
अपने आप से एक मुलाकात
– अनिल जोशी
मेरा जन्म दिल्ली में हुआ। हमारी परवरिश पुरानी दिल्ली में हुई। पुरानी दिल्ली की तहज़ीब, तौर-तरीके, स्वाद की मिठास हमारे व्यक्तित्व का अंग है। मेरे विवाह के बाद मेरे पुत्र के मुंडन के समय मेरी माता जी का आग्रह था कि मुंडन राजनौता, हमारे गाँव में ही हो। यह गाँव दिल्ली से लगभग 150 किलोमीटर दूर है। यह मेरे जन्म के 35 वर्ष बाद गाँव से मेरा पहला परिचय था। उस यात्रा में कुछ देखा, कुछ समझा। पर वह दुनिया अलग थी। सन् 1990 के दशक में न ठीक से सड़कें थी, न ही परिवहन की उपयुक्त व्यवस्था, न ही खाने के लिेए यात्रा में भोजनालय। उसके कुछ साल बाद किन्ही कारणों से पिता जी को गाँव जाना पड़ा और कुछ महीने वहाँ रहना भी पड़ा।वे वहाँ गए तो माता जी भी कुछ समय के लिए गाँव गयीं और उसी संदर्भ में मेरा भी कई बार जाना हुआ।
राजस्थान आने-जाने के दौरान राजनौता का जिक्र आने पर मैं गाँव या आसपास के रचनाकार और साहित्यकार ढूंढता रहा, जो नियमित संपर्क का माध्यम बन सके। श्री रामस्वरूप रावतसरे के माध्यम से राजस्थानी के श्रेष्ठ साहित्यकार व दोहाकार श्री कल्याण सिंह शेखावत से 3 वर्ष पूर्व मिलना हुआ। वे हमारे गाँव के हैं पर इस समय सेवानिवृत्त होकर जयपुर रहते हैं। फिर तो उनके माध्यम से गाँव से संपर्क बनने लगा। अब से लगभग दो वर्ष पूर्व वहाँ ब्रिलिएंट पब्लिक स्कूल में कार्यक्रम में हमें आमंत्रित किया गया। गाँव में भी अब शहरों की तरह पब्लिक स्कूल प्रमुखता प्राप्त करते जा रहे हैं। इन दोनों महानुभावों के सौजन्य से वहाँ कार्यक्रम आयोजित हुआ था। ब्रिलिएंट स्कूल के आयोजकों ने बड़ा सुंदर कार्यक्रम किया। वहाँ माता जी और पिता जी को याद किया गया और एक सफल साहित्यिक आयोजन हुआ। उसमें मेरी दोनों बहनें, पत्नी व बेटा साथ थे। मेरे ममेरे भाई व प्रख्यात साहित्यकार नरेश शांडिल्य, हालेंड के साहित्यकार श्री रमा तक्षक का भी सान्निध्य रहा। कार्यक्रम बहुत सफल रहा। उसी कड़ी में 19 मई, 2025 को राजनौता के सरकारी विद्यालय में माता जी और पिता जी की स्मृति में कार्यक्रम रखा गया। मुंबई स्थित अभिनेता, संकल्प जोशी (बेटा) भी साथ था। सरकारी स्कूल के प्राचार्य सरजीत सिंह जी बताते हैं कि वे पिछले कार्यक्रम में आए थे और तभी उन्होंने तय कर लिया था कि वे हम लोगों का अगला कार्यक्रम अपने विद्यालय में रखेंगे।
मैं वहाँ कार्यक्रम में खड़ा होकर सोच रहा था कि मैं क्या हूँ? मेरा अस्तित्व किन तंतुओं से बना है? क्या एक तथाकथित शिक्षित व्यक्ति, उसकी शिक्षा उसके व्यक्तित्व का आयाम है। मेरा जन्मस्थान तो पुरानी दिल्ली है और मेरी आदतों और स्वभाव को उसी रूप में ज्यादातर लोग जानते हैं, दिल्ली वाला। या मेरी जाति-गोत्र मेरी अस्मिता है? कौन से तार हैं जो मेरी कवि-लेखक वाली वीणा को झंकृत करते हैं? विभिन्न देशों में जिम्मेदार राजनयिक पदों पर रहना और सरकार के विभिन्न संस्थानों का नेतृत्व मेरे व्यक्तित्व के कौन से आयाम का सूचक है! मुझे ध्यान है कि बात सन् 1979 की होगी कि जब मैं किसी को अपना परिचय दे रहा था तो मेरी भाषा और अभिव्यक्ति को देख उस विद्वान ने कहा कि क्या तुम राजस्थान से हो? मैंने पूछा- मगर आपको कैसे पता लगा! यह तीसरी पीढी है लगभग 100 साल से ज्यादा का समय की हमारा परिवार गाँव से बाहर है। मेरे दादा भूरामल जी वहाँ रहते थे। पिता जी आते-जाते रहते थे। मेरा जाना तो बहुत कम रहा और बच्चे तो अभी परिचय प्राप्त कर रहे हैं।
हम अपने को कैसे तलाश करते हैं। हम 10-20-30 साल में नहीं बने। हम कौन से बीज के फल हैं? वे कौन से गुण या विशेषता हैं जो हमें गढ़ते हैं। ये बीज या डी.एन.ए क्या चीज है? पिता जी में कौन सी वह सामाजिकता, वह जुनुन था, जो उनसे मुझमें स्थानांतरित हुआ। वे सेवा भाव और सामाजिकता में सदा आगे रहते थे। हम दोनों ही आपात्काल के विरोध में तिहाड़ कारावास में थे। मैं हिंदी में विधि के विद्वान, भारतीय संविधान के हिंदी में लेखक स्वर्गीय श्री ब्रज किशोर जी को याद करता हूँ। वे भी मूल रूप से राजनौता से थे। गीता के स्थिर पुरूष। वह पूरी बेल्ट लेखकों-विद्वानों की भूमि रही है। विद्याध्धयन को समर्पित। वहीं यह गाँव सैनिकों का भी है। राजनौता के प्राचार्य बता रहे थे कि एक बार भारत के पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने कहा था कि मैं राजनौता के सैनिकों से बड़ी संख्या मे मिला हूँ। आखिर राजनौता से सेना में कितने सैनिक हैं! इसलिए इस जमीन में सैनिकों का शौर्य और साहस भी है, जो मेरे पिता जी में भी कूट-कूट कर भरा था।
गाँव या गाँववालों के प्रति इस लगाव का अर्थ यहाँ के जीवन में घुस गए धार्मिक कर्मकांडों या रूढिवादी मान्यताओं का स्वीकार नहीं है, न ही यह जाति आधारित संरचना की स्वीकृति है। बदलते समाज में घिस चुके कल को छोड़ना है। नए और प्रगतिशील समाज से नाता जोड़ना है।
एक सज्जन ने जानकारी दी, यहीं पास ही वह विराट नगर है जहाँ अज्ञातवास के दौरान पांडव रहे थे। भारत के सांस्कृतिक इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा। यहीं पर्वतों के पास बने मंदिर है, जिसमें गाँव वाले जाते हैं, जहाँ हम भी कई बार गए हैं। यहीं स्थानीय मंदिर के प्रसिद्ध संत हैं, जो वहाँ के निवासियों की आस्था के केंद्र हैं। साबी नदी है जो अब बरसाती नदी में तब्दील हो चुकी है और जलवायु परिवर्तन की चेतावनी दे रही है।
मैने कार्यक्रम में माता जी की स्मृति में कविताएँ सुनाई। मेरी एक प्रसिद्ध कविता उनके खाने पर थी- माँ के हाथ का खाना- ‘कुछ न कुछ अद्भुत जरूर था उनके पास, तभी तो करेले में भी आ जाती है मिठास।’ यह कविता सभी उपस्थित लोगों को अच्छी लगी। गाँव में हमारा संबंध- संपर्क श्री संतोष जी (सुपुत्र मास्टर मोती लाल से हैं।) उन्होंने और उनकी माता जी ने बताया कि तुम्हारी माता जी फली की बहुत स्वादिष्ट सब्जी बनाती थी और वे उनसे कहते थे कि हमसे तो फली की सब्जी ऐसी स्वादिष्ट नहीं बनती, दादी आप कैसे बना लेती हो। फिर एक दिन उन्होंने मुस्करा कर उसको बनाने का तरीका बताया।
हम सब क्या हैं? कैसे बने हैं? हमारी पहचान क्या है? क्या मूल पेड़ का भारी आधार, मोटा तना? क्या वह जड़ जिसे हम सींचते हैं? क्या वह मिट्टी जिससे वह जड़ें रस पाती हैं! क्या वह भूमि क्षेत्र जिसमें भूमि एक जैसी है, वैसी ही उर्वर और ऊपजाऊ। वह हवाएँ और बरसात जो उस माटी और फसल को आकार देती है। वह परिवेश जिसमें कुम्हार की तरह यह व्यक्तित्तव गढ़े गए। हम अपनी स्थानीयता से मुक्ति चाहते हैं? हमने अपने स्कूलों के नाम रखे हैं- इंटरनेशनल स्कूल। मैं प्राय: कहता हूँ कि मैंने लंदन में देखा कि दुनिया के बड़े बैंक एच एस बी सी का स्लोगन है – वर्ल्ड’स लोकल बैंक। उनका स्थानीयता पर इतना आग्रह क्यों? जबकि हम स्थानीयता से मुक्त होना चाहते हैं। हमारा परिवार, गाँव, समाज, देश, दृष्टि, मान्यताएं, विरासत सब जैसे एक बोझ हों। हमारी शक्ति का आधार नहीं। हमें अपनी रगें, अपनी रक्त शिराएँ देखनी होंगी। खुद को जानना-पहचानना होगा। यह यात्रा अपने को समझने का ऐसा ही एक लघु प्रयास है।
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