
दादा…
– यूरी बोत्वींकिन
दादा रूसी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मनों ने उनका गांव जलाकर लोगों को पश्चिम की ओर भगाया था तो उनका परिवार यूक्रेन पहुंचकर एक गांव में ठहर गया था। दादा तब 12-13 बरस के थे, पांच बच्चों में सब से बड़े। उसी गांव में बस गए थे फिर… मैं जब तक हुआ था तो उनको यूक्रेनी भाषा भी ठीक-ठाक आती थी। बस जब भावुक हो जाते थे या भड़क जाते थे किसी पर तो रूसी अपने आप आ जाती थी जीभ पर।
दादा रूस के जिस प्रांत में जन्मे थे वह यूक्रेन से सटा हुआ है, पास ही है। ब्र्यान्स्क नामक प्रांत। बाद में विश्वविद्यालय में पढ़ाई करते समय मैं ने उस भूमि के बारे में एक दिल्चस्प बात सुनी थी। जब प्राचीन कीव राज्य में ईसाई धर्म बलपूर्वक लागू किया जा रहा था तो पुरानी परंपराओं को छोड़ने से इनकार करनेवाले कुछ लोग देश से भाग गए थे पूर्व की ओर। उस युग में तो अधिक दूर नहीं जा सकते थे, बस ईसायीत्व थोपनेवालों की पहुंच से निकलकर बस जाते थे घने जंगली क्षेत्रों में जहाँ शताब्दियों पश्चात रूस के पश्चिम-दक्षिणी प्रांत घोषित किए गए थे। प्रेम को आदर्श माननेवाला और इसके साथ साथ सभी पुराने संस्कारों-मान्यताओं को निर्दयी से नष्ट करनेवाला नया धर्म तो उधर भी पहुंचा, पर थोड़ा समय पश्चात… और बाद में, जब मुझे सनातनी ही जैसी पुरानी स्लाविक परंपरा के अवशेषों की खोज की तृष्णा चढ़ी थी तो बड़ा अद्भुत लगा था। उस प्राचीन आध्यात्म के सर्वाधिक झलकियाँ लोक संस्कृति में ही बची दिखती हैं, कुछ संस्कारी लोक गीतों का असर तो वैदिक ऋचाओं सा अनुभव होता है, एकदम मंत्रमुग्ध करनेवाला, प्रकृति में विलीनता से होकर ब्रह्मांड के स्तर तक चेतना को विस्त्रित करनेवाला… ऐसे स्लाविक लोकगीतों को मैं पागल की तरह ढूँढता रहता था। उन गीतों में एक विशेष श्रेणी थी जिनको सुनते ही लगता था कि समाधि-उवस्था के दहलीज़ पर पहुंचा हूँ… ऐसा नहीं है कि बहुत लोग उनको सुनकर ऐसा ही अनुभव करते हैं, पर मैं करता था। फिर अचंभित भी रह गया था यह जानकर कि उस श्रेणी के बहुत से गाने उसी क्षेत्र के हैं जहाँ से दादा आए थे… क्या था वह? प्राचीन स्लाविक सनातन के जंगली अवशेषों के प्रति मेरी भावुकता या मात्र आनुवंशिक स्मृति? पता नहीं, दोनों भी हो सकते थे…
फिर आगे जाकर उसी यूक्रेनी गांव में दादा का विवाह भी हुआ था, जर्मनों के मारे गए एक स्थानीय डॉक्टर की अनाथ लड़की से… उनके तीन बेटों में सबसे बड़े मेरे पिता हैं।
नाना-नानी भी उसी गांव के थे। नाना आयु में थोड़े बड़े थे तो युद्ध आरंभ होने पर जर्मनों से लड़ने भी गए थे, कैदी भी बने थे कुछ समय के लिए, फिर भागकर लौट आए थे गांव में… और उस सबसे पहले तो उनके पिता, मेरे परनाना को स्तालिन की सरकार ने बिना किसी ठोस आरोप के जेल में डलवाकर मृत्यु-दंड दिया था गाली मरवाकर… पता नहीं उन सब घटनाओं का ऐसा प्रभाव पड़ा था नाना की मानसिकता पर या पहले से ही वे ऐसे स्वभाव के थे, किंतु उनकी स्मरण में कुछ अच्छा नहीं कह सकता हूँ। पियक्कड़ थे, बड़े अत्याचारी और हिंसक भी हुआ करते थे पत्नी-बच्चों के साथ। मेरी माँ ने, जो कि पांच बच्चों में बीच वाली थीं, नरक वाला बचपन देखा है… एक बार 10 के करीब की आयु में अपनी छोटी बहन को बाप के क्रोध से बचाने की कोशिश करते हुए माँ ने उनको हाथ में काट दिया था दांतों से तो उस राक्षस ने ऐसा मारा था कि बच्ची लग्भग एक साल तक अस्पताल में रही थी, फिर जीवन भर के लिए कुछ हद तक अपाहिज भी रही। शारीरिक और मानसिक रूप से आज तक भुगत रही हैं वह सब मेरी माँ…
मैं नहीं मानता हूँ कि कोई भी सामाजिक, पारिवारिक या फिर व्यक्तिगत त्रासदी एक मनुष्य के मानवता खोने में सफ़ाई के तौर पर उचित हो सकती है। स्वभाव में ही होता है कुछ। वैसे जिन देशों के इतिहास में कम युद्ध और आतंक रहे हैं वहाँ भी तो मानसिक असंतुलन और पारिवारिक हिंसा कहाँ कम हैं… और इस देश का तो भाग्य ही था सदियों से रणभूमि बने रहना, ऐसी धरोहर पाकर मनुष्य के लिए अपने मन के अंदर भी रणभूमि बने रहने से वचना कठिन होता है… बचपन में हम लड़कों का पसंदीदा खेल हुआ करता था युद्ध, खिलौनेवाले तलवार-बंदूक लेकर उतरते थे खेल के मैदान में। लगा था कम से कम इस शताब्दी की पीढ़ियाँ कुछ अलग प्रकार से विकसित हो पाएंगी, वही भाग्य फिर हंसा है इस आशा पर…
दादा किंतु बड़े मानवीय और हंसमुख स्वभाव के थे। वैसे तो स्वस्थ और प्रफुल्ल थे, घर से बाहर हंगामा मचानेवाले और लड़ाकू भी होते थे कभी कभी, मर्दानगी से तो भरे तो थे ही, पर किसी को प्रताड़ित करनेवाली प्रवृत्ति नहीं थी उनमें। होरील्का (वोद्का) तो वे भी पसंद करते थे, अश्लील भाषा का भी प्रयोग करते थे, पर पीकर हिंसक नहीं, बल्कि और बड़े मज़ाकिया बना करते थे, पेट में दर्द होने की हद तक हंसाते थे सबको, यह तो मुझे भी अच्छी तरह याद है। न वे पियक्कड़ थे, न ही पत्नी-बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते थे कभी। मेरी माँ जब उनके घर आई थीं बहू बनकर तो चकित सी रह गई थीं कि अरे, पिता ऐसे भी होते हैं…
माँ के दो भाई थे जो नाना की तरह ही दारू के दास बन गए थे बड़े होकर, इसीलिए जल्दी गुज़रे भी दोनों… और तो और, उनमें से एक के दो बेटे भी थे, मेरे ममेरे भाई, आयु में मुझसे भी छोटे, वे दोनों भी नहीं रहे हैं अब उसी कारण से… नाना के परिवार के पुरुषों पर कोई श्राप सा मंडराता प्रतीत होता है… मेरे पिता को और बड़े भाई को ऐसी कोई लत नहीं है, पर मुझे लेकर माँ डरी रही हैं… भाई तो पिता की तरह शांत, सीधे-सादे और व्यावहारिक हैं। माँ की अशांति भरी काव्यात्मक भावुकता मुझमें आ गई है। इसीलिए माँ को लगता है कि उन्ही के वंश से अधिक जुड़ा हूँ। और उस आनुवांशिक धरोहर में क्या ख़तरा छुपा है यह तो सब जान चुके हैं… हिंसक तो मैं किसी भी ओर से नहीं हूँ, पर शराब के भूत के लिए एक कवि पर चढ़ना सरल होता है कभी कभी… ख़ैर ऐसा हुआ नहीं, पर मैंने यह भी अनुभव किया था कि माँ का डर आधारहीन नहीं था। बरसों तक एक गुप्त संघर्ष चला था मेरे अंदर ही जिसका मुझे स्वयं को भी पूरा बोध नहीं था, बाद में जाकर हुआ। फिर एक दृढ़ निर्णय लिया था मैं ने। माँ को डरने की आवश्यकता नहीं है। दादा जीत गए मुझ में…
दादी से बहुत प्रेम करते थे दादा। अभी तक गांव के लोग याद करते हैं कि उस समय पूरे गांव में बस उन्ही का ऐसा जोड़ा था जो सड़क पर जब निकलता था तो पत्नी पति की कोहनी पकड़े साथ चला करती थी। दादी का स्वास्थ्य बचपन से ही दुर्बल रहा था, इसलिए जब दादा ने विवाह का प्रस्ताव रखा था तो वे घबराकर रो पड़ी थीं कि “मैं कैसे कर सकती हूँ विवाह, पीड़ाओं से जो जूझती हूँ!” दादा ने बस उतना कहा था कि “मुझे भी जूझना है तुम्हारे साथ…” और अपना कहा निभाया भी अच्छे से। गुज़रने से पहले लग्भग एक वर्ष तक दादी उठ नहीं पाई थीं बीमारी के कारण। उनकी देख-भाल करनेवाले, नहलाने-धोने-बदलनेवाले दादा ही रहे थे अंतिम क्षण तक, किसी और को नहीं करने दिया था… उन दिनों दादी ने उनको वह जूझनेवाली बात याद भी दिलाई थी कि ऐसा किसलिए कहा था तुमने, अब देखो… पर जूझना ही था दादा को।
मैं पंद्रह वर्ष का था जब दादी चल बसी। उसके पश्चात स्कूल के दो अंतिम वर्ष मैं अक्सर दादा के साथ ही रहा करता था उनके घर में ताकि उनको अकेलेपन का अनुभव कम हो। कुछ ख़ास जुड़ाव रहा था हम दोनों में मेरे बचपन से ही। मेरे ही बचपन के किस्से दादा सर्वाधिक सुनाया करते थे बड़े मज़ेदार भाव से, वह भी अपनी आदत से अश्लील शब्दावली को मिलाकर। वैसे तो चार पोते और एक पोती थी उनकी, पर पास मेरे पिता ही रहते थे परिवार सहित, शेष दो बेटे रूस में जाकर बस गए थे। मेरे भाई का बचपन अधिकतर नानी के घर में बीता था (नाना तो बहुत पहले गुज़र चुके थे)। भइया नानी के ख़ास रहे। मैं दादा का… चालीस से अधिक वर्षों के जीवन-साथी को खोने के बाद एक दृढ़, हंसमुख और दुस्साहसी पुरुष की क्या दशा हो सकती है मैंने करीब से देखा है। पर दुखी होना हौसला खोने के बराबर नहीं होता है, यह भी देखा है। दादा संभाल पाए थे स्वयं को, ज़्यादा पीने नहीं लगे थे, सक्रिय रहते थे, घर के काम करते थे, खाना बनाते थे। अब मैं इस बात से हैरान होता हूँ कि दादा तो किसी भगवान-आध्यात्म को भी नहीं मानते थे, चर्च इत्यादि नहीं जाते थे, फिर क्या था उनका वह शक्ति-स्रोत?..
वैसे उन्होंने दूसरा विवाह भी कर लिया था कुछ वर्षों पश्चात, लग्भग अपनी ही आयु की एक विध्वा महिला से। सत्तर के आसपास के थे दोनों। तब मैं कीव जाकर विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था, बस कभी-कभार मिलने आता था। समय के साथ दादा का भी स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था, अब नई पत्नी को जूझना पड़ रहा था… हलांकि नई पत्नी यह भी जानती थी कि कब्रस्तान में दादी के कब्र के पास ही दादा ने अपने लिए भी बहुत पहले से ही स्थान बचाकर रखा था। वहीं लेट भी गए फिर…
मैं बत्तीस का था जब दादा नहीं रहे। तब तक नानी भी गुज़र चुकी थी, वह कोई पहला अंतिम संस्कार नहीं था किसी करीबी का। किंतु दादा के ही क्रिया-कर्म में मैं पहली बार रोया था…
फिर अचानक वे मेरे सपनों में आने लगे थे… पहली बार तो मैं डर गया था क्योंकि सपना बुरा था। दादा फ़र्श पर बैठे, दीवार से पीठ लगाए, पीड़ा से कराह रहे थे। मुझे क्रोध से देखा, मारने के लिए हाथ भी उठाया… मैं जाग गया था बड़ी घबराहट और असमंजस में। बहुत दिनों तक सोचता रहा था कि क्या रहा होगा उस सपने का अर्थ, फिर सोचना बंद कर दिया था… दूसरी बार दादा का सपना भारत में आया था। इस बार बिल्कुल अलग। सुंदर सूट पहने, साफ़ हजामत किए हुए, स्वस्थ और प्रसन्न दिखनेवाले दादा मेरे सामने खड़े थे हाथों में फूलों से भरी एक टोकरी लिए। मुझे वह टोकरी पकड़ाते हुए बोले – “इसके अंदर एक पुस्तक है। जो कुछ ज्ञान और कौशल्य थे मेरे पास, सब उसमें लिख दिया है। अब तुम्हें सौंप रहा हूँ…” वह पुस्तक निकालने से पहले ही मैं जाग गया था। इस बार भी यह एक बड़े असमंजस की बात थी मेरे लिए, पर अब असमंजस शांतिपूर्ण और आनंदपूर्ण था। कहीं गहरे में शायद मैं समझ गया था दादा का संदेश… उसके बाद वे अक्सर आने लगे थे सपनों में, पर कुछ बोलते नहीं थे, देखते थे मुझे, इधर-उधर घूमते थे, हंसते थे कभी कभी। ख़ुश और जवान से दिखते थे अधिकतर तो मैं भी ख़ुश हो जाता था।
मेरे परिचितों में जब कुछ वैद्य-जादुगर जैसे लोग होने लगे थे जो परलोक की बातों का भी ज्ञान बांटने में समर्थ माने जाते थे तो मैंने उनको यह सब सुनाया थ। उत्तर में यह सुना – “देखो, जब कोई ज्ञानी, वैद्य या जादुगर गुज़रते हैं बिना अपना वरदान किसी को सौंपे तो उनकी स्थिति बहुत बुरी होती है वहाँ, बड़ी पीड़ा में तड़पती होती हैं उनकी आत्माएँ। इसीलिए वे तुम्हें पहले सपने में तड़पते हुए और क्रोधित दिखे थे। फिर जब उन्होंने देखा होगा कि तुम तैयार हो उनका वरदान ग्रहण करने के लिए तो अलग रूप लेकर आ गए थे। अब वे संतुष्ट हैं, बस तुम्हें देखने आते हैं।”
मैं नहीं कह सकता हूँ कि मुझे पूरा विश्वास है इन सब बातों पर, पर क्या पता, कुछ तो होगा… वैसे कोई ज्ञानी वाला वरदान दादा में कभी किसी ने देखा नहीं था। साधारण से महनती व्यक्ति थे, जीवन भर कारख़ाने में काम करते रहे थे। किताबें कम ही पढ़ते थे, भगवान-चर्च-पादरियों का तो मज़ाक भी उड़ाते थे ख़ूब। कुछ दिव्य यदि था उनमें तो स्वभाव की कठोरता में छुपा गहरा प्रेम, जीवन की चुनौतियों से निडरता तथा दुखों को निहारनेवाली विनोदी दृष्टि… क्या सच में उन्होंने मुझे कोई वरदान सौंपा है? यदि ऐसा है तो शायद मुझमें भी नहीं दिखेगा किसीको। और दादा की भांति मैं भी उस वरदान से अबोध रहूँगा जीवन भर। पर वह फूलों की टोकरी मैंने हृदय में सहेजकर रखी है, दादा… जिस दिन उसके अंदर वह पुस्तक भी मिलेगी तो पढ़ूंगा अवश्य…
रूस-युक्रेन का युद्ध आरंभ होने के पश्चात से बस एक ही बार सपने में आए थे दादा। उदास दिख रहे थे और एकदम बूढ़े से। किसी टूटे मकान के अवशेष पर बैठे अपने सामने देख रहे थे मौन में। कहीं अपने जन्म-स्थल और जीवन-स्थल के बीच हो रही इस भयानक लड़ाई को अपने में समेटकर तो नहीं देख रहे होंगे?..
छोड़िए, दादा, आप मुक्त रहिए इस सब से। आपने बहुत संभाला है जीवन में, विश्राम कीजिए। इधर का दृश्य दुखाता है तो मत आइए। मैं संभालूंगा। आख़िर आपका ही रक्त हूँ न…
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