101 वर्ष : सृजन और सादगी का अमृत पर्व

अलका सिन्हा

आज के दिन, हम सब सौभाग्यशाली हैं कि शताब्दी साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र जी का जन्मदिन मना रहे हैं। 101 वर्ष के समृद्ध साहित्यिक जीवन के बाद वे 102वें वर्ष में प्रवेश कर, अपनी लेखनी और सृजनशीलता से हमें प्रेरित कर रहे हैं।

हाल ही में उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया गया, और उस अविस्मरणीय दिन को देखने का अनुभव हमारे जीवन के सबसे मधुर पलों में से एक रहा। मिश्र जी का घर, उनके शब्द, उनके उत्साह और बालमन की चहक उस दिन हर किसी के हृदय में उतर गई। बिना किसी दिखावे के, उनकी सादगी, उनकी मुस्कान, उनका पितृतुल्य स्नेह और समर्पण यही सिखाता है कि असली सम्मान कर्म और सृजन के पश्चात मिलता है, शोर-शराबे से नहीं।

हमने उनके पद्मश्री पदक को छूकर देखा, जो मेरे जीवन के अविस्मरणीय पलों में शामिल है। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर मैं वही डायरी यहां साझा कर रही हूं, जिसमें मैंने उस ऐतिहासिक दिन और उनकी अद्भुत सहजता को संजोने का प्रयास किया है।

जन्मदिवस अभिनंदन, श्रद्धेय रामदरश मिश्र जी! आपकी लेखनी यूं ही समय की सीमाओं को पार करती रहे, आपके शब्दों में हमें हमेशा जीवन का प्रेम, प्रेरणा और आनंद मिलता रहे। आपका स्वास्थ्य उत्तम रहे और आपकी सृजन शक्ति अनवरत!

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09 जून, 2025

कई बार सोचती हूं कि मिश्र जी का जब कोई सम्मान होता है तब हम सभी उनके छात्र और प्रशंसक इतना उत्साहित क्यों होते हैं कि जैसे हम सम्मानित हो रहे हों, यह सम्मान हमें ही दिया जा रहा हो!

अब आज की ही बात ले लें। मिश्र जी का पद्मश्री अलंकरण समारोह होना था और हम कुछ लोगों को उनके घर पर आने का संदेश डॉक्टर साहब ने स्वयं दिया था। वे जानते थे कि उनके सम्मान समारोह की हम सभी को कितनी व्यग्रता से प्रतीक्षा थी। अस्वस्थता के कारण वे यह सम्मान लेने नियत तिथि को राष्ट्रपति भवन नहीं जा सके थे। इसलिए यह कार्यक्रम आज उनके घर पर ही किया जाना था। बस, हम बच्चों की तरह चहक रहे थे। ओम निश्चल जी, वेदमित्र शुक्ल जी, हरिशंकर राढ़ी जी के साथ मैं और मनु जी भी उत्फुल्ल मन से वहां मौजूद थे। बल्कि कहूं कि आज तो मैं समय से पहले ही पहुंच गई थी। उस समय वहां कोई और नहीं पहुंचा था।

“मैं लगता है, जरा जल्दी ही पहुंच गई?” झेंप मिटाते हुए मैंने कहा तो शशि भैया मुस्कराने लगे।

दरअसल, दिल्ली की सड़कें थोड़ा-बहुत लेट तो करा ही देती हैं। 10-15 मिनट की देरी से तो इस समारोह में शामिल ही न हो पाती। इसीलिए हड़बड़ी में आधा घंटा पहले ही हम आ पहुंचे थे। फूल ले जाने का बहुत मन था। कारण, एक बार मिश्र जी ने कहा था कि उन्होंने सपना देखा था कि उनका कोई सम्मान कार्यक्रम है और मैं उनके लिए गुलदस्ता लेकर उनके घर आई हूं। तब वे वाणी विहार वाले घर में रहा करते थे।

“इसमें कौन-सी बड़ी बात है डॉक्टर साहब, अभी ले आती हूं।” मैंने चहक कर कहा था, “… और आपका सम्मान समारोह तो हमारी दुनिया में रोज होता है।”

मैंने मनु जी से गुलदस्ता लेने के बारे में कहा तो उन्होंने यह आगाह कराते हुए इनकार कर दिया कि डॉक्टर साहब को इन्फेक्शन से बचाने के लिए यह एहतियात जरूरी थी।

ठीक समय पर गृह मंत्रालय के उच्चाधिकारी आ पहुंचे थे। गृह मंत्रालय, भारत सरकार में महानिदेशक सतपाल चौहान जी के साथ कुछ अन्य वरिष्ठ अधिकारीगण भी थे। उन्होंने आगे बढ़कर जब माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी का हस्ताक्षरित स्वस्ति पत्र खोला तब हमारी तो सांस ही रुक गई थी। यह ऐतिहासिक पल था। सचमुच प्रशस्ति चलकर मिश्र जी के घर आई थी। गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने सभी के साथ में वह बुकलेट दी जिसमें इस वर्ष के पद्मसम्मानित व्यक्तियों का परिचय था। मैंने हुलसकर मिश्र जी के परिचय का पन्ना खोला तो स्मिता जी ने उसे पढ़ने का अनुरोध किया।

सच कहूं, तो मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत पलों में यह एक था। मैंने झट बुकलेट में प्रकाशित उनका परिचय सभी के साथ साझा किया। मिश्र जी की कुरसी के पीछे की मेज पर उनकी कुछ किताबें सजा रखी थीं। दीवार पर माता जी का मुस्कराता चित्र जीवंत हो उठा था। सादगी में होने के बावजूद यह दृश्य भव्य लग रहा था। मनु जी ने इस अविस्मरणीय घटना को फेसबुक पर लाइव कर दिया था। स्मिता जी के फोन पर भी यह कार्यक्रम लाइव प्रसारित हो रहा था।

मिश्र जी से इस अवसर पर कुछ कहने का अनुरोध किया गया। उनकी स्मृति अभी भी इतनी प्रखर थी कि कागज देखे बिना ही उन्होंने अपना मुक्तक सुनाया। सबके अनुरोध पर अपनी लोकप्रिय गजल ‘‘बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे’’ भी सुनाया। कागज की कोई दरकार नहीं थी। हां, आवाज में वह बुलंदी न थी मगर चेहरे का उल्लास आज भी उनके भीतर के बालमन को उजागर कर रहा था। गृह मंत्रालय से पधारे अधिकारीगण के जाने तक हमारा संयम जवाब दे चुका था। हम सभी डॉक्टर साहब के साथ अलग से फोटो खिंचवाने के लिए आतुर थे। बहुत लोग नहीं थे, इसलिए सभी की इच्छा को तथास्तु का वरदान मिला।

“डॉक्टर साहब, मैं पहली बार पद्मश्री को हकीकत में देख रही हूं, अभी तक खाली फोटो में ही देखा था,” मैंने उनकी बंडी पर टंगे पद्मश्री पदक को छूते हुए कहा।

“मैंने पद्मश्री छूकर देखा।” ओम निश्चल भी बच्चों की चहक से भरकर बोल उठे। बस, फिर क्या था। सभी पद्मश्री को छू-छू कर देखने लगे। मिश्र जी इस उल्लास का आनंद उठाते रहे। उनके स्वास्थ्य को देखते हुए, कुछ समय बाद शशि भैया उन्हें उनके कमरे में ले गए ताकि वे आराम कर सकें। इधर उनकी वानर सेना चाय-नाश्ते पर टूटी पड़ी थी। हमारे ठहाके थमने का नाम ही न ले रहे थे। उधर मिश्र जी बच्चों की तरह अकुला रहे थे कि वे इन चुहलबाजियों से अलग क्यों हैं।

“आप सभी को पिताजी भीतर बुला रहे हैं,” आखिर स्मिता जी ने संदेशा सुनाया।

हम सभी मस्ती में उछलते-कूदते उनके कमरे में पहुंचे तो पाया, मिश्र जी भावुक हो आए थे। वे कह रहे थे कि जीवन में उन्हें बहुत प्यार मिला है। वे थके हुए थे और उनका स्वर बहुत क्षीण हो चला था मगर आवाज में संतोष था, गहरी संतृप्ति…

‘‘आपके साथ-साथ हमें भी मिला है, डॉक्टर साहब’’, मैंने धीरे से कहा। दरअसल, उनकी यह स्थिति देख कर हम भी बहुत भावुक हो गए थे और कुछ कहते न बन रहा था। उनका पितृतुल्य स्नेह मेरे जीवन की अनमोल निधि है। उनसे लिए साक्षात्कार की वह पंक्ति मेरे मन में घूमती रही जहां उन्होंने अपनी मानस पुत्री के रूप में मुझे अंकित किया था।

हम धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकल आए।

यह एक ऐतिहासिक दिन है। मिश्र जी को मिला पद्मश्री अलंकरण इस बात की गवाही देता है कि बिना उछल-कूद मचाए, चुपचाप अपना काम किए जाओ, समय सबकी ओर देखता है। तिकड़म से भी सम्मान हासिल होते हैं मगर खुशी तो काम करने के बाद मिले सम्मान से ही हासिल होती है।

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