
~ आशुतोष अडोणी, (मराठी लेखक,वक्ता), नागपुर, महाराष्ट्र

हिंदी अनुवाद – विजय नगरकर, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र
भाषा का मर्म
वेध एक
एक मराठी लेखिका के बेटे के शादी का स्वागत समारोह था। आत्मीयता से भरा आतिथ्य। मराठी साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र के गणमान्य व्यक्तियों की सुगंध थी। अचानक दो आंग्ल-प्रभावित, सुख-संपन्न लोगों की बातचीत शुरू हो जाती है। बातचीत सामान्य होती है। वे दो प्रतिष्ठित कवयित्रियों के पति हैं, जिन्होंने अमेरिका में मराठी मंडल में अपने कविता संग्रहों का विमोचन किया है।
वे अपनी बहुओं के बच्चों के जन्म के बाद हाल ही में भारत वापस आए हैं। धीरे-धीरे सबका ध्यान उनकी चर्चा की ओर आकर्षित होने लगता है, क्योंकि ये मराठी लोग, जो पूरी तरह से अंग्रेजी पोशाक में सजे थे, लगातार अंग्रेजी में बात कर रहे थे। उसी समय, वे यह भी सुनिश्चित कर रहे थे कि दूसरों का ध्यान उन पर जाए। हाल की अमेरिका यात्रा की उमंग उनमें उमड़ रही थी। ‘डर्टी इंडिया’ में उनका दम कैसे घुट रहा है, इसका पूरा वर्णन। साथ में तिरस्कार और उपहास के फुफकार… ‘दिस कंट्री कुड नॉट चेंज यार…’ यहां जन्म लेने की लाचारी, निराशा मानो उन्हें जीना ही नहीं दे रही थी।
एक बड़ी मराठी लेखिका अपनी पोती से बात कर रही थीं। उनके सटीक शब्द समझ में नहीं आ रहे थे, लेकिन उस अंग्रेजी-प्रभावित भाषा से कहीं पढ़ा हुआ एक संवाद आंखों के सामने आ गया।
एक दादी से पोते का निवेदन:
“ग्रैंडमा, मेरे स्कूल में टुमॉरो मराठी डे सेलिब्रेट करने वाले हैं। मुझे कॉम्पीयरिंग करना है, तो अच्छी इंप्रेसिव स्क्रिप्ट लिख दो ना, मतलब इंट्रो, कंक्लूजन और कोट्स या इंसर्शन्स दे दो, रेस्ट आई विल मैनेज।”
दादी पूछती हैं, “प्रोग्राम का स्वरूप कैसा होगा स्वीटू?”
वह बताता है, “ऑडियंस में कॉलेज का स्टाफ और स्टूडेंट्स ही होंगे मैक्सिमम। डायस पर डिपार्टमेंट हेड्स और कोई मराठी एक्सपर्ट चीफ गेस्ट के रूप में होंगे लिटरेरी काइंड ऑफ। एलोकुशन वगैरह कॉन्टेस्ट्स के फाइनल राउंड होंगे और इमीडिएटली प्राइस डिस्ट्रीब्यूशन। हार्डली कपल ऑफ आवर का प्रोग्राम होगा। सॉरी, जरा इलेवंथ आवर में बता रहा हूं, लेकिन प्लीज लिख दो ना…!”
मुझे कॉर्नव्हाव याद आता है। कॉर्नव्हाव बेनॉय, फ्रांस का यह पत्रकार एक फिल्म की शूटिंग के लिए भारत आया है। उसे लेकर मैं हेमलकसा जा रहा हूं। साथ में दुभाषिया प्रभाकर पिंटो भी है। अहेरी के पास एक छोटे से गांव में चाय के लिए हमारी गाड़ी रुकती है। चाय पीते-पीते कॉर्नव्हाव अचानक शरारती हंसी हंसने लगता है। बहुत कुरेदने पर गाड़ी में बैठते-बैठते एक बोर्ड की ओर इशारा करते हुए वह एक ही वाक्य बोलता है.. पिंटो मुझे फ्रेंच में उस वाक्य का अनुवाद बताता है: “भले आदमी, आज मुझे समझ आया कि साधन-संपन्न होने के बावजूद तुम्हारा देश गरीब क्यों है!” मेरे चेहरे पर कुछ न समझने के भाव देखकर बेनॉय एक बोर्ड की ओर इशारा करता है.. एक छोटे से, दूरदराज के गांव की उस इकलौती चाय की दुकान पर अंग्रेजी में लिखा एक बोर्ड लटका होता है – ‘दी न्यू इंडिया टी स्टॉल’ …।
स्वागत समारोह अब गुलजार हो चुका था। ‘उन’ दो देसी ‘अंग्रेजों’ की बातें अब चरम पर थीं… ध्वनि-विस्तारक यंत्र से गूंज रही सुरेश भट्ट की पंक्तियाँ अब कुछ ज़्यादा ही दयनीय लग रही थीं…
“पाहुणे घरी असंख्य पोसते मराठी, आपुल्याच घरात हाल सोसते मराठी..” (मराठी अपने घर में असंख्य मेहमानों को पालती है, अपने ही घर में मराठी तकलीफें झेलती है..)
वेध दोन
दुनिया भर के यहूदियों के सपने के सच होने का क्षण करीब आ गया था। एक-दो नहीं, अठारह सौ साल का संघर्ष। अपनी मातृभूमि को वापस पाने के विजयी सपने पर लगभग पच्चीस पीढ़ियां पली-बढ़ीं। दुनिया भर में बिखरे हुए यहूदियों के पास, जो निर्वासित थे, केवल अपनी भूमि को प्राप्त करने की अटूट आकांक्षा थी… हर रविवार को, जहाँ भी जगह मिलती, दुनिया का हर दीवाना यहूदी आकाश की ओर प्रार्थना करता था। “हे आकाश में रहने वाले पिता, अगले साल इस दिन मुझे मेरे यरूशलेम ले जा।”
भाषा, वेशभूषा, भूमि, रिश्ते – इन सबसे सैकड़ों सालों से उनका अलगाव था। किस बल पर उन्हें यरूशलेम वापस मिलेगा? और यदि मिल गया तो क्या वे उसे बनाए रख पाएंगे? केवल सपनों के बल पर!
उनके पास भूमि नहीं थी, लेकिन राष्ट्र जीवित था। आखिर देश केवल ज़मीन का टुकड़ा नहीं होता। समान जीवन मूल्यों, इतिहास, पूर्वजों और आदर्शों को मानने वाले लोगों से राष्ट्र बनता है। वह जीवित था, दुनिया भर के यहूदियों की धमनियों में।
राष्ट्रीयता का स्वाभिमान जागरण शुरू हुआ। पिंस्कर ने ‘मातृभूमि की ओर चलो’ का आह्वान किया। थियोडोर हर्ज़ल की पुस्तक ने सुस्त पड़े यहूदियों में आत्म-बोध की चिंगारी जलाई। स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र इज़राइल की प्रसव पीड़ा शुरू हुई।
पुनरुत्थान के इस दौर में एलिज़र पर्लमैन नाम का बीस साल का युवक बहुत बेचैन था। अपनी मातृभाषा हिब्रू की दयनीय स्थिति इस वैद्य को असीम पीड़ा दे रही थी। धर्मग्रंथों में उलझकर हिब्रू मृतप्राय हो गई थी। पर्लमैन ने उसके पुनरुत्थान का जुनून पाला। भाषा के आधार पर ही राष्ट्र खड़ा होता है, जीता है और बढ़ता है। पर्लमैन ने बेन यहूदा नाम धारण कर हिब्रू की प्राचीन पोथियां इकट्ठा कीं। कहा जाता है कि उस समय केवल उंगलियों पर गिनने लायक ही लोग हिब्रू बोल सकते थे। उनमें से अधिकांश नब्बे पार कर चुके थे। बचे हुए लोगों की मदद से यहूदा ने हिब्रू शब्दकोश के 17 खंड संपादित किए। दो हज़ार साल पहले रुकी हुई हिब्रू को फिर से प्रवाहित करने के लिए उसमें हज़ारों नए शब्द जोड़े। हिब्रू स्कूल और पत्रिकाएँ निकालीं। उनके तीस साल के अथक परिश्रम के बाद हिब्रू एक जनभाषा के रूप में जड़ पकड़ने लगी। 1948 में इज़राइल एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय हुआ। राजभाषा के उच्च सिंहासन पर हिब्रू की प्रतिष्ठापना हुई।
यदि लोगों के मन स्वाभिमान से जीवित और खिले हुए हों, तो उनकी मरणासन्न भाषा भी सजीव, धन-संपन्न हो जाती है। इसके विपरीत, यदि कोई समाज मन से और कर्म से मृतप्राय हो गया हो, तो उसकी अमृत में भी बाजी जीतने वाली भाषा को भी उपेक्षा के ढेर पर गिरना पड़ता है! आज इज़राइल गर्व से जीवन जी रहा है। मातृभाषा हिब्रू द्वारा जगाए गए आत्मविश्वास के बल पर इज़राइल ने सभी आक्रमणकारियों को पराजित कर दुनिया का एक शक्तिशाली राष्ट्र बन गया है। मातृभाषा माँ के दूध जैसी होती है। उस पर पली-बढ़ी पीढ़ी की नाल मातृभूमि से मज़बूती से जुड़ी रहेगी ही। विदेशी पाउडर दूध पर पले-बढ़े परजीवी से राष्ट्रीय स्वाभिमान की अपेक्षा ही क्या कर सकते हैं?
हस्ताक्षर यानी अपनी पहचान। क्या हम इज़राइल से कुछ सीखेंगे, जो अपनी पहचान दूसरों को बताते समय भी विदेशी भाषा का उपयोग करते हैं?
(आर्त अनावर नामक ललित लेख संग्रह से लिया गया लेख)
लेखक परिचय
आशुतोष अडोणी, (मराठी लेखक,वक्ता), नागपुर, महाराष्ट्र
मराठी के लेखक,वक्ता
संस्कार भारती, विदर्भ नागपुर के महामंत्री
