फ़िबोनाची प्रेम

डॉ आरती ‘लोकेश’

“ये सुनंदा ने दुबई की फ्लाइट क्यों ली? …जबकि उसे मालूम था कि हम आबुधाबी रहते हैं। … इतनी दूर जाना आसान है क्या?” अश्विन झल्लाते हुए बोला और कार में उलटे हाथ की ओर चालक की सीट पर बैठ गया।

रंजिनी ने स्थितप्रज्ञ भाव से अश्विन को देखा और दाईं ओर का दरवाज़ा खोल बाजू वाली सीट पर बैठ गई। न अश्विन ने कुछ कहा, न उसने कुछ सुना ही हो जैसे। कार आबुधाबी के यूएई स्पेस सैंटर की पार्किंग से निकल तीन मिनट के अंदर शेख ज़ायद महामार्ग पर हवा से बातें करने लगी। यहाँ अश्विन 140 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से गाड़ी चलाकर दुबई हवाईअड्डे डेढ़ घंटे में पहुँच सकता था।

“बोलो भी!” अश्विन ने स्टीयरिंग व्हील को कसकर थामे हुए कहा।

“अश्विन! तुम्हें याद है जब हम तीनों बैंगलोर ‘इसरो’ में काम करते थे?” रंजिनी रॉकेट-सी उड़कर जैसे बैंगलोर पहुँच गई थी।

“हाँ, तब तुम मेरी असिस्टेंट थीं और सुनंदा मेरी बॉस।” कहते हुए हँसा अश्विन। जीवन की गहमागहमी विस्मृत को औचक समक्ष पटक देती है।  

रंजिनी निर्विकार आगे बोली, “तुम तब सौरमंडल में पृथ्वी की फ़िबोनाची गति की गणना कर रहे थे।” सहमति के लिए उसने अश्विन को देखा।   

“सुनंदा बहुत बहस करती थी फ़िबोनाची सिद्धान्त पर, …कि यह हमारे ऋषि पिंगलाचार्य का दिया हुआ गणित है, … उनके शिष्यों ने अरब दुनिया में पहुँचाया आदि -आदि। जबकि सब जानते हैं कि इसका पहली बार प्रकाशन ही इटली के गणितज्ञ ने बारहवीं सदी में किया और पिंगलाचार्य का समय ईसा-पूर्व का है। … पर वह …मानती ही नहीं थी। बहुत अड़ियल थी।” प्रदीप्त नेत्र हो गया था अश्विन। तब क्रोध-साधन रही स्मृतियाँ अब विनोद-साध्य हो गईं थीं।

“कितनी ही जानकारियाँ हमारे ऋषि-मुनि हमें दे गए थे सदियों पहले ही, जिन्हें हम न उपयोग कर पाए, न सुरक्षित ही रख पाए और अपनी उदासीनता वश उनपर अपना वंशाधिकार भी खो बैठे। फिर पश्चिम वाले उन्हीं नियमों को सिद्धान्त और प्रमेय बना-बनाकर हमें ही लौटा रहे हैं।” रंजिनी सुस्थिर बोलती रही।

“तुम क्यों सुनंदा बन रही हो? और इन बातों का उसके दुबई लैंड होने से क्या संबंध?” अश्विन के स्वर में हल्का तंज भर आया था।

“अश्विन, तुम इस बात पर शोध कर रहे थे न कि अरबों-खरबों वर्षों में फ़िबोनाची गति सिद्धांत के आधार पर धरती सूर्य से बहुत दूर निकल जाएगी और एक समय ऐसा आएगा जब वह सौरमंडल से बाहर निकल जाएगी।” रंजिनी उसके भावों से निस्पृह बनी अपनी कहती रही।

“हाँ यार! अगर निन्यानवे के फेर में ‘इसरो’ छोड़कर यहाँ न आया होता तो वह शोध आज पूरा होता। उसकी बड़ी रोयल्टी जीम रहा होता।” अश्विन का पश्चात्ताप छलका पड़ रहा था। रंजिनी आज उसे भावनाओं के रोलर-कोस्टर पर ले चली थी।

“तो समझो, वह सुनंदा ने पूरा कर लिया है।” एक विमुक्त धारा में बहती रंजिनी इस वाक्य के माध्यम से जैसे पुन: मुख्य प्रवाहिनी में आ मिली।

“क्या? क्या कह रही हो तुम रंजिनी? ‘नासा’ में सुनंदा मेरी इसी थ्योरी पर अनुसंधान कर रही थी? … और … और तुमने मुझे बताया तक नहीं कभी!” दो आग्नेय नेत्रों ने अपनी दिशा बदली और सड़क से हटकर रंजिनी को अपना गंतव्य बनाया। रंजिनी जाने किस अदह पदार्थ की चादर ओढ़े बैठी थी कि कोई आँच उसे छू न पा रही थी। न व्यंग्य बाण ही भेद पा रहे थे।

“नासा का तो वह ही जाने। यह सिद्धांत उसने अपने जीवन में उतार कर सत्यापित कर दिखाया है।” रंजिनी पुन: निर्विकार भाव से बोली।

“क्या मतलब?” अश्विन-सा बड़ा वैज्ञानिक, ब्रह्मांड और अंतरिक्ष की गुत्थियों को कुशलता से हल करने वाला, भीतरनिहित संवेदनाओं की गुत्थियों को सुलझाने में सर्वथा निष्फल रहा था।

“इतने मासूम तो तुम नहीं होंगे अश्विन! ऐसा मेरा मानना है। क्या तुम यह नहीं जानते कि हमारी शादी के समय सुनंदा ने ‘नासा’ के प्रपोज़ल को अकस्मात् कैसे स्वीकार कर लिया, जिसे वह सालभर से नकारती आ रही थी? वह पिछले दस सालों में एक बार भी अपनी बहन और सबसे प्रिय सहेली यानी मुझसे मिलने नहीं आई। जबकि हर बार वह एमिरेट्स की फ़्लाइट ही लेती थी और दुबई हॉल्ट कर के ही ताऊजी के पास जाती थी। तुम्हारे मन में यह सवाल कभी नहीं कौंधा?” रंजिनी ने एक तिरछी नज़र अश्विन पर डाली। अश्विन के संज्ञान उसकी उपलब्धियों की खुली किताब न थे जिन्हें वह पढ़ लेती। बहरूपियों से अटे संसार में पुरुष बड़ा कलाकार है। कोई मर्म न पाए, ऐसा कठोर मुखौटा धारण किए रहता है।   

“अच्छा! ऐसा हुआ क्या? पर ऐसा सब क्यों किया सुनंदा ने?” अश्विन के स्वर की तल्खी सहसा द्रवित हो चली थी।

रंजिनी के अबूझ रहस्यों को शब्द-रूप में बूझना सरल न था। अश्विन ने नर्म दृष्टि से रंजिनी को ताका। रंजिनी तब तक अपनी सीट को पीछे की ओर तिरछा ढकेल कर आँख मूँद रही थी।

अश्विन भरमाया था कि रंजिनी के पास इसका उत्तर कदाचित ही हो। न उसे उत्तर की प्रतीक्षा थी, न ही आकांक्षा। तथापि कुछ था मधुर-मनोहर; जो था तो अकथ-अश्रुत, पर उसकी टंकार उनके हृदय में समान आंदोलन की आवृत्ति करती थी। मधुरिम-मद्धम ध्वनियाँ भी सदैव कर्णप्रिय नहीं हुआ करतीं। 

खगोलीय पिंडों की स्थितीय गणना के लिए ‘इसरो’ ने अश्विन को नियुक्त किया था। इसी परियोजना पर सुनंदा और रंजिनी, दोनों बहनें पहले से ही बुनियादी खोज कर एक भौतिकीय संरचना तैयार कर चुकी थीं। सुनंदा खगोलशास्त्र और अंतरिक्षविज्ञान की प्रकांड विदुषी मानी जाती थी और रंजिनी एक समुन्नत शोधार्थी थी। अश्विन पर सुनंदा की विद्वता, नवीन परिकल्पना शक्ति और उत्कट जुनून का गहरा प्रभाव पड़ा था। असीम-अमूर्त संभावनाओं को मूर्त रूपरेखा प्रदान करने की योग्यता में सुनंदा का कोई सानी नहीं था। अश्विन सुनंदा की बहुत कद्र करता फिर भी वे दोनों किसी-न-किसी विषय पर शास्त्रार्थ में उलझ ही जाते थे।

सुनंदा दृढ़ विचारों वाली लड़की थी। रंजिनी ज्ञानी होते हुए भी वाद-विवाद से कतराती थी। सुनंदा से भिन्न विचार-सिम्त होने पर भी वह कभी टकराव की अवस्था में न जाती थी, न ही बात-बात पर अ‍ड़ती थी। अश्विन और सुनंदा को बहस करते छोड़कर वह कैंटीन में जा बैठती थी। झख मारकर अश्विन सुनंदा के आगे हाथ जोड़ता और कैंटीन का रुख करता। रंजिनी सदैव आवेश त्याग शांत रहकर समस्या हल करने के लिए समझाती। सीधी-सादी, सरल-समझदार रंजिनी उसे भाने लगी थी। अब उसका समय रंजिनी के आस-पास अधिक कटता था।

सौरमंडलीय पिंडों के फ़िबोनाची प्रभाव पर तीनों मिलकर अध्ययन कर रहे थे। इसी बीच सुनंदा ने इस अनुसंधान को पूरा करने के लिए ‘नासा’ के अतुल्य प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। सुनंदा के व्यवहार में एक परिवर्तन कहें या कि परिपक्वता; जो भी था वह आ गया था। वह अश्विन से प्रतिवाद भी कम करती थी। तनावयुक्त स्थिति की पूरी संभावना होते हुए भी वह ऐसी शांत रहती जैसे गड्ढे में ठहरा हुआ ज्वार का पानी। अश्विन के समक्ष रेशमी डोरों की उपस्थिति को वह महसूस करती। उसके व्यक्तित्व की तहें और उर की परतें उसके विवेक अनुसार अनावृत न हुईं। अश्विन सुनंदा में बदलाव को लक्ष्य कर भी प्रभावशून्य रहता।

“सुनंदा! यह तुम्हारे चेहरे पर मुँहासे निकल आए हैं क्या? कुछ इलाज कराओ।” एक बार गौर से देखते पकड़े जाने पर उसके मुँह से यकायक निकल गया था। स्वयं पर क्रुद्ध हुआ सुनंदा जाने क्या सोचती होगी। इस तरह निजी सवाल की अपेक्षा न की होगी उसने। झेंप से भर रक्षार्थ दाएँ-बाएँ ताकने लगा।

“इनका इलाज प्रेम है। डॉक्टर ने बताया है।” आशा के विपरीत सुनंदा ने ठिठोली की।

प्रत्युत्तर ने शब्दों की असफल तलाश की। निस्तेज मुस्कुराहट से समयानुकूल सहस्रों प्रश्नों के सम्मान की रक्षा में अश्विन सफल रहा था।

“और तुमने क्या प्रेम न करने की कसम खा रखी है?” रंजिनी के इस विनोद ने भले ही अश्विन की ग्लानि को ऋणात्मकता दी, पर सुनंदा का चेहरा दृढ़ हो गया। कुछ देर कठोर मुद्रा अपने काम में तल्लीन रहकर फिर लैब से निकल गई। रंजिनी और अश्विन अनजाने ही अपराधबोध में साझेदारी निभा बैठे थे।

जैसे-जैसे वे अंडकटाह पिंडों के क्रमिक घूर्णन सिद्धांतों के प्रभाव पर काम करते रहे, फ़िबोनाची संख्या के क्रमिक अनुपात में ही अश्विन और सुनंदा के मध्य संवादों की दूरी बढ़ती रही। कभी लगता था कि अश्विन के पांडित्य और महारत के आगे सुनंदा ने हथियार डाल दिए हैं। रंजिनी से अश्विन की शादी की बात घर में सुनंदा ने ही की। उनकी शादी से पहले ही उसे  ‘नासा’ ज्वाइन करने जाना पड़ा था।

रंजिनी इतनी विनीत-विनम्र न थी जितनी पहले हुआ करती थी। यह अश्विन को विवाहोपरांत ही मालूम हुआ। रंजिनी ने शादी की पहली रात ही गंगा माँ के समान अश्विन से वचन भरवा लिया कि जीवन में एक वर माँगेगी और अश्विन उसे बिना कारण पूछे पूरा करेगा।

उस रात अश्विन ने बहुत से वादे किए थे रंजिनी से कि वह कभी उसका दिल नहीं दु:खाएगा, कभी उससे अपशब्द न कहेगा, कभी उसके अधिकारों को अपने से कम न समझेगा, उस पर कभी शारीरिक या मानसिक हिंसा न करेगा आदि-आदि। जहाँ स्वेच्छा से दिए गए वचनों पर उसे अभिमान था वहीं माँगे गए वर से आंतक था। उसे राजा शांतनु की असहायता समय-समय पर स्मरण हो आती थी। समय गुज़रता गया, पिछले दस सालों में वह काफ़ी आश्वस्त हो गया कि रंजिनी कदाचित इस वचन को भुला भी बैठी हो।

शादी के साल बाद अश्विन को आबुधाबी के स्पेस सैंटर से बुलावा आया जहाँ उसे उपग्रहों के लौंच के सेटअप के लिए अस्थायी रूप से नियुक्त किया गया था। यह देश संयुक्त अरब अमीरात, शहर आबुधाबी और जगह उसे इतनी पसंद आई कि उसने स्थायी प्रस्ताव को मंज़ूर कर लिया। रंजिनी तब बहुत भड़की थी अश्विन पर। अश्विन को ज़रा भी अंदाज़ा न था कि उसके साथ घूमती-फिरती, हँसती-खेलती, बोलती-बतियाती रंजिनी ‘इसरो’ के अपने कैरियर, अपने रुतबे से इतना लगाव रखती होगी।

आठ लेन के महामार्ग पर दौड़ती कार के शीशे पर, कार की दुगुनी गति से मकान, मस्ज़िद, मॉल, उलटी दिशा में भाग रहे थे और उन्हीं के साथ रेस लगा रही थीं रंजिनी की बाल-स्मृतियाँ।

पिता के उहलोक बस जाने के बाद बेसहारा हुई माँ को ताऊजी ने अपने घर में आश्रय दिया। सुरत्कल छोड़कर माँ छ: बरस की रंजिनी के साथ ताऊजी के घर आ गईं। ताईजी तो सुनंदा को जन्म देते ही सिधार गईं थीं। जिस छोटे भाई को विजातीय लड़की से शादी करने पर उन्होंने घर से निकाल दिया था, उसकी विधवा को घर में पनाह दी और रिश्तों की मर्यादा पर तनिक भी आँच न आने दी। अगर आदमी जुबान का सच्चा और लँगोट का पक्का हो तो किसी भी परीक्षा से निकल सकता है। ताऊजी की यह कहावत उनके आचरण-सी ही पुख्ता थी। माँ हमेशा सिर पर पल्लू रखकर ताऊजी से ‘वीरजी’ कहकर ही बात किया करतीं और छोटी बहन का सा प्रेम पाकर निहाल रहतीं। रंजिनी को छ: महीने बड़ी बहन सुनंदा में अनन्य सखी मिल गई थी।

एक तेज़ हॉर्न बजा और रंजिनी की आँख खुल गई। किसी ने बिना इंडिकेटर दिए लेन बदली तो पीछे की गाड़ी ने उसे हॉर्न बजाकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। रंजिनी ने ‘कड़क’ एफ.एम. चला दिया और पुन: हेडरेस्ट पर सिर रखकर आँखें बंद कर लीं।

अश्विन समझ गया था कि रंजिनी की यह विशेष क्रिया कतिपय क्षोभयुक्त भाववाचक संज्ञाओं की द्योतक है। उसने चुपचाप ड्राइव करते रहने में ही भलाई समझी। सुनंदा इस बार भी एयरपोर्ट के पास स्थित होटल में छ:-सात घंटे बिताकर बैंगलोर की फ़्लाइट लेना चाहती थी लेकिन रंजिनी ने उसे कसम देकर डेढ़ दिन का हॉल्ट लेने पर मजबूर किया था।

डेढ़ घंटे का सफ़र बीत गया और सुनंदा पहले ही से कस्टम इत्यादि की सारी औपचारिकताएँ पूरी कर बाहर खड़ी थी। सुनंदा द्वारा तय की गई दूरी के अनुसार बहुत संभावना थी कि वह रंजिनी का इंतज़ार किए बिना एमिरेट्स एयरलाइंस द्वारा दिए गए होटल में चेक-इन कर ले। एमिरेट्स की कार उसके एक फ़ोन पर आ सकती थी। आज अपने ही सारे सिंद्धांतों को तोड़कर वह अपना सूटकेस लिए ‘वॉले’ पार्किंग में खड़ी मिली।

रंजिनी सुनंदा से लिपट गई। व्यवधानों को परे ढकेल रंजिनी के आसुँओं में सुनंदा ने स्वयं को धुला-धुला महसूस किया। अश्विन ने गाड़ी को वॉले शौफ़र के हवाले किया और सुनंदा के कंधे पर हाथ रखा। सुनंदा ने अपनी उँगलियों से अश्विन को छुआ और भावविभोर स्मित बिखेर दी। रंजिनी का विह्वल आनन मुस्कान से गहरा गया।  

तेरह घंटे का लम्बा सफ़र! कार की पिछली सीट पर सुनंदा रंजिनी के कंधे पर सिर रख सुप्तावास्था में रही पर रंजिनी का बचपन जाग्रतावस्था में अगली सीट पर जा बैठा। जिस घर पर सुनंदा का एकाधिकार हुआ करता था उस घर को, अपने कमरे को, अपने खिलौनों को; सबको उसने रंजिनी के साथ बाँटा। महात्माओं ने दान का जितना सुख बताया, सारा वह अपने कर्मों में एकत्र कर लेती। गणित की परीक्षा में अपने आगे बैठी रंजिनी के पास पेंसिल नदारद देखी तो तुरंत अपनी पेंसिल तोड़कर आधी उसे दे दी। रंजिनी की किताब खो जाती तो वह अपनी आधी फाड़कर उसे दे देती और अदल-बदलकर पढ़ाई हो जाती। अपने कपड़े, गहने, बस्ते, जूते, सब कुछ साझा कर के ही तो प्रफुल्लित रहती थी सुनंदा। ‘इसरो’ में नौकरी का आवेदन स्वयं भरा तो रंजिनी को भी साथ ही भरवा दिया। सुनंदा रंजिनी को छोटी बहन-सा स्नेह देती थी। रंजिनी भी जान छिड़कती थी। एक-दूसरे की पूरक थीं वे।    

रास्ते में खाना खाने के लिए भी सुनंदा ने मुश्किल से आँख खोलीं। परंतु घर पहुँचते-पहुँचते वह स्फूर्त अनुभव कर रही थी। बचपन में भी वह ऐसे ही रंजिनी के कंधे पर सिर रखकर अपनी थकान मिटाया करती थी। स्नेह का कोष सदा रंजिनी पर रिक्त किया पर मन का कभी नहीं।

“सुनंदा! ताऊजी के चले जाने के बाद भी तुम पहले जैसे ही बैंगलोर जाती हो, कोई खास वजह?” रंजिनी आज कोई राज़ राज़ न रहने देना चाहती थी।  

“पापा चले गए लेकिन चाची तो हैं। मैंने तो उनमें ही माँ को देखा।” सुनंदा की पलकों की कोरें गीली हो गईं।

“मगर मेरी याद कभी नहीं आई तुम्हें?” रंजिनी ने उलाहना दिया।

“याद उन्हें किया जाता है जो मन से दूर हों। समझी!” सुनंदा ने एक चपत लगाई रंजिनी को।

“तुमने तो मुझे जीवन और मन, सबसे ही दूर कर दिया था।” रंजिनी ने धीमे से उचारा।

“तुझे याद है रंजू! पापा मुझे घोंघा कहते थे। घोंघा, जो सर्पिकल शंख में रहता है।” अचानक जैसे कुछ याद आया सुनंदा को।

“तुम अपने खोल में जो छिपी रहती थीं। न किसी से बात करती थीं न मिलती थीं।” तपाक से बोली रंजिनी।   

“घोंघे के खोल की नलकी का व्यास भी फ़िबोनाची नियम के अनुसार आरंभिक स्थिति से बाहर की ओर बढ़ता है और अपना आकार बढ़ाता हुआ घोंघा, शंख की बड़ी होती नलियों से बाहर आ जाता है। कितना भी श्रम कर ले, कहलाता वह फिर भी घोंघा ही है।” सुनंदा खिसियानी हँसी हँसी।  

“ऐसा नहीं है सुनंदा! शंख उसका सुरक्षा कवच है जो उसके विसर्जित पदार्थ से बढ़ता जाता है। तुम आज नासा में हो जहाँ पहुँचना अच्छे-अच्छे वैज्ञानिकों का सपना होता है। अपने शैल से बाहर निकल दुनिया पर राज कर रही हो।” रंजिनी ने ढाढस बँधाया।

“हम्म! ठीक कहती है तू रंजू!” अपने ही शब्दों से असहमत सुनंदा शून्य में खो गईं। रंजिनी को अहसास हुआ कि कितना कुछ खोया है सुनंदा ने। यह कामयाबी का आवरण भ्रमित कर दूरी बढ़ाने की ढाल है। 

“तुम अब घर बसा लो सुनंदा! बहुत हुआ एकाकी जीवन।” रंजिनी सुनंदा का हाथ पकड़कर उसे बैडरूम में ले आई थी।

“मेरे नसीब में यह सुख नहीं है, पगली!” मैग्ज़ीन के पन्ने उलटते-पलटते हुए सुनंदा बोली।

“ऐसा क्यों कहती हो, सुनंदा? आज भी कितने ही मिल जाएँगे।” रंजिनी की आँखें नम थीं।

“हा-हा! एक को चाहा था, वह तो मिला नहीं।” मैग्ज़ीन एक तरफ़ सरका दी सुनंदा ने।

“तुम बेहद खूबसूरत और योग्य हो। अभी भी सैंकड़ों दीवाने होंगे तुम्हारे।” रंजिनी ने दाईं आँख दबाई।

“और सैंकड़ों मिल भी जाएँ तो क्या? रंजू। वह तो नहीं … … …!” कहते-कहते उसकी जिह्वा जैसे काठ की हो गई।  

‘मिल जाएगा वह ही।’ रंजिनी ने अनकहा सुना और बिनकहे ही कह दिया।  

‘तुझे क्या पता कि कितनी रातें उस चितचोर के सुखद स्पर्श की कल्पना में बीतीं। काश! एक बार वह निर्मोही भी स्वप्न में ही सही, स्पर्श कर लेता।’ सुनंदा का रोम-रोम यह कह रहा था, केवल एक उसकी जुबान इसे झुठला रही थी। उसने मन साझा न तब किया न अब। रंजिनी ने न उसका नाम पूछा ही, न सुनंदा ने बताया ही।

“उसका दुर्भाग्य ही रहा होगा जो विशुद्ध प्रेम उसे स्पर्श न कर सका।” रंजिनी ने प्रकट में कहा।

“धत्त पगली! वह बहुत भाग्यशाली है। उसे बहुत प्यारी जीवनसंगिनी मिली है।” सुनंदा ने अपार स्नेह भरकर रंजिनी को देखा।   

“तुमसे प्यारी नहीं हो सकती।” रंजिनी सस्नेह बोली।

“तू तो पगला गई है। चल सो जा। रात बहुत हो गई है।” सुनंदा ने इस चैप्टर को क्लोज़ करने का इरादा किया।   

“क्या बातचीत चल रही है बहनों में?” अश्विन अंदर आते ही वार्ता में शामिल हुआ।

“ये तुम्हारी पत्नी रंजिनी कुछ बौरा गई है। कुछ भी बक रही है। मेरी थकान का नशा इसे हुआ लगता है। खैर! ये छोड़ो। और बताओ, तुम्हारे फ़िबोनाची प्रेम का क्या हुआ? कहाँ तक पहुँची रिसर्च?” सुनंदा को चैन मिला कि अब विषय आसानी से बदल जाएगा।

“अब तो फ़िबोनाची का केंद्र है ये श्रीमती जी और इनके आदेश की पूर्ति। उसी की लहर में पिछली दो संख्याओं को जोड़कर आगे बढ़ रहा हूँ।” अश्विन ने हाथ जोड़े तो सुनंदा की याद में ‘इसरो’ के हाथ जोड़े अश्विन की छवि तैर गई। अंदर का सैलाब सारे बाँध तोड़ बैठा और आँखें छलछला आईं। अश्विन भौचक रह गया और सुनंदा को सँभालने लगा।

“अश्विन! तुमने मुझे एक वचन दिया था कि मैं एक वर माँगूँगी और तुम बिना कारण पूछे मेरी इच्छा की पूर्ति करोगे।”  

“बिल्कुल! यह जिन्न अपने आका के हर हुक्म की तामील करेगा।” अश्विन ने सलामी ठोंकी।

“नहीं! हुक्म नहीं! … वर जो दिया था उसका दान चाहिए।” रंजिनी का प्रेम विस्तार की यात्रा तय कर अपने सौरमंडल से निकल आज दूसरे तारकमंडल में पहुँच गया था, जहाँ उसे सुनंदा खुली किताब दिख रही थी।

“बोलो देवी जी! क्या चाहिए? कैसा वर दूँ?” भौंचक अश्विन बोला।  

“तुम सुनंदा के हो जाओ। उसकी झोली प्रेम से भर दो। उसके मन का सपना उसकी पलकों पर सजा दो। शपथ लो कि यह एक वर मुझे दोगे।”

फ़िबोनाची पर दो खोज करनेवालों को हतप्रभ छोड़कर फ़िबोनाची प्रेम को विस्तीर्ण करती रंजिनी कमरे से बाहर चली गई।  

*** *** ***

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »