प्राची मिश्रा

***

आम आदमी

वो मिलता है वो दिन मुझको
अपना सामान समेटे हुए
मैली कुचैली इक चादर में
अपना ईमान समेटे हुए

हाड़ मांस की इक जर्जर काया
मिलती बोझा ढोते हुए
मुख मानचित्र करता है भ्रमित
देखा ही नहीं कभी उसे रोते हुए

चलता था वो हाथ झटकते
बाज़ारों में चिल्लाते हुए
ऊँचे स्वर में पीड़ा अंतस की
तन बोझ से थर थर होते हुए

चप्पल धोखा न कर जाये
नंगे पैर ही दौड़ लगाते हुए
बिवाईयों से झाँक रही ज़िन्दगी
बेबसी को ठेंगा दिखाते हुए

राम राम बजाता सबको
रस्ते में आते जाते हुए
क्या मतलब ऊँचे छत छज्जों से
खड़े हैं खीस दिखाते हुए

उसका होना या न होना
खलता आखिर है किसको
देखा अँधियारे में जिसने
जीना, मरना होते हुए

उम्मीद नहीं एक पैसे की
उन ढलती बूढ़ी आँखों में
मिलता हर दिन वो मुझको
जीवन को जी भर जीते हुए

★★★

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