
मैं यमराज नहीं हूँ!!
– हर्ष वर्धन गोयल (सिंगापुर)
मुझे सिंगापुर में आए अभी कुछ ही वर्ष व्यतीत हुए थे, यहाँ मित्रों और संबंधियों की रिक्तता का आभाव वास्तविक रूप से अनुभव होता थी। कहीं भी कोई भी भारतीय दिख जाए तो मन यही जानने के लिए उत्सुक रहता था कि ये कौन हैं इनसे बात की जाए और पूछा जाए, कहाँ से हैं?
यूँ ही समय व्यतीत होता गया, एक दिन एक व्यक्ति का नाम एक चर्चा में आया, नाम सुना हुआ-सा लगा, मन में लगा कि कदाचित यह व्यक्ति दिल्ली से है, उसने और मैंने भारत में, एक ही कंपनी में कार्य किया है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति का दूरभाष व पता मिला, दूरभाष पर संपर्क हुआ। अनुमान के अनुरूप, वह व्यक्ति, भारत में उसी कंपनी में कार्य करता था जिसमें मैंने कार्य किया था। यद्यपि हमने उस कंपनी में, एक साथ, एक विभाग में न तो कार्य नहीं किया और न ही कोई व्यक्तिगत परिचय था, किन्तु चूँकि नाम सुना था इसलिए हृदय कुछ आश्वस्त था।
कुछ ही दिनों में उससे मित्रता हो गई, दूरभाष पर ही ये मित्रता प्रगाढ़ होती गयी। बातचीत में पता चला कि वह एक एक्सपोर्ट-इंपोर्ट कंपनी चलाता था। फोन पर वह बड़ी-बड़ी बातें करता था, जैसे मिट्टी से सोना कैसे बनाया जाए, गंजे को कंघी कैसे बेची जाए और मुझे समझाया करता था कि नौकरी में मलाई नहीं खा सकते। उस की बातों को मैं कभी हास्य में और कभी उसके मार्केटिंग क्षेत्र से संबंधित बातें समझ के अनदेखा कर दिया करता था।
एक दिन उसने मुझे एक कार्यालय में बुलाया। मुझे मालूम नहीं था कि यह उसका अपना कार्यालय था या किसी और का, कार्यालय बहुत छोटा-सा था एक स्थान पर परिचारिका के बैठने का स्थान था, एक सोफे पर आगंतुकों के बैठने का स्थान था और एक केबिन में वह स्वयं बैठा था। उसने मुझे अपने व्यापार की योजना दिखायी कि उसकी कंपनी को बढ़ाने के कितने उत्तम आसार हैं। उसने बताया कि कैसे उसने अपना सारा धन कंपनी के विस्तार में लगा दिया है। उसका सारा पैसा बाजार में लगा है और वह अभी आर्थिक संकट के कारण और पैसा नहीं लगा सकता, जिसके कारण उसका पूंजी प्रवाह ठप्प हो जाएगा। उसने बताया कि उसे २०,००० डॉलर की तुरंत आवश्यकता है और इस सहयोग से वह ठप्प पूंजी प्रवाह से उबार जाएगा, और न केवल आर्थिक तंगी से निकलेगा अपितु अपने व्यापार को अधिक चमका भी सकता है और अधिक उन्नति कर सकता है। मैं उसकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहा था और उसके बोलने कि शैली से प्रभावित था मैं उसकी बातों में आ गया था, राशि बड़ी थी इसलिए पत्नी से पूछने कि बात कहकर मैं घर आ गया।
घर आकर मैंने अपनी पत्नी को बताया तो उसने मुझे ऐसा करने से पहले ठीक से सोचने और उसके व्यक्तित्व का पता करने के लिए बोला, मेरी पत्नी का मत था कि राशि बड़ी है तुरंत बिना पता किए पैसे देने का उसका विचार नहीं था। उसके अनुसार यदि इतने सारे पैसे की आवश्यकता है और उसके पास योजना है तो वह बैंक से लोन लें किन्तु मैं अभी तत्कालीन नवनिर्मित मित्रता की चाशनी में डूबा हुआ था। मैंने सोचा कि एक मित्र यदि दूसरे मित्र कि सहायता नहीं करेगा तो कौन करेगा, यदि मैं काम नहीं आऊँगा तो यहाँ परदेश में और कौन काम आएगा। मैंने उसको पैसे देने के लिए का मन बनाया और मैंने बैंक से 20,000 डॉलर ऋण लिया और उसके बैंक खाते में पैसे ट्रांसफर कर दिए।
समय अपने विधान से अनवरत व्यतीत होता गया, पैसे लौटाने की अवधि ज्यों-ज्यों निकट आ रही थी, अब फ़ोन पर वार्तालाप कम हो गया था उसने लगभग फोन उठाना बंद कर दिया। बहुत बार सम्पर्क करने पर एक-दो बार उसका व्हाट्सएप्प पर संदेश आया कि वह व्यापार में व्यस्त है और उसके पास समय नहीं है। उसका व्यवहार बहुत अटपटा और रूखा और विचित्र-सा हो गया था।
मैं बैंक का ऋण, अपनी मासिक आय से कुछ चुका रहा था जब फोन और वहॉट्सएप्प पर उत्तर मिलने बंद हो गए तो मैं उस कार्यालय पहुँचा जहाँ हम मिले थे, वहाँ ताला लगा था, एक दिन में बड़े दुखी मन से, हिम्मत करके मैं उसके घर पहुँचा तो उसने मुझे दरवाजे पर ही धमका दिया कि यदि मैं उसके घर आया तो वह मेरी पुलिस में मेरे विरुद्ध अभियोग पत्र देगा और मुझ पर मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगा देगा।
कई सूत्रों से पता लगा कि उसने कोई पाँच-छ: व्यक्तियों के साथ इस प्रकार का छल किया है। मैंने उसे पैसे मित्रतावश दिए थे अतः मेरे पास कोई अनुबंध पत्र नहीं था। मैं उसके विरुद्ध कोई न्याययिक याचिका भी नहीं कर सकता था, किसी भी प्रकार से न्याय तंत्र का प्रयोग नहीं कर सकता था। बहुत दुःख हुआ, यही वे कारण थे जिनसे एक मित्र दूसरे मित्र की सहायता नहीं करता। मात्र कुछ घृणित लोगों के कारण सारा समाज प्रभावित होता है।
कई मित्रों ने मुझे समझाया कि मैं उसे यहाँ नहीं तो भारत में उसको धर-दबोचू।
मुझे लगा, क्या मुझे प्रतिकार लेने में समय लगाना चाहिए? क्या एक कार्य जो न्याय पालिका से संभव नहीं होता, विधि को अपने हाथ में लेकर करना चाहिए, क्या मैं न्यायकर्ता बन जाऊँ?
कई दिन इसी उधेड़बुन में निकले। एक सुबह मन में स्फुरण हुआ कि नहीं, मैं यमराज हूँ, नहीं मैं यमराज नहीं हूँ और मेरे चित में एक विचित्र गहन शुद्ध शांति का अनुभव हुआ, ऐसा हमारे जीवन में कई बार होता है कि किसी अपने जानकार द्वारा ही छले जाते हैं हम, बेबस होते हैं- तब हमें यमराज का कार्य उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। यदि मानवीय न्याय व्यवस्था में इस प्रकार के दुष्कर्मों का विधान नहीं है तो दैवीय न्याय व्यवस्था भी तो है। मुझे दण्डकर्ता की भूमिका नहीं निभानी चाहिए |
मैं यमराज नहीं हूँ।
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