
नीना पॉल को याद करते हुए

-डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई, ब्रिटेन
नीना पॉल से मेरा परिचय मेरे घर पर तेजेंद्र शर्मा जी द्वारा आयोजित कथा यूके की कथा गोष्ठी में हुआ था। उस दिन की गोष्ठी में वे अपनी बहुचर्चित और प्रिय कहानी, ‘आख़िरी गीत’ पढ़ने के लिए लैस्टर से आई थीं । यह संक्षिप्त सी मुलाकात कब गहरी दोस्ती में बदल गई, पता ही नहीं चला। यह उनके स्वभाव की ही विशेषता थी उनके उपन्यास ‘तलाश’ की सरगम की तरह, जो कहती है, ‘कुछ लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे जिससे भी मिलते अपना बना लेते हैं।’
पहली भेंट के बाद उनके निकट आने के अनेक अवसर मिलें जिनमें टुकड़ों-टुकड़ों में उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं से परिचित और प्रभावित होती गई। हर व्यक्ति में अच्छाई देखने की सकारात्मक मनोवृत्ति और अपने लेखन के प्रति एकाग्र प्रतिबद्धता के साथ-साथ उनमें एक सहज आत्मीयता थी जिसके कारण वे शीघ्र ही सबके साथ जुड़ जाती थीं। बातचीत के दौरान उनकी कहानियों के बारे में चर्चा होना स्वाभाविक था। जब कभी वे मुझे अपनी कोई नई कहानी पढ़ने के लिए भेजतीं उन्हें मालूम था कि मैं अपनी दो टूक राय दूँगी। वे अपनी बात को डिफैण्ड किए बिना कहानी के बारे में मेरी टिप्पणी को बेहद ध्यान से सुनतीं। उनके व्यक्तित्व की यह विशेषता – अपने लेखन को बेहतर बनाने की ललक उन्हें उन लेखकों से अलग करती थी जो केवल अपनी प्रशंसा करने वालों से ही घिरे रहना पसंद करते हैं। ‘शराफत विरासत में नहीं मिलती’ की भूमिका में वे लिखती हैं, ‘सीखने की कोई आयु सीमा नहीं होती। पढ़ना आपके लेखन के लिए ख़ाद का काम करता है। जाने अनजाने मैंने तेजेंद्र शर्मा जी की कहानियों से बहुत कुछ सीखा है।’
अपने उपन्यास ‘तलाश’ की भूमिका में नीना लिखती हैं, ‘जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है। बस इंसान को हार नहीं माननी चाहिए।’ यह कथन नीना के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए एक मूल्यवान कुंजी है। उनका व्यक्तिगत जीवन जैसे दुर्घटनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त था। 18 वर्ष तक शास्त्रीय संगीत, कविता और कहानी की दुनिया में निमग्न रहने वाली नीना को उनकी बड़ी बहन की असामयिक मृत्यु ने उनकी सहमति पूछे बिना एक साथ अपने से बड़ी उम्र के जीजा की दूसरी पत्नी और उनके दो बेटों की माँ बना दिया गया। यह जिम्मेदारी जैसे यथेष्ट नहीं थी, शादी के दो वर्षों बाद पति को स्ट्रोक हो गया और अगले बीस वर्ष पक्षाघात से अशक्त पति की सेवा सुश्रुषा करते बीते। फिर पति की मृत्यु के बाद शुरुआत हुई उनकी अपनी बीमारियों की जिसका अंत कैंसर से मृत्यु में हुआ। इस संदर्भ में निराला की कविता ‘दु:ख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।’ स्मरण हो रही हैं।
व्यक्तिगत जीवन में हादसों की सूनामी झेलने के बावजूद सकारात्मक सोच बनाए रख पाना उनकी एक अनुकरणीय विशेषता थी। उन्होंने जीवन के नकारात्मक अनुभवों से अवसन्न होने की अपेक्षा उनको सर्जनात्मक प्रेरणा में परिणित किया। अपने मिलने वालों से हमेशा इतनी ज़िंदादिली से मिलती थीं कि अपने अंतर्मन की पीड़ा का अहसास तक नहीं होने देती थीं। अपनी बीमारी से धीरे-धीरे अशक्त हो जाने के बावजूद जब उनसे मिलने के लिए हम दोनों लैस्टर गए तो उन्होंने बाकायदा स्वागत की तैयारी की हुई थी, रसोई में ताज़े पकौड़ों के साथ चाय की ट्रे सजी रक्खी थी। बैठक की खिड़की से पीछे के बगीचे में लगे फूल-पौधे उनके बागवानी के शौक का ऐलान कर रहे थे।
अंतिम दिनों में दर्द से बेहाल होने के बावजूद उनकी सकारात्मकता में कोई कमी नहीं आई। रात भर असह्य दर्द झेलने के बाद वे इस निर्लिप्तता से उसका जिक्र करती थीं जैसे वे अपने नहीं किसी अन्य के दर्द की बात कर रही हों। और जरा सी राहत मिलते ही लैपटॉप खोल कर लेखन में जुट जाती थीं। अब लगता है कि उनमें अपने बचे हुए दिनों में अपने अंतर्मन की भावनाओं को शब्दों में बाँधने का इतना उतावलापन क्यों था। यही उतावलापन बीमारी की अवस्था में ‘कुछ गाँव-गाँव कुछ शहर शहर’ उपन्यास के अंग्रेज़ी और गुजराती भाषा में अनुवाद करवाने की लगन में भी था। पर कैंसर ने उन सारे मनसूबों को पछाड़ दिया। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, उनकी सरल मुस्कान, हर किसी और हर स्थिति में अच्छाई देखने की सकारात्मकता और साहित्य रचना के लिए प्रतिबद्धता को सादर नमन!
11 अगस्त 2016 का दिन था, मैं उस दिन की फ्लाइट से ऑस्ट्रेलिया जा रही थी। लंदन से रवाना होने से पहले नीना जी से फोन पर बात करने की कोशिश व्यर्थ गई। वे अस्पताल में चेतन और अचेतन के बीच की स्थिति में झूल रही थीं, ऐसे में बात करना संभव नहीं हो सका। इसके पहले भी अस्पताल आना-जाना उनके लिए एक साधारण सी बात थी, पर उस दिन जैसे मन के भीतर एक गहरी उदासी और अनिष्ट का पूर्वाभास हुआ जिसकी पुष्टि 15 अगस्त की सुबह तेजेंद्र शर्मा जी की ईमेल से हुई। लंदन से हज़ारों मील दूर मन से उनकी आत्मा की शांति की प्रार्थना भर कर सकती थी। उनके जीवन और कृतित्व का महोत्सव मनाने के लिए जब कुछ मित्र ज़किया ज़ुबेरी जी के घर पर एकत्र हुए, तब भी ऑस्ट्रेलिया में होने के कारण सम्मिलित न हो सकी। इस बात का ख़ेद बना ही रहा।
नीना जी की रचना प्रक्रिया का आरम्भ नौ वर्ष की आयु में हुआ, जब उनकी एक कविता ‘मिलाप’ हिंदी समाचार पत्र और रेडियो में प्रसारित होकर सम्मानित हुई। सोलह वर्ष की आयु में उनका कहानी संग्रह ‘अठखेलियाँ’ प्रकाशित हुआ। अपने व्यक्तिगत जीवन के हादसों के बीच उनका लैस्टर से विनोद सूरी के सबरस रेडियो पर गज़लें और गीतों भरी कहानियाँ पढ़ना, उनकी नाटक मण्डली में अभिनय और कहानी और उपन्यास लिखना अनवरत रूप से चलता रहा। इसके अतिरिक्त विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दिल्ली, गाजियाबाद, लखनऊ, न्यू-जर्सी, न्यूयॉर्क, कनाडा आदि में आयोजित काव्य गोष्ठियों में सक्रिय रूप से भागीदार रहीं।
नीना एक ऐसी गज़लकार थीं जो भावनाओं को गज़ल की शक्ल दे देतीं थीं। उनकी गज़लों में उनके व्यक्तित्व का एक अलग रूप देखने को मिलता है। उनके कथा साहित्य में समसामयिक जीवन के यथार्थ के प्रति सजगता है, पर गज़ल लिखते समय जैसे भावनाओं के बाँध को खुल कर बहने दिया है। उनकी गज़ल
‘सुलझाओ न उलझी ज़ुल्फ़ों को हम और उलझ ही जाएँगे’ में सामाजिक सरोकारों से दूर रोमांटिक भावनाओं का शोर सुनाई देता है। तो
‘ये तो सोचा भी न था
मस्त रहते थे बस अपने ही खयालों में
कभी हक़ीकत से भी पड़ेगा टकराना
ये तो सोचा भी न था
कतराने लगे हर अपनों से परायों से
कभी तनहाइयों में पड़ेगा मन को बहलाना
ये तो सोचा भी न था
इनायत थी बहुत पहले ही से गमों की
आपसे मिलेगा एक और नज़राना
ये तो सोचा भी न था
मर्ज जो दिया है तो दवा भी बता दो
नामुमकिन हो जाएगा इस दर्द को छिपाना
ये तो सोचा भी न था
अब रहने भी दो तुम ये अपने सितम’
नीना’ पर करोगे तुम वार कतलाना
ये तो सोचा भी न था’
में प्रवंचित मन की वेदना है।
नीना का ग़ज़लों और गीतों का पहला संग्रह ‘कसक’ सन 1999 में. ‘नयामत’ 2001में , 2003 में ‘अंजुमन’, 2005 में ‘चश्म-ए-ख्वादीदा’ ,और 2010 में ‘मुलाकातों का सफ़र’ प्रकाशित हुए। उनका पहला उपन्यास ‘रिहाई’ 2007 में प्रकाशित हुआ जिसके लिए उनको लखनऊ से सुमित्रा कुमारी सिन्हा सम्मान दिया गया। 2010 में प्रकाशित ‘तलाश’ के लिए कथा यूके द्वारा पद्मानंद साहित्य सम्मान से नवाजा गया। उसी वर्ष उनका पहला कहानी संग्रह ‘फ़ासला एक हाथ का’ और अगले वर्ष उनके द्वारा सम्पादित ‘हिंदी की वैश्विक कहानियाँ’, 2014 में दूसरा कहानी संग्रह ‘शराफ़त विरासत में नहीं मिलती’ तथा लैस्टर के इतिहास पर आधारित ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ नामक उपन्यास प्रकाशित हुए। 2016 में उनका अंतिम कहानी संग्रह ‘एक के बाद एक’ जब प्रकाशित होकर उन तक पहुँचा, नीना अस्पताल में थीं और अपनी पुस्तक देखने के आत्म संतोष को एक कमज़ोर-अधूरी सी मुस्कान से अभिव्यक्त भर कर सकीं। यह संग्रह उपलब्ध नहीं है।
नीना जी के कथा साहित्य के संदर्भ में संवेदना और शिल्प की चर्चा करनी आवश्यक है। संवेदना से तात्पर्य लेखक की उस शक्ति या सामर्थ्य से है जिसके द्वारा वह एक सामान्य से विषय या घटनाक्रम को विशिष्ट दीप्ति प्रदान करके पाठक के लिए सम्प्रेष्य बनाता है। साधारण व्यक्ति की दृष्टि में सामान्य, तुच्छ या नगण्य प्रतीत होने वाला विषय लेखक को विशिष्ट लगता है क्योंकि वह उसे एक नये सिरे से देखता है। टी ऐस इलियेट ने इसको ‘कलात्मक ऊर्जा’ के रूप में परिभाषित किया है। कथा साहित्य में जब हम संवेदना की बात करते हैं तो उससे तात्पर्य समग्र जीवन बोध से होता है। उसमें लेखक का कथ्य, जिसे पारिभाषिक शब्दावली में कथावस्तु और उद्देश्य कह सकते हैं, के साथ सांस्कृतिक बोध अपरिहार्य है। रचना की सफलता के लिए संवेदना और शिल्प दोनों का महत्व हैं। नीना जी की रचनाओं के संदर्भ में मेरी दृष्टि यह जानने की रही है कि वे विषय वस्तु को भावुकता के स्तर पर ले जाकर छोड़ देती हैं या उसकी गहराई तक उतर कर जीवन बोध का गांभीर्य प्रदान करती हैं।
2007 में प्रकाशित प्रारम्भिक उपन्यास ‘रिहाई’ में कहानी कहने के उतावलेपन में और रोचकता बनाए रखने के प्रयत्न में शिल्प पर से ध्यान ओझल हुआ प्रतीत होता है।
2010 में उनका दूसरा उपन्यास, ‘तलाश’ प्रकाशित हुआ। भूमिका में वे लिखती हैं, ‘इस उपन्यास में जो भी घटनाएँ हैं वे मेरी ज़िंदगी के बहुत ही करीब हैं।…. उपन्यास में हर पात्र आपको किसी न किसी तलाश में भटकता हुआ मिलेगा।’ भूमिका में निशांत का कथन, ‘इसकी नायिका मीनाक्षी में कहानी की लेखिका नीना झलकती है…कम से कम सोच, ख़यालात और जज़्बात में …‘तलाश’ का हर पहलू कुछ सोचने, कुछ समझने पर मजबूर करता है।’ मंजू चंद्र आहूजा के शब्दों में, ‘ अगर आप नीना की शख्सियत के बारे में जानना चाहते हैं, तो इनका उपन्यास ‘तलाश’ पढ़िए। वस्तुत: इस उपन्यास में आत्मकथात्मक तत्वों की बहुलता है। उपन्यास का हर पात्र किसी न किसी चीज की तलाश में नज़र आता है। इस दृष्टि से ‘तलाश’ जीने के लिए एक कारण का प्रतीक है। किसी न किसी की तलाश में भटकना इन पात्रों की फितरत है। मीनाक्षी को अपनी कहानी की प्रेरणा की तलाश उसे सिंगापुर के क्रूज में ले जाती है। जीवन एक यात्रा है जिसमें व्यक्ति किसी न किसी की तलाश में भटकता रहता है। इस दृष्टि से सिंगापुर की समुद्र यात्रा की पृष्ठभूमि सार्थक लगती है। अपनी नई कहानी की थीम की तलाश में सिंगापुर और थाइलैण्ड की क्रूज पर आई मीनाक्षी हर बार किसी सहयात्री से मिलकर अपने अतीत के प्रसंगों को पुन: जीती है। हर नई मुलाकात उसको अपने कॉलेज के दिनों और अली के साथ बिताए समय का स्मरण कराती है। उपन्यास में वर्तमान के समानांतर चलने वाली अतीत की स्मृतियाँ कभी अंतर्धारा की तरह और कभी मुख्य धारा बनकर मीनाक्षी के मन को उद्वेलित करती रहती हैं। सहयात्रियों के साथ आत्मीयता स्थापित कर उनके जीवन प्रसंगों के नेपथ्य में मीनाक्षी अपने अतीत की स्मृतियों में डुबकियाँ लेती रहती हैं। अतीत, जिसमें अली के प्रति प्रारंभिक मित्रता जो क्रमशः बढ़कर आत्मीयता और पारस्परिक प्रेम भावना में परिणित हो गई। टुकड़े-टुकड़े में आई स्मृतियों की शृंखला जुड़कर मीनाक्षी के अतीत का संपूर्ण चित्र बनाता है। अली मुसलमान है, वह मीनाक्षी से शादी करने के लिए अपना धर्म परिवर्तित करने को भी तैयार है। पर मीनाक्षी की मानवता उसे ऐसा करने से रोक देती है। बचपन में रेहाना के साथ अली की मँगनी की बात पक्की हो चुकी थी। मीनाक्षी का कथन, ‘यह मज़हब और धर्म की बात नहीं है, यह इंसाफ की बात है। मैं उस लड़की के साथ कभी बेइंसाफी नहीं होने दूँगी जिसकी बचपन में तुम्हारे साथ मँगनी हो चुकी है। जो होश संभालते ही तुम्हारी इबादत करती है।’ यह प्रसंग एक ओर जहाँ मीनाक्षी के चरित्र की उदात्तता को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर एक सामाजिक कुरीति के प्रति ध्यान आकर्षित करता है। बचपन में दो लोगों की मँगनी कर देना आगे चल कर उनके लिए अभिशाप बन सकता है, जिसका मूल्य उनको आजीवन दु:खी रहकर चुकाना पड़ सकता हैं। मीनाक्षी का निस्वार्थ प्रेम त्याग की उदात्त भावना से भरा है। उसकी पीड़ा और उससे निकला अकेलापन सेल्फ इंफ्लिक्टेड होते हुए भी उसके चरित्र को गरिमा प्रदान करता हैं जिसकी परिणति ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’ की भाँति उसके लेखिका बनने में होती है।
उपन्यास में आए सिंगापुर की प्राकृतिक सुंदरता और समुद्र यात्रा-विवरण आदि की पृष्ठभूमि में प्रासंगिक कथाएँ सरगम और उसके बूढ़े दादा-दादी की है जो बुढ़ापे में अकेलेपन की भयावहता से बचने के लिए सरगम के भविष्य के बारे में नहीं सोचना चाहते। विनीता और मालती के प्रसंग में दहेज प्रथा के सामने झुकना अस्वीकार करने वाली मालती के विद्रोह में नारी विमर्श मुखर है। रोशनी अनुज से प्रेम करती है पर वह उसकी पत्नी के रहते उनके बीच में नहीं आना चाहती क्योंकि ‘उसने अनुज से प्यार किया है, अगर उसके प्यार की भलाई इसी में है तो वह कभी रास्ते में नहीं आएगी।’ इन सामाजिक सरोकारों के समानांतर चलने वाले अली और मीनाक्षी का प्रेम प्रसंग नीना की आदर्शवादी विचारधारा का द्योतक है जिसके अनुसार प्रेम एक उदात्त और निस्वार्थ भावना है जिसमें स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं और खोना ही पाना है। अंत में सिंगापुर में अली से भेंट होने के साथ मीनाक्षी की तलाश पूरी होकर भी उसका जीवन एकाकी ही रह जाता है। मीनाक्षी अली की पत्नी रेहाना और उनके दो बच्चों की खुशी के लिए अपने प्रेम का बलिदान करती है। प्रेम में त्याग की उदात्त और उदार भावना का प्रतिमान स्थापित करने में नीना के व्यक्तित्व की झलक प्रतिबिम्बित हुई है।
उपन्यास में मुख्य कथा और प्रासंगिक कथाओं को नीना ने निपुणता से बुना है। वे वर्तमान स्थितियों के विवरण देते-देते अत्यंत सहजता से अतीत की स्मृतियों में विचरण करते समय अपने पाठकों को अपने साथ जोड़े रखती हैं। कहानी कहने का यह कौशल एक कथाकार के रूप में उनकी सफलता है। किंतु अतीत और वर्तमान के ताने बाने बुनने में आई कुछ पुनरावृत्तियों से शिल्प की कसावट में कमी आई है।
संवेदना और शिल्प के सामंजस्य की दृष्टि से अपने कहानी संग्रह ‘फासला एक हाथ का’ (2011) में नीना जी ने ‘तलाश’ से आगे की यात्रा की है। ‘तलाश’ में वर्णित अतीत के प्रेम की जुगाली और नॉस्टैल्जिया के अतिरेक की जगह इस संग्रह की कहानियों में वे अपने परिवेश के यथार्थ सरोकारों से जुड़ी हैं। संग्रह की भूमिका में नीना जी ने लिखा कि ‘इस कहानी संग्रह में आपका परिचय रिश्तों की बहुत सी शृंखलाओं से होगा। कभी आप इनमें उलझेंगे और कभी स्वयं ही बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेंगे। …इन कहानियों में आपको स्थापित संस्कार और विदेशी संस्कारों में मुठभेड़ मिलेगी।.. पात्रों की ज़िंदगी में गहरी उथल-पुथल व दो संस्कृतियों का टकराव भी साफ़ दिखाई देता है।’
‘वापसी’ कहानी का कथानक चिरपरिचित है। शादी के बाद आगे की पढ़ाई करने के लिए अपनी गर्भवती पत्नी को भारत में छोड़कर विमल विदेश जाता है। वहाँ के जीवन की उन्मुक्त चकाचौँध और जेनिफर की खुली बाँहों का आकर्षण संवरण करने में असफल विमल को धीरे-धीरे गाँव का सीधा-सादा जीवन फीका लगने लगा। वकालत पूरी करने के बाद मोटी कमाई और जेनिफर का साहचर्य उसे गाँव में उसके लौटने की प्रतीक्षा करती शांति और बेटी, जिसे उसने देखा तक नहीं था, की याद धूमिल कर देते हैं। एक दुर्घटना में आँख की रोशनी खोने के बाद जेनिफर जब उसकी उपेक्षा कर किसी दूसरे बॉय फ्रेंड के साथ रहने लगी, उसे पहली बार अपनी गलती का एहसास हुआ। इतिवृत्तात्मक शैली में लिखी गई कहानी के अंत का अनुमान उसे पूरा पढ़े बिना ही किया जा सकता है। भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों के अंतर को रेखांकित करने के उद्देश्य से लिखी गई कहानी नीना के कथन, ‘दो संस्कृतियों के टकराव’ का अनुमोदन करती है। ‘वह एक पल’ एक क्षण की दुर्बलता के अधीन माइकल की कहानी है जो अपनी गोद ली हुई बेटी का बलात्कार करता है। ‘पुराना पैकेज’ एक आत्मकथात्मक कहानी है। 18 वर्ष की आरती को बड़ी बहन की मृत्यु के बाद उसके दो बच्चों की देखभाल के लिए उससे दुगनी उम्र के जीजा के साथ शादी करने को विवश करके ‘उसके अरमानों का कत्ल करके उम्र की कैद में बंद कर दिया गया।’ एक अठारह साल की लड़की दो बच्चों की माँ बन गई। उसने अपनी हर खुशी बहन के बच्चों पर निछावर कर दी। ‘ऐसा क्यों?’ दस वर्षीय जेनी की कहानी है जो अपनी माँ के बॉय फ्रेण्ड के यौन-उत्पीड़न से बचने के लिए घर छोड़ने को विवश है। सामाजिक सरोकारों को यथार्थ दृष्टि से निरूपित करते समय कहानियों में तटस्थता का निर्वाह कर पाना हमेशा संभव नहीं हुआ है। इन कहानियों में नीना कहानी की डोर कस कर अपने हाथों में रखती हैं जिसके कारण कथा शिल्प की परिपक्वता को क्षति पहुँचती है। जेनी के मानसिक उत्पीड़न का वर्णन करने के मध्य वे अपने पाठकों को ब्रिटेन के समेरिटन ग्रुप की जानकारी देने लगती हैं, ‘समेरिटन एक ऐसी संस्था है जो अपने प्रियजनों से सताए हुए लोगों के लिए काम करती है। विशेषकर चुपचाप ज़ुल्म सहने वाले वो बच्चे, जो किसी से भी दिल की बात बताने में असमर्थ होते हैं।’ इस व्याख्या के बाद इसके आगे की कथा एक केस स्टडी जैसी लगने लगती है। ‘फ़ासला एक हाथ का” इस संकलन की अंतिम और लंबी कहानी है। दो छोटे बच्चों को पालने की व्यस्तता में रमा को पता ही न चला कब विनय का अधिक समय घर से बाहर अपनी सैक्रेटरी लूसी के साथ व्यतीत होने लगा। एक झटके से ही उसने सारी ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ लिया। रवि को अपना सर्वस्व सौँप देने के बाद रमा के मन में प्रश्न उठता है, ‘पर एक औरत के लिए ही सारे संस्कार और नियम क्यों हैं? क्या मर्दों के लिए ऐसी सीमा या रेखाएँ नहीं होतीं? वर्षों बाद लूसी से धोखा खाकर विनय अपने घर और बच्चों की दुनिया में वापस आने के लिए रमा के पास लौटा। लेकिन रमा के लिए बहुत देर हो चुकी है। रवि के साथ न्यूकासल जाकर एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करने वाली रमा के चरित्र में नीना ने स्त्री सशक्तीकरण का चित्र उकेरा है। वह पति से प्रवंचित होकर टूट कर बिखरती नहीं बल्कि बिना किसी अपराध बोध या ग्लानि के अपने लिए नये भविष्य का संधान करती है। इस संदर्भ में एक तीसरा कोण ‘आखिरी गीत’ कहानी में है, यह कहानी विवाहेतर संबंध के दूसरे आयाम को संबोधित करती है। विवाह की मर्यादा का अतिक्रमण हमेशा पुरुष ही करता हो यह सच नहीं है। अपनी पत्नी को अन्य पुरुष के साथ देखकर उसकी खुशी के लिए पति चुपचाप उसके जीवन से बाहर चला जाता है। पति का पारिवारिक घर से चुपचाप निकल जाने का वास्तविक कारण उसको आजीवन दोषी मानने वाली बेटी को जब पता चलता है, तब तक बहुत देर हो जाती है। ‘खेल-खेल में’ विनीता के दौरों का फ्रायडियन रीति से मनोविश्लेषण करने का प्रयास है। बचपन में खेल-खेल में अपने मित्र से विवाह का नाटक करने पर माँ के क्रोधित होकर उसके बाल खींचने की घटना ने उसके अवचेतन मन को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि उसे बड़ी होने पर नींद में विक्षिप्तता के दौरे आते हैं। अंत में बचपन का साथी आशीष उर्फ डॉ अंशु जो अब ब्रेन सर्जन है, उसका उपचार करता है। कुछ कहानियों में दो संस्कृतियों के मेल से हुए विवाह में संस्कृतियों का टकराव है। उनकी दृष्टि अब अपने परिवेश की सामाजिक विषमताओं का निरूपण करती है। इन कहानियों का कैनवस व्यापक सामाजिक सरोकारों को समेटता है। यह प्रवासी लेखकों को केवल नौसटैल्जिया की कहानियाँ लिखने के आरोप को झुठलाता है। इनमें व्यक्ति और समाज को ध्वस्त करने वाले वे सरोकार हैं जो ब्रिटेन के सामाजिक जीवन के ताने-बाने में गुथे हुए होने के साथ-साथ वैश्विक भी हैं।
नीना की कहानी कहने की शैली में एक सादगी और भाषा में बोलचाल की सहजता इन कहानियों की विशेषता है। नीना अपनी बात कहने के लिए किसी शिल्पगत चमत्कार पर निर्भर नहीं। सरल भाषा में सहजता से कही गई सीधी बात से पाठक अनायास जुड़ जाता है।
2014 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘शराफ़त विरासत में नहीं मिलती’ की भूमिका में नीना ने ‘अपनी कहानियों की कमजोरियों को सँवारने” की बात कही है। उनकी पूर्व रचनाओं की भाँति इस संकलन की कहानियों की विशेषता उनके भोगे हुए अनुभव और पात्रों के सुख-दुख, हर्ष-विषाद से तादात्म्य की भावप्रवणता है। उनके अपने शब्दों में, इन कहानियों के साथ मैं सोई हूँ और जगी हूँ इसलिए कि इनके हर पात्र का दर्द मैंने स्वयं झेला है…कभी ‘घर से बेघर’ के जनरैल सिंह बन के तो कभी ‘कुर्सी पलट गई’ की नीलु बन के।’ इन कहानियों में मानवीय संबंधों और सामाजिक विकृतियों के अलग-अलग स्वर उभरते हैं। पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध के चरमराने को अलग-अलग कोणों से देखने की चेष्टा की गई है। कहीं पर पत्नी अपने पति का अन्याय सहती हुई विक्टिम है, तो अन्यत्र स्त्री विमर्श के अस्फुट स्वर सुनाई देते हैं। ‘गुज़रे लम्हों का हिसाब’ में पति के समलैंगिक सम्बंध की जानकारी मिलने पर वह उससे मुक्त होकर अपने लिए एक अलग रास्ता चुन लेती है। भावनाओं के आधार पर कमज़ोर पड़ने की जगह वह तर्क के सहारे अपने समलिंगी पति को छोड़ने का निर्णय लेती है। उसे अपने बेटे के भविष्य की भी चिंता है। पति की एक समानांतर जीवन जीने की चाह उसे स्वीकार नहीं। इस निर्णय के पीछे नीना ने आधुनिक स्त्री के उस सशक्त रूप को निरूपित किया है जिसमें हृदय की जगह मस्तिष्क से परिचालित होकर निर्णय लेने का साहस है। ‘कुर्सी पलट गई’ में अनिल के दिल के दौरे और स्ट्रोक के विवरण में अनुभव जनित प्रामाणिकता है। दूसरा प्रसंग अनिल के मित्र प्रमोद का है जिसकी गर्भवती पत्नी की एक ऐक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। अनिल यह जानते हुए कि वह कभी ठीक नहीं हो सकता प्रमोद से अपने जाने के बाद नीलु से शादी करने को कहता है। अनिल की मृत्यु के दो वर्ष बाद भी नीलु अपने को इसके लिए तैयार नहीं कर पाती है। उसके बेटे अंकित का युनिवर्सिटी जाने से पहले प्रमोद के पास जाकर कहना, ‘अंकल आप मेरी मम्मा से शादी कर लो’ कहानी को सुखांत की ओर ले जाने के साथ विधवा स्त्री और विधुर पुरुष के संपूर्णता में जीने के अधिकार का समर्थन करती है। संकलन के शीर्षक वाली कहानी, ‘शराफत विरासत में नहीं मिलती’ इस संग्रह की अंतिम और सबसे लम्बी कहानी है जिसमें तीन बहनों के जीवन के उतार चढ़ाव को अत्यंत कुशलता से दिखाया है। बड़ी बेटी की शादी भारत से आयातित विपुल से होती है। विपुल पश्चिम के सामाजिक- सांकृतिक परिदृश्य में फिट नहीं हो पाया और बीबी की कमाई पर रंगरेलियाँ मनाता रहा। बिचली बेटी ने अपने परम्परावादी पिता की अनुमति बिना अपने सहपाठी डॉक्टर ऐंड्रू से शादी की। तीसरी बेटी को कभी भी माता पिता का प्यार नहीं मिला। उनके प्यार से वंचित होकर वह ड्रग्स, ड्रिंक्स, बलात्कार, और गर्भपात के अनुभवों से गुज़रने के बाद अपनी सहेली के बड़ी उम्र के विधुर पिता में प्यार की पूर्णता पाती है। कहानी का कथानक संश्लिष्ट है। नीना ने कुछ गम्भीर मुद्दों को समेटा है। विवाह की सफलता-असफलता केवल स्वजाति में सम्बंध करने पर निर्भर नहीं हो सकती। तीसरी बेटी होने के कारण माँ बाप की अवहेलना से दुखी स्मृति उस सामाजिक व्यवस्था की विक्टिम है जहाँ बेटे के जन्म पर खुशियाँ और बेटी के होने पर शोक मनाया जाता है। पापा से प्यार पाने के लिए तरसने वाली तीसरी बेटी स्मृति अपनी सहेली रोहेला के विधुर डैडी में वह प्यार पाकर उनके साथ चली जाती है। स्मृति के लिए यह कहानी का सुखद अंत होकर भी सवाल पूछता है कि क्या बेटियों के लिए हमारे समाज की मानसिकता कभी बदलेगी भी या नहीं?
संग्रह की भूमिका में नीना ने स्वयं अपनी कहानियों की कमज़ोरियों को सँवारने की बात कही है। यह प्रयत्न शिल्प की दृष्टि से सुघटित कहानियों के रूप में आया है। इन कहानियों में एक क्रमिक विकास और कसावट परिलक्षित होते हैं। पूरी कहानी की बगडोर अपने हाथ में रखने की जगह वे उसे अपने पात्रों को पकड़ा देती हैं फलस्वरूप कथानक का विकास पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप से होता हैं। कहानी अनावश्यक विवरण के ढीलेपन से मुक्त हो जाती है। कहानीकार के रूप में उनकी विकसनशीलता का परिचायक है।
लैस्टर के इतिहास पर आधारित उपन्यास ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ नीना के तीन वर्षों के शोध और श्रम का परिणाम है। भूमिका में वे लिखती हैं,’मैं 1973 से लैस्टर में हूँ। यहाँ की इकौनोमी का उत्कर्षापकर्ष देखा है। माइनर्स की दो हड़ताल देखी हैं जो ब्रिटेन की इकौनोमी के अपकर्ष का कारण बनी … पर कुछ ऐसा नहीं लिखना चाहती थी जो उपन्यास लेस्टर का इतिहास बन कर रह जाए। मेरा उद्देश्य यहाँ के रहन-सहन और एशियंस पर उसके प्रभाव के विषय में लिखना था।’ उपन्यास में लैस्टर के इतिहास के समानांतर इदी अमीन द्वारा अफ्रीका से निकाले गए एक गुज़राती परिवार की कहानी बुनी गई है। लैस्टर के इतिहास से सम्बंधित अंश ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वर्क वीसा लेकर आए भारतीय श्रमिक और ब्रिटिश पासपोर्ट के अधिकार से अफ्रीका से आए परिवारों ने किस तरह लैस्टर के मूल अंग्रेज नागरिकों को धीरे-धीरे हाशिये पर ला दिया, अपनी कर्मठता और किफ़ायती से मकानों और कारख़ानों के स्वामी बन गए, इसके वर्णन का ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्व है ही साथ ही युगाण्डा से आए परिवार सुरेश भाई, सरोज उनकी वृद्ध माँ सरलाबेन और निशा के प्रसंग में नीना ने प्रवासी जीवन के दो अत्यंत गहरे बिंदुओं को रेखांकित किया है। मूल रूप से गुजरात के नवसारी नामक स्थान से आई सरलाबेन वहाँ लौट जाने की लालसा में लैस्टर को कभी पूरी तरह से नहीं अपना सकीं। पर अंत में जब उन्हें नवसारी जाने का अवसर मिला तो वे अपने आप से पूछती हैं कि नवसारी में किसके लिए जा रही हैं। वे आत्मीय स्वजन जिन्हें वे छोड़ कर अफ्रीका गई थीं, वे तो अब इस संसार से जा चुके हैं। वहाँ उनको पहचानने वाला तक कोई न होगा। वस्तुत: नौस्टैल्जिया एक भावना भर है, जिस जमीन को छोड़कर हम दूसरे देशों में आकर बसते हैं वहाँ वापस जाकर भी उसी जगह नहीं लौट सकते हैं जिसे छोड़कर आए थे। वहाँ की धरती और लोग कहीं आगे बढ़ चुके होते हैं।
दूसरा बिंदु प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी के भविष्य का अंकन करता है। सुरेश भाई जीवन भर कॉर्नर शॉप चलाते रहे और उनकी पत्नी सरोज होज़री के कारखाने में काम करते हुए अपने अंग्रेज़ सहकर्मियों के षड़यंत्र की भागीदार बनी। पर उनकी बेटी निशा युनिवर्सिटी से उच्च डिग्री हासिल करके अपना करीयर बनाती है। उसके पास एक से अधिक जॉब के ऑफर हैं जिनमें से वह अपना मनपसंद जॉब चुन सकती है। प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी न तो कॉर्नर शॉप खोलेगी और न कारखानों में काम करेगी और ना ही प्रजातिवाद को चुप रहकर सहेगी। सायमन के साथ उसकी निकटता का प्रसंग दूसरी पीढ़ी के भारतीयों के सामाजिक समंवय का अगला कदम है। इन गम्भीर मुद्दों को नीना ने अत्यंत कुशलता से अभिव्यक्त किया है। नीना ने ‘तलाश’ की नौस्टैल्जिया से प्रारम्भ कर ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ में प्रवासी मानसिकता के मोहभंग के चित्रण द्वारा जीवन बोध की परिपक्वता तक का एक लम्बा रास्ता तय किया है। मैं इसे उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानती हूँ।
नीना का अंतिम कहानी संग्रह, ‘एक के बाद एक’ उस समय आया था जब वे अस्पताल में थीं। चेष्टा करने पर भी उसकी प्रति उपलब्ध नहीं कर पाने का खेद है।
कभी सोचा तक नहीं था कि नीना के लिए इस तरह से लिखना होगा। वे तो हमेशा मुझे यही दिलासा देती रहीं, ‘अरे मैं इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं, देखियेगा कैंसर की लड़ाई में मैं कैंसर को हरा कर छोड़ूँगी।’ उनकी यह जिजीविषा अंत तक उनके साथ रही। यह मुस्कुराहट और जिजीविषा अंत तक उनका सम्बल बनी रहीं और अब उनकी रचनाओं में जीवित है। सच तो यह है कि लेखक कभी मरता नहीं, वह अपनी रचनाओं में सदा के लिए जीवित रहता है।
