ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे

– मीनाक्षी जोशी

फिल्मी दुनिया की चकाचौंध, ग्लेमर, धन और यश की क्षणभंगुरता से कौन परिचित नहीं है? न जाने कितने सितारे रोज नए रूप में आकाश में चमकते हैं और अंधकार में विलीन हो जाते हैं किन्तु कुछ सितारों की झिलमिलाहट अंधकार में भी दिखाई देती है। ऐसे ही एक सितारे थे- किशोर साहू, जिन्हें राजेन्द्र यादव ने उनके कथाकार पिता कन्हैयालाल साहू के साथ याद कर अतीत की स्मृतियों का एक झरोखा खोल दिया।

हंस, जून 2010 के संपादकीय “दफनाई किताबों का प्रेत शोध” में यह पढ़कर कि राजेन्द्र यादव को किशोर साहू की आत्मकथात्मक पुस्तक की आज भी तलाश है, मैं अपनी जिज्ञासाओं पर नियंत्रण कैसे रख पाती, बस जुट गई खोज अभियान में, आखिर मैं भी तो उसी भंडारा (महाराष्ट्र) में रहती हूँ जहां कन्हैयालाल साहू का परिवार (तीसरी पीढ़ी) आज भी रहता है। अपनी मित्र प्रा डॉ शुभा घाडगे से इस विषय पर चर्चा की। उसने बताया- साहू सर का घर तो उसके घर के पास ही है। कॉलेज से छूटते ही मैं शुभा के साथ साहू जी के घर पहुँच गई। शहर की मुख्य सड़क ‘स्टेशन रोड’ से जुड़ी एक छोटी सी गली में बने बहुत पुरानी शैली के मकान के सामने हम खड़े थे। यह घर था कन्हैयालाल साहू का। मुख्य दरवाजा खुला हुआ ही था जहां से सीधे भीतर के दो कमरे भी दिखाई दे रहे थे। हमें दरवाजे पर खड़ा देख एक मोटी-सी प्रौढ़ महिला बाहर आई। मैंने अपना परिचय देकर आने का मकसद बताना चाहा पर वह बिना कुछ सुने बैठने का इशारा करते हुए “काम वाली आई है” कहकर वापस भीतर चली गई।

बरामदेनुमा बैठक में रखी प्लास्टिक की कुर्सी पर हम बैठ गए किसी के बाहर आने का इंतज़ार करते हुए। दीवार से लगा केन का सोफा घर की तरह ही पुराना और जर्जर लग रहा  था। खपरैल की छत को आधार देने वाली मुख्य लकड़ी का एक कोना पूरी तरह दीमकों का भोजन बन चुका था। आस-पास रखी वस्तुओं पर धूल की मोटी परत जमी थी। दीवार पर टंगी पीली पड़ गई पारिवारिक तस्वीर में मुस्कराते संभ्रांत और गर्वीले चेहरों को देखकर मन ही मन बोल उठी- “अपना डेरा फकीर छोड़ गए, ख़ुशबुओं की लकीर छोड़ गए”।

    कुछ देर बाद वही महिला साड़ी से पसीना पोंछते हुए आई और सोफ़े पर बैठ गई। मैंने पुनः अपनी बात दोहरना चाही किन्तु बीच में ही बड़ी निर्लिप्तता से वे बोली- “अब हमें तो कुछ अधिक नहीं मालूम। ये तो आज खेती के काम से पलाड़ि गए हैं। रात तक लौटें शायद। आप लोग कल आ जाना।” उसके रूखे जवाब से निराशा हुई। शुभा से पूछा ‘ये’ कौन? “साहू सर, जो गांधी विद्यालय में पढाते थे, अरविंद साहू, किशोर साहू के चचेरे भाई।” शुभा ने बताया। मैंने उनसे सर का मोबाइल नंबर पूछा ताकि उनकी सुविधानुसार मिलने आ सकूँ। महिला एक सांस में नंबर बोल कर फिर भीतर चली गई। मैं अवाक, चार नंबर लिखकर  मुंह देखती रह गई। थोड़ी देर में वे बाहर आई और कागज की छोटी सी चिट मुझे थमा दी जिस पर पेंसिल से नंबर लिखा था।

शाम को अरविंद सर से बात कर अगले दिन उनसे मिलने पहुंची। अपना परिचय और हंस का संदर्भ देते हुए उनसे जानकारी लेना चाही। उन्होने बताया, कन्हैयालाल यानि मेरे चाचा साकोलीपिता में नायब तहसीलदार थे। एक बार किसी बड़े अधिकारी ने उन्हें किसी बात पर डांट दिया तो बस नौकरी ही छोड़ दी और चले आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने। यह मकान उन्होने ही 1927 में बनवाया था। जैसा कि राजेन्द्र यादव जी ने लिखा कि कन्हैयालाल हरेक लेखकों की भाषा में विशेषकर वर्तनियों में खोट निकालते थे। उनकी अंगरेजी बहुत अच्छी थी। वे अंगरेजी में कविताएं भी लिखते थे।

       कन्हैयालाल के पुत्र किशोर साहू को आज भी भंडारा के लोग याद करते हैं। किशोर ने नागपुर के मारिस कॉलेज से पर्शियन में एम ए किया। विद्यार्थी जीवन से ही कहानियाँ लिखते थे। नाटको में अभिनय करते थे। पिता के परिवार में प्रॉपर्टी के झगड़ों से परेशान होकर वे मुंबई चले गए। उस समय किशोर के पास हीरे की एक अंगूठी थी, जो दादाजी ने उन्हें उनके जन्मदिन पर भेंट दी थी। इसी एक अंगूठी से किशोर ने अपना पूरा कारोबार जमाया था।

म प्र के मुख्य मंत्री श्री रविशंकर शुक्ल किशोर के दादाजी के मित्र एवं एक ही स्कूल के  शिक्षक थे। मुंबई में किशोर की मेहनत रंग लाई। उनकी खुद की कहानी पर बनी पहली फिल्म थी ‘राजा’। उसके बाद ‘वीर कुणाल’ फिल्म से किशोर ने खूब दौलत कमाई। उसका स्टुडियो ‘हिंदुस्तान चित्र’ उस समय ऐसा ही मशहूर था जैसे आज यूटीवी। दक्षिण भारत की जैमिनी जैसी कंपनियाँ किशोर की फिल्में हाथों-हाथ लेती थी। फिल्म ‘गृहस्थी’ की लोकप्रियता ने तो किशोर के कथा-लेखन और निर्देशन की कुशलता का डंका देश-विदेश में बजा दिया। फिल्म ‘पुनर्मिलन’ ने भी खूब धूम मचाई। बाद की फिल्मों में किशोर ने अभिनय करना भी शुरू कर दिया। इस बीच पत्नी स्नेहप्रभा से तलाक हो चुका था। बाद में उसने प्रीति से विवाह कर लिया।

पृथ्वीराज कपूर और किशोर में भी गहरी दोस्ती थी। वे दोनों नागपूर के कॉलेज में साथ-साथ पढ़े थे। सोहराब मोदी भी उनके साथी थे। फिल्मी दुनिया में कदम जमाने के बाद शहर के बड़े-बड़े रईसों में किशोर की गिनती होने लगी। साहूकारों की परंपरानुसार लोगों को कर्ज़ पर रुपए देना भी जारी था किन्तु रईसों के शौक भी तेजी से बढ़ते जा रहे थे। सिगरेट, शराब-शबाब, जुआ, सट्टा आदि व्यसनों में किशोर डूबते चले गए। स्थिति यहाँ तक आई कि उन्होंने ने एक दिन खुद को दिवालिया घोषित कर दिया। पर मैं (अरविंद साहू) इस खबर को झूठा मानते हैं ताकि कोई उनसे अब कर्ज़ न मांगे। 

कुछ देर रुक कर साहू सर ने भीतर झाँकते हुए आवाज़ लगाई- “पुष्पा…. ओ पुष्पा रानी”। पुष्पा जी धीरे-धीरे डोलती हुई बाहर आई। यह वही महिला थी जो कल हमें मिली थी। मैंने नमस्ते किया। जवाब में गर्दन हल्की से घूमती दिखी। सर ने पत्नी के रूप में उनका परिचय करवाया। यद्यपि उनके व्यवहार से पहले ही मेरी समझ में आ गया था कि ऐसी भूमिका निभाने वाली पत्नी ही हो सकती हैं। खैर…. मैंने सर से अनुरोध किया कि यदि किशोर जी, कन्हैयालाल जी की कोई पुस्तक और फोटो मुझे दे सकें तो बेहतर होगा, मैं उन पर कुछ लिखना चाहती हूँ। वे फिर पत्नी की ओर मुताखिब हुए- “वो अपना पुराना एलबम ले आओ न जो स्टोर की अलमारी में पड़ा है।” पत्नी जी अनिच्छा से उठी और भीतर गई। साहू सर फिर बोले- “मैडम, फोटो तो शायद मिल जाएगी किन्तु किताब मिलना मुश्किल है। वो क्या है न कि लकड़ी की अलमारी में पड़ी-पड़ी उनकी कितनी सारी फाइलों और किताबों में ऐसी दीमक लगी कि सब कागज़ का चूरा बन गई, अब कचरे को कौन संभालता?” मैं आश्चर्यचकित सोचती रह गई- सच है घर की मुर्गी दाल बराबर। पुष्पा जी ने एलबम लाकर टेबल पर रख दिया। सर ने कुछ फोटो दिखाये। एल्बम का एक-एक पन्ना बाहर निकल कर नीचे गिरने को हो रहा था। ब्लेक एंड व्हाइट उन तस्वीरों के चेहरे आज भी चमक रहे थे। रंगीनी में तो सारे हाव-भाव रंगों में घुल जाते हैं।

मैंने साहू सर से जानना चाहा, किशोर जी की मृत्यु कैसे हुई? कुछ याद करने की कोशिश करते हुए वे बोले- “तारीख तो ठीक-ठीक याद नहीं आ रही, किशोर को एक फिल्म बनानी थी जिसकी लागत लगभग 32 करोड़ थी। उसके लिए इतनी बड़ी रकम जुटाना कठिन था। उन्होने अनेक निवेशकों से बात की पर निराशा ही हाथ लगी। कुछ समय बाद किशोर को एक टेलीग्राम मिला कि हांगकांग के फायनेंसर ने उनका प्रपोज़ल स्वीकार कर लिया है। किशोर को इसकी कोई उम्मीद न थी। जब टेलीग्राम हाथ में आया तब वे हांगकांग एयरपोर्ट जाने की तैयारी कर चुके थे। उन्हें अपनी बेटी से मिलने अमेरिका जाना था। यह खबर मिलते ही किशोर को इतनी खुशी हुई कि उनकी हृदयगति ही रुक गई।” सर खामोश हो गए। मैं सोचने लगी- वाह रे नियति!! अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरू कहाँ खतम…। वापस जाने के लिए खड़ी हुई तो अरविंद जी ने व्यथित स्वर में कहा- एक बात और कहना चाहता हूँ, कहूँ या नहीं ? “अवश्य कहिए निसंकोच!”, मैं तुरंत बोली।

“किशोर ने हमारे परिवार के साथ बहुत नाइंसाफी की। मेरे भाई जो किशोर से ज्यादा टेलेंटेड थे पर किशोर ने कभी उसे आगे आने का अवसर नहीं दिया। सारे परिवार पर उसका हुक्मनामा हिटलर की तरह चलता था। यदि हमे किशोर ने रोका नहीं होता तो हम भी आज बहुत आगे पहुँच गए होते।” कहते हुए साहू सर के चेहरे पर दुख की रेखाएँ खींच गई। “ये फोटो देखिए, ये हैं मेरे भी राजकुमार साहू। बहुत बड़े चित्रकार रहें। अभिनय कला, रंग-रूप में किशोर से दो कदम आगे ही थे। पर…..” वे चुप हो गए। मैंने उन्हें हार्दिक धन्यवाद देकर विदा ली। गला सूखा जा रहा था, प्यास से या विषाद से, कहना मुश्किल था। “कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे” की मुद्रा लिए घर की राह पकड़ी।  

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