‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’

दिनेश कुमार माली, तालचेर,ओड़िशा

यह ध्रुव सत्य है कि हमारे लेखन में आजकल वह ताकत नहीं रही, जो हमारे अलग-अलग धर्मों वाले देश में ‘अनेकता में एकता’ का सूत्र प्रतिपादित करने की क्षमता पैदा कर सके। देश की आजादी से पहले वाले हमारे नेता हिंदू, मुस्लिम और अन्य धर्मावलम्बियों को जोड़कर रखते थे। गांधी जी तो अल्लाह और ईश्वर दोनों में समानता की बात करते थे कि वे एक ही शक्ति के दो अलग-अलगनाम है। गीता का कर्मफल सिद्धांत भी इसी बात की पुष्टि करता है। मान लेते हैं कि आज हम जन्म से हिंदू है, हो सकता है पूर्व जन्म में मुस्लिम या ईसाई रहे होंगे; यह किसको पता है !  और यह भी हो सकता है कि अगले जन्म में मुस्लिम या ईसाई या अन्य धर्मावलंबी बने, तो फिर हमारे लिए धर्म के नाम पर युद्ध करने का अर्थ है अपने कुंटुंबियों को खत्म करना। अगर हम हमारे देश के भक्ति आंदोलन की ओर झांके तो देखेंगे कि ‘रहिमन धागा प्रेम का’ कहने वाले रहीम और ‘कर का मनका डारि दे, मन की मनका फेर’, कहकर हिंदुओं को और ‘ता चढि मुल्ला बाग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ कहकर मुसलमानों को लताड़ने वाले कबीर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल देते थे। मुहम्मद जायसी अलाऊदीन खिलजी और रानी पद्मावती का अपने ‘पदमावत’ में जिक्र करते थे। मुंशी प्रेमचंद हामिद के चिमटे को आधार बनाकर ‘ईदगाह’ जैसी संवेदनशील कहानी लिखकर हिंदू-मुस्लिम एकता में अपना योगदान देते है। लेकिन आधुनिक युग में  इतिहास के गड़े विवादास्पद मुर्दे खोदकर न केवल आधुनिक लेखक, बल्कि सत्ताएं भी वर्तमान पीढ़ी में प्रतिशोध की भावना पैदा कर रही है।

परिणाम मंदिर-मंजिस्द का विवाद आए दिन टीवी, सोशियल मीडिया, न्यूज में सुर्खियों पर रहता है। जिससे न केवल सामाजिक सौहार्द्रता कम होने लगी हैं,बल्कि असहिष्णुता ज्यादा से ज्यादा बढ़ रही है। ये सारी परिस्थितियां आधुनिक लेखकों की कलम में उतरने लगी है। उदाहरण के तौर पर मंजूर एहतेशाम का प्रसिद्ध उपन्यास है- ‘सूखा बरगद’- जिसमें लेखक ने रशीदा और सुहैल के माध्यम से देश के बदलते वातावरण का युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव को गंभीरता से दर्शाया है और चेताया भी है कि आने वाला समय गृह-युद्ध जैसी घटनाओं से भरा होगा। इस उपन्यास के अनुसार अल्पसंख्यक समाज की अपनी समस्याएं है- पहचान का संकट, सामाजिक गतिरोध, धार्मिक कट्टरता और आर्थिक असुरक्षा। ऐसी बात नहीं है कि देश की आजादी से पहले भी हिन्दू-मुस्लिम में फूट नहीं थी। उस समय भी थी, जिसका अंग्रेजों ने फायदा उठाया और भारत के दो टुकड़े हुए। आज जहां दोनों हिन्दू और मुस्लिम समाज आंतरिक संघर्षों से गुजर रहा है, वहां रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता, सामाजिक विकास के गतिरोध और कुत्सित राजनीति इस संकट की खाई को और ज्यादा चौड़ा कर रही है।

बी.आर. चौपड़ा की ‘महाभारत’ के संवाद लेखक राही मासूम रजा अपने उपन्यास ‘आधा गांव’ में मुस्लिम और हिंदू समुदाय की सांस्कृतिक एकता और विभाजन की त्रासदी दर्शाते है। ऐसी ही उनकी कहानी ‘टोपी शुक्ला’ भी है। ईस्मत चुगताई का उपन्यास ‘टेड़ी लकीरें’ और कुर्रतल ऐन हैदर का उपन्यास ‘आग का दरिया’ भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों में सांस्कृतिक एकता का चित्रण करती है। लेकिन आज ऐसे लेखक पैदा नहीं हो रहे हैं क्योंकि कालांतर में परिस्थितियां बदल गई और लेखकों की लेखनी भी बदल गई। हिंदू और मुस्लिम में एकता कायम करने की जगह खाई चौड़ी करने वाले वातावरण उनके कथानकों में उतरने लगे है। समकालीन लेखकों में प्रदीप श्रीवास्तव अपने कहानी संग्रह ‘जेहादन तथा अन्य कहानियां’ में हिंदुओं को मुसलमानों से भयभीत होते हुए दिखाया है कि कहीं आने वाली पीढ़ी धर्मांतरण के कारण कहीं मुस्लिम न हो जाए। जबकि वही लेखक अपने उपन्यास ‘बेनजीर’ में हिंदू लड़के का मुस्लिम लड़की से प्रेम दिखाते है तो ओडिया लेखिका सरोजिनी साहू अपने उपन्यास ‘बंद कमरा’ में पाकिस्तान के नवयुवक का भारतीय महिला कली के साथ चैट द्वारा प्रेम-प्रसंग को आधार बनाया है। उसी तरह अनवर सुहैल इस उपन्यास में सलीमा के दुःख भरी जिंदगी का उल्लेख अवश्य करते हैं, मगर उसकी माँ को मौलना कादरी के साथ भागते और सलीमा को हवश का शिकार बनाने वाले गंगाराम मास्टर और बैंक मैनेजर विश्वकर्मा दोनों को हिंदू जाति वाले बताते हैं। निस्संदेह, उनका उपन्यास यथार्थ पृष्ठभूमि पर लिखा गया हैं,मगर संकीर्ण विचारधारा वाले हिन्दू-मुस्लिम पाठक इसे धार्मिक इशू भी बना सकते है। प्रदीप श्रीवास्तव, सरोजिनी साहू और अनवर हुसैन जैसे खतरों से खेलने वाले दिग्गज लेखकों ने आधुनिक युग के राजनैतिक परिदृश्य में अवश्य ही अपनी जान जोखिम में डालते हुए अपने लेखकीय धर्म को पूरी तरह से निभाया है।

‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’ उपन्यास का सारांश इस प्रकार हैः-

‘‘इब्राहिम पुरा में रहने वाले, एक गरीब मुसलमान महमूद मियां यानि मम्दू पहलवान की तीन लड़कियां है- सलीमा, सुरैया और रुकैया। गरीबी से परेशान होकर उसकी पत्नी किसी मौलाना कादरी के साथ भाग जाती है और उस समय घर चलाने की सारी जिम्मेदारियां बारह वर्षीय सलीमा के कंधों पर आ जाती है। उस समय वह आठवीं कक्षा की छात्रा होती है। सुरैया, रूकैया उससे एक-दो साल उम्र में छोटी होती है। घर की तनावपूर्ण परिस्थितियों के कारण पढ़ाई में ध्यान नहीं देने की वजह से मास्टर गंगाराम उसे कक्षा में बहुत मारता-पीटता है। बाद में वह उसके अब्बा को राजी कर ट्यूशन पर पढ़ाने के लिए घर बुलाता है। मास्टर घर में अकेले होते है, अपने हाथों से रोटी बना रहे होते तो सलीमा उनकी सहायता करती है। मौके का फायदा उठाकर मास्टर जी उससे शारीरिक संबंध बना लेते है तो वह रोने लगती है। उसे चुप करने के लिए वे तीन सौ रूपए देते है। वहीं से इस तरह लेन-देन का यह सिलसिला चल पड़ता है। बाद में सलीमा को अपने बिजनेस के लिए आटा-चक्की की दुकान खोलने के लिए ज्यादा पैसों की जरूरत होती है तो मास्टर जी उसे बैंक मैनेजर विश्वकर्मा के पास भेज देता है, लोन लेने के लिए। उसके खातिर उसे बैंक मैनेजर के साथ हम बिस्तर होना पड़ता है। इस तरह एक गरीब मुस्लिम महिला को आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने के लिए दर्दनाक यौन-उत्पीड़न और मार्मिक घरेलू संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता है।

धीरे-धीरे जब उसका बिजनेस ठीक-ठाक चलने लगता हैं तो वह अपनी बहनों को अजमेर शरीफ घुमाने ले जाती हैं। तो वहां सुरैया की किसी लड़के से जान-पहचान हो जाती है। सलीमा सुरैया की अपने रिश्तेदारों से शादी कराना चाहती है, लेकिन इससे पहले ही वह अजमेर वाले लड़के के साथ भाग जाती है। बैंक से और लोन लेने के लिए वह फिर से उसी बैंक मैंनेजर के पास जाती है तो वह उसे शराब-पिलाता है और ब्लू फिल्म दिखाता है, जिसमें उसे पॉर्न स्टार के रूप में सुरैया दिखाई देती है। यह देखकर सलीमा को रोते-रोते आंखें पथरा जाती है। सलीमा समझ जाती है कि जिस लड़के के साथ सुरैया भागी थी, उसने उसे किसी वैश्यालय में छोड दिया है। यहीं पर, अनवर सुहैल के उपन्यास का भले ही अंत हो जाता है, मगर सलीमा के अंतहीन दुःखों के अनेक अनुत्तरित सवाल पाठकों के सम्मुख छोड़ देता है।

इस उपन्यास में अनवर सुहैल के अल्प संख्यक मुस्लिम परिवार को दोहरे खतरों से जूझते हुए दर्शाया है। पहला, आंतरिक खतरा-मम्दू पहलवान की पत्नी का मौलाना कादरी के साथ भाग जाना और दूसरा बाहरी खतरा-गरीब परिवार में जवान होती हुई लड़की का बाहरी समाज द्वारा यौन-शोषण। चक्की के इन दो पाटों के बीच क्या वह बेचारी लड़की बच सकती है? हड्डियों और नसों का अच्छा जानकार होने के बावजूद मम्दू पहलवान कमाता नहीं है। उसके घर की यह दुर्दशा गरीबी से तंग आकर उसकी पत्नी भाग जाती है, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ता है उसकी मासूम लड़कियों को। सलीमा अपने परिवार के लिए सब-कुछ दांव पर लगा देती है, ताकि उसकी छोटी बहिनें पढ़ाई कर सके, मगर सुरैया लालच और पैसों के लिए किसी लड़के के साथ भाग जाती है। वह सलीमा के त्याग को नहीं समझ पाती है, बल्कि उसे गंदी निगाहों से देखती है।

पुरूष प्रधान समाज और नारी उत्पीड़न जैसे सामाजिक मुद्दों पर आधारित उपन्यास ‘सलीमा’ सन् 2006 में संकेत प्रकाशन अनूपपुर से प्रकाशित हुआ था, जो बाद में सन् 2022 में न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से ‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

इस उपन्यास में घरेलू हिंसा, आर्थिक निर्भरता जैसी समस्याओं के अतिरिक्त ग्रामीण भारत की कठोर वास्तविकताओं जैसे बिजली कटौती, चूहों-खटमलों से भरी जिंदगी को उजागर करने के साथ-साथ लेखक ने महिलाओं की आंतरिक शक्ति और प्रतिरोध को भी अभिव्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

अंत में, इतना ही कह सकता हूँ कि अनवर सुहैल ने अपने इस उपन्यास न केवल मुस्लिम नारी की असहनीय वेदना को उजागर किया है, बल्कि हिंदुओं के मन में उनके प्रति सहानुभूति पैदा करने का भरसक प्रयास किया है। दूसरे शब्दों में, भारतीय समाज तभी सुरक्षित रहेगा, जब दोनों समाज अपनी-अपनी कुरीतियों का निवारण कर अशिक्षित समाज को शिक्षित बनाएँ ताकि वे स्वावलंबी हो सकें और अपने जीवन के फैसले खुद ले सकें।

One thought on “मुस्लिम परिवार की दुर्दशा को दर्शाता अनवर सुहैल का उपन्यास ‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’ – (पुस्तक समीक्षा)”

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