सद्भावों की संकल्पना- रक्षाबंधन

– नीलू शेखावत

रक्षाबंधन भारतीय संस्कृति का अद्भुत पर्व है। अपने सुहृद इष्ट मित्रों की रक्षा-सुरक्षा का भाव इसमें भरा हुआ है। अनिष्ट से रक्षा की भावना से ही रक्षा-सूत्र-बंधन पर्व की अभियोजना हुई। शास्त्रों में रक्षासूत्र के कई प्रसंग मिलते हैं। जिसमें शचि द्वारा इंद्र को रक्षा सूत्र बांधना, माँ लक्ष्मी द्वारा राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधना और शिष्यों द्वारा अपने गुरु को रक्षा सूत्र बांधने के संदर्भ प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। रक्षा सूत्र बांधते समय प्रायः एक श्लोक उच्चरित किया जाता है-

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।

तेन त्वाम् अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥

(जिस रक्षा सूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र मैं तुम्हें बांधती हूं, जो तुम्हारी रक्षा करेगा, हे रक्षा तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना।)

यह सूत्र जिसे बांधा जाता है उसे निरापद होने का आश्वासन परोक्ष रूप से शुभ भावों के रूप में प्राप्त होता है। लोक में बहन द्वारा भाई के रक्षण भाव से रक्षाबंधन करना इसी शुभ परंपरा की निरंतरता का संकेत है।

तथाकथित प्रगतिशीलता ने आजकल इस पवित्र पर्व को ‘पुरुष प्रधान समाज के अहम’ का  चोला पहनाकर यह प्रचारित किया कि:- रक्षाबंधन पुरुष द्वारा स्त्री की रक्षा करने का अहंकार है। जब स्त्री अपनी रक्षा स्वयम्  कर सकती है तो रक्षासूत्र का क्या औचित्य? फिर टी वी, फिल्मों, विज्ञापनों और कहानियों में एक जुमला उछला- “मैं अपनी रक्षा खुद कर सकती हूँ।” किसी भी शब्द या वाक्य का अपने तरीके से विखंडन कर लेना यह वर्ग भलीभाँति जानता है। नेरैटिव बनाना और भुनाना इन्हें बखूबी आता है।

‘बहन होगी तेरी’ जैसी फिल्मों ने इस सोच में छोंक का काम किया। सोशल मीडिया पर खूब रोस्ट हुआ यह रिश्ता। जहाँ पुरुष कलाई पर रक्षासूत्र बंधवाते समय गर्व का अनुभव करता था वहीं नई छिछोरी पीढी ने इसका मजाक बनाना सीख लिया। लड़की के हाथ में राखी देखकर दूर भागने वाले कॉमेडी विडियोज पर लोग खी खी करके हँसते हैं।

यह पर्व स्नेह बांटने का पर्व है। अपनत्व जताने का पर्व है।

श्रावणी पूर्णिमा का एक विशेष महत्त्व भी है। प्राचीन समय में गुरुकुलों में वैदिक आचार्यों के मार्गदर्शन में वेदाध्ययन से पूर्व बटुकों का ‘श्रावणी उपाकर्म’ सम्पन्न करवाया जाता था। उपनयन संस्कार के बाद बालक द्विजत्व धारण करते थे। गुरु शिष्य परस्पर रक्षा सूत्र बांधकर अपने हृदय में एक-दूसरे के प्रति सद्भाव समृद्ध करते थे। जिस सूत्र में पराये को भी अपना बना लेने की शक्ति हो, सोचिये उसके पीछे का सद्भाव कितना प्रगाढ़ होगा! सद्भावना का वितान ही इस पर्व की प्रेरणा है।

रक्षत रक्षत कोषानामपि कोषें हृदयम्।

यस्मिन सुरक्षिते सर्वं सुरक्षितं स्यात्।।

जिसके सुरक्षित होने से सब सुरक्षित हो जाता है, वह कोषों का कोष हृदय सद्भाव से ही संरक्षित है। 

(साभार – नीलू शेखावत के फेसबुक वॉल से)

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