
ग़ज़ल – 1
चल रहा आज भी वो खेल पुराने वाला,
हर मुलाज़िम ही निकलता है खज़ाने वाला।
हैसियत देख के ही दोस्त बनाने वाला,
चढ़ गया उस पे भी अब रंग ज़माने वाला।
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाने वाला,
कहते हैं लोग, हुनर है ये सियाने वाला।
भूल जाता है भले बात हो ताने वाला,
जानता है वो हुनर जाल बिछाने वाला।
साँप ही साँप है अब खेल में सीढ़ी गायब,
ये नया दौर है बस डसने डसाने वाला।
जब वो माना ही नहीं लाख मनाने पर भी,
रूठ कर बैठ गया ख़ुद ही मनाने वाला।
तीरछी नज़रों से चलते हैं कभी होठों से,
तीर ऐसे कि नहीं कोई बचाने वाला।
उसके मन में जो भी आता है, किये जाता है,
क्या सही, क्या है गलत कौन बताने वाला।
ग़ज़ल – 2
घड़ी ये बीत जानी है,
सफ़र में ज़िंदगानी है।
लगाओ दिल्लगी से दिल,
महब्बत अब कहानी है।
अजब फितरत है दुनिया की,
हकीकत बस छुपानी है।
समर्पण देख दरिया का,
समंदर पानी पानी है।
न काबू में ज़बाँ जिन की,
उन्हें तो मुँह की खानी है।
ज़रूरत क्या गुलाबों की,
उसे जो रात रानी है।
शजर यूँ ही नहीं महका,
जड़ो ने ख़ाक छानी है।
बचेगी मौत भी कब तक,
यहाँ हर चीज फ़ानी है।
ग़ज़ल – 3
कह के चराग़ रोज़ जलाया गया हमें,
खिदमत में तीरगी की लगाया गया हमें।
यूँ कहने को तो अपना बताया गया हमें
पर बाहरी थे हम ये जताया गया हमें।
पहले तो दोस्तों से मिलाया गया हमें,
फ़िर साजिशों के दम पे हटाया गया हमें।
एहसान किसका मानते हम और क्यों भला,
मतलब से महफ़िलों में बुलाया गया हमें।
डरने लगी हवा भी नयी रोशनी से अब,
जैसे ही हम जले कि बुझाया गया हमें।
थे ही नहीं कतार में हम दूर दूर तक,
कह के मग़र रक़ीब बुलाया गया हमें।
हाथों में रख के झट से खिलौने को छीन कर,
ख़ुद हँस के बार बार रुलाया गया हमें।
ग़ज़ल – 4
जो कहते हैं ख़सारा कर रहे हैं
समझ लो कुछ इशारा कर रहे हैं
फ़साने को गवारा कर रहे हैं
हकीकत से किनारा कर रहे हैं
जो चाहेंगे निकालेंगे वो मतलब
कुछ ऐसा इस्ति’आरा कर रहे हैं
कभी दो जिस्म इक जाँ रहने वाले
बस इक पल में किनारा कर रहे हैं
नहीं था चाँद जो किस्मत में अपनी
मुक़द्दर को सितारा कर रहे हैं
गले मिलने को तरसे बाप के हम
नसीहत पर गुज़ारा कर रहे हैं
– आशुतोष कुमार