
शिक्षक, भाषा और भविष्य
डॉ. रवि शर्मा मधुप, एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, श्री राम कॉलेज ऑपफ कॉमर्स, दिल्ली विश्वविद्यालय
भाषा मनुष्य के भावों और विचारों की सहज अभिव्यक्ति का माध्यम है। भाव और विचार मनुष्य में जन्मजात होते हैं, किंतु उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम जन्मजात और परिवेशगत दोनों होता है। बच्चा सर्वप्रथम अपनी माँ से जो भाषा सीखता है, वही मातृभाषा उसकी अपनी भाषा होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी कारणवश बच्चा पैदा होते ही अपनी माँ से तथा अपने परिवार से अलग हो गया अब वह जिस परिवेश में रहेगा, वहीं की भाषा सीख जाएगाऋ जैसा कि मोगली नामक एक चरित्रा के साथ दिखाया गया। वह पैदा होते ही पशुओं के साथ रहा, उन्हीं की तरह व्यवहार करने लगा, उन्हीं की बोली बोलने लगाऋ लेकिन जैसे ही वह मनुष्यों के संपर्क में आया, उसकी जन्मजात मानवीय प्रवृत्तियाँ तथा भाषायी संस्कार ज़ोर मारने लगते हैं तथा वह कुछ ही समय में मानव समाज के अनुरूप जीवन यापन करने लगता है।
उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो ही गया है कि भाषा तथा मानव का आदिम एवं गहन संबंध है। बिन भाषा के मानव भी अधूरा है, उसके विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। याद रखिए मूक-बधिर भी अपनी सांकेतिक भाषा से अपने भावों और विचारों का आदान-प्रदान बखूबी करते हैं।
बच्चे की प्रथम भाषा उसकी मातृभाषा ही होती है, जो वह अपनी माँ से सीखता है, तो स्वाभाविक रूप से बच्चे की प्रथम गुरफ भी माँ ही होती है। माँ से प्राप्त भाषायी संस्कार ही बच्चे के भावी जीवन, उसके भावी व्यक्तित्व तथा भविष्य में उसकी सपफलता-असपफलता की नींव होते हैं। इन्हीं भाषायी संस्कारों की नींव पर बालक का व्यक्तित्व-प्रासाद निर्मित होता है। हम सब जानते हैं कि नींव जितनी ही सुदृढ़ होगी, भवन भी उतना ही स्थायी तथा सशक्त होगा।
माता तथा घर-परिवार से प्राप्त इन भाषायी संस्कारों का विद्यालय में विकास एवं उन्नयन होता है। भाषा का मौखिक या कथित रूप तो बालक घर पर ही सीख लेता है, किंतु उसका पठित, लिखित तथा औपचारिक रूप तो विद्यालय में ही सीखता है। ऐसे में, विद्यालय ;वह भी प्राथमिक विद्यालयद्ध तथा शिक्षक ;वह भी प्राथमिक शिक्षकद्ध की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। भारत की यह विडंबना ही है कि यहाँ प्राथमिक शिक्षा तथा प्राथमिक शिक्षक ही सर्वाधिक उपेक्षित एवं तिरस्कृत हैं। उनका वेतन कम है तथा जिम्मेदारियाँ अनगिनतऋ सरकारी स्कूल में वरदी, किताब-कापियाँ, दोपहर का भोजन बाँटना, जनगणना कार्य, चुनाव ड्यूटी, मतदाता पहचान पत्रा बनाना आदि आदि। पब्लिक स्कूल में यह माना जाता है कि प्राथमिक कक्षाओं को तो कोई भी पढ़ा सकता है। सरकारी विद्यालय हो या पब्लिक स्कूल प्राथमिक शिक्षक के चयन, पदोन्नति, मान-सम्मान अर्थात् सभी स्तरों पर घोर अन्याय एवं भेदभाव किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप ये शिक्षक भी अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा करने लगें तो आश्चर्य कैसाऋ क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बजती।
प्राथमिक कक्षा में दिए गए भाषायी संस्कार तथा इस दौरान विकसित किए गए भाषायी कौशल ही बच्चे के समस्त विषयों के अध्ययन की धुरी होते हैं। आप ही बताइए कि जिस बच्चे को अपनी बात सही ढंग से बोलनी नहीं आतीऋ शुद्ध, सुंदर तथा सटीक शब्दों में लिखनी नहीं आती, क्या वह इतिहास, भूगोल, राजनीति विज्ञान, भौतिकी, रसायनशास्त्रा, जीव विज्ञान आदि को ठीक से पढ़ और लिख सकेगा? कदापि नहीं। प्रत्येक विषय की अभिव्यक्ति का माध्यम तो भाषा ही होती है, यदि भाषा पर ही बालक का अधिकार न हुआ, तो वह निश्चित रूप से ज्ञान के सभी क्षेत्रों में पिछड़ता चला जाएगा।
विश्व के सभी शिक्षा शास्त्रा, बाल मनोवैज्ञानिक, भाषा वैज्ञानिक तथा अन्य विद्वान इस विषय पर एकमत हैं कि बच्चे का स्वाभाविक बौद्धिक विकास, विशेषकर उसकी प्रारंभिक 10-12 वर्ष की आयु तक, उसकी मातृभाषा में ही संभव है। इसीलिए विश्व के सभी देशों में प्राथमिक शिक्षा बच्चों की मातृभाषा के ही माध्यम से दी जाती है। हमारा ‘महान’ देश इस दिशा में सचमुच अपवाद है। लार्ड मैकाले ने भारतीयों को ‘काले अंग्रेज’ बनाने की जो योजना सन् 1835 में बनाई थी, वह अंग्रेजों के शासनकाल में जितनी पफलीभूत हुई, उससे कहीं ज्यादा उनके जाने के बाद हुई।
अंग्रेज अपने लंबे शासन काल में प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। कुछ गिने-चुने ईसाई मिशनरी कांवेंट स्कूलों के अतिरिक्त वे इसे अन्य सरकारी तथा गैर सरकारी स्कूलों में लागू नहीं कर पाए, किंतु मैकाले की नीति लगभग 150 वर्षों बाद उसके द्वारा तैयार ‘काले अंग्रेजों’ के वंशजों ने लागू कर दिखाई। पिछले दो-तीन दशकों में अंग्रेजी माध्यम के निजी ;अंग्रेजी के ‘पब्लिक’ शब्द का यह भारतीय अर्थ हैद्ध स्कूलों की बाढ़ आ गई। महानगरों से निकलकर नगरों, कस्बों और गाँवों की गलियों तक ये स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग आए। इन स्कूलों का एक ही आकर्षण था—‘अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा’। विदेशी भाषा के माध्यम से यह शिक्षण इस देश के नौनिहालों के लिए कितना हानिकारक, अवैज्ञानिक तथा बोझिल होगा, इसकी चिंता न तो तथाकथित शिक्षाशास्त्रियों ने की, न पैसा कमाने की दुकानें चलाने वाले स्कूल प्रबंधकों ने और बेचारे आम भारतीय अभिभावक को तो इन सब बातों का पता ही नहीं था। उसे तो बस एक ही बात समझ आई कि अंग्रेजी में गिटपिट करने वालों को ही भारतीय समाज में मान-सम्मान तथा पैसा मिलता है। इसलिए वे शामिल हो गए इस ‘शार्टकट’ को अपनाने की अंधी दौड़ में।
हमारी सरकार की कुंभकर्णी नींद तब खुली, जब सरकारी स्कूलों में प्रवेश पाने वालों की संख्या में भारी कमी आने लगी। सरकारी स्कूल बंद होने के कगार पर पहुँचने लगे। समस्या की सरकारी ढंग से जाँच हुई और सरकारी समाधान सुझाया गया कि चूंकि पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती है तथा वहाँ अंग्रेजी पहली कक्षा से ही पढ़ाई जाती है, इसीलिए वहाँ का शिक्षा स्तर अच्छा है। यही कारण है कि हर कोई अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ाना चाहता है। अतः उन्होंने सुझाव दिया कि सरकारी स्कूलों में भी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी किया जाए तथा वहाँ भी पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाई जाए। यह सुझाव बिलकुल वैसा ही था जैसे किसी नेत्राहीन व्यक्ति को गड्ढे में गिरते देखकर सरकार उसे रोकने के प्रयास करने के स्थान पर सरकारी कर्मचारियों की आँखों पर पट्टी बाँधने तथा सरकारी कार्यालयों में जगह-जगह गड्ढे खुदवाने का आदेश दे दे। सरकार को अपने स्कूलों की हालत सुधारने के लिए दिया गया सुझाव पसंद आया। दिल्ली सहित अनेक राज्यों ने इसे अपनाना शुरू कर दिया। बजाए इसके कि सरकार पब्लिक स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने के स्थान पर मातृभाषा में पढ़ाने को कहती तथा अंग्रेजी को पहली कक्षा से पढ़ाने से मना करती, वह खुद ही अपने स्कूलों में वही गलती दोहराने लगी। बच्चे अपनी मातृभाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा छोड़कर विदेशी भाषा के माध्यम से ‘तोता रटंत’ शिक्षा ग्रहण करने लगे। छोटे बच्चों पर अंग्रेजी विषय तथा अंग्रेजी माध्यम थोपने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इन बच्चों की बहुत सी उफर्जा जो विषय को समझकर मौलिक रचनात्मक कार्य करने में लगनी चाहिए थी, वह उफर्जा अंग्रेजी रटने में बर्बाद होने लगी। नोबल पुरस्कार प्राप्त प्रोपफेसर सी.वी. रमण ने स्पष्ट रूप में कहा था कि यदि भारत में विज्ञान मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाया गया होता, तो आज भारत दुनिया के अग्रगण्य देशों में होता। ;उद्धृत पृ. 66 ग्लोकल हिंदी, लेखक डॉ. रवि शर्माद्ध
अपनी भाषा से बच्चों को काटने के हानिकारक प्रभाव लगभग दो दशकों बाद अब धीरे-धीरे दिखाई देने लगे हैं। अपनी भाषा से कटी हुई आज की पीढ़ी केवल अपनी भाषा से ही नहीं कटी, वह अपने माता-पिता, घर-परिवार, रिश्ते-नाते, पर्व-त्योहार, सभ्यता-संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन से भी कटती चली जा रही है। आज हिंदी भाषी प्रदेशों के पब्लिक स्कूलों में पढ़े बच्चे भी अड़तीस, चौंसठ, उनहत्तर आदि सुनकर हक्के-बक्के रह जाते हैं। वे भीम को भीमा, भीष्म को भीष्मा, वेदों को वेदाज़ कहने में गर्व महसूस करते हैं। राम, कृष्ण, अशोक, योग आदि में ‘आ’ लगातार अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। वे एक पूरा वाक्य शुद्ध हिंदी में नहीं बोल पाते, उसमें कई अंग्रेजी शब्दों का छौंक लगा देते हैं। इतना ही नहीं सभी सरकारी तथा गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी, वे व्याकरणसम्मत शुद्ध अंग्रेजी भी बोल या लिख नहीं पा रहे। जबकि मेरे पिता जी जो केवल मैट्रिक पास थे, इतनी अच्छी अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत तथा उर्दू जानते थे कि बी.ए. स्तर के विद्यार्थियों को भी ये भाषाएँ पढ़ा सकते थे।
आज भारतीय समाज में सर्वाधिक उपेक्षित हैं—भारतीय भाषाएँ तथा उनके शिक्षक। यानी बच्चों के चरित्रा निर्माण, उनके व्यक्तित्व विकास का उत्तरदायित्व जिन दो तत्त्वों पर निर्भर था, वे दोनों ही आज उपेक्षित, उदास तथा हताश हैं। माता-पिता भौतिक सुविधा के साधन जुटाने के लिए आवश्यक प्रभूत धन को कमाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। पहले भारत में परिवार का एक पुरफष कमाता था और 8-10 बच्चों—बड़ों का भरा-पूरा परिवार आसानी से खाता था। आज परिवार के स्त्रा-पुरफष दोनों कमा रहे हैं, लेकिन एक या दो बच्चों के अपने छोटे से परिवार की आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पा रहे, क्योंकि आवश्यकताएँ सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जा रही हैं। बिजली का बिल ही 5-7 हजार रफपए महीने का आने लगा हैऋ पैट्रोल, टेलीपफोन, मोबाइल, ब्रांडेड कपड़े-जूते आदि के तो कहने ही क्या!! इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन कमाने की होड़ में लगे माता-पिता यह भूल रहे हैं कि उनका असली धन तो उनके बच्चे हैं, जिन्हें वे आया या नौकर के हाथों में पलने के लिए छोड़ देते हैं। वहाँ से उन्हें कैसा भाषा मिलेगी? कैसे संस्कार मिलेंगे? टी.वी. और इंटरनेट उनका विकास करेंगे या विनाश करेंगे? क्या वे बच्चे बड़े होकर अपने माता-पिता का सम्मान करेंगे? क्या वे बुढ़ापे में उनका सहारा बनेंगे? कदापि नहीं, क्योंकि व्यक्ति जो बोता है वही तो काटता है। हम अपने बहुमूल्य हीरे खोकर काँच के टुकड़े एकत्रा करके खुश हो रहे हैं। वाह! कितने समझदार हैं हम!!
आज के इस आपा-धापी के युग में सब कुछ जल्दी चाहिए। इसीलिए भाषा भी लगातार सिमटती और सिकुड़ती जा रही है। संक्षिप्तियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका सबसे सटीक उदाहरण एस.एम.एस. की भाषा है, जो वर्तनी को तोड़-मरोड़ रही है, शब्दों को खा रही है, वाक्यों को हज़म कर रही है। सी.पी. ;क्नाटप्लेसद्ध, डैपफ कॉल ;डिपफेंस कॉलोनीद्ध, जी.के. ;ग्रेटर कैलाशद्ध के.एन ;कमला नगरद्ध आदि जगहों के नाम तो आपने सुने ही होंगे, इसी प्रकार व्यक्तिगत नामों में भी यही संक्षिप्तता और लिखने में भी शार्टकट। इससे भाषा का सहज रूप विकृत हो रहा है।
भारतीय भाषाओं और उनके शिक्षकों की निरंतर उपेक्षा का परिणाम यह निकला कि विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय स्तर पर इन्हें पढ़ने और पढ़ाने वालों की संख्या और गुणवत्ता में लगातार कमी हो रही है। भाषा के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले साहित्य से व्यक्तित्व में जिन मानवीय गुणों, कल्पनात्मकता, सर्जनात्मकता आदि का विकास होता था, मानवीय संबंधों तथा सामाजिक स्थितियों और समस्याओं की समझ विकसित होती थी, उसमें बाधा उत्पन्न हुई है। आज शिक्षा का उद्देश्य चरित्रा विकास, मानवीय मूल्यों का संप्रेषण आदि नहीं रह गया है। आज की शिक्षा का एकमात्रा उद्देश्य है—खुद अधिकाधिक पैसा कमाना तथा बच्चों को पैसा कमाने में सक्षम बनाना। जो विषय, जो पाठ्यक्रम, जो संस्थान या जो शिक्षक विद्यार्थियों को जितना अधिक पैसा कमाने में सक्षम बनाएगा, उसकी उतनी ही अधिक माँग होगी। यही कारण है कि आज भौतिक विज्ञान, रसायन या जीव विज्ञान, चिकित्सा, भाषा, इतिहास, राजनीति विज्ञान आदि विषयों की उतनी माँग नहीं है, जितनी वाणिज्य, इंजीनियरिंग, प्रबंधन जैसे ‘कमाउफ’ विषयों की। ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रफपैया’ वाली अपसंस्कृति के लिए हम स्वयं अपने बच्चों को तैयार कर रहे हैं, उनमें भाषा तथा मानवीयता के संस्कार नहीं डाल रहे, तो कल जब वे अपने माता-पिता को बोझ मानने लगें, भ्रष्टाचार-बेईमानी को अपना लें, तो हाय-तौबा क्यों?
मातृभाषा को माँ समान मानने तथा गुरफ को भगवान से भी बढ़कर मानने वाले विश्व गुरफ भारत की वर्तमान नीति क्या आपको उचित लगती है? अपनी भाषाओं और शिक्षकों की उपेक्षा करके क्या हम एक स्वर्णिम भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं या पतन के गहरे गर्त में गिरने जा रहे हैं? इस सबके लिए उत्तरदायी कौन होगा? — हमारे बच्चे या स्वयं हम? सोचिए, समझिए और विवेक से उचित निर्णय लीजिए। उस निर्णय को लागू करने के लिए कठोर कदम उठाइए। नेताओं तथा नीति निर्धारकों को सही दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित तथा विवश कीजिए। तभी हम सच्चे अर्थों में कह पाएँगे—
मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।
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