
दूर्वा तिवारी, ऑस्ट्रेलिया
परब्रह्म
निहित भाव बस यही है अब
स्वयं के सत्य को पाऊँ मैं
आकार-साकार से मुक्त कहीं
निराकार हो जाऊँ मैं
युग-काल, यूँ ही सब बीत रहे
जन्म-जन्मांतर व्यर्थ सहे
जीवन-मृत्यु अब बहुत हुआ
इस चक्र से मुक्ति पाऊँ मैं
माया-स्वप्न को छोड़ के अब
दिव्य सत्य हो जाऊँ मैं
आदि-अंत में भेद न हो
यात्रा अनंत में पूर्ण रहे
आत्मा-परमात्मा एक ही हों
और परमानन्द को पाऊँ मैं
जड़ से चेतन को मुक्त करूँ
फिर मोक्ष धाम को जाऊँ मैं
दिव्य ज्योति का पूंज बनूँ
चिर-समाधि में लीन रहूँ
सृष्टि-सृजन के मोह से अब
पूर्ण विरक्त हो जाऊँ मैं
भ्रम में उलझे ‘मैं’ से निकलूँ
और ‘परब्रह्म’ हो जाऊँ मैं
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