
एक नयी सिन्ड्रेला
– डॉ संतोष गोयल
सिन्ड्रेला की कहानी उसके प्रिय राजकुमार के आने तथा अपने साथ अपने घर ले जाने के बाद समाप्त हो जाती है, पर मेरी कहानी की सिन्ड्रेला की कहानी शुरू ही उसके पश्चात होती है। पहले का सब हो चुका था अर्थात रात में अपनी सौतेली मां तथा बहनों से बचकर उसका पार्टी में जाना, राजकुमार को मिलना, उससे बचकर सुबह होने से पूर्व घर पहुंचना, एक जूते का छूट जाना, उसी जूते की सहायता से राजकुमार द्वारा उसकी खोज और फिर…वही सीधा-सादा सुखद अन्त…पर कहां?
कहानियां चाहे सुखद अन्त के साथ खत्म हो जाती हों, किन्तु असल जीवन में तो नहीं।
जी हां। असलियत में सिन्ड्रेला की सौतेली मां और दोनों सौतेली बहनें उसकी खुशकिस्मती से जल-कुढ़ रही थीं और वह राजकुमार के घोड़े पर विराजमान हो उसकी लम्बी चौड़ी राजमहल-सी हवेली में जा रही थी…अरे! मेरी सिन्ड्रेला का नाम तो जान लें। उसका नाम था-सितारा…सितारे सी सुन्दर…चमकती, इठलताती, नदी-सी किलकिल करती, अपनी सौतेली मां और बहनों के दुर्व्यवहार से बेखबर, बेपरवाह, राजकुमार की नज़र में आई और छोटी-सी सितारा जा गिरी पहले उसके घोड़े पर, फिर उसके राजमहल में।
उसे अपने घर ले जाते हुए अति प्रसन्न था-राजकुमार। क्यों न होता ? आखिर उसकी राजकुमारी उसे मिल गई थी, उसके घोड़े पर सवार…उसकी पीठ से चिपकी बैठी थी। मम्मा…मम्मा का सामना करने का कोई भय न था। एकमात्र पुत्र होना उसे यह सुविधा दे रहा था। पिछले अनेक वर्षों से, डैड को गये अब पन्द्रह वर्ष हो गये थे। सो वही मम्मा की आंखों का तारा बना उन सब अधिकारों को जी रहा था, जो उसे अनायास ही मिल जाते थे। अकेलेपन में जीती किसी भी मां के लिए एकमात्र बेटा होना उसे अतिरिक्त छूट, आज़ादी व सुविधा जुटाता ही था। यही कारण था कि छोटे-से गावं-गवई की थोड़ी पढ़ी-लिखी चुलबुली तन्वंगी सुन्दरी सितारा उसके मन को भाई तो वह बेझिझक उसकी बीमार पड़ी नानी के हजूर में पेश हो गया, और उनके पांव छूकर आर्शीवाद का भागीदार बन गया। सितारा को अपने साथ अपने घर ले जाने की इज़ाजत पाते ही सितारा कूदी, उसके घोड़े पर सवार हुई और चल दी…‘चली गोरी पी से मिलन को चली’ की तर्ज़ पर, बिना जाने, बिना सोचे कि नानी की छांव तले जिन्दगी का क्या मतलब है और अपने राजकुमार की बड़ी-सी हवेली में जाने के क्या मायने ? उसे न सोचना था, न समझना न जानना, उसे तो बस…वही करना था जो नानी और राजकुमार ने निश्चित किया था।
असल कहानी तो सितारा के राजकुमार के साथ हवेलीनुमा महल या कि महलनुमा हवेली में पहुंचने के बाद प्रारम्भ होती है। खिलहुली आज़ाद पंछी सी चहचहाती सितारा उस हवेली के बड़े से गेट से अन्दर दाखिल होते ही उसका लम्बा चौड़ा बागीचा देखकर ही सहम गयी। उसके दो कमरों के समूचे घर से चार गुणा नहीं…नहीं आठगुणा बड़ा…अपने पूरे हाथ चौड़े कर फैला ले तो भी उसका बड़ापन बता न पाये। चार माली उस बागीचे में काम कर रहे थे। एक माली जो, सबसे बड़ी उम्र के थे, उसे घोड़े से छलांग मारते देख मुस्करा उठे थे, उन्हीं के पास गुलाब के पौधे रखे थे…पर…ये क्या ? ये गुलाब लाल न थे…पीले, गुलाबी रंग के। सितारा हैरान थी कि आखिर ये कैसे गुलाब हैं ? भागी-कूदती माली के पास पहुंचीं,
‘बाबा… बाबा…क्या ये गुलाब हैं ?
‘हां, बिटिया…देखो कितने खूबसूरत हैं।
‘यह तो है…पर…बाबा गुलाब लाल नहीं…अजीब बात है न…मैंने ऐसे रंग के गुलाब कभी नहीं देखे। बाबा…आप इन्हें कहां से लाये, कैसे बनाये ?’
बाबा की बगल में ही बैठती सितारा बोलती रही और गुलाबों को सुगन्ध लेने की कोशिश में जुट गयी…पर उन पीले, गुलाबी फूलों में सुगन्ध कहां ? चौंककर वह बोल उठी,
‘बाबा! इनमें तो खुशबू ही नहीं है। ये कैसे फूल हैं…कहां से आये ? कौन लाया ? भला फूल में गुलाबी सी गन्ध न हो, तो गुलाब कैसे ? पता है न बाबा। नानी इन्हें गुल‘$आब कहती हैं यहां बाग की चमक, बाग की रौनक…बाबा ये गुलाब तो फूल का राजा है…इसमें ही खुशबू नहीं।’
वह लगातार बोलती रहती कि राजकुमार ने उसका हाथ थामा और उसे भीतर ले जाने लगा कि सामने से उसकी मम्मा आती दीख पड़ीं।
‘गुड मॉरर्निंग मम्मा ? कैसी हैं ?’
‘ठीक-ठाक। ये सुबह-सुबह किसे ले आये ?’
‘तुम तो सैर को गये थे…अब रास्ते में कोई ‘विलेज फेयरी’ मिल गयी और तुम्हारे साथ चली आई क्या ?’
सितारा आश्चर्य चकित राजकुमार और उसकी मम्मा को देखती राजकुमार की चाल से अपनी चाल मिलाती बरामदे पर ले जाने वाली चार सीढ़ियां चढ़ गयी और सिर झुका कर खड़ी हो गयी, पर कनखियों से इधर-उधर देखती वह लगातार हिल रही थी, परन्तु उसे कहां पता था ? अचानक राजकुमार की मम्मा बोल उठीं,
‘ऐ लड़की। सीधी खड़ी हो। हिल क्यों रही है? सीधा खड़ा होना नहीं आता क्या?’
अचानक सितारा को लगा वह किसी पिंजरे में बन्द चिड़िया में तब्दील हो गयी है। खाली खड़े रहना…कितना बेकार है? हिलो-डुलो, इधर-उधर स्थान न मिला। आखिर डाइनिंग रूम के सामने बनी रसोई में बन रही नाश्ते की सुगन्ध से खींची उस तरफ आ गयी। रसोई के सामने रखी टेबल और रसोई के बीच की चौड़ी जगह उसे अपने रहने-सोने के लिए सबसे सुरक्षित स्थान लगा अतः बोली,
‘मैं तो यहां रह लूंगी…यह स्थान ठीक है। रसोई का काम भी कर पाऊंगी…सब आनेजाने वाले भी दीखते रहेंगे।…हां…यही ठीक रहेगा।’
‘क्या…आ। इतने सारे कमरों में तुम्हें कोई पसन्द न आया। फिर मुझे भी तो अपने कमरे में जगह दोगी…मैं तो यहां न रह पाऊंगा।’
‘तुम भी…?’ उसकी चैड़ी आंखों से झांकती हैरान बाहर निकल कर कमरे में ही नहीं दीख रही थी, बल्कि मम्मा के चेहरे पर आ गयी थी। उसकी ओर से मुंह फेर मम्मा अपना ध्यान डाइनिंग टेबल की ओर किया। बोली,
‘चलो बेटा। फ्रेश होकर आ जाओ…नाश्ता लग गया है…इसे भी ले आओ।…पर पहले इसके हाथ-मुंह धुलवाओ।’
वह अटेंशन की मुद्रा में बिना हिले-डुले सीधी खड़ी हो गयी थी। मम्मा का ऑर्डर सुनते ही बोल उठी,
‘जी मालकिन। अभी लो।’
‘इसे बोलने की तमीज़ सिखाओ पहले…फिर बात करूंगी मैं।’ कहते हुए मम्मा डाइनिंग टेबल की अपने लिए निश्चित कुर्सी पर बैठ गयीं।
राजकुमार ने उसे बाथरू दिखाया और मुंह-हाथ धोकर नाश्ते की टेबल पर आने को कह मम्मा के पास आकर बैठ गया।
सितारा तो बाथरूम में घुस कर खड़ी रह गयी। संगमरमरी सजा-धजा, साबुन, शैम्पू की गन्ध से महकता, साफ-सुथरे धुले अनेक तौलिये अजीब किस्म का टॉयलेट जिस पर कैसे बैठे के सवाल से जूझती खड़ी रही।
राजकुमार के आवाज़ देने पर चौंकी। बिना हाथ-मुंह धोये बाहर आ गयी और उनके पास आकर खड़ी हो गयी।
राजकुमार ने उसकी प्लेट लगाकर बराबर की जगह पर रख दी, बोला,
‘चलो, बैठो। नाश्ता करो।’
सितारा ने प्लेट उठाई। दूर खिड़की के पास बने चबूतरे पर बैठ कर हाथ से खाने लगी…उन सब चीज़ों को ध्यान से देखते हुए जो उसने खाई क्या, देखी भी न थीं। उसको वहां बैठे देखना, सूंघ-सूंघ कर हाथों से खाना, चबर-चबर की आवाज़…कुछ भी सह पाना मम्मा के लिए असहनीय हो उठा। वे चुपचाप उठीं, राजकुमार के कंधे पर हाथ रखा, धीरे से कुछ कहती हुई अपने कमरे की ओर चली गयीं।
सितारा उन्हें जाते देखती रही। उसे न उनके जाने का अर्थ समझ आया, न उनकी चुप्पी का। रुक कर वह राजकुमार का चेहरा देखती रही। अब तक सदा प्यार और प्रशंसा का भाव, जिन्हें वह पहचानती थी, वे न दीख रहे थे। राजकुमार के चेहरे पर अजीब-सी सख्ती का भाव था। अचानक वह मुड़ा। रसोई में काम करती लड़की को आवाज़ लगायी,
‘नक्शी। मम्मा का नाश्ता उनके कमरे में दे आओ।…मुझे गरम कॉफी दे दो।’ फिर सितारा की तरफ देखते हुए,
‘तुम चाय लोगी या कॉफी या दूध ?’
वह भौंचक बैठी चैड़ी आंखों से राजकुमार की ओर देखती रही…दूध भी…चाय भी…और…ये संतरे का जूस भी…क्या लूं का प्रश्न झेलती रही, मन ही मन तौलती रही…प्रश्न या कि उसका उत्तर…पर उत्तर तो मिला न था। बोलती क्या ? सामने रखे जूस पर निगाह चलती चलती रुक गयी। राजकुमार ने जूस गिलास में डाला, उसे देता हुआ मम्मा के कमरे में चला गया।
उसके चले जाने भर से सितारा परेशान हो उठी। नानी याद आने लगी। वह चुपचान उठी, प्लेट रसोई में रखी…बाहर निकल गयी।
इतने बड़े बागीचे ने उसे वहीं रोक लिया। वह उन बूढ़े माली बाबा के पास ही ज़मीन पर पसरी और उनसे पौधे लगाने की कला सीखने लगी। आखिर वह खुली ज़मीन की बेटी थी, उस बड़े लेकिन बन्द घर में उसका मन क्यों कर लगता?
धूप में तपती, लाल होती वह जाने कितनी देर अपनी आज़ादी का आनन्द लेती रहती कि राजकुमार बाहर आ गया…उसे खोजता हुआ। वह थोड़ा परेशान था, कुछ लुटा हुआ-सा। हाल ही में जो हुआ उससे जितना प्रसन्न था, मम्मा की नाराज़ी से उतना ही दुखी था, पर सबसे अधिक परेशान था…अपनी फेयरी के व्यवहार से। जो कुछ हो रहा था, वह सब तो उसने न सोचा था।
सितारा का हाथ थाम वह उसे घर के भीतर चल दिया। उसे मम्मा से व्यवहार की अनेक हिदायतें दीं, कपड़े पहनने को दिया, उन्हें पहनने का सलीका सिखाने के लिए ब्रिटिश नैनी सिल्वा को बुलाया। उसे नहला-धुला कर सजा कर मम्मा के कमरे में लाने को कहा।
अब क्या था ? एक कठपुतली सी सितारा सिल्वा आंटी के हाथ में थी, और उनके अनुसार उल्टा-सीधा इधर-उधर घूम रही थी। जब सिल्वा ने उसे ब्लाउज़ और साड़ी पहनाने का करतब कर दिखाया तब तो वे स्वयं भी उसके रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो उठीं। तब राजकुमार उसके उस कच्चे, भोले, नये धुले सौन्दर्य को लेकर अपनी मम्मा के पास चला।
सचमुच! मम्मा तो इतना मुग्ध हुईं कि उसके साथ बीती सुबह का सारा गुस्सा भूल गयीं। फिर भी सख्ती से राजकुमार से कहा,
‘पर…पहले इस घर के लायक तो बनाओ न।’
‘जी! मम्मा! आपका हुक्म सिर आंखों पर।’ उसने बाअदब, बामुलाहिज़ा की तर्ज पर सिर झुका कर कहा तो मम्मा मुस्करा उठीं…पर सितारा…वह तो सचमुच ही बिना दरवाज़े के पिंजरे में बद महसूस करने लगी थी। साड़ी उसके कुल वज़न से भारी चमचम करती सिलमें सितारों से सजी थी। सैंडिल की ऐड़ी पर खड़े होना उसे कठिन लग उठा था। वह सोच रही थी,
‘आखि़र इस तरह तैयार हो कर वह कैसे तो घर का काम करेगी ? कैसे भागेगी…उछलेगी, कूदेगी,…कैसे पेड़ पर चढ़ कर फल तोड़ेगी…कैसे फूल एकत्रित करने को जंगल में घूमेगी और नानी के बिस्तर पर चढ़कर उनसे लिपट कैसे उनके साथ सो पायेगी ? अजीब लोग हैं ये तो ? एक जिन्दा इनसान का गला घोंट कर कैसे घोड़े पर घुमाया जा सकता है ?’
सोचते-सोचते वह ‘नानी…नानी’ कह कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
‘अरे…अरे क्या हुआ ? मेरी राजकुमारी। तुमने देखा…तुम कितनी सुन्दर लग रही हो पूरी परी…हूर परी।’
‘अच्छा…आ…।’ वह हंस पड़ी, ‘तो क्या पहले नहीं थी हूर परी। तुम ही कहते थे मुझे ‘फेयरी’ हो गयी हूं क्या ?’ ‘…पर…नानी…नानी को मैं वैसी ही चाहिए…जैसी पहले थी। उन्हें यह सब अच्छा न लगेगा…मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा…मेरे राजकुमार। मुझे न बदलो। मुझे वैसा ही रहने दो जैसी मैं हूं…झरने-सी अपनी मरजी से अपने रास्ते पर बहती। बांधकर र रखें…मेरे राजकुमार प्लीज।’
राजकुमार हैरान-परेशान। कैसे तो करेगा वह इससे ब्याह, मम्मा कैसे मानेगी…कैसे मनाऊंगा ? उन्हें ही नहीं…इसे भी कैसे बदलेगा ?
असल कहानी यहीं से शुरू होती है। राजकुमार को सितारा को बदलने यानी मम्मा की आशाओं के अनुरूप ढालने के जद्दोजहद भरे काम में जुटना था। उधर लड़की को बातचीत, चाल-ढाल, पहनावा-ओढ़ावा, खान-पान कुछ भी, कोई भी तरीका मम्मा का पारा ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए चिंगारी का काम कर रहा था। इधर सितारा में क्या कमी है, उसे बदलना क्यों चाहिए…ये सब उसकी समझ के बाहर था। इस त्रिकोण के तीन सिरे मिलेंगे कैसे ? और क्यों मिलेंगे ?
प्रश्न ये नहीं था कि मम्मा क्या करेगी ? यह भी न था कि सितारा क्या करे ? प्रश्न तो इस बिन्दु पर आकर खड़ा था कि आखिर राजकुमार को उसकी राजकुमारी मिलेगी कैसे ?
उस शाम होने तक राजकुमार की ढेरों हिदायतें-खड़े होने, बैठने, बात करने, छुरी-कांटे से खाना खाने, खाने की मेज़ पर बैठने के तरीके, कपड़े पहनने के सलीके, बातचीत में नम्रता व आदरसूचक शब्द बोलने की तमीज़ और…और…जाने क्या-क्या देते रहे। चुपचाप सुनती सितारा सोचती रही…‘ऐसे कैसे जीऊंगी मैं ? नानी से पूछना पड़ेगा।’ अचानक नानी याद आ गयीं। अब की बार वह ज़ोर-ज़ोर से नहीं रोई। खड़ी-खड़ी सुबकियां लेने लगी। नाक बहने लगी। अब सुबकियों और हिचकियों के साथ सुड़सुड़ की आवाज़ें भी होने लगी। मम्मा को समझाने के उपक्रम में जुटा थक कर जब बाहर आया तो सुबकी-हिचकी-सुड़सुड़ मिलकर अजीब आवाज़ बने थे। वह घबरा गया। उसने कभी न ऐसा देखा था, न ऐसी आवाज़ें सुनी थी।
सितारा की तरफ देखा, बोला,
‘नानी के पास जाना है ?’
सितारा की सारी आवाज़ें एकाएक बन्द हो गयीं। मुस्करा कर उसने ‘हां’ में सिर हिला दिया। साड़ी को संभालती, उछलती, गिरती-पड़ती उसने जाकर अपने कपड़े पहने, चलने के लिए आ गयी। साड़ी का क्या हुआ, कैसे रखना है, कहां रखना है, इन सब सवालों के उत्तर से बेखबर।
राजकुमार ने सिल्विया आंटी को कुछ हिदायतें अंग्रेजी में दीं और दोनों घोड़े पर सवार हो गये।
नानी के पास पहुंचते ही वह नानी से टूटी टहनी-सी लिपटी और सुबकने लगी। नानी हैरान-परेशान। सौतेली मां और बहनें…उसके रोने और भाग आने से अत्यंत प्रसन्न थीं। पर सितारा को क्या ? राजकुमार के चेहरे पर बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह लटका था। अब क्या होगा ? उसकी सिन्ड्रेला का क्या होगा ? राजकुमार और सिन्ड्रेला का ब्याह हुआ और वे ताउम्र खुशी-खुशी रहे पर पर प्रश्नचिन्ह लगा था।
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