डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन

खंडित मुकुर

मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा
आपकी नजरों से गिरकर
धूल में
अब रूप कितने देखता
प्रतिबिम्ब कितने दे रहा हूं।
आप चतुरानन दशानन या शतानन
रूप जितने भी बनाते
मैं उन्हें शत-शतमुखी
गंदले व टूटे
आपके चेहरे दिखाता
आपको असली।

दंड देकर कोई खंडित कर चुके
जब एकता को
एक आभा
एक अंतश्चेतना को
रक्तबीजों-सी उठे वह टूट गिर कर
और वह चिनगारियां बन
भस्म करती है
नहीं तो ताप देती
और कालिख छिप नहीं पाती
अधेरों में
वही फिर मोम बनकर पिघलती है
तन जलाती है
उसी का जो तना था।

मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा
देखता हूं जिंदगी तो और भी टूटी हुई है
हर जगह चिकनी सतह की ताजगी में
एक पतझड़ और सूखी-सी धरा है या
लोग टुकड़ों में बंटे
पर गोंद सपनों की लगाकर
बस लिफाफों-से पड़े हैं डाकघर में
पहुंचते उम्मीद के खोए पते पर।

मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा
धूल में
हर कांच का हीरा बनाता
या किसी अनजान के घायल पगों से
दे रहा पहचान
कण-कण को युगों की
खून बनकर जो गिरी थी
काल की रौंदी हुई पगडंडियों पर।

मैं पड़ा खंडित मुकुर-सा
देखता आकाश है प्रतिबिंब मेरा
कामनाएं किस तरह से टिमटिमा-कर
दूर होती
टूटती, बुझती, बिखरती
या रिझाती हैं
मगर मुझसे निकल-कर
क्यों मुझी से रूठ जाती हैं।

***** ***** *****

(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »