प्रवासी लेखिका का फ़ेंग शुई

डॉ आरती ‘लोकेश’

अरुंधति घर के दरवाज़े पर पहुँची ही थी कि घनघनाती फ़ोन की घंटी बंद दरवाज़े के बाहर तक सुनाई पड़ रही थी। उसने अपनी फरयुक्त मोटी जैकेट की जेबें टटोलीं। फिर वह अपने बड़े झोले जैसे पर्स में चाबियाँ ढूँढने लगी। यहाँ टोरोंटो में उसे बेटे अश्लेष ने आते ही ‘माइकल कोर्स’ का बड़ा-सा बैग दिलवा दिया था। इसमें उसका सब सामान सँभले रहने की बजाय खो और जाता था। कहाँ वह जयपुर में स्थानीय दुकान से खरीदा हुआ छोटा और पतला-सा बटुआ रखती थी। उसमें रखना ही क्या होता था उसे? एक घर की चाबी और सौ-दो सौ रुपए। उसे वह बड़ी आसानी से अंटी में खोंस लेती या ब्लाऊज़ में छुपा लेती। बसों में, ऑटो में, रिक्शा में गृहस्थी का समान जुटाते या विद्यालय के चक्कर काटते कहीं गिरने या छिन जाने का कोई डर नहीं रहता था। कभी बिछुए आदि या दीवाली पर चाँदी का सिक्का खरीदने पर सर्राफ़े वाला एक ज़िप वाला बटुआ दे देता तो वह भी उसका पर्स बन जाता था।

लिफ़्ट से इक्कीस मंज़िल चढ़कर वह बुरी तरह हाँफ रही थी। इतना तो वह जयपुर में तीसरी मंज़िल की सीढ़ियाँ पार कर के भी न हाँफ़ती थी। फ़ोन की घंटी की आवाज़ आनी बंद हुई तो उसकी जान में जान आई। माइकल कोर्स की कारा से एक-एक कर सारा सामान स्वतंत्र कर फ़ेंग शुई पौधे के गमले की मुँडेर पर रख चाबी तलाशने लगी। घर के दरवाज़े पर यह असली पौधा उसी ने लगवाया था। नकली वस्तुएँ हों, प्राणी या व्यवहार, उसे कभी पसंद नहीं थे। कुछ चीजें किनारे पर रखी रहीं तो कुछ अपना मुँह छिपाती मिट्टी में लुढ़क गईं । पर्स में सबसे नीचे चाबी मिली। उसे खुद पर रोष आया कि चाबी में कोई छल्ला या धागा क्यों न बाँध लिया। चाबी निकालकर झटपट दरवाज़ा खोला। घंटी फिर दनदना कर बजने लगे थी।

यह कौन बेचैन आत्मा है जो फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहा है? तनिक भी सब्र नहीं, वह झल्ला उठी। एक नज़र गमले पर डाली, वह फ़ेंग शुई अचानक क्रिसमस ट्री जैसा लगने लगा, जिसके तले में खूब सारे उपहार रखे हों। उसने उस सारे सामान को जल्दी-जल्दी पर्स में भरना शुरु किया। पिछली बार इमारत में मुख्य प्रवेश द्वार को खोलने वाला रेडियो फ़्रीक्वेंसी कार्ड गमले में ही छूट गया था। अत: उसने फिर पलटकर देखा कि कुछ छूटा तो नहीं है।

फ़ोन की घंटी चीख-चीखकर पुकार रही थी। उसने अपने कदमों को तेज़ी से बढ़ाया और तत्परता से फ़ोन का रिसीवर उठाया। टूँ-टूँ – टूँ-टूँ कर निश्चित अंतराल पर धुन बजने लगी जिसके अव्यक्त शब्द ध्वनित कर रहे थे कि कॉल उधर से काटी जा चुकी है। वह वहीं धम्म से बैठ गई। जाने कौन होगा? किसने फ़ोन किया होगा? वह सोच में पड़ गई। लगा जैसे फ़ोन उसी के लिए हो। शायद निवेद्या का…, पर उसकी तो आज परीक्षा है। वह फ़ोन नहीं करेगी। अश्लेष अभी ऑफ़िस से निकला नहीं होगा। क्या पता वह ही…, मन में कुछ बुरे विचारों ने आसन जमाना शुरु किया। उसने मोबाइल निकालकर देखा कि कहीं अश्लेष की मिस्ड कॉल हो। किसी रिश्तेदार का…, अरे नहीं! भारत में तो रात हो रही है। उसकी आँखें देर तक फ़ोन के उस ओर के अनचीह्ने शख्स को पहचानने का असफल प्रयत्न करती रहीं। मन ने एक विचार दिया कि किसी प्रकाशक का…, पर अब कोई प्रकाशक उसे फ़ोन करता ही कहाँ है।     ?  

आज वह जब दीन-हीन शरणार्थियों को कम्प्यूटर प्रयोग की आरम्भिक शिक्षा दे रही थी, तब भी उसका मोबाइल लगातार बज-बजकर झनझनाए दे रहा था। कभी नोकिया, फिर सैमसंग की आदी रही अरुंधति को ‘आईफ़ोन’ पर कॉल उठाना ही नहीं आ रहा था। एक बार कोशिश करने के बाद मोबाइल बजता ही छोड़ दिया था। वह शरणार्थी युवकों के लिए हास्य-मनोरंजन का साधन नहीं बनना चाहती थी। वह जो पढ़ा रही थी उसका असर भी उन नवयुवकों पर कम हो जाता। असर से उम्र का डर उसे याद आया। क्या वह इतनी बुज़ुर्ग या मूढ़मगज़ हो चली है कि एक नए उपकरण को प्रयोग न कर पा रही है? सोचने लगी अरुंधति।

अपने-अपने देशों से जान बचाकर आए ये युवक-युवतियाँ आँखों में सपने, दिल में उमंगें और मन में जीवन का विश्वास लेकर आते हैं। किन-किन मजबूरियों से दो-चार होकर ये देश छोड़, परदेश में सिर छुपाए पड़े हुए हैं। वह रोज ही किसी की व्यथा उसके चेहरे पर पढ़ती और कई कथाएँ उनके कदमों की आहट में। उनकी आँखें, केश, कपड़े, जूते, तौर-तरीके, उठना-बैठना, खाना-पीना; सबकुछ ही तो उनके अतीत की मिट्टी की जड़ों को नई मिट्टी में स्थान बनाने की मशक्कत-कवायद को मुखरित करता था। संगीत और भाव कब भाषा के मोहताज हुए हैं। वार्तालाप का माध्यम कोई एक आम जनभाषा का अभाव उन्हें कुछ सिखाने के लिए था परंतु आत्मीयता के लिए कदापि नहीं। वह उनकी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी समझने लगी थी और अपनी अंग्रेज़ी को कंगूरे व बेले-बूटेदार छज्जे से उतार उनकी ज़मीन के स्तर तक नीचे ले आने के लिए भी उसने खासा प्रयास इन दस दिनों में किया था।

‘आप्रवासी’ शब्द का सही अर्थ उसने इन प्रवासी जन-समुदायों को जानकार ही जाना। इनके साथ जुड़ा हुआ ‘शरणार्थी’ शब्द इन्हें दो देशों का होते हुए भी किसी एक का भी नहीं रहने देगा। ‘निवासी’ शब्द का परित्याग कर, पीढ़ियों तक ये ‘प्रवासी’ की श्रेणी से बाहर ही बैठे रहेंगे और दूतावास के भी। कई बार मन में आता था कि इन शरणार्थियों के साथ मिले अनुभवों को जोड़कर एक कहानी में ढाल ले। फिर याद आया कि अब किसे आवश्यकता पड़ी है उसकी लिखी कहानी की? …किसे विश्वास है उसकी कलम पर? किसी और की क्या कहो… क्या उसे विश्वास बचा है स्वयं की लेखनी पर? पिछले अनुभवों को याद कर अब उसकी कलम का मुख भी नीम चढ़े करेले-सा कड़वा हो गया था।

आज दरवाज़े से फ़ोन तक आते-आते कहानी के सैंकड़ों कथानक उसकी कल्पना से निकलकर आँखों के सामने टहलने लगे थे। घर के दरवाज़े पर सजा यह फ़ेंग शुई तो उसे हर दस्तक पर एक कहानी देकर जाता था। अपने जीवन के बिखरे टुकड़ों को समेट एक पात्र में बटोरने की प्रेरणा भी यह फ़ेंग शुई ही तो देता था। ‘हवा’ और ‘पानी’ का पर्याय यह चीनी पौधा उसे जीवन की ऊर्जा देता रहता है। मिट्टी बदलती है और नाम हवा-पानी के बदलाव का लगता है। मिट्टी पर अमिट रेखाएँ खिंची हैं जबकि हवा और पानी को कौन रेखाओं में बाँट और सीमाओं में बाँध सका है। हवा-पानी सबके हैं पर मिट्टी सबको नसीब नहीं होती। मिट्टी बदलते ही पहचान बदलती है, नाम बदलता है, गुण बदलते हैं, अवगुण भी बदलते हैं।

जब वह फेंग शुई को लाई थी तो वह भी कुछ दिन तो मुरझाया-सा रहा था। फिर वह नन्हा पादप अरुंधति की चाह से ताल-मेल बिठाना सीख गया था या फिर कहो कि अरुंधति उसकी मूक भाषा समझने लगी थी। आज उसकी चिरपरिचित आकांक्षाएँ उसके आगे-आगे चल रही थीं और वह किसी सम्मोहन की डोर से बँधी उनके पीछे-पीछे। अपने सूटकेस में से अपनी डायरी निकाल ही लाई और कहानी लिखने लगी। ठंड से हाथ जम रहे थे या कि इतने समय बाद कलम पकड़ने के भय से…, वह कुछ घड़ी शून्य में ताकती रही। शब्दों के बवंडर से संगत वर्णों को पकड़ पाना भुस में सुई खोजने जैसा मालूम होता था। कुछ देर में मानसिक भूचाल थमा तो जैसे ही कलम कागज़ के संसर्ग में आई, पन्नों पर ऐसे फिसलने लगी जैसे तंदूर से निकले कुलचे पर नवनीत की डली।

‘कोरोना’ में पति नीरोत्तम के यूँ अचानक चले जाने के बाद से उसका लेखन लगभग समाप्त हो गया था। वह अड़तालीस की उम्र में साठ जैसी अक्षम और निस्सहाय महसूस करने लगी थी। कुछ कमी थी जो खटकती रहती थी। जब से अश्लेष के ज़ोर देने पर टोरोंटो आई है, लेखन की इच्छा कई बार प्रेतात्मा की तरह जकड़ लेती है। शायद शीश पर धरी उत्तरदातित्व की हिमशिला पिघलकर बही है तो हल्के हुए मन में भावों की गर्माहट भरी तरंगें अधिक ऊपर उठ आई हैं।  

“माँ! कब से यहाँ बैठी हो? लगता है वापिस आकर चाय भी नहीं पी आपने तो?” अश्लेष की आवाज़ सुनकर उसकी कलम को ऐसे ही ब्रेक लग गया जैसे हिमशैल पाकर जलपोत को।  

“अरे! तू कब आया? बेटा! मुझे तो पता ही नहीं लगा। तूने तो कपड़े भी बदल लिए?” अरुंधति हैरान थी कि अश्लेष ने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला, अंदर कमरे तक चला गया और उसे पता तक नहीं लगा।

“अभी ही! आप बहुत समय बाद लिख रही थीं… पापा के जाने के बाद शायद पहली बार…। सही है न? …आपको लिखने का कैसा जुनून होता था। आप तो रात-रात भर जागकर लिखा करती थीं। इतने दिनों बाद आज आपको लिखते देखकर बड़ा सुकून लगा तो आने के बाद कुछ देर मैं अपने कमरे में ही रहा।” अश्लेष डायरी पर निगाह उछालते हुए बोला।

“अब वह ताकत कहाँ बची है। …चाय बना लाती हूँ, साथ में पीयेंगे।” कहते हुए अरुंधति उठने लगी। अपने ही मुँह से निकले ‘ताकत’ शब्द पर गौर करने लगी।

“बैठो माँ! तुम अपनी कहानी पूरी करो। मैं कॉफ़ी बना लाता हूँ अगर तुम मेरे हाथ की पीनी चाहो तो।” अश्लेष आँखें चौड़ाकर उलाहने भरे स्वर में बोला।

“चल! आज कॉफ़ी ही सही।” अश्लेष का मनुहार उसे प्यारा लगा।

फिर जैसे कुछ याद आया और बोली, “अश्लेष बेटा! इस फ़ोन पर बार-बार घंटी बज रही थी जब मैं घर में घुसी। कॉल लॉग मैं चला नहीं पाई थी। देख लेना किसका ज़रूरी फ़ोन था। और आज तो मेरे मोबाइल पर भी किसी का दो-तीन बार फ़ोन आया।” कुछ घड़ी के विराम के पश्चात कह ही गई, “… तू मेरी सिम मेरे दुबई वाले सैमसंग में ही डाल दे। वही मेरे हाथ लगा हुआ है।”

अरुंधति जानती थी कि उसका यह आग्रह अश्लेष को बिल्कुल पसंद न आएगा। दुबई में रहते हुए भी वह तब तक नया मोबाइल या लैपटॉप नहीं लेती थी जब तक पुराना वाला बिल्कुल ही मरणासन्न न हो जाए। तब भी नीरोत्तम से कहती कि इसे रिपेयर करा लेते हैं।

“इसे दुबई की मैट्रो लाइन पर रख आओ।” वे हँसकर कहते।

“कूड़ेदान भी इसे रिजेक्ट कर देगा मम्मी!” निवेद्या कहती। 

“तू भी तो अपना मोबाइल बदलने को कह रही थी। मैं तेरा वाला ले लेती हूँ, तू नया ले ले।” वह कहती और निवेद्या का फ़ोन उसका हो जाता।

अपने बच्चों के लिए माँ दधीचि भी होती है और कर्ण भी, झाँसी की रानी भी और पद्मावती भी, नदी भी और पुल भी, यहाँ तक कि कुशन भी और पंचिंग बैग भी।

“माँ, दुनिया आईफ़ोन के पीछे पागल है और तुम …।” अश्लेष ने वाक्य अधूरा छोड़ उसका फ़ोन अपने हाथ में उठा लिया।

“हम औरतों की दुनिया बाकी दुनिया से मेल कहाँ खाती है बेटा! किसी अन्य ग्रह-सी अलग ही हुआ करती है हमारी परिक्रमा, दिन-रात, …और हम सभी अपने-अपने सूर्य भी खुद ही गढ़ती हैं। …” गहरी निश्वास के साथ अरुंधति कह गई।   

“माँ, किसी बुद्धप्रकाश जी का फ़ोन आया था मोबाइल पर… जो अनआंसर्ड गया है आपकी ओर से।” फ़ोन पर छूटी हुए कॉल का इतिहास जाँचता हुआ अश्लेष बोला।

“ओह! बुद्ध प्रकाश! आज उन्हें मेरी याद कैसे आ गई?” कुछ शब्द बाहर और कुछ अंदर ही दोहराए अरुंधति ने।

“कौन हैं ये बुद्ध प्रकाश?” पूछता हुआ अश्लेष फ़ोन लेकर भीतर कमरे में चला गया। उसे स्वयं अपना प्रश्न अटपटा लगा कि जाने माँ इसका उत्तर देना भी चाहें अथवा न चाहें। उन्हें यथोचित निजी स्थान मिलना ही चाहिए।

रसोई से कप में कॉफ़ी फेंटे जाने की आवाज़ आने लगी। कप में घूमती हर चम्मच के साथ अरुंधति को याद आने लगे अपनी रचनाओं के वे सभी शीर्षक जो बुद्ध प्रकाश जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘लेखिका जगत’ में छपा करते थे। अकसर प्रवासी कॉलम के लिए बुद्ध प्रकाश जी उससे विषय देकर लेख लिखवाते रहते थे। वह सहर्ष लिख देती और आकर्षक शीर्षक के साथ रुचिकर सामग्री के कारण वे खूब पसंद भी किए जाते थे।

दो वर्ष पहले तक वह दुबई में रहती थी। पूरे पाँच वर्ष, बल्कि कुछ अधिक ही दुबई में हँसी-खुशी बिताए थे। नीरोत्तम को तो और भी छ: वर्ष पूर्व दुबई में नौकरी मिली थी। तब वह अश्लेष की पढ़ाई के कारण पति के साथ विदेश न गई। नीरोत्तम ने बहुत समझाया कि दुबई, शारजाह समेत सभी अमीरातों में सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम के भारतीय स्कूल हैं और बहुत अच्छी पढ़ाई होती है इनमें, पर उसने एक न सुनी। बारहवीं पास कर अश्लेष दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई करने चला गया। तब नीरोत्तम ने उसे निवेद्या को लेकर दुबई आने पर मजबूर कर दिया था। निवेद्या ने जब दुबई में पढ़ाई शुरु की और उसने यहाँ के स्कूलों को समझा तब उसे पिछले पाँच सालों के विछोह पर बड़ा पछतावा हुआ। ये पाँच वर्ष उसे चिड़िया के चुगे खेत से प्रतीत होने लगे और वह स्वयं कागभगोड़ा बनी खड़ी रह गई।

जयपुर में प्रशासन के विद्यालय में मनोविज्ञान अध्यापिका के पद पर पंद्रह वर्ष का अनुभव अरुंधति को था। दुबई में नौकरी का उसने कोई प्रयास नहीं किया था। वह निवेद्या की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती थी और बीच-बीच में उसे अश्लेष के पास भी जाना पड़ ही जाता था। उसे हरियाली से खतरनाक एलर्जी थी तो जब भी एलर्जी बढ़ जाती वह देखभाल करने कुछ दिन दिल्ली चली जाती थी। नीरोत्तम और निवेद्या एक-दूसरे का ख्याल रख लेते।

दुबई प्रवास के उन पाँच सालों में अपनी बरसों की तमन्ना पूरी करते हुए जैसे ही अरुंधति को अवकाश मिलता, वह कहानी या कविता में अपने मन के भाव पिरो देती। उसकी पहली ही कहानी ‘परजाई’ ने खूब वाह-वाही बटोरी। प्रकाशक ने कहानी में उसके नाम के साथ बड़ा-बड़ा लिखा था ‘प्रवासी लेखिका’। बुद्ध प्रकाश जी को जब पता चला इस ‘प्रवासी लेखिका’ के बारे में तो तुरंत संपर्क साधकर लेख का निवेदन किया। राजस्थान के संस्कृति मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही ‘लेखिका जगत’ पत्रिका में उस लेख के लिए उन्होंने मानदेय 1500 रुपए देने को कहा तो अरुंधति बहुत खुश हुई। नीरोत्तम ने अरुंधति को वह बैंक चेक लेने से रोक दिया। उसका कहना था- ‘तुम्हें पैसों की कोई कमी नहीं है। आजकल पत्रिकाओं का खर्च निकालना मुश्किल ही होता है। पत्रिका पर ज़ोर कम पड़ेगा तो वह लम्बे समय तक चलती रहेगी।’

अरुंधति को मानदेय छोड़ने का दु:ख तो हुआ था किंतु विचार और तर्क के आगे उसे झुकना पड़ा था। पत्रिका के चलते रहने में ही लेखकों का भी भला है। अपनी रचना को प्रकाशित देखकर एक लेखक को ऐसा ही आह्लाद मिलता है जैसे अपने बालक की बुद्धिमता देखकर। जब तक वह दुबई में रही, पत्रिका के हर मासिक अंक में उसकी कोई न कोई रचना अवश्य छपती। पाँच साल में उसने कभी मानदेय न लिया, न उसे देने का किसी ने फिर प्रयास ही किया। एक बार के बाद ही उस परिप्रेक्ष्य में पूर्ण विराम लग गया था।

कोरोनाकाल का नामकरण और विस्तार अभी हुआ ही था कि नीरोत्तम उसकी चपेट में आ गया। उसमें रोग के सभी घातक लक्षण उपस्थित होने के कारण उसे सरकारी अस्पताल में भरती करवाना पड़ा। वैश्विक स्तर की आधुनिक सुविधाएँ तथा अद्यतन उपचार बड़े-बड़े देशों में भी विफल हो रहे थे। सब जगह बस परीक्षण ही हो रहे थे, परिणाम कुछ नहीं। कोई ठोस इलाज या दवा अभी इजाद नहीं हुई थी। तिसपर ये महामारी ऐसी कि रोगी से मिलना क्या, देखना भी संभव न होता था। रोगी अलग तड़प रहा होता और घरवाले अलग। दुबई के सरकारी अस्पताल में बड़े नामी चिकित्सक होते हुए भी, बहुतेरे प्रयत्नों के बाद भी, नीरोत्तम कोरोना की भेंट चढ़ गया। डॉक्टरों के सारे ग्रंथ, सारे उपकरण, सारे प्रयोग,  सारी विद्या उस दिन नाकाम हो गई थी।

अरुंधति का तो संसार ही उजड़ गया। वह जड़-सी हो गई। कैसे स्वयं को सांत्वना दे और कैसे निवेद्या को सँभाले। बाढ़ से उमगी नदी पर बने कच्चे पुल-सी डाँवाडोल स्थिति में थी। तथापि उसे केदारनाथ की चट्टान सम भूमिका निभानी थी, क्षणिक जल-प्लावन हो या वेगवती दीर्घकालिक बाढ़ का प्रवाह, उसे ही आस्था को बचाए रखना था। उधर अश्लेष का रो-रोकर बुरा हाल था। वह भी जयपुर में अकेला इस दु:ख को वहन कर रहा था। अश्लेष अपनी इंजीनियरी पूरी कर, अब परास्नातक के लिए कनाडा जाने के आवेदन-पत्र भर रहा था। निवेद्या भी बारहवीं कक्षा की परीक्षाएँ दे रही थी। नीरोत्तम के ऐसे असमय दगा दे जाने से उसकी दो दुनिया के बेतार के तार टूट गए थे।

निवेद्या के बारहवीं का परीक्षा परिणाम घोषित होने तक अरुंधति ने जैसे-तैसे दुबई में निर्वाह किया। एक देश से दूसरे तो क्या, घर से बाहर निकलने तक की मनाही थी। जैसे ही एकतरफ़ा हवाई यात्रा आरंभ हुई, वह दुबई की गृहस्थी समेटकर जयपुर के पुश्तैनी मकान में स्थानांतरित हो गई। निवेद्या ने मैंगलोर में दाखिला ले लिया। इधर निवेद्या का मेडिकल का खर्च और अश्लेष का कनाडा में परास्नातक इंजीनियरी का; यूँ तो नीरोत्तम ने बैंक में अच्छी-खासी रकम छोड़ी थी पर अरुंधति जानती थी कि दोनों हाथों से लुटाने पर कुबेर का कोष भी रिक्त हो जाता है। अत: उसने अपने दोनों हाथों से काम करके बेहिसाब खर्च पर हिसाब का अंकुश लगा दिया था।

जयपुर में अध्यापन का कार्य पुन: शुरु किया तो उसे एक आशा यह भी थी कि अपने लेखन के लिए अब वह मानदेय लेने से इंकार नहीं करेगी। उसके एक व्हाट्सएप संदेश पर जो प्रकाशक झटपट कॉल कर लेते थे और रचना के विषय में विस्तार से चर्चा करते थे, उनमें से एक ने भी उसकी कई-कई घंटियों पर फ़ोन नहीं उठाया। ईमेल, फेसबुक मैसेंजर, व्हाट्सएप, एस.एम.एस.; सभी माध्यम से उसने एक नहीं, कई प्रकाशकों से संपर्क करने की कोशिश की थी। इन्हीं बुद्ध प्रकाश के कार्यालय में सौइयों कॉल करने पर सहयोगी से जवाब मिलता था- ‘साहब फ्री होकर कॉल करेंगे।’  

दो साल तक बुद्ध प्रकाश को अपनी पत्रिका के लिए किसी आलेख की आवश्यकता ही न पड़ी कि वे फ्री होते और उसे कॉल करते। एक देशवासी जिस निगाह से प्रवासी को देखता है, वह कैसे बदल जाती हैं प्रवासी के देशवासी बन जाने पर, वह समझ न पाई थी। क्या पैरों के नीचे की मिट्टी इतनी तकतवर होती है? यदि हाँ, तो यह ताकत बढ़ जानी चाहिए थी अपनी मिट्टी पर कदम रखने के बाद से। आवश्यकता के क्षणों में सभी तो उससे दूर छिटक गए थे। मजबूरी चुंबक का उत्तरी ध्रुव है तो सदाशयता दक्षिणी।

दो साल से अधिक गुमनामी में बिताने के बाद कभी ख्यातनाम रही प्रवासी लेखिका अभी पंद्रह दिन पहले ही टोरोंटो आई थी। अश्लेष माँ को बिल्कुल अकेला न छोड़ना चाहता था। कनाडा में दाखिले के लिए खूब भाग-दौड़ करते हुए भी उसे इसका बहुत मलाल रहता था। अब वह अपनी ग्लानि की पिलपिली ग्रंथी को मवादरिक्त कर सुखा देना चाहता था। निवेद्या भी मेडिकल कॉलेज जा चुकी थी। उसकी पढ़ाई दो साल से ऑनलाइन ही चल रही थी। इसी समय भाग्य से कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मास्टर्स खत्म होते-होते कैम्पस से ही अश्लेष की नौकरी लग गई। उसने अविलम्ब माँ का दसवार्षीय वीज़ा निकलवाकर अपने पास बुला लिया। उसका बस चलता तो शरणार्थियों को पढ़ाने भी न जाने देता। यह काम तो अरुंधति अपने मन की शांति के लिए करती थी। पद भी अवैतनिक था। माँ की खुशी देखते हुए उसने उसमें बाधा बनना ठीक न समझा। पैसे कमाने का सारा जिम्मा उसने स्वयं ले लिया था।

“कॉफ़ी हाज़िर है आपकी सेवा में।” अश्लेष ने कॉफ़ी का कप अरुंधति को थमाते हुए बेयरे की तरह सलाम ठोंकते हुए कहा। यह स्नेह भी तो एक अंतराल के बाद नसीब हुआ है। गर्माहट पाते ही अरुंधति जैसे यादों की जमी हुई दलदल से निकल राजीव के समान खिल आई।

“वाह! क्या मज़ेदार कॉफ़ी बनाई है।” कॉफ़ी की चुसकी लेते हुए अरुंधति ने कहा।

“लो माँ! मैंने तुम्हारा फ़ोन भी बदल दिया है। मन था कि तुम्हें किसी चीज़ की कमी न हो पाए। पहले भी तुम हमें नया दिलवाकर खुद पुराना रख लेती थीं। पापा के जाने के बाद स्वयं को निचोड़कर तुमने मुझे कनाडा में आगे पढ़ाया है। मैं चाहता हूँ तुम्हें हर खुशी दूँ। …पर तुम्हारी खुशी सैमसंग है।” कहकर ज़ोर से हँसा अश्लेष। अरुंधति ने बेटे को गले से लगा लिया। गला रुँध गया उसका।

स्थिर लाइन पर फ़ोन की घंटी ऐसे बजी कि एक बार को अरुंधति का दिल दहल गया और उसके हाथ से कॉफ़ी गिरते-गिरते बची। दोपहर में खूब भाग कर भी वह फ़ोन न उठा पाई थी। अबकी बार पास बैठे हुए भी न उठा सकी।

अश्लेष ने लपककर फ़ोन उठाया। बुद्ध प्रकाश का फ़ोन था। अश्लेष ने माँ को रिसीवर पकड़ा दिया।

“नमस्कार अरुंधति जी! आप कनाडा में हैं?” बुद्ध प्रकाश का स्वर आया।

यह प्रश्न था? उत्तर सचमुच चाहिए था क्या बुद्ध प्रकाश को? पुष्टि चाहिए थी केवल? प्रश्न के लिबास में सत्यता की जाँच का वक्तव्य था। क्या उत्तर दे इस बात का? दिमाग डेटाबेस में चक्कर काट उत्तर ढूँढने लगा।  

“नमस्कार बुद्ध प्रकाश जी! अभी दो सप्ताह ही हुए हैं आए हुए।” अरुंधति ने जानकारी पर सत्यापित की मुहर अंकित की।

“मैं कब से आपको ढूँढ रहा था। अब जाकर नम्बर मिला। …आपने बताया ही नहीं कि आप कनाडा जा रही हैं।” उन्होंने राहत की साँस लेते-लेते अचानक एक नया प्रश्न दाग दिया।

अनेक कसैले घूँट एक साथ अरुंधति के गले में भर आए। सम्पन्नता के यज्ञमान विपन्नता के हवन में अंगुष्ठ भर समिधा डालने से बच जाते हैं और स्थिति बदलते ही पुन: अनुष्ठानरत हो जाते हैं, भारत देश की सीमा-रेखा पार करने पर ही इस ज्ञान का उदय टोरोंटो के सूर्योदय के साथ हुआ।

“मगर आपको नम्बर मिला कैसे? वह भी लैण्डलाइन का?” अरुंधति चकित थी कि न तो उसने अपना व्हाट्सएप नं. बदला अभी तक, न ही फेसबुक अपडेट किया, न कोई स्टेटस ही डाला। कोई उसे ढूँढने चला है, यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं थी। ढूँढा तो ऐसा ढूँढा कि शहर-देश तो छोड़ो, फ़ोन का नम्बर तक निकाल लिया।

“अरे नम्बर… वह तो मैंने आपकी सुपुत्री से लिया।” वे अपनी होशियारी पर घमंड से हँसे।  

“निवेद्या से? पर क्यों?” यह ही पूछा उसके कंठ ने… और मन ने पूछा कि ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी कि फ़ोन न उठाने वाले अंतर्राष्ट्रीय कॉल का खर्चा उठा रहे हैं।

“आपके व्हाट्सएप पर आपकी प्रोफ़ाइल तसवीर में आपको सुपुत्र अश्लेष के साथ देखा तो सोचा हाल-चाल पूछ लूँ।” एक बेशर्म बत्तीसी दाँत निपोरती दिखी होगी उस पार उनके आस-पास के सहयोगियों को।

अरुंधति को तुरंत अहसास हुआ कि उस तसवीर में उसके और अश्लेष के अतिरिक्त विश्वप्रसिद्ध सी.एन. मीनार (टॉवर) भी समाई हुई है। उसे पार्श्व में रखकर ही अश्लेष ने वह सेल्फ़ी खींची थी माँ के संग। निवेद्या का नम्बर पता लगाना तो कोई मुश्किल काम था ही नहीं। गुड़खोर और गुड़चोर को गुड़ मिल ही जाता है। 

“जी हाल-चाल सब ठीक हैं। निवेद्या, अश्लेष, सबके हाल जान ही गए हैं अब आप।” शब्दों में न होकर उसके भावों में तीखा व्यंग्य उभर आया था।

“हाँजी-हाँजी! पिछले कुछ समय से बहुत अधिक व्यस्त रहा हूँ। आपके पति के बारे में दुखद समाचार भी मिला था। तब ही से सोच रहा था कि आप से बात करूँ, कुछ सांत्वना दे सकूँ…।” कृत्रिम संवेदना के कुछ सतही स्वर उभरे।

“इस हादसे के बाद से तो मैं वहीं थी, जयपुर में.. पूरे ढाई वर्ष। कभी दिखी नहीं आपकी छूटी हुई कॉल मुझे।” चेहरे पर तल्खी उभर आई थी। सोचा- अभी आज ही कॉल छूटी है जब उसकी कोई उम्मीद शेष न रह गई थी।  

आमतौर पर अरुंधति यूँ किसी को ताने-उलाहने देने में विश्वास न करती थी किंतु इस बार वह विवश हो गई थी। हैरान थी कि किस प्रकार यह देशवासी अपने मतलब और मक्कारी को हमदर्दी के मुखौटे में छुपाते हुए उसे प्रवासी दृष्टि से देख रहा है। बातों के जमाखर्च से कोष कब रिक्त हुए हैं जो आज खजाने में घाटा होता? संबंधों को बट्टा लगाया जा सकता है। उसकी भवें तन गई थीं।   

“जी, रखता हूँ फिर। बात करती रहिएगा।” खिसियानी-सी आवाज़ में वे बोले।

“जी, अवश्य!” कहकर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि उधर से कुछ आवाज़ आई।

“…अरुंधति जी! …मैं कह रहा था कि कोई कहानी-लेख इत्यादि लिखा हो तो भेजिए। पत्रिका आपके बिना सूनी-सी लग रही है। बहुत दिनों से कुछ भेजा नहीं आपने।” वे निरीह-सा स्वर निकालकर बोले।   

“देखती हूँ।” कहकर फ़ोन पटक दिया अरुंधति ने। जी में तो आया कि कह दे अब किस मुँह से रचना माँग रहे हो। मेल पर दसियों रचनाएँ भेजीं। एक का जवाब तक न आया। स्वीकृति की तो छोड़ ही दो, खेद सहित अस्वीकृत करने का ही जवाब दे देते तो इतनी सज्जनता भी न दिखा सके।  

“तुमने सही ही लिखना शुरु किया है माँ! देखो तुम्हारी रचनाओं की माँग आने लगी।” अश्लेष ने उसके गले लगते हुए गर्व से कहा।

“देखती हूँ।” मंद-मंद मुस्कान बिखेरते अरुंधति बोली।

“देखना क्या है? भेज देना जो अभी लिख रही हो। …पूरी कर लो। खाना बाहर से मँगवा लेते हैं। सेलिब्रेशन भी हो जाएगा और तुम्हें लिखने का समय भी मिल जाएगा।” झटपट इलाज निकाला अश्लेष ने।

अरुंधति से अधिक अश्लेष उत्साहित था। माँ को दुबई की फ़ाख़्ता-सी चहकती हुई फिर से देखना चाहता था या अरेबियन ऑरिक्स सी कुलाँचे भरते हुए साहित्य मरुद्यान में।

अरुंधति ने अपनी डायरी पर निगाह डाली कि वह लिख क्या रही थी-

‘-फ़ेंग शुई पौधा मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि यह सिखाता है कि बदलते पर्यावरण से जुड़े रहते हुए, इसके साथ-साथ बदलाव से सामंजस्य बिठाकर, बहाव के साथ कैसे बहा जाए। ‘फ़ेंग शुई’ वनस्पति का नहीं, उस विज्ञान का नाम है जो हमें इस प्राकृतिक संसार में अपने जीवन के समुचित स्थान तराशने के लिए संतुलन बनाने का ढंग बताता है।’

अपनी ही लिखी पंक्तियाँ बार-बार उसने पढ़ीं। कुछ देर वह कलम को उँगलियों में दबाए उसके साथ उलझती-खेलती रही। फिर कलम ने हठ पकड़ ली तो उसकी पकड़ भी मजबूत हुई और कहानी आगे चल पड़ी।

“माँ! खाना आ गया।” कुछ देर बाद अश्लेष बोला।

“मेरी कहानी भी पूरी हो गई। जैसा तू कहता है भेज दूँगी बुद्ध प्रकाश जी को आज ही।” अरुंधति के चेहरा विजयी आभा से जगमगाने लगा।

“माँ, मानदेय मत लेना। तुम्हें किसी चीज़ की कमी है क्या?” अश्लेष बोला।

अरुंधति को लगा कि जैसे नीरोत्तम ही बोल रहा है।

“हाँ, अब मैं फिर से प्रवासी लेखिका जो बन गई हूँ।” आँखों में उमड़ आए मेघों को अरुंधति ने अपनी गहरी मुस्कान के गड्ढों में छुपा लिया।  

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