ति याद आती है — ”फूटा कुंभ जल जल ही समाना।” कितु इस अनुष्‍ठान में पानी के रेत मिट्टी में मिलने का अर्थ कुछ दूसरा होगा। किंतु किसी स्रोत से आकर पुन: उसी स्रोत में मिल जाने का बिम्‍ब बार-बार कई विधियों में दुहराया जाता है। आर्य जाति के मानस में मृत्‍यु की धारणा के मूल में है यह भाव। हँसी तो तब आती है जब माँ को लगाया गया भोग अंधेरा होने के पश्‍चात किसी पीपल के पेड़ के पास डाल आना होता है। उस समय एक डंडा हाथ में लेकर जाना होता है। एक आदमी साथ में जाएगा, नहीं तो प्रेतात्‍मा पकड़ लेगी। डंडे के डर से वह दूर रहेगी। एक अशरीरी शक्‍ति को डराने का ऐसा ठोस मोटा उपाय मजेदार है। मूलत: यह अधेरे में जंगली जानवरों सर्प-बिच्‍छूओं से बचाव का उपाय रहा होगा।

लोगों में विधि-विधानों निषेधों के लिए कितना उत्‍साह है!! हर कोई यह बताने को अधीर है कि क्‍या होना चाहिए क्‍या नहीं। कोई कहता है नमक नहीं खा सकते, यह तपस्‍याकाल है। कोई कहता है सबकुछ खा सकते हैं, माँ की आत्‍मा अभी आपमें वास कर रही है। हर विकल्‍प उतना ही बेमतलब। कोई कहता है बीस पिंड लगेंगे, कोई पंद्रह, कोई बारह। हर बात में दस बात निकलते हैं और हर कोई अपने को औरों से अधिक बुद्धिमान समझता है। मेरे एक शिक्षक रिश्‍तेदार जिन्‍दगी भर गणित का एक प्रमेय, विज्ञान की एक बुनियादी अवधारणा ठीक से नहीं समझ पाए वे इस समय हर क्रिया की लॉजिक दे रहे हैं।

दशमी का दिन मुंडन और पिंड पारे जाते हैं। यहीं से असल में दरअसल प्रेतात्‍मा को भोग देने और उन्‍हें अलविदा कहने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। लेकिन पहली बार चौंकाता है एकादशा, यानी ‘कंटाहा’, महापात्र बाह्मण का दिन। आज उसका शासन है। वह शैया, चादर, पलंग, खाने-पीने का सालभर का अनाज, और न जाने किन किन वस्‍तुओं के न होने पर ऐसी झाड़ लगाता है जैसे हमने कोई बड़ा अन्‍याय कर दिया हो। व्‍यंग्‍य करता है रिक्‍शावाला भी इससे अधिक करता है। अपमान का घूँट पीकर भी लोग श्रद्धानत और मजबूर हैं। ‘ये तो वह करेगा ही’। ‘कंटाहा’ के छुड़ाए बगैर पिंड नहीं छूटेगा। वही मेरे गले की रस्‍सी तोड़ेगा। वह घुटा हुआ काइयाँ है। बडी देर के मोल-भाव के बाद मानता है। मैं सोचता हूँ कि आधे दिन की मजूरी के इतने हजार रुपये, मय अनाज-पानी, धोती-कुर्ता-गमछा के सिर्फ परंपरा के बहाने और किस धंधे में होंगे? 

बारहवी का दिन असली तपस्‍या और पूजा का दिन है। चार-पाँच घंटे की पूजा-रीति-अनुष्‍ठान में कमर और पूरी देह दुख जाती है। मगर क्‍या वह कष्‍ट किसी तरह भी उस कष्‍ट की बराबरी कर सकता है जो माँ ने मुझे जन्‍म देते समय उठाए होंगे। मेरा यह छोटा सा सहा गया दर्द उस महान दर्द के प्रति एक छोटा सा नैवेद्य है। बीस पिंडों की पूजा, प्रत्‍येक में देवता का आवाहन, भोग, अभ्‍यर्थना। हरेक पिंड की पूजा के बाद स्‍नान, पवित्रीकरण। दर्द को बढ़ाता निष्‍ठावान पंडित का मंत्रपाठ। वह हर कार्य पूरी विधि से डिटेल में करा रहे हैं। मैं दर्द से परेशान हूँ और वे उतनी ही शांति से बिना परेशानी के बैठे हैं। आदत बन गई होगी।

पिंडों को मिलाने के समय वातावरण अत्‍यंत हृदयद्रावक हो जाता है। ‘जल जल में मिले, मिट्टी मिट्टी में उसी तरह हे माँ, आप पितरों में मिलें।’ माँ, जिनकी जीवित उपस्‍थिति अभी तक चेतना में बनी हुई है उन्‍हें मरी हुई दादियों-नानियों-परदादियों आदि की जमात में डालने में मन विगलित हो जाता है। भले ही वह चावल के आटे के साने गए पिण्‍डों में प्रतीकित किया जा रहा हो, किंतु एक बार फिर उनके मर जाने, पितरों में चले जाने का एहसास जीवित हो जाता है। हम भाई-बहन सभी रो रहे हैं। चाचियाँ, भाभियाँ भी, जो उनसे ईर्ष्‍या करती रहीं। माहौल का असर ही ऐसा है।

पता नहीं क्‍यों हम मरने के बाद आदमी को पूजनीय मानने लगते हैं। जिन्‍होंने माँ के जीवित रहते सदैव कष्‍ट दिया, वे भी मरने के बाद उनके पिण्‍ड और तसवीरों के सामने सिर झुका रहे हैं। मृत्‍यु का महत्‍व जीवन से अधिक तो नहीं हो सकता। वे नहीं हैं तो नहीं हैं, बस। उनके प्रति श्रद्धा-अश्रद्धा का आधार तो उनका जीवन ही हो सकता है। किंतु मृत के प्रति ऐसी अंधी श्रद्धा मुझे बड़ी निराश और उद्वेलित करती है। हम हिंदुओं में ‘संस्‍कार’ जड़ता ही इतनी अधिक है कि हम तर्क और रेशनल थिंकिंग को कभी अपना नजरिया नहीं बना सकते। यहाँ का वैज्ञानिक, इंजीनियर भी घंटे-भर पूजा करता है। ईश्‍वर के अस्‍तित्‍व पर क्षण-भर भी शंका नहीं करता। विज्ञान उसका पेशा है और ईश्‍वर उसका विश्‍वास। कर्म और विश्‍वास के बीच गहरी खाई। ‘इंटीग्रिटी’ संभवत: हमें सबसे कम समझ में आनेवाले शब्‍दों में होगा।

अगले दिन नियमित ब्राह्मण पुन: इससे दुगुनी चीजें लेता है। बार बार लगता है हिंदुओं में मरना कितना महंगा सौदा है। बात-बात पर रुपये की माँग। कभी संकल्‍प के नाम पर, कभी चढ़ावा, कभी दक्षिणा के नाम पर। देवताओं को जितनी बार आह्वान किया जाता है हर बार उन्‍हें पान सुपारी फल फूल वस्‍त्र आदि के साथ मुद्रा भी चढ़ती है। क्‍या हमारे देवता इतने लालची हैं? क्‍या हम ईश्‍वर से निस्‍पृह, रिक्‍तहस्‍त प्रार्थना नहीं कर सकते? इसाइयों की तरह – सिर्फ इतना कि ‘हे प्रभु, हमें शांति दो।’? ये कैसी पूजा विधि है कि पैसे न होने पर पूजा करनेवाले के मन में अपराध बोध होता है। श्राद्धकर्म मृतक के परिवार के लिए जो कुछ भी प्रायश्‍चित, तपस्‍या, या प्रेतयोनि मुक्‍ति का कर्म हो, पुरोहित के लिए वह हर समय पैसे ऐंठने का मौका है। क्‍या एक पादरी भी ऐसा ही करता है? क्‍या एक इमाम या मौलवी भी ऐसा ही करता है? 

लेकिन हम सिर्फ ब्राह्मण को ही दोष क्यों दें। वह जिस चीज का ध्वजघारी है — धर्म, उसकी प्रकृति ही दासताकारी है। खाने के पैसे हों न हों, ताबूत और कफन के लिए पैसे जुटाने ही पड़ेंगे। प्रश्‍नहीन, सम्‍पूर्ण समर्पण। अल्‍लाह के सामने पूरी तरह समर्पण करनेवाला ही मुसलमान होना है। सवाल खड़ा करते ही सर्वशक्‍तिमान की चूलें हिलने लगती हैं। कितना भयावह है। ऐसा ईश्‍वर भला किस आत्‍मा को कैसी शांति दे सकता है।

कोई आत्‍मा भी है? आदमी का मन मानने को तैयार नहीं कि मरना दरअसल सबकुछ खत्‍म हो जाना है। वह मरने के बाद भी कभी पुनर्जन्‍म, कभी प्रेत, कभी सूक्ष्‍म शरीर, या आत्‍मा की कल्‍पना करता है। एक बार दिमाग की बत्‍ती गुल हो गई, विद्युत की बहती धाराएँ रुक गईं तो सब कुछ खत्‍म। चिकित्‍सा विज्ञान brain death को ही असल में death मानता है। उसके बाद चेतनाहीन शरीर सिर्फ पदार्थ है। केवल और केवल मैटर। उसे जलाएँ, गाड़ें, मीनार के शिखर पर चील-कौओं के खाने के लिए छोड़ दें, क्‍या फर्क पड़ता है? और जीवन अगर किसी आत्‍मा की वजह से है तो शांति की जरूरत सिर्फ आदमी की आत्‍मा को ही क्‍यों हो, पशु पक्षियों की क्‍यों नहीं? उन्‍हें तो हम अपने शौक और मजे के लिए आराम से मार देते हैं। मनुष्‍य से बढ़कर पाखंडी कुछ नहीं।

माँ की सारी अंतिम क्रियाओं को करते हुए उनकी व्‍यर्थता का एहसास मुझे सालता रहता है। उनकी इच्‍छा थी और उनकी संतान होने के कारण यह सब करना मेरा दायित्‍व भी था। सोचता हूँ अपनी संतान को इस बाध्‍यता से मुक्‍त कर दूँ। मेरी मृत्‍यु के बाद कोई श्राद्ध न किया जाए। मेरे शरीर को चिकित्‍साविज्ञान की वृद्धि के लिए अस्‍पताल या मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया जाए।

इस श्राद्ध कर्म में कुछ सुंदर मर्मस्‍पर्शी और मूल्‍यवान भी हासिल हुआ है। गंगा में उनकी अस्‍थियाँ प्रवाहित करते समय कालातीत की अनुभूति। नदी के प्रवाह में काल के प्रवाह का बोध, उसमें अस्‍थियों का विसर्जन जैसे काल की शाश्‍वत बहती धारा में शरीर के क्षणिक अस्‍तित्‍व का लोप, दूर तक फैला गंगा का पाट और उस पार का अपरिमित फैला बालू का विस्‍तार। गंगा उस वक्‍त जैसे उठकर हमारी जातीय मानसिक नदी बन जाती है। धान के लावे का भूमि पर छींटना, मिट्टी से आकर पुन: मिट्टी में मिल जाने का रूपक…. घट के पेंदे से बहता जल आत्‍मा के निस्‍सीम मे मिलने की उपमा यह सब किसी कविता-सा प्रतीत होता है। यहाँ तक कि पिंडों के मिलने का द़श्‍य भी किसी मार्मिक शोकगीत की तरह लगता है।

किंतु उस सबको अर्थ देनेवाला ईश्‍वर मेरे पास नहीं है मुझ आस्‍थाहीन ईश्‍वरवंचित अभागे को ?

जबकि तुम बिन कोई नहीं मौजूद

फिर ये हंगामा-ए-खुदा क्‍या है ? 

सिर झुकाता हूँ तो बस उस धर्म को, जो मुझे ऐसी बातें कहने के बावजूद हिंदू होने और रहने की इजाजत देता है। जो चिंतन की स्‍वतंत्रता का सदैव आदर करता है। किसी डॉग्‍मैटिक मोनोलिथिक मजहब या पंथ में ऐसी बातें ईशनिंदा के समकक्ष ठहराई जातीं, जिसकी सजा मेरे शरीर से आत्‍मा को अलग करके भी दी जा सकती थी। 

किसी अस्‍तित्‍वहीन, ‘नास्‍ति’, ‘नहीं है’, ‘नहीं है’ ईश्‍वर के प्रति मेरी इतनी ही प्रार्थना हो सकती है : ॐ शांति: शांति: शांति:।

(published in हंस दिसम्बर 2012 )

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