५० वर्ष से भी अधिक समय हो गया जब हम भारत व अपना परिवार तथा वहाँ के सभी बन्धन छोड़ कर यहाँ कैनेडा आ पहुँचे; आँखों में कुछ स्वप्न लिये, कुछ आशंकायें भी और बहुत सारा दुख अपना देश छोड़ने का। बस ललक थी विदेश जाने की, बानक भी बनते गये। तैयारियाँ हो गईं, पासपोर्ट बन गये, ख़रीदारी हो गई और मैं अपने माता-पिता का दिल तोड़ कर, उनके नाती-नाति न को लेकर चल पड़ी। वादा तो यह किया था अस्वस्थ माँ से कि जल्दी-जल्दी आती रहूँगी, पर पता नहीं था कि कहने से करना कितना कठिन हो सकता है।

आने से पहले हमारी चचेरी बहन से पत्र व्यवहार से कुछ बातें पता चलीं। वे कुछ समय से कैनडा में रह रही थीं। उन्होंने हमारी छोटी-बड़ी चिन्ता का बड़ी अच्छी तरह समाधान किया तथा यह लगने नहीं दिया कि आने वाली चुनौतियों का सामना करने में हमें कोई भी कठिनाई होनी चाहिये।

भारत छोड़ने का दिन भी आ गया और जैसे होता है, वही हुआ। हम चल तो पड़े परंतु अपने मन-प्राण वहीं छोड़ दिये।

मेरा तीन वर्ष का बेटा हवाई जहाज़ देखते ही, उसकी आवाज़ सुन कर, डर कर वापस भागा, रोते हुये बोला कि वह नहीं बैठेगा हवाई जहाज़ में, वह गन्दा है; उसका यह व्यवहार देख कर हम सबकी आँखों में आँसू भर आये। शायद हम सभी यही चाह रहे थे। (उन दिनों पहुँचाने आने वाले संबंधी जहाज़ तक आ सकते थे) रोते हुये बच्चे को मेरे भाई ने गोद में उठा कर प्लेन तक पहुँचाया। रास्ता भी कट गया सोते-जागते।

ख़ैर, आने पर घर जमाया तब समझ में आया कि नौकरी भी ढूँढ़नी चाहिये। इधर-उधर बातचीत से पता चला कि उस समय यहाँ अध्यापकों की कमी थी। अपने पिता जी के प्रोत्साहन पर पढ़ाई करते रहना ख़ूब काम आया। मैंने बच्चों के स्कूल में  पढ़ाने की नौकरी के लिये अर्ज़ी भेज दी। कुछ ही दिनों में इंटरव्यू के लिये बुलाया गया।

अब प्रश्न यह उठा कि इंटरव्यू में पहना क्या जाये। हम तो साड़ी या सलवार पहनते हुये आये थे। विदेशी पहरावा तो केवल देखा था दूसरों पर, व दूसरों पर ही ठीक लगता था। अपना पहनना तो दूर, कल्पना करना भी कठिन ही था। फिर कौन सी दुकान से क्या ख़रीदा जाये, यह समझ भी नहीं थी। किससे पूछें क्या करें? अँग्रेज़ लोगों के साथ कभी बातचीत भी नहीं हुई थी, इंटरव्यू कैसे देंगे?

अन्ततः आ गया समय इंटरव्यू में जाने का। अब तो मरता क्या न करता वाली हालत हो गई, साथ ही साथ अपना देश प्रेम जागृत हो उठा। क्यों न साड़ी ही पहनी जाये? हमारा पहरावा है और अपने विषय में भी तो कुछ बताने का यह अच्छा अवसर दिखाई दिया। जो होगा देखा जायेगा। हाँ, इतना तो पता था कि यहाँ पर पुरुष वर्ग से इस तरह की सिचुएशन में हाथ मिलाना चाहिए। सोचा, कुछ तो विदेशी होना चाहिये।

अपने विषय की तो तैयारी थी। हल्के आसमानी रंग की साड़ी पहन, मन ही मन घबराती हुई सी पहुँची। वहाँ एक बड़े से कमरे में ले जाया गया। एक चमकती हुई मेज़ के चारों ओर चार-पाँच अँग्रेज़ पुरुष बैठे थे। मुझे देखते ही वे खड़े हो गये और एक-एक करके हाथ मिलाया तथा एक ख़ाली पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। मैं धन्यवाद कह कर बैठ गई। जहाँ तक मुझे याद है, मुझे घबराई हुई देख कर, उन सबने ऐसे ही प्रश्न पूछे जिनके कारण मैं सहज हो गई व आगे पूछे गये प्रश्नों से, जो कि अधिकतर पढ़ाई आदि के विषय में ही थे, कोई कठिनाई नहीं हुई।

उल्लेखनीय यह है कि उन सभी महानुभावों ने मेरे पहरावे की प्रशंसा की व उसके विषय में जानने की उत्सुकता जताई। इस बात से मुझे यह आश्वासन मिला कि अपने नये देश में हमारा जीवन सकारात्मक ही होना चाहिये। यद्यपि कुछ वर्षों के बाद सुनने में आया कि साड़ी, बिन्दी आदि के कारण, कहीं-कहीं कुछ नकारात्मक हादसे भी हो चुके हैं।

कैनेडा में आकर, हमने अपना जीवन लंडन नामक शहर में आरंभ किया। इस शहर का नाम एक अँग्रेज़, लॉर्ड सिमको ने रखा था तथा इंग्लैंड के लडंन की तरह यहाँ की एक छोटी नदी का नाम, टेम्स नदी तक रख दिया था। यह शहर अपने विश्वविद्यालय व सुन्दर पार्क और पास के शहर स्ट्रैट्फ़ोर्ड के लिये भी जाना जाता है जहाँ शेक्सपियर के नाटक प्रस्तुत किये जाते हैं। दूर-दूर से लोग यह नाटक देखने आते हैं। यह शहर दो बड़ी-बड़ी झीलों लेक ह्युरॉन और लेक ईरी के बीच बसा हुआ है और टोरोंटो से लगभग २०० किलोमीटर की दूरी पर है। लंडन नगर कैनेडा देश के ओंटेरियो प्रान्त का भाग है। लंडन शहर का हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है, इसने न केवल हमें नये देश में एक नई दिशा दी बल्कि सारे परिवार को शिक्षा व शिक्षण की ओर प्रोत्साहित किया व एक सुन्दर भविष्य की नींव डाली।

प्रति दिन नई बातें, नये व अद्भुत अनुभव! उस समय ऐसा ही लगता था। पहली बर्फ़ का अनुभव भी निराला ही था। सुबह होना ही चाहती थी कि एक दिन बिस्तर पर से ही खिड़की के बाहर देखा तो कुछ बूँदें सी गिरती दिखीं। उठ कर झाँका तो बूँदें सफ़ेद होती दिखाई दीं। अरे! यह तो बर्फ़ गिर रही है। उत्साह से सबको उठाया और मैं तो जैसे कपड़ों में थी बाहर निकल पड़ी, वह दृश्य आज भी याद है। हरी घास पर रुइयाँ बादल जैसी बर्फ़ बिखरी हुई व भीनी-भीनी ठंड। यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं ढंग से कपड़े पहने बिना ही घर से बाहर आ गई हूँ; जब हाथ-पैरों में ठंडक आने लगी तब समझ में आया।

भारत में तो क्रिसमस का नाम ही सुना था। यहाँ आने पर पाया कि यह त्योहार बहुत महत्वपूर्ण है व देखा कि बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। त्योहार आने के कुछ दिन पहले कुछ नये लोग हमारे घर मिलने आये और हम सबको अपने घर क्रिसमस पर आने का न्योता दिया। हमारे लिये यह नई बात थी, पर उन्होंने बताया कि शहर में जो नये लोग आते हैं उन्हें ऐसे ही विभिन्न घरों में बुलाकर स्वागत किया जाता है। खाना व उपहार आदि दिये जाते हैं। इस एक ही घटना का हम सब पर बड़ा प्रभाव पड़ा। यह प्रथा अब ना सही, पर इस देश में अभी भी बाहर से आए लोग, अपनी-अपनी विभिन्नताओं के साथ रहते हैं तथा यहाँ के संविधान के अनुसार किसी से भेद भाव नहीं किया जा सकता।

उन दिनों घर का भारतीय सामान हर जगह नहीं मिलता था, दूर किसी बड़े नगर या टोरोंटो जाकर लाते थे, उसका भी अपना आनन्द होता था। छुट्टी के दिन सारा परिवार सामान लेने निकलता। साथ में रास्ते के लिए खाने-पीने का सामान लेकर निकल पड़ते। अच्छी-ख़ासी पिकनिक हो जाती। एक परिवार के सदस्य बहुत सा सामान लाकर दूसरे परिवारों के साथ बाँट लेते।

उन दिनों अपने देशवासी बहुत कम दिखाई देते। जब कभी भी मिलते, उनसे परिचय बढ़ाने का प्रयत्न होता। क्योंकि कहीं न कहीं अपना देश व देशवासी सदा ही स्मृति में रहते थे।

एक बार हम पैसे देने की लाइन में थे कि कुछ दूर आगे जाते हुये एक भारतीय दंपति दिखाई दिये। उन्होंने भी हमें देखा और दौड़े हुये आये, बातचीत की तथा अपने घर ले गये। बहुत दिनों तक उनसे मित्रता बनी रही।

इसके बाद तो हमने कई नगर बदले, आवश्यकतानुसार नौकरी व स्कूल भी। नये-नये अनुभव होते गये व जीवन आगे बढ़ता गया, उम्र भी। अब ५० वर्ष पीछे देखती हूँ तो लगता है, बहुत कुछ पीछे छूट गया है। चलते-चलते छोटी-छोटी पगडंडियाँ बड़ी, चौड़ी हो गईं हैं, कुछ सुनसान सी।

सामाजिक, तकनीकी, भौगोलिक आदि कितनी ही स्थितियाँ बदल गईं हैं तथा इनका जीवन पर प्रभाव पड़ना आवश्यक है। जीवन अपनी निश्चित गति से आगे बढ़ रहा है।

अब टोरोंटो आना-जाना ऐसा है जैसा पास-पड़ोस में जाना। ऊँची-ऊँची भव्य इमारतों ने छोटे घरों की जगह ले ली है। शॉपिंग के स्थान तो अब एक छोटे-मोटे नगर के बराबर हो गये हैं या यह कहना उचित होगा कि उम्र के साथ वहाँ जाना, घूमना कठिन होता जा रहा है। यह भी सच है कि दूरियाँ कम हो गईं है। जब इच्छा हो संसार के किसी भी कोने से बात हो सकती है। ५० वर्ष पहले भारत से ही बात करना असंभव सा लगता था।

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-इन्दिरा वर्मा

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