एक ग़लत कदम

-सुधा ओम ढींगरा

“सरला, शुक्ला जोड़े को क्या हुआ है?” विमला ने गलियारे में जा रही सरला से पूछा।
“कौन से शुक्ला? किन की बात कर रही हो!” सरला के हाथ में इस्त्री किए हुए कपड़े हैं और वह उन कपड़ों को स्टोर में रखने के लिए ले जा रही है। वहीं गलियारे में रुक गई और विमला से बातें करने लगी।
“जो दो दिन पहले ही यहाँ रहने आए हैं।”
“ओह, शकुंतला शुक्ला की बात कर रही हो।”
“हाँ….उन्हीं की।”
“वे अपनी मर्ज़ी से यहाँ रहने नहीं आए। बेटे-बहू उन्हें ज़बरदस्ती छोड़ गए हैं।”
“तो फिर…”
“तो फिर क्या?… दुखी तो होंगे…।”
“दो दिन से कमरे में बंद हैं। कुछ खाया नहीं। कल तो पानी भी नहीं पिया था। बस सोफ़े पर दोनों पति-पत्नी चुपचाप बैठे हैं। लगता है बैठे- बैठे ही रात बिताई है दोनों ने।”
“विमला, उन्हें झटका लगा है, जिन बच्चों को इतने प्यार से पाल-पोस कर बड़ा किया….उन्होंने क्या किया अपने माँ-बाप के साथ। वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।”
“जानती हूँ थोड़ा समय लगेगा उन्हें यहाँ एडजस्ट होने में। तीन बार बुलाकर आई हूँ, कोई जवाब नहीं देते। बस सिर झुकाकर सोफ़े पर बैठे हैं। एक दूसरे की ओर भी नहीं देख रहे।”
“पर तुम उन्हें बुलाने क्यों गई थी! खाना-वाना उनके कमरे में पहुँचा देती। उन्हें कुछ समय दो।”
“सरला गेस्ट रूम में उनका बेटा-बहू और ग्रैंडचिल्ड्रेन उनका इंतज़ार कर रहे हैं। वे अपने माँ-बाप से मिलना चाहते हैं।”
“तो उनके कमरे में ले जाओ।”
“इस बेटे का नाम मिलने आने वालों की लिस्ट में नहीं है। इसलिए गेस्ट रूम में बिठाया है।”
“सगा बेटा नहीं होगा। रिश्ते में कोई क़रीबी होगा।”
“सरला मुझे बताया गया है कि वह घर का सबसे बड़ा बेटा है।”
“बड़ा बेटा है पर मिलने आने वालों की लिस्ट में उसका नाम नहीं।”
“बेटा भी मशहूर न्यूरो सर्जन और बहू पॉपुलर कार्डियोलॉजिस्ट।”
“हैं…कौन?”
“अरे..समझी नहीं, डॉ.शरद शुक्ला और डॉ.जैनेट शुक्ला, जो रोज़ टीवी पर आते हैं। हैल्थ के प्रोग्राम में।”
“आँहाँ……पर माँ-बाप यहाँ, इस एडल्ट नर्सिंग होम में।”
“दूसरे बेटे छोड़ कर गए हैं। वे दो थे।”
“ऐसे कैसे हो सकता है कि बड़े बेटे की मर्ज़ी न हो।”
“हो सकता है, मिलने आने वालों में बड़े बेटे का नाम नहीं है। यह दूसरे दो बेटों की करतूत हो सकती है। जब उसे पता चला तो मिलने चला आया।”
“शुक्ला हॉस्पिटल के मालिक के माँ-बाप यहाँ! डॉ.शरद तो घर में ही सब सुविधाएँ जुटा सकते हैं।”
“मुझे भी हैरानी हुई, ऐसा क्यूँ? पर हम कुछ पूछ नहीं सकते। इसकी इजाज़त नहीं। यह हमारा काम नहीं।”
“मैनेजर मनसुख भाई को कॉल करो। उनसे पूछो क्या करना है! तुमने बताया शुक्ला जोड़ा तो कोई जवाब नहीं दे रहा।”
यह वार्तालाप एडल्ट लिविंग एण्ड नर्सिंग होम यानी वृद्ध आश्रम और परिचर्या गृह के कॉरिडोर का है। लिखित रूप में यह सबके लिए अर्थात् कोई भी यहाँ रहने आ सकता है। पर अलिखित रूप से यह सिर्फ भारतीयों के लिए है। डॉ. सुमन्त हीरादास पटेल ने इसे बनवाया है और इसकी शाखाएँ पूरे अमेरिका में है। सारे डॉक्टर, नर्सें, सेवक-सेविकाएँ और कर्मचारी भारतीय हैं। हर गृह में एक मंदिर भी होता है। हर प्रदेश का भारतीय भोजन यहाँ दिया जाता है और भारतीय माहौल उत्पन्न किया गया है। बुज़ुर्गों के लिए पूरी सुविधाएँ जुटाई गई हैं, ताकि ढलती उम्र और उनका बुढ़ापा अच्छा कट जाए। इसलिए स्थानीय लोग (श्वेत एवं अश्वेत) इस नर्सिंग होम से दूर रहते हैं। पर भारतीय बुज़ुर्गों में ऐसे गृह बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं, जहाँ उन्हें उम्र के अंतिम पड़ाव में ऐसा अहसास हो सके कि वे भारत में रह रहे हैं और इस एहसास से सुख मिल सके। चारों ओर भारतीय! शोर-शराबा, संयुक्त परिवार-सा खान-पान, सुबह-शाम मंदिर की घंटियों की आवाज़, शंख का नाद, भारतीय संगीत , धूम-धाम से मनाए जाते भारतीय उत्सव। ढलती उम्र में जन्मभूमि बहुत याद आती है, बस ऐसे गृहों में उसे ही मुहैय्या करवाने की कोशिश की जाती है।
“तुम लोग यहाँ खड़ी बातें कर रही हो। मैं तुम दोनों को ढूँढ़ रही हूँ।” नर्स मिसेज़ पारेख की आवाज़ ने दोनों का संवाद बंद करवा दिया। मिसेज़ पारेख कॉरिडोर के दूसरे छोर से आ रही हैं।
“जल्दी चलो, मनसुख भाई ने बुलाया है कमरा नंबर 25 के शुक्ला का सामान पैक करना है। उनका बेटा उन्हें घर ले जा रहा है।”
“शुक्ला परिवार भी कमाल का है। दो बेटे माँ-बाप को छोड़ जाते हैं, तीसरा लेने आ जाता है। भई, घर में सलाह कर लो किसने माँ-बाप को रखना है, किसने नहीं रखना। इतना बखेड़ा खड़ा करने की क्या ज़रूरत है!”
“विमला, तुम्हारी बहुत बुरी आदत है लोगों की निजी ज़िंदगी में ताकँ-झाँक करने की। यहाँ की पॉलिसी, रूल्स, रेगुलेशन्ज़ इन सबको भूल जाती हो। किसी ने रिपोर्ट कर दी तो नौकरी से हाथ धो बैठोगे।” मिसेज़ पारेख ने ग़ुस्से में कहा।” किसी के घर में क्या हो रहा है हमें क्या लेना-देना । हमारा यहाँ जो काम है, हमें बस उस पर ध्यान देना चाहिए।”
“सॉरी मैडम, आगे से ख़याल रखूँगी, पर कमरा नंबर 25 का सामान तो खुला ही नहीं, पैक क्या करें?” विमला के कहने पर मिसेज़ पारेख ने कहा “ख़ैर जो कुछ भी है, वहीं जाके देखते हैं। मनसुख भाई ने बुलाया है, हमें जाना तो पड़ेगा।” वे जल्दी-जल्दी चलने लगी।
कमरा नंबर 25 के सामने पहुँचते ही उन्होंने देखा डॉक्टर शरद शुक्ला अपने परिवार के साथ कमरे के भीतर जा रहे हैं। वे तीनों मनसुख भाई के साथ जाकर खड़ी हो गईं।
कमरे के भीतर का दृश्य हृदयविदारक हो गया। शुक्ला दंपती दो तीन दिनों में ही उम्र से ज़्यादा लगने लगे हैं। डॉक्टर शरद शुक्ला, जो उनका बड़ा बेटा है, के तीनों बच्चे दादा जी-दादी जी कहकर उनसे लिपट गए। शुक्ला दंपति की विचारों की तंद्रा टूटी। वे जैसे बेहोशी से होश में आए। वे समझ ही नहीं पा रहे, उनके साथ क्या हो रहा है! वे कहीं खोए हुए लग रहे हैं। अपने बड़े बेटे, बहू, पोती और पोतों को वे पहचान नहीं पा रहे, अजनबी नज़रों से उन्हें देख रहे हैं। माँ-बाप की यह दशा देख कर शरद की आँखों में नमी उतर आई। वह उनसे लिपट गया।
”क्या मुझसे इतनी नफ़रत है कि मुझे और मेरे परिवार को पहचानना भी नहीं चाहते। बाबू जी सत्रह साल हो गए आपको मुझे छोड़े हुए, अब तो इस नफ़रत को समाप्त कर दीजिए।”
बूढ़े दंपति ने पहली बार उन सब को गौर से देखा। उनके होंठ हिले मगर कुछ बोल नहीं पाए। आँखों ने ज़ार-ज़ार पानी बरसा कर अपनी भावनाएँ व्यक्त कर दीं।
”मैं आपको यहाँ नहीं रहने दूँगी। मुझे ज़बरदस्ती भी आपको यहाँ से ले जाना पड़ा तो ले जाऊँगी।” जैनेट ने अपने सास-श्वसुर की ओर देख कर कहा और बच्चों को इशारा किया कि वे उनका सामान बाहर ले जाएँ। जैनेट की हिन्दी सुन शकुंतला जी और दयांनद जी हैरान हो उसे देखने लगे। कहीं अमेरिकन उच्चारण नहीं, जैसे कोई भारतीय महिला हिन्दी बोल रही है।
”अम्मा-बाबूजी आप लाख हमसे नाता तोड़ लें फिर भी मैं आपकी बहू और आप मेरे अम्मा-बाबूजी हैं। शरद आपके बेटे और ये आपके ग्रैंड चिल्ड्रन ही रहेंगे।” जैनेट ने अपने बच्चों की ओर इशारा करके कहा।
”हमने समय पर सब कुछ छोड़ दिया था कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा। पर हमें नहीं पता था कि समय ऐसी करवट लेगा और सब कुछ बिखर जाएगा। बाबूजी आपको मुझसे नफ़रत है तो मैं आपसे दूर रहूँगी। घर में आपका बेटा और आपके ग्रैंड चिल्ड्रन आपकी देख-रेख करेंगे। आप यहाँ नहीं रहेंगे।” जैनेट की बात सुन दयानंद जी और शकुंतला जी की आँखों से खारा पानी बेइंतहा बहने लगा। धीरे-धीरे उनके बदन हिलने लगे और हिचकी बंध गई। शरद ने उन्हें बाँहों में ले लिया और जैनेट ने नर्स को उनका ब्लड प्रेशर लेने के लिए कहा। वह स्वयं नर्स के स्टेथोस्कोप से उनके दिल की धड़कन और साँस की गति सुनने लगी। इसके बाद उसने वहाँ खड़े कर्मचारियों को ग्लूकोस पानी में डालकर लाने के लिए कहा। उस पानी को पीने के बाद दयानंद जी और शकुन्तला जी थोड़ा सँभले । शरद और बच्चों ने सहारा देकर उन्हें उठाया। धीरे-धीरे चलते वे उस आश्रम से बाहर आ गए।
जैनेट ने वहाँ की सारी काग़ज़ी कार्रवाई पूरी की और मैनेजर का धन्यवाद करके बाहर कार में आकर बैठ गई। स्टीयरिंग वील उसी ने सँभाला। दयानंद जी जैनेट के चेहरे की ओर देख नहीं पाए। उनकी आँखें और सिर झुक गया।
शरद को एम डी की डिग्री मिल रही थी और पूरा परिवार उस समारोह में शामिल होने आया था…. सारे परिवार की सज-धज अलबेली थी। शुक्ला परिवार का बड़ा बेटा डॉक्टर बना था। दयानंद का स्वाभिमान अभिमान बन उनके चेहरे पर छलक रहा था और बातों में बह रहा था।
”शकुंतला, आज के दिन का मैं बरसों से इंतज़ार कर रहा था। पूरे शुक्ला ख़ानदान में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है सिर्फ़ मैंने मेहनत की और इंजीनियर बना। अब मेरे बच्चे पढ़ेंगे। बड़ा बेटा डॉक्टर बन गया।”
”जी ऐसा नहीं कहते, ऐसे समय में बस ईश्वर का धन्यवाद करते हैं और बुज़ुर्गों का आशीर्वाद लेते हैं।”
”शकुंतला तुम जानती हो, बुज़ुर्गों का आशीर्वाद मैं हमेशा माँगता हूँ पर मैं कर्मयोगी हूँ, कर्मों पर विश्वास करता हूँ। कर्म ही क़िस्मत का निर्माण करते हैं।”
”जी मैं ईश्वर का धन्यवाद पहले करूँगी।”
”करो, मैंने तुम्हें कभी रोका है। देखना, अब मैं शरद के लिए परंपराओं और संस्कारों से लिपटी एक ख़ूबसूरत ब्राह्मण कन्या भारत से लेकर आऊँगा।”
”नहीं, आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे। शरद की राय लेंगे। वह बच्चा नहीं है। डॉक्टर बन गया है और मैच्योर हो गया है।”
”हाँ, उसकी राय लूँगा पर लड़की हमारी पसंद की इस घर में आएगी; क्योंकि ख़ानदान लड़की को चलाना होता है। उसे सब कुछ सँभालना होता है। मैं चाहता हूँ कि जातीय लड़की से ही वंश बढ़े।”
”चाहती तो मैं भी हूँ पर मैं बच्चों की ख़ुशी पहले देखूँगी।”
”क्या मतलब बच्चों की ख़ुशी पहले देखूँगी। हमारी ख़ुशी में ही उनकी ख़ुशी है।”
”नहीं, उनकी ख़ुशी में मेरी ख़ुशी है। जीवन उन्होंने जीना है। हम अपना जीवन अपनी मर्ज़ी से जी रहे हैं।”
”तुम सोचती हो कि मैं अपने बच्चों की ख़ुशी नहीं चाहता। उनकी भलाई के बारे में नहीं सोचता। अरे मैं तो आने वाली पीढ़ियों तक के बारे में सोच रहा हूँ। अपनी तरफ़ की लड़की होगी तो बच्चों में अपने आप वे संस्कार डल जाएँगे; जो हम इस देश में चाहकर भी नहीं डाल पाएँगे।”
शकुंतला जी ने चुप रहना बेहतर समझा। अक्सर जब बातचीत बहस में बदलने लगती है तो वे पलायन कर जाती हैं। उनका पलायन चुप रहना होता है। दयानंद जी की सोच की संकीर्णता से वे टकराना नहीं चाहती। कई बार हँस कर उन्होंने दयानंद जी को कहा है- ”दुनिया चाँद के चक्कर लगा आई पर आप अमेरिका में आकर भी नहीं बदले। अभी तक अपनी पुरानी सोच की खूंटी हर दीवार पर टाँग रहे हैं।”
”हमारी परम्पराएँ, हमारे संस्कार ही हमारी पहचान है। हमारी जड़े हैं । हमारा अस्तित्व है। हमारी भाषा हमारी अस्मिता है।” दयानंद जी हमेशा अपनी गर्दन अकड़ाकर यह बात कहते थे।
”मैं परम्पराएँ तोड़ने और संस्कार छोड़ने को कब कहती हूँ। सभी बच्चे घर में अपनी भाषा बोलते हैं। बस उन्हें थोड़ी आज़ादी दे दीजिए, जिसके वे हक़दार हैं।”
”मैंने हर तरह की आज़ादी बच्चों को दी है। तुम्हें पता नहीं क्यों लगता रहता है कि मैं बच्चों की आज़ादी का दुश्मन हूँ। हाँ, एक बात स्पष्ट कहता हूँ और कहता रहूँगा कि मेरे घर में कोई विजातीय लड़की बहू बनकर नहीं आ सकती। मैं बेटे को त्याग दूँगा।” शकुंतला जी इस तरह के वार्तालाप को चुप रहकर विराम दे देती थी।
तालियों की गूँज में समारोह समाप्त हुआ। हॉल से बाहर निकलकर शरद ने जैनेट को अपने परिवार से मिलवाया।
”अम्मा-बाबूजी ये जैनेट है। मेरी बेहतरीन मित्र।” शरद ने जैनेट को परिवार से मिलाते हुए कहा। जैनेट ने हाथ जोड़कर सबको नमस्ते कहा। और फिर जैनेट की ओर देखते हुए कहा ”जैनेट, ये मेरे अम्मा-बाबूजी हैं और ये मेरे छोटे भाई हैं अरुण और विनोद।”
शरद के बाबूजी के चेहरे के भाव बदल गए। वे समझ गए कि यह लड़की बेहतरीन मित्र से कुछ आगे है तभी उनका बेटा उसे परिवार से मिलवाने लाया है। उस समय उन्होंने अपनी भावनाएँ और ग़ुस्से को क़ाबू में रखा। उन्हें हैरानी तब हुई, जब शरद ने माँ को कहा-”अम्मा, मैंने इसी लड़की के बारे में आपको बताया था।” और उनकी पत्नी, शरद की माँ ने जैनेट को अपनी एक बाज़ू आगे बढ़ा कर अपने साथ लगा लिया और उसके सिर पर हाथ फेर कर प्यार का इज़हार किया। मुँह से वे कुछ नहीं बोलीं।
दयानंद को अपनी पत्नी पर भी बहुत ग़ुस्सा आया। इतना बड़ा राज़ उनसे छुपा कर रखा। उन्होंने सार्वजनिक स्थल पर विशेषता अपने बेटे के दीक्षांत समारोह के उपरांत किसी भी तरह के वाद-विवाद में न जाना बेहतर समझा। पर घर तक के पूरे रास्ते कार में बैठे वे भीतर ही भीतर कुढ़ते रहे। उनकी पत्नी ऐसी नहीं थी। उसने कभी उनसे कुछ नहीं छिपाया था। कभी झूठ नहीं बोला था । इतना बड़ा धोखा देने की उसकी हिम्मत कैसे हुई?
शरद और जैनेट दीक्षांत समारोह की पार्टी में हिस्सा लेने के लिए रुक गए थे।
घर पहुँचते ही दयानंद जी ने अपना आपा खो दिया।
”शकुंतला, तुमने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा किया मैं सोच भी नहीं सकता था। तुम्हें सब पता था कि शरद ने लड़की ढूँढ़ ली है और वह भी गोरी, ईसाईन । अब समझ में आया तुम क्यों बच्चों की आज़ादी और उनकी मर्ज़ी की बात किया करती थी।”
दयानंद जी ने बोलना शुरू ही किया था, दोनों बेटे अपने-अपने कमरे में चले गए। वर्षों की गृहस्थी में शकुंतला जी ने अपनी एक आदत बना ली है ; जब भी दयानंद जी ग़ुस्से में बोलना शुरू करते। वह कभी अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कहतीं। बस ख़ामोश, चुपचाप ग़ुस्से के तूफ़ान को गुज़रने देतीं। उस समय वे घास की तरह बन जातीं और सिर झुका लेती हैं। तूफ़ान निकल जाने के बाद फिर सिर उठा लेतीं। दयानंद जी के ग़ुस्से के तूफ़ान के आगे वे कभी सफ़ेदे के वृक्ष की तरह खड़ी नहीं हुई। उन्होंने कभी अपने स्वाभिमान को कट कर गिरने नहीं दिया। दयानंद जी ने ग़ुस्से में कई ऐसे फ़ैसले लिए हैं जो परिवार के लिए बहुत घातक साबित हुए हैं। शकुंतला जी अपने धैर्य और बुद्धिमत्ता से दयानंद जी के कई फैसलों के रुख़ मोड़ती रही हैं पर शरद के मामले में वे भी कुछ नहीं कर पाईं।
शकुंतला जी और दयानंद जी ने लंबी साँस ली और एक दूसरे की ओर देखा। दोनों की आँखें भावनाओं से भर गई हैं। शकुंतला जी ने दयानंद जी के हाथों पर अपना हाथ रखा। कुछ क्षण पहले दोनों एक ही समय और एक ही घटना को याद कर रहे थे। शरद और जैनेट को देख कर पुराने समय में दयानंद जी और शकुंतला जी का लौटना स्वाभाविक है।
मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है वर्तमान में उसे जीना नहीं आता। छोटी सी बात पर भी अतीत के गलियारे में झाँकना उसे अच्छा लगता है। दयानंद जी और शकुंतला जी भी तो यही कर रहे हैं। मानव प्रकृति मूलतः अतीत जीवी है। सत्रह वर्ष बाद अपने बेटे, बहू और पोती-पोतों से मिले हैं। कार में उनके साथ बैठे उन क्षणों का सुख लेने की बजाए दोनों पति-पत्नी उस समय में बार-बार लौट रहे हैं, जिस समय ने उनके मन पर भारी बोझ डाला हुआ है और अब तक वे उसी बोझ तले दबे हुए हैं।
”जैनेट, मुझे लगता है अम्मा को बाबूजी से तुम्हारे और मेरे बारे में बात करने का सही समय नहीं मिला या परिस्थितियों ने इजाज़त नहीं दी। बाबूजी के हाव-भाव देखकर मैं डर गया हूँ।” शरद ने दीक्षांत समारोह की पार्टी में जाने से पहले जैनेट को कहा।
”आई गॉट सकेयर्ड टू”जैनेट ने जवाब में कहा।
”रादर दैन गोइंग एट ए पार्टी, लेट्स गो होम एंड फ़ेस बाबूजी। वन डे वी हैव टू टॉक टू हिम।’
दोनों घर की ओर चल दिए।
शरद और जैनेट ने घर में प्रवेश किया ही था कि बाबूजी ने गर्ज कर अपने दोनों छोटे बेटों को बुला लिया और शकुंतला जी भी सहम कर वहीं पास खड़ी हो गई थीं। शरद और जैनेट के बोलने से पहले ही बाबूजी ने बुलंद आवाज़ में कह दिया-‘जैनेट इस घर की बहू नहीं बन सकती। शरद मैंने तेरे लिए एक लड़की भारत में पसंद कर ली है। जो हमारी जात की है और हमारे परिवार की परंपराओं, रस्मों-रिवाज़ों से परिचित हैं। घर की मान मर्यादा का ख़ूब ख़याल रखेगी।’
इतना सुनते ही शरद ग़ुस्सा खा गया। तल्ख़ी से बोला-”बाबूजी, आप लड़कियाँ जितनी मर्ज़ी देखते रहें, पर शादी मैं जैनेट से ही करूँगा। हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं। आप स्वीकृति दे दें तो अच्छा है। शादी तो हमने करनी है।”
”मेरे जीते जी तो मैं शादी की स्वीकृति नहीं दूँगा।” बाबूजी ने अपने रोबीले अंदाज़ में कहा था।
शकुंतला जी शरद को देख कर हमेशा कहतीं-”शरद, शक्ल -सूरत में अपने बाबूजी पर गया है। पर बेहद विनम्र और व्यवहार कुशल है। यही बातें उसे बाबूजी से अलग करती हैं।” कुछ क्षणों के लिए उसे गुस्सा आया, फिर वह शांत हो गया।
”बाबूजी, मैं जैनेट से बहुत प्यार करता हूँ। मैं किसी और लड़की से शादी नहीं कर सकता। हम दोनों एक दूसरे को वादा कर चुके हैं और वादा निभाना तो आप ही ने सिखाया है। प्लीज़ मान जाइए।’ शरद ने अपने बाबूजी की मिन्नतें डालीं, पैरों को हाथ लगाया, हाथ जोड़े पर बाबूजी नहीं माने।
हार कर छह महीने बाद शरद और जैनेट ने पहले कोर्ट मैरिज की, फिर मंदिर में जाकर शादी कर ली। शादी में जैनेट के घर वाले और उन दोनों के कुछ मित्र शामिल हुए। जैनेट के परिवार वालों की सलाह पर शरद और जैनेट, शरद के परिवार से मिलने घर आए। जैनेट का परिवार बहुत बड़ा और मिल जुलकर रहने वाला परिवार है। उनका कहना था कि जब वे दोनों शादी करके जाएँगे तो बाबूजी का ग़ुस्सा ठंडा हो जाएगा। कोई माँ-बाप अपना बेटा खोना नहीं चाहते। शरद घर जाने से घबरा रहा था। वे अपने बाबूजी के स्वभाव को अच्छी तरह जानता था। पर जैनेट के परिवार ने बहुत ज़ोर डाला, उसे जैनेट को ले कर घर आना पड़ा।
मंदिर में की गई शादी की चर्चा घर तक पहुँच चुकी थी। अमेरिका के जिस भाग में वे रह रहे हैं, वहाँ का भारतीय समुदाय आपस में बहुत जुड़ा हुआ है। बाबूजी के दोस्तों में यह ख़बर फैल चुकी थी। उन्हें ज्यों ही पता चला कि शरद और जैनेट ने कार ड्राइव वे पर पार्क की है बस सारे परिवार को इकट्ठा कर लिया और दरवाज़ा खोलते ही चिल्ला पड़े -”इसी क्षण से तुम्हारा और हमारा रिश्ता ख़त्म। मैं तुम्हें हर जगह से बेदख़ल करता हूँ। कभी इस ओर पलट कर नहीं देखना।” फिर वे परिवार की ओर मुड़े और बोले-”शकुंतला जी और शरद के चम्मचों, अपने दोनों बेटों की ओर देखते हुए कहा, किसी ने भी शरद से मिलने या फ़ोन करने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।” शरद वापस मुड़ गया और सत्रह बरसों बाद आज उसने अपने अम्मा-बाबूजी को इस दशा में पाया।
कार हाईवे पर तेज़ गति से दौड़ रही है। शरद ने पीछे मुड़कर कई बार अपने अम्मा-बाबूजी की ओर देखा। वे दोनों सिर झुकाए अतीत का लिहाफ़ ओढ़े बैठे हैं।
शरद समझ गया कि उसके अम्मा-बाबूजी के भीतर मंथन चल रहा है। उसने उनके मंथन में बाधा नहीं डाली। बस बार-बार उनकी ओर देख कर लंबी साँस छोड़ता। वह स्वयं भी पुरानी यादों में उलझ रहा है। कितने दिनों तक वह अपनी अम्मा के फ़ोन का इंतज़ार करता रहा। अपने भाइयों के आने की राह तकता रहा। कई बरस वह भारतीय पार्टियों में उनके मिलने की आस लगाए जाता रहा। उसे जब पता चला कि उसके बाबूजी हर उस पार्टी के न्योते को इनकार कर देते हैं जिसमें वह आने वाला होता था, उसने अपने मिलने-जुलने वालों का दायरा ही बदल लिया। वह नहीं चाहता था, उसके माँ-बाप को उसकी वजह से कोई शर्मिंदगी उठानी पड़े या तक़लीफ हो।
शरद भी यादों के हिंडोले पर सवार हो गया। शरद को अपने दोनों भाइयों की शादी का पता चला था। वह तब भी न्योते का इंतज़ार करता रहा था। झूठी आशा पर जी रहा था। वह मुस्करा पड़ा। बेशक आशा झूठी ही हो जीवन में रस रखती है।
उसके जीवन का रस उस समय समाप्त हो गया जब उसे पता चला कि उसके दोनों भाइयों की शादी भारत में हो रही है। सब बातें उसे अपने दोस्तों से ही पता चलती थीं। अपने परिवार के बारे में जानने की शरद की भी कितनी रुचि होती थी। हालाँकि पार्टियों में वह उनसे दूर हो गया था।
शरद याद कर रहा था कि शादी के पाँच साल तक उसके दोस्त उसे परिवार के बारे में ख़बरें देते रहे।
अरुण और विनोद ने बाबूजी के कहने पर कानपुर की लड़कियों से शादी करने के लिए ‘हाँ’ तो कर दी थी पर वे एक साल तक भारत जाते रहे , उन्हें मिलते रहे और इंटरनेट पर भी जुड़े रहे। फ़ेसटाइम तो हर शाम होता ही था। बाबूजी ने भी उनकी सब हरकतें स्वीकार की, शायद शरद की शादी के बाद वे भी डर गए थे। अपनी संकीर्णता के दायरे को कुछ तोड़ा था उन्होंने। नहीं चाहते थे उनके बाक़ी दोनों बेटे किसी और धर्म की लड़कियाँ लेकर आएँ। दयानंद जी तो अमेरिका में पैदा हुई भारतीय लड़की को भी बहू के रूप में नहीं चाहते थे। हालाँकि ख़ुद के बेटे अमेरिका में जन्में पले हैं।
भाइयों की शादी तक तो शरद को सब ख़बरें मिलती रहीं। पर उसके बाद उसके दोस्त अमेरिका के अलग-अलग शहरों में चले गए और परिवार की ख़बरों का उसका लिंक पूरी तरह से टूट गया। उसे पता ही नहीं चला कि उसके भाइयों और उनकी पत्नियों ने बाबूजी और अम्मा की यह हालत कर दी! शरद यही सोच रहा है कि बाबूजी ने अपनी ऐसी हालत कैसी होने दी? क्या बढ़ती उम्र में इंसान अपना आत्मविश्वास खोने लगता है या उसकी असुरक्षा की भावना उसे सही और ग़लत का फ़ैसला नहीं लेने देती। घर तो बाबूजी और अम्मा के नाम था, उस घर से उन्हें कौन निकाल सकता है? इन्हीं सब प्रश्नों में शरद उलझा था कि जैनेट की आवाज़ सभी को वर्तमान में ले आई।
”अम्मा-बाबूजी, मैं आपको एक सरप्राइज़ देना चाहती हूँ।” जैनेट की आवाज़ ने सबका ध्यान खींचा।
अतीत से सबका नाता टूट गया। दयानंद जी और शकुंतला जी ने सिर उठाकर देखा तो जैनेट की कार शुक्ला हॉस्पिटल पार करके एक ऐसे सब डिवीज़न में प्रवेश कर रही है, जहाँ पर अमीर लोगों के टाऊन हाउसेज़ हैं। शुक्ला दंपति कभी भी इस तरफ़ नहीं आया; क्योंकि यहाँ पर शुक्ला हॉस्पिटल है। उन्हें इतना ज्ञान है कि यह सब डिवीज़न रिच एडल्ट लिविंग सब डिवीज़न कहलाया जाता है। लोग बढ़ती उम्र में बड़े-बड़े महल छोड़कर इन आधुनिक साज-सज्जा से सुसज्जित टाऊन हाऊसों में आ जाते हैं; जहाँ उन्हें इन घरों के लॉन की देख-रेख नहीं करनी पड़ती, सब डिवीज़न की मैनेजमेंट करती है। बड़े-बड़े घरों के रख-रखाव और अकेलेपन से भी लोग ढलती उम्र में बच जाते हैं ।प्राकृतिक संपदा से लैस इस एरिया में एक क्लब हाउस भी है, जहाँ सभी बुज़ुर्ग मिलते हैं और अपनी रुचि अनुसार व्यस्त रहते हैं। ऐसे सब डिवीज़नों में बढ़ती उम्र में लोग अकेले नहीं होते। दयानंद जी को लोगों ने ही बताया था कि शुक्ला हॉस्पिटल इसी सब डिवीज़न के दम पर फल-फूल रहा है। शुक्ला दंपती को घबराहट होने लगी, कि कहीं कुएँ से निकलकर खाई में तो नहीं गिर रहे। क्या जैनेट उन्हें यहाँ रखने के लिए लाई है? दोनों के भीतर कुछ उमड़-घुमड़ रहा है। बेहद घबराहट हो रही है। उन्होंने देखा इस सब डिवीज़न में जगह-जगह तालाब बने हुए हैं, जिनमें कमल के फूल खिले हुए हैं और कई बत्तखें उसमें तैर रही हैं। बुज़ुर्ग वहाँ वॉकिंग ट्रेल पर टहल रहे हैं। दोनों का दिल बैठने लगा। पता नहीं क़िस्मत में क्या लिखा है? अब तो वे बच्चों के हाथों की कठपुतली बन गए हैं, जिस तरह बच्चे नचा रहे हैं, वे नाच रहे हैं। दोनों की सोचने समझने की शक्ति ही जवाब दे चुकी है। ज़िंदगी की राह पर एक क़दम ग़लत उठाया था, और अब वे अपनी ज़िंदगी को ही तलाश रहे हैं; जो पता नहीं कहाँ खो गई है!
जैनेट ने कार को सब डिवीज़न की सड़क के दाईं ओर ज्यों ही मोड़ा, कुछ अमेरिकन बुज़ुर्गों ने हाथ देखकर कार को रोक दिया और हँसते-हँसते उनकी कार की ओर बढ़ने लगे।
”अम्मा बाबूजी, आपको किसी से मिलाना चाहती हूँ, जो बरसों से आपसे मिलना चाहते हैं। जो आपके बहुत बड़े फ़ैन हैं।” जैनेट ने बड़े प्यार से कहा।
अम्मा-बाबूजी की जान में जान आई ; उन्होंने चेहरा उठाकर उन सबकी ओर देखा। उन्हें उसमें कोई चेहरा जाना-पहचाना नहीं लगा। उन अमेरिकन में से एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला और कहा-‘वेलकम, दयानंद एंड शकुंतला। थैंक्स फॉर ज्वाइनिंग आवर गैंग।’ सुनकर शुक्ला दंपति वहीं कार की सीटों में घँस गए। उन्हें उठना मुश्किल हो रहा है। बच्चों से उन्हें धोखे पे धोखा मिल रहा है। उन्हें साफ़ लगने लगा कि इन अमेरिकन के साथ उन्हें छोड़ा जा रहा है। शुक्ला हॉस्पिटल साथ है, उनकी देख-रेख होती रहेगी। यह सोच उन पर इतनी हावी हो गई, वे कुछ बोल ही नहीं पाए। शरद और उसके बच्चों ने उन्हें कार से बाहर निकाला और एक टाऊन हाउस की ओर ले चले। सारे अमेरिकन बुज़ुर्ग उनके साथ चल पड़े। अधेड़ उम्र के अमेरिकन ने दरवाज़ा खोला और शरद तथा बच्चे सहारा देकर उन्हें भीतर ले गए। अधेड़ व्यक्ति ने उन्हें झुककर सोफ़े पर बिठाया और हिन्दी में कहा- ”हमारे कैसल में आपका स्वागत है।” फिर वे हो-हो करके हँसने लगे-”दयानंद, बस इतनी ही हिन्दी आती है। जैनेट बहुत बढ़िया हिन्दी बोल लेती है।”
शरद ने उन्हें उन सबसे मिलवाया कि ये जैनेट के मम्मी-डैडी, दादा-दादी, नाना-नानी हैं। अम्मा और बाबूजी हैरान रह गए, जब शरद ने बताया कि जैनेट के दादा-दादी और नाना-नानी नब्बे वर्ष से ऊपर के हैं। तीनों के टाऊन हाउस आस-पास हैं और जैनेट के माँ-बाप उनकी देख-रेख करते हैं। अम्मा और बाबूजी ने राहत की साँस ली और लंबी साँस के साथ ही दिमाग़ से सोचों का बोझ उतरा। फिर उन्होंने अपनी ओर देखा, उम्र में उनसे कहीं अधिक लगते हैं।
जैनेट के डैड ने हँसते हुए कहा -”जेंटलमैन, आज मैं तुम दोनों को आराम करने दूँगा, कल भी तुम लोग आराम कर लेना, परसों से आप लोगों का डेली रूटीन सेट हो जाएगा। हम लेने आएँगे। सुबह की सैर हमारे साथ करेंगे, फिर हम हेल्दी ब्रेकफास्ट करवाएँगे। आपको आपके घर छोड़ देंगे। आप आराम करें, लंच खाएँ। चार बजे फिर लेने आएँगे। सब डवीज़न के क्लब हाउस में चलेंगे। वहाँ कुछ गेम्स खेलनी हों खेलें या हल्की-फुल्की एक्सरसाइज़ करें, स्विमिंग करें, आपकी मर्ज़ी। कुछ न करने का मन हो तो बैठ कर अपनी उम्र के लोगों से बातें करें।’
”डैड, अम्मा-बाबूजी को आप पहली बार मिल रहे हैं और मिलते ही उन पर आपने अपनी डॉक्टरी झाड़नी शुरू कर दी।’ जैनेट ने बड़े प्यार से कहा।
”अब मिले हैं तो अभी पकड़ूँगा ना। पहले मिल जाते तो पहले ही मेरे गैंग में शामिल हो गए होते।” हो हो हो हो करके जैनेट के डैडी हँसने लगे।
दयानंद जी और शकुंतला जी सारी बातचीत समझने की कोशिश कर रहे हैं और सबकी ओर देख रहे हैं। अमेरिकन अंग्रेज़ी का यह विशेष लहजा, जो अमेरिका के साउथ में बोला जाता है और हँसने का स्टाइल दयानंद जी को जाना पहचाना लगा। वे सोच में पड़ गए, जैनेट के डैडी को पहले कहाँ मिले हैं?
अकस्मात् उन्हें याद आया और उनके मुँह से निकला डॉक्टर जोसेफ़ बटरिक।
”येस दयानंद, मैं तो इंतज़ार कर रहा था कि तुम मुझे कब पहचानते हो?” वे फिर हो हो करके हँस पड़े।
”याद है तुम्हें जब मैंने शकुंतला जी की डिलीवरी की थी, शरद इस दुनिया में आया था। उसके कुछ घंटे बाद मैंने तुझे कहा था, मेरे बेटी हुई है। तब जैनेट आई थी। गॉड ने दोनों को आगे पीछे भेज दिया था। दोनों एक दूसरे के लिए ही आगे पीछे पैदा हुए और तुम्हारी मेरी इतनी अच्छी दोस्ती तुम कैसे भूल गए? एक बार बात की होती, सब कुछ क्लियर हो जाता। मेरी बेटी और तुम्हारी सेवा न करे , ऐसा हो ही नहीं सकता।” दयानंद जी ने सिर झुका लिया, कुछ कहा नहीं।
”जो बीत गया उसके लिए मत सोचो। अब जो गॉड ने दिया है उसका एन्जॉय करो। गॉड बार-बार मौक़े नहीं देता। बहुत चिंता कर ली तुमने बच्चों की, अब अपने बारे में सोचो। मेरी सोच अपनाओगे तो मेरी तरह हृष्ट-पुष्ट हो जाओगे।” डॉक्टर बटरिक ने अपनी तरफ इशारा करके कहा और फिर हो हो करके हँस पड़े।
”डॉक्टर बटरिक मैं ग़लत था। यही बात मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रही है। अपनी सोच की अँधेरी गलियों में मैं कितना घुसा रहा, रौशनी की एक किरण तक नहीं आने दी। मेरे दर पर कोहिनूर आया और मैंने उसे लौटा दिया।” ऐसा कहते हुए दयानन्द जी की रुलाई छूट गई।
”दयानन्द गलती इंसान से ही होती है। भूल जाओ सब कुछ। लेट्स एन्जॉय दी रेस्ट ऑफ़ दी लाइफ़ वी हैव लेफ़्ट। अब तुम हमारे गैंग का हिस्सा हो। हम सब मिल कर एक दूसरे का ख़याल रखेंगे। नहीं रख पाए तो ये बच्चे रखेंगे। तुम्हारी उम्र अब सोचने की नहीं, जीवन को भरपूर जीने की है।” इतना कह कर डॉक्टर बटरिक ने जैनेट की ओर देख कर कहा-”इन्हें अब इनके घर ले जाओ। आप दोनों वहाँ जाकर आराम करें। परसों मिलते हैं।” कह कर सब खड़े हो गए और हाथ मिलाने लगे।
जैनेट के परिवार से मिलकर अम्मा और बाबूजी में इतनी ऊर्जा आई कि वे बिना किसी सहारे के चलने की कोशिश करने लगे। कार में बैठते ही बाबूजी ने शरद को कहा- ”तुमने मुझे बताया क्यों नहीं था कि जैनेट डॉक्टर बटरिक की बेटी है। मैं उनका एहसानमंद और प्रशंसक हूँ, मुझे यहाँ सेटल करने में उनका बहुत बड़ा हाथ है।” बाबू जी की आवाज़ में उदासी उतर आई।
”बाबूजी आपने मुझे समय कब दिया था कुछ बताने के लिए। आपको अच्छे ख़ानदान की बहू चाहिए थी, जैनेट बहुत बड़े परिवार की बेटी है। बटरिक बहुत नामी ख़ानदान है। जैनेट के मम्मी-डैडी, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-फूफा, कज़न, घर में बीस के क़रीब डॉक्टर हैं। बाबू जी यहाँ के लोग भी सब हमारी तरह रहते हैं। अपवाद तो देश-विदेश सब जगह होते हैं। आप आज तक अपवाद ही देखते रहे हैं। बाबूजी, आप कभी यहाँ के लोगों के करीब नहीं गए। उन्हें जानने की कोशिश नहीं की। बस यहाँ के लोगों के लिए जो पूर्वधारणाएँ आप लेकर आए थे, उन्हें ही पकड़ कर बैठे रहे।”
”सही कहा बेटा तुमने। बहुत देर से और कटु अनुभवों से बात समझ आई।” दयानंद जी ने बड़ी गंभीरता से कहा।
”शरद तुम्हें कैसे पता चला कि हम नर्सिंग होम में है?” शकुंतला जी ने बड़ी धीमी आवाज़ में पूछा।
”अम्मा जी, क्या फ़र्क पड़ता है? मुझे कैसे पता चला, किसने बताया?” शरद ने विनम्रता से कहा। यह सुन अम्मा-बाबूजी की आँखें बहने लगीं।
”आपकी आँखों में इतना पानी कहाँ से आया !” शरद ने उन्हें आँखें पोंछने के लिए नैपकिंस देते हुए कहा।
”हरिशंकर अंकल का फ़ोन आया था। उन्होंने मुझे आपके बारे में बताया, नर्सिंग होम का एड्रेस दिया और फ़ोन काट दिया। इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम और मुझे जानना भी नहीं है। आप हमारे साथ हैं, मेरे लिए बस यही महत्त्वपूर्ण है।” शरद ने यह कह कर उनकी जिज्ञासा को शांत किया।
”अब आप पुरानी सब बातें भूल जाएँ। ऐसा क्यों हुआ ? कैसे हुआ ? कब हुआ? क्यों नहीं हुआ? मेरे साथ ऐसे क्यों हुआ? सब प्रश्नों को उभरने मत दें। बस आज में खुश रहें, आज आपका बेटा आपसे यही चाहता है और आपसे विनम्र निवेदन करता है ।’ कह कर शारद मुस्करा दिया।
बड़ा पोता कमल, जो कार की पिछली सीट पर बैठा है, उसने अपने दादा से लिपटते हुए कहा,”दादा जी, वीकेंड में मैं आपके साथ सोऊँगा और अपने पापा के बचपन की बातें सुनूँगा।” दयानंद जी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा-” हाँ बहुत कुछ बताऊँगा।”
सुमन और पुष्प अपनी दादी से लिपट गए- ”दादीजी, हम वे सब कहानियाँ सुनेंगे जो आप पापा को बचपन में सुनाते थे।” दादीजी ने दोनों को प्यार से सहलाया और कहा-”सिर्फ कहानियाँ ही नहीं इसकी शरारतों के बारे में भी बताऊँगी।” इस बात पर बच्चे ताली बजा कर हँस पड़े।
जैनेट भी हँस पड़ी और बोलीं-”शरद कैसी शरारतें करते थे , यह तो मैं भी जानना चाहती हूँ।”
”जैनेट बेटा” पहली बार दयानन्द जी ने जैनेट को संबोधित किया-”धन्यवाद, तुमने बच्चों के नाम वही रखे , जो मैं अपने पोते-पोतियों के रखना चाहता था।”
”धन्यवाद क्यों बाबूजी, ग्रैंड पेरेंट्स ही ग्रैंडचिल्ड्र्न का नाम रखते हैं। फूलों के नामों पर आप अपने ग्रैंडचिल्ड्र्न के नाम रखना चाहते थे ताकि अगली पीढ़ी फूलों सी महके। आपका हक़ है, वह आपसे कोई नहीं ले सकता।” जैनेट ने मुस्कराते हुए कहा।
यह सुनते ही शुक्ला दंपति यादों की कंदराओं में भटकने चला गया। कार में ख़ामोशी छा गई । शरद ने देखा उसके माँ-बाप फिर कहीं खो गए हैं। वह मुस्करा दिया। उसने सोचा-”जिन अनुभवों से गुज़रे हैं, अतीत में जाना भी इनकी सेहत के लिए ज़रूरी है । वर्तमान में जीना सीखने के लिए अभी इन्हें समय लगेगा।”
अरुण और सुरभि, विनोद और गरिमा के नवशिशुओं को देखते ही दयानंद जी ने कितने चाव से कहा था-”मैंने इनके नाम सोच लिए हैं।” दयानंद जी की बात बीच में ही काट कर सुरभि और गरिमा बोलीं-”हमने नाम रख लिए हैं और हॉस्पिटल में रजिस्टर भी करवा दिए हैं।” उसके बाद पति-पत्नी कभी बोल ही नहीं पाए। बात-बात में टोक दिए जाते थे। हमारे बच्चे, हमारे पति , हमारी पत्नियों तक परिवार सीमित हो गया था। दयानंद जी और शकुंतला जी का कोई महत्त्व नहीं रह गया था। परिवारों से दूर करते-करते उन्हें घर से भी दूर कर दिया।
”अम्मा-बाबूजी, लीजिए आपका घर आ गया। मॉम-डैड के घर बीच के रास्ते से चल कर जाने में सिर्फ पाँच मिनट लगते हैं। पर कार में बाहरी सड़क से घूम कर जाना पड़ता है। पंद्रह मिनट लग जाते हैं।”
अम्मा-बाबूजी जैनेट की आवाज़ सुन अपने आप में लौटे। ईस्ट पार्क सब डिवीज़न के खम्बे और प्रवेश द्वार का स्वागत चिह्न नज़र आया। अरे… इस सब डवीज़न की तरफ़ वे आते नहीं, यहाँ बड़े-बड़े पत्थर तराश कर ऊँचे-ऊँचे घर बनवाए गए हैं। यह शहर का ऊँचा और पथरीला हिस्सा, बेहद पॉश एरिया, एरिया की ख़ातिर नहीं, यह शुक्ला हॉस्पिटल के करीब है, इसलिए वे इधर कभी नहीं आए। बड़े से गेट के अंदर दो सिक्यूरटी वाले एक कमरे में बैठे कम्प्यूटर पर कुछ देख रहे हैं, उन्होंने बटन दबा कर गेट खोल दिया। जैनेट कार को अंदर ले गई और कई बड़े-बड़े घरों को पार कर एक महलनुमा घर के सामने उसने कार को रोका। ऐसे घर तो उन्होंने हॉलीवुड के सितारों के देखे थे। जैनेट ने रिमोट से उस घर का सुंदर-सा गेट खोला और कार को अंदर ले गई।
कार के उस गेट के भीतर जाते ही दोनों ने देखा कि एक दूर तक दिखाई देने वाला लंबा ड्राइव-वे है और उसी के साथ उसी से निकलता एक गोल ड्राइव-वे है, जिसे यहाँ सर्कुलर ड्राइव-वे कहते हैं। जैनेट कार को लंबे ड्राइव-वे पर ले गई। कार से वे महल की कलात्मकता, उसके कमरों की बनावट तथा फूलों और फलों से लदा बगीचा और उसका रख-रखाव देख रहे हैं। कार उसने पाँच कार गैराज के आगे रोक दी, जिसमें पाँच कारें खड़ी हो सकती हैं। दयानंद जी को याद आया, वे कानपुर जाकर अक्सर अपने दोस्तों में यहाँ के घरों का मज़ाक उड़ाया करते थे कि अमेरिका में घरों की कीमत कमरों से नहीं आंकी जाती, बल्कि कितने कारों की गैराज है, जो घर से जुड़ी होती है, और उसके द्वारा भी घर के अंदर जाया जा सकता है; उससे आँकी जाती है। पाँच कार गैराज देखकर वे मुस्करा दिए।
”शरद, आप अम्मा-बाबूजी को मेन गेट से भीतर लाइए। आज अम्मा-बाबूजी का अपने घर में गृह -प्रवेश है। मैं गैराज के दरवाज़े से घर के भीतर जाती हूँ।” जैनेट की बात सुन शरद मुस्करा दिया पर अम्मा-बाबूजी इस बात को समझ नहीं पाए। कार से बाहर निकलना उनके लिए मुश्किल हो रहा है। लंबा ड्राइव-वे ऊँचाई पर बनी गैराज के सामने समाप्त हुआ है। घर ऊँचाई पर बना है। शरद और उसके बड़े बेटे ने उन दोनों को बाहर निकलने में मदद की। उन्होंने देखा, सड़क से घर तक सीढ़ियाँ भी बनी हैं; एमरजेंसी के लिए।
धीरे-धीरे चल कर अम्मा-बाबूजी घर के मुख्य द्वार के सामने पहुँचे। बड़ा सा नक़्क़ाशीदार दरवाज़ा। उनकी आँखें देखती ही रह गई जब दरवाज़े के साथ उन्होंने सुनहरी अक्षरों में लिखा पाया-
आशियाना
दयानंद शुक्ला एवं शकुंतला शुक्ला निवास
ऐसा ही उनके अपने घर के आगे लिखा हुआ था। उनका अपने संवेगों पर क़ाबू नहीं रहा। शरद ने महसूस किया कि उसके बाबूजी का शरीर बेक़ाबू हो रहा है, रोम – रोम भावनाओं से भीग रहा है । उसने उन्हें बाँहों का सहारा देकर थाम लिया।
तभी दरवाज़ा खुला, जैनेट पूजा की थाली लिए खड़ी है। उसने अम्मा और बाबूजी की आरती उतारी। हल्दी कुमकुम का टीका लगाया, उनकी चरण वंदना की और मुस्कराते हुए कहा-‘अम्मा-बाबूजी आपका अपने घर में स्वागत है। भीतर आएँ और अपना घर सँभालिए। अब तक हम इसकी देख-रेख कर रहे थे।”
शकुंतला जी भावनाओं में बह गईं…….. और बाबूजी ने शरद के बाज़ुओं को कस कर पकड़ लिया।

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