
आस्था व ज्ञानकुंभ का संगम स्नान
जीवन में आस्था, धर्म, कर्म और धैर्य का सम्मिश्रण देखना हो तो महाकुंभ में संगम के विशाल जनसमूह के साथ प्रयागराज में डुबकी लगाते अपार जनसैलाब को देखें। ना कोई उम्र की सीमा ना शारीरिक अक्षमता, सब कुछ है भी और कुछ भी नहीं। तीस किलोमीटर तक पैदल यात्रा करने को युवा, वृद्ध, विकलांग, महिलाएँ सभी चलते जा रहे हैं। यही तो है संगम और यही है हमारी संस्कृति का मूल।
ज्ञानमहाकुंभ (शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ) के आयोजन में कुंभ के लिए कवि व वैश्विक हिन्दी परिवार के अध्यक्ष आदरणीय अनिल जोशी जी का विशेष आग्रह था तो जाना ही था, सो आठ तारीख़ को अपनी गाड़ी में अपने भाई सुनील सेठी व भाभी कविता सेठी के साथ निकल पड़ीं कुंभ की तरफ़। जब अनिल जोशी जी का नेतृत्व हो, भगवान साथ हो और रथवान भाई हो, आस्था व श्रद्धा से जुड़ी मेरी भाभी साथ में हो तो गंतव्य तक पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता, यही सोच कर प्रस्थान किया था।

पर प्रयागराज पहुँचने पर भी यह समझ नहीं आ रहा था कि जहाँ रहने की व्यवस्था की गई है वहाँ पहुँचें कैसे। बीस किलोमीटर पर सभी नाके बंद कर दिए गए। किसी भी रास्ते से शहर में प्रवेश करने के लिए बीस किलोमीटर चलना पड़ रहा था ।प्रशासन ने अगर शहर से बाहर रोका, तो शहर में जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। कोई ऑटो, ई- रिक्शा कहीं कुछ नहीं। नौ तारीख़ को कई व्यवधानों को पार करके सीमेंट के पहाड़ों में से उल्टी तरफ़ से हाइवे पर उतर कर गाँवों के बीच में से निकल कर किसी तरह वहां पहुँच गए। सैक्टर सत्रह पर बसी हुई टैंट सिटी में ग़ज़ब की व्यवस्था। लगभग सौ के क़रीब साफ़ सुंदर बाथरूम और हज़ार के करीब लोगों के रहने की व्यवस्था। इतने ही लोगों के लिए भोजन की स्वादिष्ट सुचारू आपूर्ति। एकादशी के दिन रात को आसानी से घाट पर पूजा पाठ व स्नान किया। घाटों पर व्यवस्था अच्छी थी हालाँकि वहां तक पहुँचना बहुत मुश्किल था। खूब अच्छे से स्नान किया।

रात के 3 बजने को थे। कुंभ नगर में कुंभकर्ण की सी नींद की चाह थी पर नींद थी कि आती दिख नहीं रही थी। कारण कई थे। वहाँ पहली रात और नया-नया माहौल था। लेटे हुए सोच रही थी कि टेंट वाली इस कुटीर में कंबल है, रजाई है, फिर भी ठंड लग रही है। पर दिल में मानवता की भावना से जुड़े हुए लोगों के नेह की गर्माहट है। तख्तनुमा बेड है, कुछ सख्त है पर इनमें जीवन के यथार्थ का एहसास है। पास के किसी कैंप से हरे कृष्णा, हरे रामा की आवाज लाउडस्पीकर पर आ रही है। ना जाने कितने तपस्वी, संत, साधुओं के ओज की ओम ध्वनि मन तक पहुँच कर अजीब शांति तक पहुँचा रही हैं जहां सब कुछ गहन चिंतन की स्थिति व साधना तक पहुँचा रहा है। निद्रा समाधि में धीरे-धीरे लीन होती चली गई और सुबह सूर्य किरण ने अपने होने का संकेत देते हुए उत्साह से भर दिया।
नाश्ते के बाद सम्मेलन में भाग लेने के लिए हम अपनी गाड़ी में चल दिए ज्ञानकुंभ स्थल सैक्टर आठ की तरफ़। उस दिन भी वही हुआ। सब जगह प्रतिबंध व बैरिकेड। गाड़ी को कई किलोमीटर पहले ही पार्क करवा दिया गया और हम सब यानि कि अनिल जोशी जी, दिव्या माथुर जी, नरेश शांडिल्य जी, शशिकांत जी, अनिल मीत जी, जवाहर कर्नावट जी सब पैदल ही पीपा पुल को पार करते हुए चलते चले गए सम्मेलन स्थल पर।

ज्ञानकुंभ के भारतीय भाषाओं, शिक्षा में भाषा, संस्कृति के सत्रों को सुना आदरणीय अतुल कोठरी जी, मनोज श्री वास्तव जी को सुनना अपने आप में ज्ञानकुंभ में ज्ञान कलश भर के ले जाने जैसा था।
और फिर हम तीनों निकल पड़े वापिसी की तरफ़। हमने सोचा कि रात तक अगर हम अयोध्या जी पहुँच गए तो सुबह रामजन्मभूमि के दर्शन करने के बाद दिल्ली लौट जाएँगे। पर “होए वही जो राम रची राखा।“
अयोध्या जी से पहले आसपास के सभी शहरों में जाम था। रात एक बजे तक हमें गाँवों में घुमाते रहे। सब रास्ते बंद कर दिए गए और फिर अंत में हज़ारों गाड़ियों को लखनऊ हाईवे की तरफ़ मोड़ दिया गया। सुबह तीन बजे हम लखनऊ पहुँचे और अगले दिन सुबह उठकर स्वयं के कहा “मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं।” लखनऊ घूमने के बाद वहां के ज़ायक़ों का मज़ा लिया। ढेर सारे चिकनकारी के सूट अपने लिए और बेटी व बहू के लिए ख़रीदे और नबाबी अंदाज़ में स्वयं को नबाब समझते हुए वापिस दिल्ली की तरफ़ चल दिए। बिना किसी व्यवधान के सात घंटे में घर पहुँच गए।

प्रयागराज में लोगों का हुजूम और उनका जीवट, स्टेशन तक पहुँचने के रास्ते बंद फिर भी बिना किसी शिकायत के चलते लोग, बस तक पहुँचने की कोशिशों में सामान और बच्चों को कंधों पर उठाकर चलता हुआ आम जनमानस। कई बार बीच बीच में लगा कि वापिस लौट चले पर उनका हौसला देखकर मन ने कहा कि जाना है। एक बार तो लगा भी कि ना घर के रहे ना घाट के। पर हम “खतरों के खिलाड़ी” बनकर सब नदी नाले पार करके, सफलता पूर्वक सब आयोजन , प्रयोजन करके जीत कर लौट आए।

स्टेशन और स्टेशन के बाहर कुछ दूर तक रास्ते पर ही ठंड में ढेरों लोग लेटे या सोए हुए थे, सिर के नीचे अपना झोला रखकर। दुष्यंत कुमार की गजल की ये लाइनें याद आ गईः
न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
कहने को बहुत कुछ है, बहुत से क़िस्से हैं फिर कभी लिखूँगी पर ये सच है कि हम और हमारी अगली कई पीढ़ियाँ अपने बच्चों को ये बतायेंगीं कि हमारे पूर्वजों ने कभी कुंभ स्नान किया था।

अनीता वर्मा