जब भी मेरा पत्रकारों से साक्षात्कार होता है , हर बार उनका पहला प्रश्न यहीं होता है कि “प्रो. च्यांग, आपने हिंदी क्यों पढ़ी ? ” जैसा कि वे मुझसे अपना प्रत्याशित उत्तर सुनना चाहते हैं कि “मुझे हिंदी अच्छी लगती है I  ” लेकिन हमेशा मेरा उत्तर होता है “मैंने हिंदी को नहीं चुना है, बल्कि हिंदी ने मुझे चुना है I ”

मैं चीन के च्यांग सु प्रान्त के शु यांग जिले से हूँ ,शु यांग जिला च्यांगसु प्रान्त में अपेक्षाकृत पिछड़ा माना जाता है I वर्ष 1985 में  मैंने 12 वीं उतीर्ण करने के बाद विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा में भाग लिया , मैंने चीन के प्रतिष्ठित एवं सबसे प्रसिद्द पेइचिंग विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विषय  के लिए आवेदन किया था , लेकिन जब मुझे विश्वविद्यालय द्वारा नामांकन पत्र प्राप्त हुआ तो उसमें हिंदी विषय लिखा हुआ था I

वास्तव में , मैं एक ग्रामीण विद्यार्थी था , हिंदी किस देश की भाषा है , मुझे यह भी पता नहीं था , सत्य कहूँ तो भारत के बारे में मैं पूरी तरह से अनभिज्ञ था , लेकिन मैं गाँव से निकलकर अपना भाग्य बदलना चाहता था , इसलिए पेइचिंग विश्वविद्यालय में हिंदी पढने जाने के लिए बहुत ही उत्सुक था I इसप्रकार हिंदी ने मुझे चुना और मेरे जीवन एवं आजीविका का अभिन्न अंग बन गया I

वर्ष 2000 के पहले , चीन में केवल पेइचिंग विश्वविद्यालय में ही हिंदी विषय में स्नातक पाठ्यक्रम था ,लेकिन विश्वविद्यालय में हिंदी में नामांकन का वर्ष अनिश्चित था , मुझसे पहले 1979 में हिंदी (प्रतिष्ठा ) में नामांकन हुआ था , मेरे बाद पुनः 1988 में नामांकन हुआ I वर्तमान समय में नए विद्यार्थियों के लिए नामांकन वर्ष निश्चित कर दिया गया है , प्रत्येक दो वर्ष पर एक बार हिंदी (प्रतिष्ठा) में नामांकन होता है , दस से अधिक विद्यार्थियों का नामांकन होता है, कम से कम 11-12 तथा अधिक से अधिक 15-16 नामांकन होते हैं I पेइचिंग विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद हमारे शिक्षक ने हमसे कहा कि आपलोग मन लगाकर पढ़िए , यदि आप कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करते हैं तो वो पुरे चीन में प्रथम स्थान होगा I

गाँव से आने वाले मुझ साधारण से विद्यार्थी में कोई विशेष गुण नहीं था, मुझे केवल मेहनत से पढ़ना था , इसलिए कक्षा में मैं हमेशा प्रथम स्थान पर रहता था , और “देश में प्रथम स्थान” का मैडल पर मेरा नाम अंकित हो चूका था I इस कारण से , मुझे भारत- चीन सरकार द्वारा आयोजित सांस्कृतिक आदानप्रदान कार्यक्रम के लिए चुना गया और मैं उन तीन चीनी छात्रों में से एक बन गया जो वर्ष १९८८ में हिंदी अध्ययन के लिए भारत गए थे I

१५ अगस्त १९८८ को एयर चाइना की फ्लाइट से थाईलैंड की राजधानी बैंकाक पहुंचा , जहाँ मुझे फ्लाइट बदलना पड़ा , वहां से थाई एयरवेज की फ्लाइट से १६ अगस्त को भारत की राजधानी नई दिल्ली पहुंचा I नई दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही मैंने गर्म हवा के झोंके को महसूस किया , और तब मुझे लगा कि मैं वास्तव में एक विदेशी भूमि पर हूँ , मुझे घर से दूर आने का क्षणिक वियोग भी हुआ I लेकिन शीघ्र ही मेरा सारा समय और उर्जा भारत में रहने और पढने में खर्च होने लगा , भारत में रहने एवं पढ़ने का भरपूर आनन्द मैंने १५ मई १९९० को पेइचिंग लौटने तक लिया I

मैं अपने भारत में अध्ययन जीवन को तीन भागों में बाँट सकता हूँ , पहला दिल्ली का केन्द्रीय हिंदी संस्थान जहाँ मैंने कक्षायी शिक्षा लिया , दूसरा भारतीय सांस्कृतिक परिषद् ( ICCR ) द्वारा समय समय पर दिल्ली के बाहर अध्ययन यात्रा पर ले जाना , तीसरा मेरा दैनिक स्वध्याय I कक्षाई शिक्षा का अपना विशेष महत्व है , कक्षा में हम हिंदी भाषा- साहित्य, व्याकरण के साथ साथ संस्कृत भी पढ़ते थे I चूँकि मैं अपने देश में तीन वर्ष हिंदी पढ़ चूका था , इसलिए कक्षा में मेरा प्रदर्शन हमेशा सर्वश्रेष्ठ रहता था , केंद्रीय हिंदी संस्थान में कोई भी कार्यक्रम होता था तो मेजबान का दायित्व मुझे मिलता था , जो बदले में मुझे बेहतर अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता था I

केंद्रीय हिंदी संस्थान का दिल्ली शाखा अपेक्षाकृत छोटा था , शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की संख्या भी अधिक नहीं थी , यह एक छोटे संयुक्तराष्ट्र की तरह था जहाँ  विश्व के कोने कोने से विद्यार्थी आते थे, विद्यार्थियों को चार कक्षाओं में बांटा गया था , कक्षा के बाद हम सभी इकट्ठे  होते थे, हास – परिहास करते थे , और एक बहुत ही खुशनुमा समय व्यतीत करते थे I

उस समय वहां पर एक चाय वाले बाबा रहते जो बहुत अच्छा चाय बनाते थे , हम सभी उन्हें प्यार से बाबा बुलाते थे I कक्षा के समय जब हमें चाय पीने की ईच्छा होती थी हम आवाज लगाते थे , “बाबा ! एक चाय I ” वे तुरंत जवाब देते , “आया I ” अब भी जब उस समय के बारे में सोचता हूँ मन रोमांचित हो उठता हूँ I हिंदी संस्थान के हमारे सभी शिक्षक बहुत ही अच्छे थे , दो शिक्षकों की सुनहरी यादें अभी भी मनो मष्तिष्क में ताज़ा है , एक शारदा जी थी और एक थे चन्द्रमा जी , दोनों बहुत ही मनोयोग से पढ़ाते थे , उनके पास ज्ञान का अथाह सागर था , उच्चारण बहुत ही शुद्ध था , संस्थान के निदेशक थे प्रोफ. चतुर्वेदी , वे बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे, अपनी बेटी की शादी में उन्होंने हम सभी विदेशी विद्यार्थियों को आमंत्रित किया था , किसी पारम्परिक भारतीय शादी में शामिल होने का वह ,मेरा पहला अवसर था , जो आज भी मेरे यादों में पूरी तरह ताज़ा है I

प्रो. चतुर्वेदी बहुत ही मित्रवत व्यवहार करते थे , चूँकि मेरे अंक हमेशा अच्छे आते थे इस कारण उनकी मुझपर विशेष कृपालुता रहती थी , अक्सर उनसे तर्क –वितर्क करता था, उनसे मैंने बहुत कुछ सिखा I प्रो. प्रमोद मेरे शोध निदेशक थे ,जो उस समय बहुत हो युवा थे , साथ ही बहुत जिम्मेदार शिक्षक थे , उनके निर्देशन में मैंने अपना शोध पत्र पूरा किया जिसका शीर्षक था “छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद एवं उनका खंड काव्य <आंसू > ,  शोध क्रम में मुझे उनका पूरा ,मार्गदर्शन मिला I ”   प्रमोद जी अक्सर मुझे अपने मोटरसाइकिल पर बैठा कर हिंदी के प्रसिद्ध कवियों एवं लेखकों से मिलाने जाते थे , जिनमें नरेन्द्र कोहली एवं नामवर सिंह प्रमुख थे , हिंदी के क्षेत्र में इन सभी का बड़ा नाम था , उनसभी गुरुजनों का मुझपर गहरा प्रभाव पड़ा , मुझे लगता है कि मेरे हिंदी के अकादमिक क्षेत्र में वे सब मेरे प्रेरकों में से एक हैं I

भारत में अध्ययन की अवधि में मैं अक्सर ICCR (भारतीय सांस्कृतिक सबंध परिषद् ) द्वारा आयोजित study trip में भाग लेता था , साथ ही अकेले यात्रा भी करता था , भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया , यात्राओं  के माध्यम से मैंने हिंदी और भारत के बारे में गहरी समझ विकसित की I

मैंने अनुभव किया कि भारत में कई प्रकार की सुंदरता है , विभिन्न क्षेत्रों का अपना अलग अलग सौन्दर्य, उत्तर में गंगा का सुरम्य मैदान है तो दक्षिण में दक्कन का विशाल पठार , दक्षिण – पश्चिम में गोवा तट , दक्षिण – पूर्व में पुदुच्चेरी का समुद्र तट, राजस्थान के रेगिस्तान के ऊंट और मध्य प्रदेश के राष्ट्रीय वन उद्यान आदि में बाघ , ये सभी दृश्य बहुत ही  सुंदर हैं। भारत की संस्कृति विविधता से भरी है , खाद्य और पेय पदार्थों की विस्तृत श्रृंखला है , यह भी कह सकते हैं कि अंतहीन श्रृंखला है I

मैं एक घटना विशेष रूप से उल्लिखित करना चाहता हूँ , एक बार इंडिया गेट के पास मैंने एक बुजुर्ग महिला को हाथ में मूंगफली लिए घास पर बैठे देखा , वह अपने हाथों से एक गिलहरी को मूंगफली खिला रही थी, चारों ओर हरी हरी घासें ,शांत पेड़ , गिलहरी उछलकूद कर रही थी , महिला बहुत प्रसन्न थी, ये सभी मिलके एक बहुत ही रमणीय और अद्भुत दृश्य बना रहे थे , जो बहुत ही लुभावना था I मानव और प्रकृति का वह  संगम अकथनीय था I इसप्रकार मुझमें धीरे धीरे भारत की बहुत ही गहरी समझ विकसित हो गई थी I वास्तव में भारत एक बहुत महान देश है I

दिसंबर 1989  का दिन मेरे लिए अविस्मरणीय हैं , जब भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी अपनी  चीन यात्रा की पूर्व संध्या पर, मुझे आमंत्रित किया और मुझे उनसे मिला सुअवसर प्राप्त हुआ । वे  राष्ट्रीय स्तर के पहले नेता थे  जिनसे मैं मिला था। वह मिलनसार थे  और चीन की पीली नदी, चीन की महान दीवार और ह्वेनसांग के बारे में गहरी समझ रखते थे ।उन्होंने  मुझे अच्छे से हिंदी सीखने और भविष्य में चीन और भारत के के मध्य मैत्री सम्बन्ध को प्रगाढ़ करने  में योगदान देने के लिए प्रेरित किया ।

कालांतर में मुझे राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया गया जहाँ मैं भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति और बाद में राष्ट्रपति का पद सँभालने वाले महामहिम डॉ शंकर दयाल शर्मा से मिलने का अवसर मिला , अपने एक मित्र के विवाह में तत्कालीन रक्षामंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बनने वाले पीवी नरसिम्हा राव सहित अन्य प्रसिद्ध राजनितिक हस्तियों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ I वे सभी मेरे प्रति बहुत ही मित्रवत थे , उन्हें यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि मैं भारत में हिंदी का अध्ययन करने वाला एक चीनी छात्र था I मुझे यह सोचकर बहुत प्रसन्नता हुई कि भारत –चीन मैत्री संबंध को हिंदी के सहयोग की आवश्यकता है I

चीन वापस लौटने के बाद, मैंने  विभिन्न अवसरों पर चीन यात्रा पर आये भारतीय राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमन, कोचेरिल रमन नारायणन, अब्दुल पाकिर  जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम, प्रतिभा पाटिल, प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह , नरेंद्र मोदी  तथा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मिलने का अवसर मिला, ये सभी हिंदी को बहुत महत्व देते थे (हैं ), इन सभी से मैंने हिंदी में ही बातचीत किया , न कि अंग्रेजी में I

इतना ही नहीं, मेरा चीन में कई भारतीय राजदूतों और सलाहकारों से मित्रवत सबंध बना , कई अन्य भारतीय मित्र भी बने , वे सभी इस बात से सहमत हैं कि चीन-भारत संबंधों में भाषा एक अपूरणीय भूमिका निभाती है। मुझे लगता है कि हिंदी सीखने और हिंदी के क्षेत्र में काम करने के मेरे संकल्प के पीछे भी यही प्रेरणाएँ हैं।

भारत से वापस चीन आने के बाद मैंने हिंदी भाषा व साहित्य का अध्ययन जारी रखा, चीन के प्रतिष्ठित पेइचिंग (पेकिंग ) विश्वविद्यालय से मैंने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और पीएचडी किया तथा चीन में हिंदी में पीएचडी करने वाला पहला शोधार्थी था I मेरे पीएचडी शोधपत्र का विषय था “स्वतंत्रता पूर्व का हिंदी नाटक ,” मेरे शोध पत्र को  चीन और भारतीय विद्वानों द्वारा बहुत सराहा गया  तथा मेरे शोध पत्र को पेइचिंग विश्वविद्यालय द्वारा “उत्कृष्ट  पीएचडी शोध प्रबंध पुरस्कार ”  दिया गया I

मेरे सभी चीनी शिक्षक बहुत ही उत्कृष्ट थे , मेरे गुरुजनों में प्रो. ल्यु आन वू , प्रो. ईन होंग य्वान , प्रो. मा मंग कांग  तथा प्रो. चिन तिंग हान आदि प्रमुख थे जिन्होनें पेइचिंग विश्वविद्यालय में मुझे हिंदी भाषा व साहित्य पढ़ाया था , वे जितने विद्वान थें उससे अधिक सरल ह्रदय थे , उनसे मैनें बहुत कुछ सीखा है I इसके अलावा संस्कृत के महान विद्वान प्रो. ची श्येन लिन तथा प्रो. चिन खमु का मुझपर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा , इन्होनें मुझे हिंदी तो नहीं पढ़ाया लेकिन मैं अक्सर इनसे मिलने जाता था , प्रो. ची श्येन लिन से रामायण पर चर्चा होती थी (प्रो. ची श्येन लिन को वाल्मीकि रामायण के संस्कृत से चीनी भाषा में अनुवाद के लिए जाना जाता है , इस भगीरथी कार्य के लिए इन्हें भारत सरकार द्वारा “पद्म भूषण ” से सम्मानित किया गया है I  ),  प्रो. चिन खमु से महाभारत पर चर्चा होती थी ( महाभारत का संस्कृत से चीनी अनुवाद इनके द्वारा किया गया है ) I  मैं हमेशा सोचता हूँ , इन सब चीनी गुरुजनों के आशीर्वाद के बिना मैं आज यहाँ नहीं होता I

वर्ष 1991 से मैंने सप्ताह में एक दिन हिंदी पढाना शुरू किया , विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाने का अनुभव बहुत ही सुखद रहा I  1996 में पीएचडी पूरी करने के बाद मैं पेइचिंग विश्वविद्यालय में हिंदी शिक्षक बन गया और औपचारिक रूप से हिंदी अध्यापन तथा शोध कार्य शुरू किया , विद्यार्थियों को सिखाता था और उनसे सीखता भी था , एक सुखमय जीवन जीने लगा I

धीरे धीरे , भारत पर शोध करते , आलेख लिखते एवं प्रकाशन करते करते मुझे शिक्षक के पहचान से प्रेम हो गया । इसप्रकार हिंदी अध्यापन और हिंदी के माध्यम से भारत का अध्ययन करना मेरी दिनचर्या हो गई , इसलिए मुझे हिंदी भाषा व् साहित्य तथा भारतीय संस्कृति से अधिक लगाव होने लगा , तथा हिंदी एवं भारत अध्ययन को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने के लिए कृतसंकल्प हो गया I

मेरे लिए हिंदी केवल एक साधारण सी विदेशी भाषा नहीं है,हिंदी एक जीवंत भाषा है जिसमें प्राण है ;वह भारत का प्रतीक है , भारतीय सभ्यता व् संस्कृति की पहचान है , वह भारतीय लोगों को समझने की कुंजी एवं खिड़की है , वह “भारत ” है I इसलिए मैंने न केवल चीन में हिंदी पढाया , बल्कि चीन में हिंदी के प्रचार प्रसार की भी जिम्मेदारी ली I मेरे सतत प्रयासों के फलस्वरूप आज चीन के 17 विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढाई हो रही है जो वर्ष 2000 के पहले एक विश्वविद्यालय में हो रही थी, हिंदी पढने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़कर 400 -500 हो गई है जो वर्ष 2000 के पहले की तुलना में दस गुणी अधिक है I

इसके अलावा , मैंने दक्षिण एशियाई भाषा संघ ,चीन की स्थापना की है जिसमें हिंदी सबसे महत्वपूर्ण भाषा है I हम प्रत्येक वर्ष चीन में अकादमिक सम्मेलनों का आयोजन करते हैं, साथ ही विद्यार्थियों को हिंदी सीखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय  स्तर पर हिंदी संभाषण एवं हिंदी लेखन प्रतियोगिता का आयोजन करते हैं I मुझे इस बात पर गर्व है कि वर्तमान में  चीनी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षक या तो मेरे विद्यार्थी हैं या मेरे विद्यार्थियों के विद्यार्थी हैं । मेरा लक्ष्य है कि चीन में कम से कम 25 विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाया जाय , और हिंदी के विद्यार्थियों  की संख्या 1,000 तक पहुंच जाए। मुझे लगता है कि चीन-भारत संबंध तथा चीन-भारत मैत्री के लिए यह संख्या उपयुक्त है, अपितु यह संख्या कम है । वर्तमान में मैं हिंदी अध्यापन एवं हिंदी प्रचार के साथ साथ हिंदी शोध कार्य में अपना लघु योगदान दे रहा हूँ I मेंरे प्रकाशित शोध कार्यों में छः प्रबंध शामिल हैं जिनमें हिंदी साहित्य का इतिहास (सह –लेखक), हिंदी नाट्य साहित्य, टैगोर के साहित्यिक कार्यों पर अध्ययन (सह –लेखक ), आधुनिक एवं समकालीन हिंदी साहित्य (सह –लेखक ), मध्यकालीन भारतीय धार्मिक साहित्य (सह -लेखक ), हिंदी पाठ्यपुस्तक (मुख्य संपादक ) तथा तीन अनुदित पुस्तकें सूरसागर (ब्रजभाषा से चीनी),भारत एवं चीन (अंग्रेजी से चीनी ) , भारत एवं चीन – एक हज़ार वर्षों का सांस्कृतिक संबंध(अंग्रेजी से चीनी ) शामिल हैं I इसके अलावा बीस से अधिक पुस्तकों का संपादन किया है जिसमें वृहद् चीनी –हिंदी शब्दकोष , इनसाइक्लोपीडिया ऑफ चाइना-इंडिया कल्चरल कॉन्टैक्ट्स, 80 से अधिक अकादमिक शोध पत्र प्रकाशित किया है I

उपरोक्त उपलब्धियों को देखते हुए मुझे कई पुरस्कार मिले हैं, जैसे 8वें विश्व हिंदी सम्मेलन में  “अंतर्राष्ट्रीय हिंदी पुरस्कार”, चीन के भारतीय दूतावास से “हिंदी योगदान पुरस्कार”, केंद्रीय हिंदी संस्थान से “डॉ जॉर्ज ग्रियर्सन पुरस्कार”, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा “फादर कामिल बुल्के पुरस्कार “, साहित्य अकादमी द्वारा  “आनंद कुमारस्वामी फेलोशिप”, “सामाजिक विज्ञान और मानविकी में उत्कृष्ट शोध” के लिए पेकिंग विश्वविद्यालय द्वारा  “उत्कृष्ट डॉक्टरेट शोध प्रबंध पुरस्कार” आदि शामिल है I

वर्तमान में, मैं पेइचिंग विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के निदेशक के रूप में हिंदी अध्यापन कर रहा हूं।”हिंदी साहित्य”, “भारतीय संस्कृति”, “भारतीय इतिहास” और “भारतीय धर्म” “भारतीय आधुनिक साहित्य”, “भारतीय धर्म” और “दक्षिण एशियाई संस्कृति” आदि क्षेत्र में शोध कार्य में लगा हुआ हूँ ।

मुझे हिंदी पसंद है , मुझे भारतीय संस्कृति पसंद है , मैंने अपना पूरा जीवन हिंदी के अध्यापन एवं भारत पर अध्ययन करने के लिए समर्पित कर दिया है I आशा करता हूँ कि भविष्य में चीन में हिंदी और पुष्पित पल्लवित होगी तथा हिंदी रुपी पुष्प के सुगंध से भारत –चीन मैत्री सम्बन्ध महक उठेगा , भारत – चीन सम्बन्ध को प्रगाढ़ करने में अपनी महती योगदान देती रहेगी I

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