डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन

एक और आत्मसमर्पण

खोलकर डोरी धनुष की
और निज तूणीर
तीखी वेदनाओं से भरा
मैं डालता हूं
आज फिर हथियार मन के

स्वर्णलता के बिछाए जाल से
अब तीर अपने आप छूटेंगे
धनुष बिन
बांधकर आघात मेरे
वे सदा
नूतन शिखाएं
दीप्त करते जाएंगे
मेरी समर्पणशीलता की छटपटाहट
नित्य अब गूंजा करेगी
अब तनावों की सुलगती लकड़ियों से
ध्वनित पीड़ित ज्वाल का
आह्वान होगा अर्थ प्रतिहत
व्यूह में मरने न पाएंगे अकेले
दान मेरा बन रहा है
आज सम्बल
और मैं नतशिर हुआ
फिर युद्ध को उद्यत रहूंगा।

***** ***** *****

(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »