तरुण कुमार द्वारा ‘रिश्ते : जय वर्मा की काव्य-कृति’ की समीक्षा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जो समाज में रहते हुए अपने रिश्ते और कर्तव्यों का निर्वहन करता है। उसके रिश्ते केवल अपने परिवार, समाज या अपनी संस्कृति और सभ्यता तक ही सीमित नहीं होते बल्कि वह प्रकृति और पूरी दुनिया के साथ एक रिश्ते में बंधा होता है। यह रिश्ता उसे पहचान, मूल्य और उद्देश्य प्रदान करता है। समाज की परंपराएं, संस्कृतियां और विचारधाराएं उसके जीवन को आकार देती हैं।

ब्रिटेन की जानी-मानी रचनाकार जय वर्मा का नया काव्य संग्रह “रिश्ते” मनुष्य के इन्हीं रिश्तों के विविध रंगों और विविध पहलुओं को दर्शाता है। “सहयात्री हैं हम” के बाद उनका यह दूसरा काव्य संग्रह है। इसके पहले उनका एक कहानी संग्रह “सात कदम” और “सीमा पार से” शीर्षक से एक निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनका नया काव्य संग्रह “रिश्ते” 71 कविताओं का ऐसा कोलाज है जो मनुष्य का जीवन और जगत के साथ उसके संबंधों, उसके भीतर के विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को पूरी शिद्दत के साथ चित्रित करता है। इस काव्य संग्रह का नाम ही अपने आप में कई परतों को छुपाए हुए है, क्योंकि “रिश्ते” शब्द न केवल पारिवारिक, सामाजिक और आत्मिक संबंधों बल्कि प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों का भी प्रतीक है। इसके अलावा इन कविताओं में समाज, प्रकृति, अध्यात्म, मानवता और जीवन से गृहीत विविध प्रकार के भावों की सुंदर और यथार्थपरक अभिव्यक्ति हुई है। इनमें जीवन के अनुभव और कल्पना के अनेक रंग भरे हैं।

जीवन और जगत के साथ मनुष्य के रिश्तों के सारे रंग संग्रह की शीर्षक कविता में उभर आए हैं। वह कहती हैं,

“कैसे अनोखे होते हैं रिश्ते/क्या-क्या रंग दिखाते हैं रिश्ते’/ पेड़ों के पत्तों से छनती हुई धूप जैसे/कभी बरसात में निखरे हुए रुप जैसे/………./.छुई मुई से नाजुक होते हैं रिश्ते।”

सचमुच रिश्ते बड़े नाजुक होते हैं। संभालकर न रखो तो पल भर में बिखर जाते हैं। आज के दौर में जब इनसान एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त है, रिश्तों की अहमियत काफी बढ़ गई है।

संग्रह की अन्य कविताओं में भावनाओं के दूसरे रुप भी दिखते हैं। इस कोमल भावना के बरक्स उनकी इस भावना का भी रंग दिखता है

“ये बगावत ये दूरियां कहां से आ गईं/वादिया हैं ख़ूबसूरत तबाहियां कहां से आ गईं।“

जीवन की तल्ख हकीकतों से भी वह परिचित हैं और उन्हें कुछ यों बयां करती हैं;

“हम बना सकते नहीं जमीन का एक टुकड़ा/ चमका सकते नहीं मुकद्दर किसी का/जीवन के राहें हम उनसे पूछते रहे/जिनको न खबर थी उन रास्तों की।“

“यूक्रेन” शीर्षक कविता युद्ध की विभीषिका के प्रति उनका आक्रोश व्यक्त करती है। युद्ध की भयावहता और इसके विनाशकारी प्रभाव से व्यथित उनका मन पूछता है कि आखिर “अंजाम क्या है इस तबाही का।”

जीवन में प्यार के अहसास को उन्होंने बहुत गहराई से महसूस किया है और कई कविताओं में यह अहसास उभर कर आया है। कभी विरह वेदना बनकर तो कभी मिलन की खुशी के रुप में। वह कहती हैं: “सुलग उठे हैं अंगारे यादों के तमाम/हवाओं के रुख को तुमसे मिलकर जाना/……../जीने मरने में क्या होता है फ़र्क़/तुम्हारे संग जीकर, तुमसे मिलकर जाना।“

अपने प्रियतम के खोने की पीड़ा और उनकी विरह वेदना इन पंक्तियों में जीवंत हो उठती है जब कहती हैं: “पहाड़यों के उस पार/तुम्हें तलाशती हूं कहीं”। जीवन भर साथ रहने की कामना करती कविता है, ‘मांगू मैं’ जिसमें वह कहती हैं, “मांगू एक वर मैं तुमसे पिया, हाथों में तेरा हाथ रहे।”

काव्यात्मक संवेदना का एक प्रमुख तत्व होता है प्रकृति प्रेम। मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता बहुत महत्वपूर्ण है। हम जिस पर्यावरण में रहते हैं, वह हमें जीवन देने वाली हर चीज़ प्रदान करता है — शुद्ध वायु, जल, और खाद्य। इस दृष्टिकोण से  मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। संग्रह की कई कविताएं जैसे “मैं रोज सींचता रहा”, “मुस्कुरा दें अगर हम”  दुनिया, तरुवर नीर , रौशन किनारे, वसंत, मकर संक्रांति, धुआं, मेरे बगीचे के फूल, पेड़ का अस्तित्व आदि जय वर्मा की प्रकृति प्रेम की कविताएं हैं। इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है तथा इनके माध्यम से उन्होंने अपने हर्ष विषाद, मिलन-विरह, और जीवन दर्शन से संबंधित भावनाएं व्यक्त की हैं। इन कविताओं में कई स्थानों पर मानवीकरण का सुंदर प्रयोग मिलता है।

मनुष्य का जीवन और जगत से रिश्ता जटिल और कई आयामों में बंधा हुआ है। यह भौतिक, मानसिक, सामाजिक, और आध्यात्मिक पहलुओं से जुड़ा हुआ है और हर व्यक्ति का इस रिश्ते से संपर्क अलग-अलग अनुभवों और समझ के आधार पर बनता है। जगत से संबंध की यह विविधता हमें जीवन को गहरे से समझने और अपने अस्तित्व को अर्थपूर्ण बनाने की दिशा में प्रेरित करती है। “जीवन की दौड़ में” शीर्षक कविता इसी भाव को व्यक्त करती है।

कवि हृदय संवेदनशील होता है इसलिए वह अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। समाज में अनेक ऐसे महान लोग होते हैं जो हमारे लिए प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। उनके आदर्शों, उनके दृष्टिकोण, उनके जीवन दर्शन और उनके कार्यों से प्रभावित हुए बिना हम नहीं रह पाते। कवयित्री ऐसी ही कुछ शख्सियतों के व्यक्तित्व से इतनी प्रभावित हैं कि उनके प्रति अपने उद्गार को रोक नहीं पाई हैं और उन्हें शव्दों में पिरोकर कागज पर उतार दिया है। ये कविताएं हैं: “प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दास मोदी”, “ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ”, “भवानी दयाल सन्यासी”, “पंडित नरदेव वेदालंकार”, आदि।

जय वर्मा का जीवन सादगी भरा है। ईश्रर में उनकी अगाध आस्था है। वह मानती हैं कि ईश्रर हमें सही रास्ता दिखाता है, वही हमारी मुश्किलें आसान करता है। उसके होते हम किसी बात की फिक्र क्यो करें। “हकीकत” शीर्षक कविता ईश्वर में उनके इसी विश्वास की झलक है। संग्रह में न सिर्फ समाज और परिवार के रिश्तों की बात की गई है, बल्कि  प्रेम,  मित्रता, और आत्म-रिश्ते भी कवि के शब्दों में जीवित हो उठे हैं।

प्रवास में रहते हुए अपने देश और घर की याद हो आना स्वाभाविक है। उनका मन अपनाए हुए देश इंगलैंड और अपने देश की यादों के बीच घूमता रहता है। वह कहती हैं, “मन की कहूं या दिल की सुनूं, देश कौन सा है अपना, घर तो बसा है यहीं।” इस मानसिक द्वंद्व में जीना हर प्रवासी भारतीय की नियति है। लेकिन इस परिस्थिति में भी वह खुद को अकेली नहीं समझती हैं। वह कहती हैं, “अकेला कहां था मैं सूने जहां में।” प्रवास में न केवल अपने देश की याद है वरन् परदेश में अपने देश का एक टुकड़ा रच लेने का प्रयास भी है और इसीलिए वह कहती हैं, “मैं जहां चली, हिंदी मेरे साथ चली।“ अंग्रेजी के वातावरण में उन्होंने न केवल हिंदी का परिवेश तैयार किया है बल्कि अपने प्रयासों से भारतीय संस्कृति और हिंदी के इस परिवेश को जीवंत भी बनाए रखा है। इसी की परिणति है काव्यरंग संस्था की स्थापना जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी कविता “काव्यरंग के कुंज में” की है। परंतु उनका ध्येय हिंदी को काव्यरंग के कुंज तक सीमित रखना नहीं है बल्कि इसे विश्व व्यापी बनाना है क्योंकि उनके अनुसार हिंदी में न केवल प्राचीन  ऋषि मुनियों, सूर, तुलसी, कबीर और अन्य संतों की पंरपरा शामिल है बल्कि यह एक समृद्ध, सक्षम और वैज्ञानिक भाषा है और इसमें विश्वभाषा बनने की क्षमता भी है। यह महज एक भाषा नहीं बल्कि हमारी अस्मिता और भारतीय संस्कृति की संवाहिका है। “विश्व व्यापी हिंदी” शीर्षक कविता में हिंदी के प्रति उनके इन्ही उद्गारों की अभिव्यक्ति हुई है।

 ‘ज़िंदगी’ शीर्षक कविता में वह कहती हैं जीवन जीना ही काफी नहीं है जीवन को समझना भी जरूरी है और ज़िंदगी को समझने के लिए समय, समझ, लगन, तड़प, चाहत, प्यार, अरमां, जुनून, विचार, मन, तुर, संगीत, मिलन, प्रीत, नज़र, सुकून, मौसीक़ी, जश्न, अमन, ईमान, दिल का क़रार, पहचान, नेकी करुणा, ईमानदारी और गहराई चाहिए। संग्रह में जीवन दर्शन की और भी कविताएं हैं जो जीवन में सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। मन में आशा का संचार करती है। इस प्रकार उनकी कविताएं जीवन और जगत से मनुष्य के रागात्मक और आध्यात्मिक संबंधों को सुदृढ़ करती हैं। 

संग्रह की कविताएं सरल लेकिन प्रभावशाली हैं। यों कहें ये कविताएं एक सच्चे मन की सच्ची अभिव्यक्ति हैं। कविता की भाषा भावुक और संवेदनशील है, जिसमें पाठक को अपने अनुभवों और विचारों से जुड़ने का अवसर मिलता है। उनकी शैली में कभी लयबद्धता तो कभी मुक्तछंद का प्रयोग भी किया गया है, जो संग्रह को एक नई दिशा देता है। शब्दों के चयन में कवि ने विशेष ध्यान दिया है, जिससे हर कविता अपने गहरे अर्थ के साथ पाठक के दिल तक पहुंचती है। एक-दो स्थानों पर वर्तनी की अशुद्धियां हैं जो खटकती हैं। कुछ कविताओं में ऊर्दू के शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है जो इन कविताओं को नए कलेवर देता है। 

इस तरह “रिश्ते” संग्रह की कविताओं में गहरी भावना और संवेदनाओं का प्रवाह है। यह जीवन के विभिन्न पहलुओं को कवियित्री के अनुभवों और गहरी सोच के साथ उजागर करता है। यह संग्रह न केवल काव्यात्मक आनंद प्रदान करता है, बल्कि पाठकों को अपने रिश्तों और समाज के प्रति संवेदनशील और जागरूक भी बनाता है। कविताओं में सादगी और गहराई के बीच का संतुलन इसे एक उल्लेखनीय काव्य संग्रह बनाता है। यह संग्रह उन सभी पाठकों के लिए आदर्श है जो जीवन और जगत के साथ मनुष्य के स्थूल और सूक्ष्म रिश्तों के मौलिक और गहरे पहलुओं को समझना चाहते हैं और जीवन में उनके महत्व को अनुभव करना चाहते हैं।

  • लेखक परिचय :
वर्तमान में सहायक निदेशक (रा.भा.) के पद पर ग्रामीण विकास विभाग, नई दिल्ली में कार्यरत । इसके पूर्व पांच वर्षों (2016-2020) तक भारतीय उच्चायोग, लंदन में अताशे (हिंदी एवं संस्कृति) के पद पर कार्यरत रहे।
भारत सरकार में राजभाषा नीति के कार्यान्वयन और कार्यालयी अनुवाद के अलावा हिंदी साहित्य सहित कई विषयों यथा इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि के कुल 14 पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद। एक अनूदित पुस्तक संक्रांतिकालीन यूरोप (Europe in Transition) भारत के कई विश्वविद्यालयों में विश्व इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल है। अनुवाद के अलावा गगनांचल, आधुनिक साहित्य यूके संस्करण, पुरवाई, आवास भारती, आदि कई पत्र -पत्रिकाओं में समय-समय पर साहित्यिक व समसामयिक विषयों पर आलेख प्रकाशित होते रहे हैं।
प्रवासी मन शीर्षक से ब्रिटेन के प्रवासी हिंदी रचनाकारों की कहानियों, कविताओं, ग़ज़लों और निबंधों के लगभग 400 पृष्ठों के संकलन का संपादन, जोकि भावना प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह पुस्तक श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्य़ालय, तिरुपति के हिंदी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »