‘पंजाबी प्रवासी कहानियाँ’ का लोकार्पण

अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद, डायस्पोरा रिसर्च एंड रिसोर्स सेंटर एवं वैश्विक हिंदी परिवार के संयुक्त तत्त्वाधान में बुधवार, 04 सितम्बर 2024 को सायं 4:00 बजे उमंग सभागार, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली में ‘पंजाबी प्रवासी कहानियाँ’ का लोकार्पण का कार्यक्रम किया गया। इस पुस्तक का संपादन अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के सचिव श्री गोपाल अरोड़ा ने किया है। पंजाबी से हिंदी में अनुवाद डॉ. जसविंदर कौर बिंद्रा ने किया है। यह पुस्तक प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है।

कार्यक्रम की शुरुआत प्रभात कुमार के वक्तव्य से हुई। उन्होंने इस पुस्तक को प्रवासी साहित्य को समृद्ध करने वाली पुस्तक कहा। उन्होंने प्रवासी साहित्य को आगे ले जाने हेतु पुस्तकों के प्रकाशन में हर सम्भव सहयोग देने का आश्वासन दिया।

डॉ. शैलजा, सहायक प्राध्यापक, गुरू नानक देव खालसा कॉलेज, दिल्ली ने कार्यक्रम की प्रस्तावना रखते हुए पुस्तक के अनुवाद की उपलब्धियों एवं इस संग्रह की कहानियों की विशिष्टताओं को रेखांकित किया।

डॉ. मनीषा, सहायक प्राध्यापक, माता सुंदरी कॉलेज, दिल्ली ने इस पुस्तक को लेकर समीक्षात्मक वक्तव्य दिए। उन्होंने इसके अनुवाद की भरपूर सराहना की।

मुख्य अतिथि डॉ. मनमोहन, पूर्व आई.पी.एस. व वरिष्ठ पंजाबी साहित्यकार ने युगीन संदर्भ में मिटते समय और दूरी को लेकर अपनी बात की शुरुआत की। उन्होंने पंजाबी प्रवासी के इतिहास को याद करते हुए कहा कि पहले और अब के प्रवास में बहुत अंतर आ गया है। पहले का प्रवास मजबूरी का प्रवास होता था, जबकि आज का प्रवास चुनाव का प्रवास है। आने वाले समय में एक अलग प्रकार की समस्या होगी।

मुख्य अतिथि डॉ. रेणुका सिंह, अध्यक्ष, पंजाबी लेखिका का वक्तव्य पुस्तक के समाजशास्त्रीय विश्लेषण पर आधारित था। प्रवासियों को आरम्भ में रहने की समस्या, वहाँ के संस्कृति में घुलने की समस्या, अपने को व्यवस्थित करने की समस्या से सामना करना पड़ता है और अंत में उस समाज में अपने को समाहित करने को लेकर जद्दोजहद करना होता है। बाद में संस्कृतियों की मिलावट होती है। एक-दूसरे से ग्रहण करना, एक-दूसरे को प्रभावित करने की बारी आती है। इसी प्रक्रिया में ग्लोबल चाइल्ड का जन्म होता है, जो अपने को किसी परिस्थिति में ढाल सकता है।

डॉ. जसविंदर कौर बिंद्रा, अनुवादक एवं पंजाबी लेखिका ने अनुवादकीय वक्तव्य में अपने अनुवाद के सफर के बारे में कहा। उनका अनुवाद का लंबा अनुभव रहा है। उन्होंने अब तक पचहत्तर पुस्तकों का अनुवाद किया है। इसके लिए उन्होंने कोई विशेष तैयारी नहीं की, यह तो उनकी आदतों का हिस्सा है—रोज कुछ लिखना-पढ़ना। अनुवाद-कार्य मात्र दो भाषाओँ के जानने से संभव नहीं होता, बल्कि अनुवादक लेखक की काया के भीतर प्रवेश करता है, और इसी से अनुवाद करना संभव होता है। भाषा की भीतरी तहों में जाना पड़ता है। इस पुस्तक की कहानियों के चयन को लेकर कहा कि कहानियों के चयन में अलग-अलग भाव आ सके, इसका ध्यान रखा गया। इस पुस्तक के लिए उन्होंने गोपाल अरोड़ा जी का विशेष धन्यवाद किया।

संपादकीय वक्तव्य में श्री गोपाल अरोड़ा, सचिव, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद ने कहा कि अच्छा साहित्य से संस्कृति उन्नत होती है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद प्रवासियों को भारत के साथ जोड़ने का कार्य करती है। उन्होंने कहा कि प्रादेशिक डायस्पोरा को लेकर यह नई पहल की गई है। इससे दो भाषाओं के बीच एक पुल निर्मित होती है, जो हमें एक-दूसरे के करीब लाती है। उन्होंने पंजाबी डायस्पोरा के समृद्ध परंपरा को रेखांकित किया, और उन सब को जोड़ने के पहल में इस पुस्तक की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने इस पर विशेष बल दिया कि अपनी भाषा के साथ जुड़े रहने और उसको सम्मान देने से ही संस्कृति बची रहती है।

वैश्विक हिंदी परिवार के अध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने कहा कि प्रकाशक, संपादक एवं अनुवादक—तीनों इस किताब के लिए बधाई के पात्र हैं। प्रवासी के मनोभाव को समझने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इन सभी कहानियों में मूल्य-बोध का अंतर, उसकी टकराहट स्पष्ट दिखाई पड़ती है। सारी सुख-सुविधाओं के बावजूद व्यक्ति कहाँ पहुंचा है, जब वह जायजा लेता है तो पाता है कि वह कहीं पहुंचा ही नहीं है। उस कचोट को इस किताब में महसूस किया जा सकता है।   

अध्यक्षीय भाषण देते हुए पूर्व राजदूत श्री वीरेंद्र गुप्ता, अध्यक्ष, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद् ने इस पुस्तक के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद् में एक नया आयाम जोड़ने के लिए संपादक और अनुवादक को बधाई और धन्यवाद कहा। उन्होंने रचनात्मक लेखन की महत्ता को रेखांकित करने के संदर्भ में कहा कि, बंगाल की स्थिति को जानने के लिए हम अकादमिक अनुसंधानपरक सामग्री देख सकते हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास हमारी मदद करते हैं। इससे ही पता चलता है कि रचनात्मक साहित्य का कितना महत्त्व होता है।

डायस्पोरा को जिस नजरिए से देखा जा रहा है, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि उस नजरिए को बदलने की आवश्यकता है। डायस्पोरा की सीमाएं धुंधली हो रही है। दस साल पहले यह सोचना मुश्किल था कि ब्रिटेन में कोई भारतीय भी प्रधानमंत्री बन सकता है या कमला हैरिस अमेरिका के राष्ट्रपति की उम्मीदवार बनेंगी। आज के युवा दूसरे तरीके से सोचते हैं। हम चीन-भारत के तनावपूर्ण संबंधों की बात करते हैं, जबकि चीनी युवा भारत के योग और वॉलीवुड के संगीत की ओर आकर्षित हो रहे हैं। अब डायस्पोरा में अपनी पहचान की समस्या को लेकर सोचना अतिशयोक्तिपूर्ण है। संकट भाषाई है। इसलिए सीधे भारतीयता पर ज़ोर देने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है की हम प्रादेशिकता पर ज़ोर दें।

अंत में समापन वक्तव्य देते हुए श्री नारायण कुमार, मानद निदेशक, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद् ने कहा कि यह संगोष्ठी वैचारिक वार्तालाप से संपन्न थी। एक किताब पर चर्चा के बहाने कई मुद्दों पर महत्त्वपूर्ण विचार रखे गए। उन्होंने इस अनुवाद के संदर्भ में कहा कि अनुवाद का कार्य निपुणता के साथ किया गया है। साहित्य हमें मानसिक सुख देता है। वह हमारे भावों और विचारों को संस्कारित करता है। इसलिए उसमें यह शक्ति होनी चाहिए की वह हमें बेहतर मनुष्य बनाए। हमें अपनी भाषा, समाज और संस्कृति के प्रति लगाव रखना चाहिए। उनके धन्यवाद ज्ञापन से कार्यक्रम का औपचारिक रूप से समापन हुआ।

राज कुमार शर्मा, सहायक प्राध्यापक, गुरू नानक देव खालसा कॉलेज, दिल्ली ने मंच का सफल संचालन किया।  

इस कार्यक्रम में सत्तर से अधिक साहित्य-प्रेमी महानुभाव की उपस्थिति रही। श्री विनयशील चतुर्वेदी, श्री अतुल प्रभाकर, श्री प्रसून लतांत, प्रो रवि रविन्द्र, बलवीर माधोपुरी—निदेशक, पंजाबी साहित्य सभा, प्रो दीपमाला—गुरू नानक देव खालसा कॉलेज, दिल्ली, एवं दिल्ली के साहित्य प्रेमी, विश्वविद्यालय कॉलेज के छात्र-छात्राएं आदि की उपस्थिति रही।   

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