राजीव श्रीवास्तव की ग़ज़लें
-एक-
पानी पानी धूप बिछी है, पाँव न रख, जल जायेंगे।
हँस-हँस कर मिलने आये हैं, रो कर बादल जायेंगे।
पुरखों की थाती यदि आँगन से विस्थापित होगी तो,
सोच रहा हूँ किस मिट्टी में ये दूर्वादल जायेंगे।
किस धोखे में आँजी तुमने छलिया सूरत आँखों में,
दाग़ बहुत छोड़ेंगे, जाते-जाते काजल जायेंगे।
क्यों बुनता है रोज़ जुलाहे ताने-बाने अम्बर के,
बिन पंखों वाले पंछी तो पिंजरों में पल जायेंगे।
स्वर्ण-युगों के तहख़ानों में तड़प उठेंगे कुछ किस्से,
जब-जब बंद तिलिस्मों के खटकाये कुंडल जायेंगे।
जनपथ को जिस दिन शहरों की सूखी नदियाँ घेरेंगी,
कुछ प्यासे झरनों के पीछे जंगल-जंगल जायेंगे।
निकलेंगे कुछ लोग बचाने आग लगी यदि टपरों में,
लेकिन इन संकरी गलियों में कैसे दमकल जायेंगे।
दुरभिसंधियाँ दीवारों में शोर दबायेंगी कितना,
अगर दरारें होंगी तो बाहर कोलाहल जायेंगे।
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-दो-
ये दीवारें गिरेंगी, दर गिरेंगे।
अभी कुछ और भी मंज़र गिरेंगे।
ये सत्ता की फिसलती सीढ़ियां हैं,
हमें मालूम था जोकर गिरेंगे।
लहू के आँसुओं से आँख तर है,
ये छलके तो कई नश्तर गिरेंगे।
लगेंगे मील के पत्थर वहीं पर,
परिन्दे जिस जगह थक कर गिरेंगे।
न यूँ शीशे दिखा तू दूसरों को,
सभी चेहरे तेरे ऊपर गिरेंगे।
बगीचे फूलने फलने लगे हैं,
उधर मत जा, उधर पत्थर गिरेंगे।
फ़लक पर छा गया घर का धुआँ तो,
सितारे टूट कर छत पर गिरेंगे।
गुज़रने दे ज़रा तूफाँ इधर से,
दरख़्तों से बड़े अजगर गिरेंगे।
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-तीन-
ज़रा सोचो कि जब तक हाथ में पहुँचा नहीं था।
किसी पत्थर पे कोई ख़ून का धब्बा नहीं था।
दिखा जो कत्थई आकाश पूरब के क्षितिज पर,
वो इक मंज़र था कोई आँख का धोखा नहीं था।
तमाज़त से पिघल जाता अगर वो मोम होता,
मैं तारे की तरह बेजान था ठंडा नहीं था।
रुमालों में तितलियाँ थीं, कि जुगनू जेब में थे,
सबब जो हो किसी बारिश में मैं भीगा नहीं था।
मुझे बेचैनियों ने कर दिया मज़बूर वरना,
मरूँगा चाँद की ख़ातिर कभी सोचा नहीं था।
कई जिस्मों में बिक जाता था दिल हरजाइयों का,
गली में यार की मुश्किल कोई सौदा नहीं था।
समंदर में जमा कर पाँव ख़ुद भी देख लेते,
जिन्हें लगता है मेरा डूबना अच्छा नहीं था।
हवा थी, साफ़ पानी था, ये सूरज – चाँद भी थे,
ख़ुदा इतने न थे जब इस जहाँ में, क्या नहीं था।
अंधेरे की कोई परछाइयाँ गिनता भी कैसे,
धुआँ हर घर में था दीगर है कि उठता नहीं था।
बसर की ज़िंदगी उन ख़्वाबगाहों के फ़ज़ा’ में,
जहाँ कुछ खिड़कियाँ थीं कोई दरवाज़ा नहीं था।
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-चार-
ज़िंदगी के कुछ सुभीते बन रहे हैं।
भूख से लड़ने के टीके बन रहे हैं।
पत्थरों में दिल उगाये जा रहे हैं,
कारखानों में फ़रिश्ते बन रहे हैं।
जख़्म भरने जब से निकला है मसीहा,
जिस्म पर लोगों के चीरे बन रहे हैं।
अब ज़मीं पर पाँव रक्खेंगे भला क्यों,
चाँद पर चढ़ने के ज़ीने बन रहे हैं।
हो गयी है रात यह तारीक इतनी,
के चराग़ों पर लतीफ़े बन रहे हैं।
क्या सितम है डूब जायेंगे भँवर में,
जो ये बच्चों के सफ़ीने बन रहे हैं।
छोड़िये तलुओं में कुछ कलियाँ चुभीं हैं,
वगरना काँटे लचीले बन रहे हैं।
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-राजीव श्रीवास्तव