हल्की-फुल्की कसरत करते हुए वह रोज मिलती थी। सुबह-सवेरे खूब ताली बजाना फिर थोड़ी देर रुककर हाथ-पैर मोड़ना। शाम को पार्क में भी कभी हाथ ऊपर, कभी नीचे, कभी सीधे, कभी उलटे। तमाम सारी कसरतों की ऐसी कितनी ही कड़ियाँ…। कभी वे किसी नृत्य की मुद्राएँ लगतीं तो कभी इनसे किसी खिलाड़ी का जोश झलकता। उसका पूरा शरीर दिमागी संकेतों की तामील करता दिखता। शरीर के हर हिस्से को हरकत में लाकर वह सब कुछ करती जिससे शरीर की अकड़न दूर हो। उसने बताया था कि वह बचपन से ऐसे ही कसरत करती रही है।

मैं पूछती- “लियो, यह क्या है, मार्शल आर्ट, कूँग फू या फिर कराटे?” वह मुस्करा देती मानो किसी राज का पर्दाफाश करने वाली हो।

“यह मेरी अपनी बनायी कसरती शैली है। मेरे शरीर को लचीला करने के लिए मेरे अपने नियम हैं। तुम्हें जो अच्छा लगे वही नाम दे दो।”

उसके इस तार्किक जवाब पर मैं मुस्करा देती। सच कहती थी वह। हर शरीर की अपनी अलग जरूरतें होती हैं। कोई भी कसरत सभी को एक जैसा फायदा नहीं दे पाती। हम सबने लियो के चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान देखी है। ऐसी मुस्कान जो भीतर से आती थी। उसे देखकर लगता कि उसका चेहरा ऐसा ही है, निश्छल और निर्मल। बोलती आँखें, सक्रिय हाथ और गतिमान पैर।

टोरंटो शहर में कई अलग-अलग संस्कृतियों के जमावड़े के बीच मेरे घर की अपनी पहचान थी। क्रिसमस के दो ढाई महीने पहले ही दीवाली की जगमगाहट से भरा मेरा घर सबको कह देता था- “हम अपना रौशनी का त्योहार दीवाली मना रहे हैं।” अपने जीवन की बेहतरी की तलाश में नयी जमीन में पुनरारोपण करते कई देशों के लोग एक मोहल्ले में समा जाते। परदेश में बसने वाले पहली पीढ़ी के वे लोग जो अपने देश में जनम लेकर यहाँ बसने के लिए आए थे, अब उनके बच्चे पढ़-लिख कर बाहर नौकरी कर रहे थे और वे अपने शेष जीवन को अपने तई जीते, समय के साथ चल रहे थे। बातूनी लोग रोजमर्रा दिखने वाले चेहरों से गपशप कर लिया करते थे। हर एक का अंग्रेज़ी बोलने का अपना अलग लहजा था। टूटी-फूटी कैसी भी अंग्रेजी बोली जाए, सब एक दूसरे को समझ लेते।

हमारी चौकड़ी थी। लियो चीन से, आफरीन ईरान से, टमारा युगांडा से और मैं कौशल्या बनाम कौशी, भारत से। हम चारों यहीं आसपास रहते थे। तकरीबन रोज कहीं न कहीं टकरा जाते। एक-दूसरे को देखने की आदत-सी हो गयी थी। टहलने का समय कभी आगे, कभी पीछे होता। कभी साथ होता तो कहीं बैठकर गपशप कर लेते। चारों लगभग एक ही उम्र के थे। बच्चों की जिम्मेदारियों से फारिग और पति के वियोग को झेलते, अकेलेपन को दूर करने की सफल कोशिश में लगे रहते।

आफरीन हिजाब पहनती थी। उसके अधिकतर हिजाब उसके कपड़ों से मैच करते। बहुत सलीके से पिनें लगाकर उस स्कार्फ जैसे कपड़े में अपना सिर छुपा लेती थी। वह कपड़ा कभी कहीं से हिलता भी नहीं कि उसके बालों की कोई लट दिखाई दे जाए। मुझे उसका हिजाब पहनना अच्छा लगता था। इस तरह उसके बाल हवा और धूप की सख्ती से बच जाते थे। उसे न बालों की सफेदी का डर था, न ही कटवाने और सेट करवाने की चिंता। तीखी नाक, गोरा रंग और बड़ी-बड़ी आँखें। मेरी तरह मोटा चश्मा नहीं पहनना पड़ता था उसे। उम्र के कोई आसार उसके चेहरे की चमक को हल्का नहीं कर पाए थे। मैं यदा-कदा उसकी नाजुकता की तारीफ कर देती- “आफरीन, तुम पर तो जवानी में कई लड़के फिदा होंगे, है न?”

“लड़के देखते तो फिदा होते न, ईरान में हम ज्यादातर बुरके में रहते थे। कौन से लड़के और कौनसी जवानी! लड़कियों के अम्मी-अब्बू जिससे चाहते, उसके खूँटे से बांध देते। चाहे कोई बूढ़ा हो। मेरी तो किस्मत फिर भी अच्छी थी कि पढ़े-लिखे बंदे से शादी हुई। वह मुझसे पंद्रह साल बड़ा था। देखो, कई साल हुए छोड़ कर चला गया। एक बेटा है। वह अपने घर, मैं अपने घर। ऐसी सुंदरता के क्या फायदे!  

“अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा दोस्त। नयी जिंदगी शुरू करो।” टमारा अपनी बिंदास आवाज में कहती तो आफरीन के गाल लाल हो जाते। टमारा युगांडा से थी। अस्पताल में नर्स के रूप में अभी भी काम कर रही थी। शायद उम्र में हम सबसे छोटी थी मगर इरादों में सबसे बुलंद थी। उसकी आवाज और काम करने की मर्दानी शैली उसकी खास पहचान थी। उम्र में छोटी होने के बावजूद हम सबसे ताकतवर लगती थी वह। मन से भी, तन से भी। अपने काम की निष्ठा से भरपूर। उसकी आवाज और उसके पीछे की ताकत का अहसास हम सब करते।

वह हमें खूब हँसाती। खूब किस्से सुनाती; अस्पताल के, मरीजों के और डॉक्टरों के। हम सब पिछले कई महीनों से मिले नहीं थे। न ही हमारे पास एक-दूसरे का फोन नंबर था। कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। यूँ ही बहुत बतिया लेते थे। बस इतना ही पता था कि सब यहीं कहीं आसपास रहते हैं। अब जब मुझे कोरोना निरोधक वैक्सीन लग गई तो दो-एक दिन में जैसे कोविड प्रूफ होने की अनुभूति हुई। पहले की तरह बाहर घूमने का मन हुआ। अपने नियमित टहलने के स्थान पर पहुँचकर उन परिचित चेहरों को खोजने लगी जो दिनचर्या का एक खास हिस्सा थे।

पार्क अपेक्षाकृत शांत था। कुछ बच्चे खेल रहे थे। इक्का-दुक्का माता-पिता आपस में दूरी बनाए ताजी हवा का आनंद ले रहे थे। दूर बेंच पर बैठी लियो की एक झलक दिखी। मुझे बहुत खुशी हुई। उसके समीप पहुँचते ही हालचाल जानने को उत्सुक हो उठी। कुछ बदली-बदली-सी नज़र आ रही थी वह। पहले कभी इस तरह चुपचाप नहीं बैठती थी। बात करते हुए भी हाथ पैर मरोड़ती रहती थी। मास्क में पूरा चेहरा न दिखने के बावजूद उसकी बोलती आँखें खामोश और बोझिल लग रही थीं। जाहिर था कि बीते मुश्किल दिनों की तमाम चिन्ताओं, डर और खौफ ने कई मुस्कानों को लील गया होगा। मुझे देखकर भी एक ठंडा-सा “हलो” निकला उसके मुँह से। वह उदास थी।

“अरे लियो, कैसी हो। कसरत करना छोड़ दिया क्या?”

“हाँ, मन ही नहीं होता। तुम कैसी हो कौशी?”

“ठीक हूँ, अब तो वैक्सीन लग गई है। तुम्हें भी लग गई होगी न?

“हाँ, शरीर में लग गई, मन के लिए तो कोई डोज़ नहीं, मन तो हमेशा के लिए कोविड से पीड़ित हो गया।”

मैंने कुछ न समझते हुए उसे देखा। उसने बताया कि आसपास के कुछ लोग उसे और उसके परिवार को नफरत से देख रहे हैं। जो पड़ोसी उनके अच्छे मित्र थे, वे अब मुँह फेर लेते हैं। कोरोना में जो कुछ हुआ उसका जिम्मेदार उन्हें ठहराया जा रहा है। सिर्फ इसलिए कि उनकी जड़ें चीन से जुड़ी हैं।

“यह रेसिज़्म है।” उसकी आँखों की पोरों में पीड़ा तरल हो रही थी। उसके पोते-पोती के साथ खेलने से बच्चे कतराते हैं। कहते हैं– “तुम चाइनीज़ हो, हम से दूर रहो।”

“तुम कोरोना लेकर आए हो।” “तुमने सबको बीमार किया है।”

लियो कहती चली गयी- “मेरे बच्चों का जन्म कैनेडा में हुआ। बच्चों के बच्चे भी यहीं हुए। हम कई सालों से चीन नहीं गए। लगभग पैंतालीस साल हो गए यहाँ रहते हुए। पिछले साल भर में मुझे अपने चीनी चेहरे से जितनी परेशानी हुई है उतनी शायद कभी नहीं हुई। अब तो हालत ये है कि रोज सोचती हूँ अपने इस चीनी चेहरे पर प्लास्टिक सर्जरी करा लूँ। इस पर लिखा “चाइनीज़” शब्द मिटा दूँ।”

मैं स्तब्ध-सी उसे सुन रही थी।

“एक पड़ोसन अपने बच्चों से कह रही थी- “इन बूचों से दूर रहो। इसका क्या मतलब है कौशी? शायद तुम्हें पता होगा।”

नाक के आकार का यह साधारणीकरण था। बूची नाक, चपटी नाक, तीखी नाक! हम भारतीय लोगों का अंदाज़ बयाँ कर रही थी। मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि वह नयी पड़ोसन कहाँ की है और लियो मुझसे क्यों पूछ रही है! मैं बूचा शब्द उसे कैसे समझा पाती। समझकर भी न समझने का नाटक करती रही। जिसने भी यह कहा, निर्ममता से कह दिया। अगर मैं लियो को उसका मतलब बता दूँ तो हम भारतीयों से उसे नफरत हो जाएगी। सच तो यह है कि जाने-अनजाने मैंने भी कई लोगों से कन्नी काटी थी। जरूरी सामान खरीदते हुए कोई चीनी टकराता तो रास्ता काटकर अलग हो जाती। सामने से कोई आता दिखता तो वहीं रुक कर उल्टी दिशा में जाने लगती। कभी सोचा भी नहीं कि मैं उन सब लोगों के साथ बदतर सलूक कर रही थी। उन सबकी वेदना लियो की आँखों में थी। वे सब बरसों से यहीं रह रहे हैं। कैनेडियन हैं। लियो की पड़ोसन ने बूचे कहकर अपनी इस टुच्ची हरकत पर गौर भी न किया होगा।  

मुझे खामोश देखकर लियो कहने लगी- “तुम्हारा चेहरा अच्छा है कौशी। तुम सबसे सुरक्षित हो। तुम्हें ये सब नहीं सहना पड़ता।”

मैंने उसे समझाया- “हम भी भारतीय पहले कैनेडियन बाद में हैं। लोग हमारा चेहरा भी पढ़ लेते हैं।”

वह संतुष्ट नहीं हुई- “लेकिन तुम्हारे लिए वह नफरत नहीं जो हम चीनी लोगों के लिए है। हमने बहुत नफरत झेली है। पहले तो हम जिस तरह से बोलते हैं, जिस तरह से खाते हैं, सबका मजाक उड़ाते थे। अब तो खुले आम लोग हमें कोरोना कैरियर समझते हैं। मैं सहन कर सकती हूँ पर मेरे पोते-पोती! उनके सामने पूरी जिंदगी पड़ी है।” मैंने लियो के शब्दों की गहराई को महसूस किया। घर लौटते हुए मैं बहुत विचलित थी। लियो का चेहरा मेरी आँखों के सामने से हट नहीं रहा था।

अगले दिन ठीक उसी समय टमारा और आफरीन मिलीं पर आज लियो नहीं आयी थी। मैंने दोनों के हालचाल पूछकर लियो का जिक्र किया- “लियो कल बहुत परेशान और दु:खी थी। लोगों की नज़रें अब सारे चीनी लोगों पर अटैक कर रही हैं।”

“इसमें कौनसी बड़ी बात है!” टमारा कहने लगी- “यह तो होना ही था। हमें देखो, हम तो पैदा होते ही अपनी चमड़ी के रंग को झेलते रहे हैं। हम अश्वेत लोगों को काला जानवर मानती है ये दुनिया। काला होना ही हमारी पहचान है, बाकी कुछ मायने नहीं रखता।”

सच कह रही थी टमारा। काले आदमी को देखकर मुझे भी डर लगता था। उसे सुनकर दिलासा देते हुए मैं अपराधी-सी सिर हिलाती रही।

“इन विकसित देशों में रहकर भी कितने पिछड़े हुए हैं लोग!” आफरीन ने कहा तो टमारा का स्वर और तीखा हो गया।   

“चाहे आदमी अमेरिका में पैदा हुआ हो, वह अमेरिकन कहा जाए उसके पहले ही उसकी काली चमड़ी बोल उठती है। पुलिस वाले सीधे जॉर्ज फ्लॉयड का गला दबोचते हैं। हर अश्वेत अपने सिर पर अपराध की पोटली लिए घूमता है। समाज ने ये विभाजन किए हैं। उसी का परिणाम सब भुगत रहे हैं। कोरोना ने ये अहसास अब दिया लेकिन इसके पहले से हम बहुत कुछ सह रहे हैं।”  

टमारा के रोष को शांत करने के लिए आफरीन उसके कंधे थपथपाने लगी और मैंने उसकी पीड़ा में आँखों की गहराई से साथ दिया। वह बोलती जा रही थी- “मुझसे पूछो, मैं इस भेदभाव का सामना रोज करती हूँ। मेरा काम किसी को नहीं दिखता, मेरा रंग सबको दिखता है। मेरी काली चमड़ी लोगों को भूत नज़र आती है। अस्पताल में मरीज भी मुझे देखकर खुश नहीं होते।”

मेरा अपराध बोध और गहरा हो रहा था। अपने पति की मौत के पहले अस्पताल में जब नर्स की जरूरत होती थी तो मैं कभी न चाहती कि कोई अश्वेत नर्स आए। टमारा के शब्द मुझे भीतर तक बींध रहे थे- “अरे, हम काले भी उसी दुनिया के इंसान हैं। किसी दूसरे ग्रह से नहीं आये। हमारा खून भी लाल है। ऐसा तो नहीं है कि हमारी नसों में पानी बहता है, या फिर हमारा दिल बाएँ नहीं दाएँ होता हो।”

मैं और आफरीन उसके इस सहज तर्क से मुस्कुरा दिए। गंभीर बात कहते हुए भी उसका अंदाज़े बयाँ माहौल को हल्का कर रहा था। वह अपनी तरन्नुम में थी। टमारा ने हाथ उठाकर इशारा किया- “अब देखो, टोरंटो शहर का चाइना टाउन जंगल की तरह खामोश है। पहले लोग सस्ता सामान खरीदने के लिए वहाँ के चक्कर लगाते थे। उनकी सब्जियों की दुकानें तक अब बंद हैं।”

“सच्ची, मैं भी पहले पास की चीनी दुकान से सब्जी खरीद लेती थी, अब तो उधर देखती भी नहीं।”

“है न, आफरीन! ऐसा लगता है कि उनकी सब्जियों में कोरोना वायरस छुपा हुआ हो।” मुझे लगा आफरीन भी मेरी तरह अपराधी महसूस कर रही होगी। टमारा और भी कई उदाहरण देने लगी- “वैलेंटाइन, क्रिसमस, थैंक्सगिविंग, ऐसे कई खास दिनों में उनकी फूलों की दुकानों में लाइनअप होता था। अब वे गुलदस्ते दुकानों में ही मुरझा रहे होंगे। कोई प्रेमी युगल नहीं आएगा खरीदने के लिए। न ही उनकी दुकान से कोई लॉटरी का टिकट खरीदेगा। और देखो, वह कॉर्नर वाली ड्रायक्लीन की व्यस्त दुकान हमेशा के लिए बंद हो गयी। ओह गॉड! अब मुझे अपने कपड़ों के लिए डबल पैसे देने पड़ेंगे।”

“इन दुकानों का तो भट्ठा बैठ गया। कई लोग घर बैठ गए बेचारे।” आफरीन ने जोड़ा।

टमारा का आक्रोश उसकी आँखों में आग-सा था- “बीमारी ने जितना नुकसान किया उतना तो किया, हम भी तो एक दूसरे का नुकसान करने में पीछे नहीं रहे। जैसे पागल कुत्तों से दूर-दूर रहते थे वैसी ही आज हमारी मानसिकता एशियन लोगों के लिए है। फिर चाहे वह चीनी हो, कोरियन हो या जापानी, हमारे लिए सब एक जैसे हैं।”

टमारा बोल रही थी, हम सुन रहे थे। सही कहा था उसने। जैसे पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और भारतीय चेहरे एक ही देश के लगते हैं वैसे ही चाइनीज, कोरियन, जापानी एक खानदान की तरह घृणा का जहर पीते हुए जीने को मजबूर हैं।

टमारा साँस लेने के लिए रुकी तो आफरीन का चेहरा लाल हो गया- “तुम्हें पता नहीं हमारे साथ तो हर देश का बुरा व्यवहार है। हर देश हमें आतंकवादी समझता है। किसी भी देश में घुसना हो, शक करने के लिए नाम के साथ हुसैन और खान जुड़ा होना ही काफी है।”

आज का कड़वा सच था यह। मैं और टमारा दोनों की नज़रें आफरीन के हिजाब पर थीं। आफरीन ने हमारा मौन संकेत भाँप लिया- “मुझे तो ऐसे देखते हैं जैसे अपने हिजाब में मैंने बम छुपा कर रखा हो। हिजाब पहने मेरी शकल बोल देती है कि मैं मुसलमान हूँ। मुसलमान होना यानी आतंकवादी होना। हम इंसान रहे ही कहाँ अब!”

इंसान अपने वजूद में आतंकवादी की शकल ले चुका था, यह किसी से छुपा नहीं था। आखिर मेरे भीतर के शब्द बाहर आ ही गए- “सच कहती हो आफरीन, शहर के किसी हिस्से में गोली चले, पहला शक मुसलमानों पर जाता है। मुट्ठी भर आतंकियों की वजह से पूरी जाति शक के कटघरे में खड़ी है।”  

हामी भरते हुए, हमारी आँखों में झाँकते हुए उसने कहा- “हमें भी गुस्सा आता है। लेकिन न नाम बदला जा सकता है, न वेशभूषा। बदलने की कोशिश करें तो यह और बड़ी साजिश बनकर उभर आएगी। कुछ भी कर लें, हम पर उठती निगाहें तब भी हमें शक की नज़र से ही देखेंगी।”

टमारा ने याद दिलाया- “न्यूयॉर्क शहर के ट्विन टावर पर हमला होने के बाद तो मुसलमानों का किसी भी देश का बॉर्डर क्रास करना खतरनाक हो गया था।”

“हाँ, लंबे समय तक हम देश की सीमा के बाहर नहीं गए। कहीं भी, कोई भी, किसी से भी जोड़ कर हमें जेल में डाल दे। कई मुसलमान किसी जेल में या किसी एनकाउंटर में शूट कर दिए गए।”

मेरी आँखें अब आफरीन, टमारा और लियो तीनों की आँखों को समान आग उगलते देख रही थीं। लियो इस समय यहाँ होती तो शायद यह सब सुनकर उसे थोड़ी राहत मिलती कि इस भेदभाव को झेलने वाले चीनी अकेले नहीं हैं। हम सबकी सोच अब भी पाषाण युग की है। चेहरों पर टँगी तख्तियों को पढ़ने के हम आदी हो गए हैं। चेहरा सामने आया नहीं कि उसकी देशीय नस्ल, उसके देश से जुड़े तमाम हथकंडे सामने आ जाते हैं। मानो इंसान का चेहरा अपने देश की तमाम बुराइयाँ चिपकाकर घूम रहा हो।

टमारा ने मुस्कराकर मेरे कंधों पर हाथ रखा और कहने लगी- “कौशी, तुम्हारा तांबई रंग अच्छा है। किसी भी बुराई के कटघरे में नहीं आता।” टमारा ने बातचीत को दूसरी दिशा में मोड़ना चाहा ताकि गरमाया माहौल कुछ हल्का हो। मैं क्या कहती! अपने आसपास कई श्वेत लोगों के साथ काम करते हुए मैं भी अपने भीतर गोरा होने की चाह को तेजी से महसूस करती रही थी। अंग्रेजों की गुलामी के अहसास ने हर श्वेत को मेरी नफरत का शिकार बनाया था! मेरी आँखों में भी चिंगारी भभकने लगी जिससे लियो, टमारा और आफरीन ने रूबरू करवाया था। मेरे सामने श्वेत, अश्वेत, चीनी, ईरानी, तांबई आदि अनगिनत चेहरे अपनी तख्ती लिए हाजिरी दर्ज करा रहे थे। जितनी ताकतवर तख्ती, उतनी गहरी नफरत।

“फिर मिलते हैं” कहकर वे दोनों अपने-अपने रास्तों पर चल दीं।  

मैं अपने घर की ओर बढ़ते हुए सोच रही थी- “मैं भी दुनिया के उन तमाम लोगों में से एक हूँ, सारी तख्तियाँ पढ़ लेती हूँ, सिवाय एक के, जिस पर लिखा हो इंसान।”

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-हंसा दीप

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