
डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन
अधर का पुल
अधर में रखा है एक पुल
न इधर कोई किनारा है उसका
न उधर।
दिशाओं से ऊपर
आर या पार ले जाने की प्रतिबद्धता से मुक्त
शून्य को चुनौती देता हुआ।
जब भी जाता हूं इस पर
देखता हूं अनन्त विस्तार में
धरती एक अन्य पुल है
एक दूसरा अधर
जिससे बहती है मुस्कानों और सिसकियों की
धूपछांही गंगा।
इस संगम पर पुल है
मैं पुल पर हूं
मुझे कहीं न जाकर
सब ओर जाना है
सब कुछ पाना है
और पुल पर छोड़ जाना है
ये मेरा नहीं
न कभी था
न होगा।
दो चरणों का आधार है
मिलता है और छूट जाता है
अंधेरे और उजाले की सीढ़ियों पर
चढ़ता और उतरता मैं
कोई भी तो नहीं हूं।
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(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)