दूर्वा तिवारी, ऑस्ट्रेलिया

गुत्थियां

अनगिनत अनसुलझी गुत्थियां…
शरीर से भारी
कर मन का वज़न
बढ़ने नहीं देती
एक भी कदम
ये हजारों बेतरतीब गुत्थियां

सैंकड़ों तंतुओं के
महीन बुने जाल में
बदहवास फैलते हुए
ग्रसित कर मस्तिष्क को
रेंगती अवसाद में
पाली हुई ये गुत्थियां

जकड़े हुए अस्तित्व को
ये बांधती हर साँस हैं
छटपटाती रात-दिन
सुलझाऊं कैसे कहाँ
लिपटी हुई हर बात से, हर याद से, संवाद से
अदृश्य निष्ठुर गुत्थियां….

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