प्रथम अध्याय / तृतीय वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः ।

पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ ११ ॥

जीवात्मा से तो बलवती, अव्यक्त माया शक्ति है,

अव्यक्त माया से परम उस परम प्रभु की शक्ति है।

उस दिव्य गुण गण प्रभो की परम प्रभुता से परे,

नहीं सृष्टि में कोई भी किंचित,साम्यता प्रभु से करे॥ [ ११ ]


एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते ।

दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ १२ ॥

प्रभु सर्वभूतेषु तथापि माया के परिवेश में,

हैं स्वयम को आवृत किए ,रहते अगोचर वेष में।

अति सूक्ष्म दर्शी भक्त ज्ञानी ही दया की दृष्टि से,

हैं देख पाते परम प्रभु और विश्व को सम दृष्टि से॥ [ १२ ]


यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।

ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ १३ ॥

वाक इन्द्रियों को मनस में और मनस को शुचि ज्ञान में,

शुचि ज्ञान को फ़िर आत्मा और आत्मा महिम महान में।

इस भांति जो भी जो भी निरुद्ध और विलीन करते आत्मा,

स्थिर वे स्थित प्रज्ञ हैं और पाते हैं परमात्मा॥ [ १३ ]


उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ १४ ॥

लाभान्वित हो मानवों तुम ज्ञानियों के ज्ञान से,

तुम उठो जागो और जानो ब्रह्म विधान से।

यह ज्ञानं ब्रह्म का गहन दुष्कर, बिन कृपा अज्ञेय ही,

ज्यों हो छुरे की धार दुस्तर, ज्ञानियों से ज्ञेय है॥ [ १४ ]


अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।

अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥ १५ ॥

प्रभु,रूप,रस,स्पर्श,शब्द व गंध हीन महिम महे,

आद्यंत हीन असीम अद्भुत,नित्य अविनाशी रहे।

यह ब्रह्म तो जीवात्मा से श्रेष्ठतर ध्रुव सत्य है,

पुनरपि जनम और मरण शेष हों, ज्ञात जब प्रभु नित्य हो॥ [ १५ ]


नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तँ सनातनम् ।

उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते ॥ १६ ॥

शुचि उपाख्यान सनातनम, यमराज से जो कथित है,

यह ज्ञानियों द्वारा जगत में, कथित है और विदित है।

इस नाचिकेतम अग्नि तत्व का श्रवण, अथवा जो कहे,

महिमान्वित होकर प्रतिष्ठित, ब्रह्म लोक का पद गहें॥ [ १६ ]


य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि ।

प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते ।

तदानन्त्याय कल्पत इति ॥ १७ ॥

जो ब्राह्मणों की सभा आदि में , शुद्ध होकर सर्वथा

परब्रह्म विषयक परम गूढ़ के मर्म की कहते कथा।

है श्राद्ध काले श्रवण करवानें का फल अक्षय महे,

वे अंत में होते अनंत हैं,जो अनंता को गहें॥ [ १७ ]


*****

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »