
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर

डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई, लंदन
23 सितम्बर सन 1908 को पराधीन भारत के एक साधारण कृषक परिवार में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर ने गाँव की पाठशाला से पढ़ाई शुरू कर पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक की डिग्री प्राप्त की जिससे उन्हें इतिहास, दर्शन शास्त्र और राजनीति की गहरी समझ मिली जो बिहार की मिट्टी की सोंधी सुगंध से आप्लावित होकर उनकी रचनाओं को समृद्ध करती है।
दिनकर छायावादोत्तर काल के कवि हैं। छायावाद की उपलब्धियाँ उन्हें विरासत में मिलीं। उनकी प्रारंभिक कविताओं में छायावादी प्रवृत्तियों की प्रतिध्वनि है। पर जैसे-जैसे वे अपने यथार्थवादी बौद्धिक स्वर से स्वयं परिचित होते गए, और आत्मविश्वास बड़ा उनकी कविताएँ छायावाद के प्रभाव से मुक्त होती चली गईं और हिंदी साहित्य को एक नयी दिशा मिली। दिनकर ने स्वयं को द्विवेदी युगीन भाषा और छायावादी अभिव्यंजना शैली का वारिस मानते हुए अपने समय की पुकार सुन कर हिंदी कविता के अगले चरण का नेतृत्व किया। नयी शैली, शक्ति और सामाजिक चेतना के चारण का हिंदी जगत ने सहर्ष स्वागत किया। विशेष रूप से युवा पाठक उनकी राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत, ओजपूर्ण कविताओं से प्रेरित और उत्साहित हुए।
दिनकर की ऐतिहासिक चेतना अत्यंत प्रखर है। यद्यपि कवि की कल्पना इतिहास के भग्न खंडहरों में भटकती है, लेकिन उसका उद्देश्य अपने वर्तमान की पीड़ा के प्रति सजग और संवेदनशील होना है। उसके प्रतिकार की उत्तेजना उसे प्रासंगिक बनाती है। दिनकर का नाम हिंदी साहित्य में एक नयी भाव भूमि का नेतृत्व करने वाले साहित्यकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और मैथिलीशरण गुप्त के साथ लिया जाता है। आधुनिक काल में हिंदी की राष्ट्रीय कविता ने तीन मंजिलें तय कीं। पहली मंजिल वह थी जब भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रज की कुंज गलियों से निकल कर देश की दुर्दशा की ओर निहारा था। दूसरी मंजिल के पुरोधा मैथिलीशरण गुप्त ने अतीत की गौरव गाथा स्मरण कराते हुए वर्तमान की दुर्दशा पर आंतरिक व्यथा और ग्लानि व्यक्त करते हुए भविष्य को उज्ज्वल बनाने की महती प्रेरणा दी थी। और तीसरे पायदान पर आसीन हैं दिनकर, जिन्होंने अपनी कवित्व प्रतिभा से पराधीनता, अन्याय और आर्थिक शोषण के विरुद्ध विद्रोह का शंखनाद किया। वस्तुत: दिनकार का नाम युग धर्म के हुंकार का पर्याय है।
दिनकर की रचना प्रक्रिया की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम के दौर में हुई। पराधीन भारत के दमन और अत्याचारों के विरुद्ध उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में विद्रोह की दुंदभी बजाई। विदेशी शासकों के प्रति बगावत का स्वर उनकी कविता की पहचान बन गया। उनकी कविताओं में युवाओं को देशप्रेम के जोश से भरने वाली वीर रस की धमक थी। वे राष्ट्रीयता की भावना के ओजस्वी गायक हैं। कवि ने हिमालय को सम्बोधित कर पराधीन भारत की यंत्रणा का वर्णन करते हुए देशवासियों की सुषुप्त चेतना को झकझोर कर गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने की प्रेरणा दी:
ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
‘ले अँगड़ाई उठ, हिले धरा, कर निज विराट स्वर में निनाद्।
तू शैलराज, हुंकार भरे, फट जाए कुहा, भागे प्रमाद!
तू मौन त्याग कर सिंहनाद, रे तपी, आज तप का न काल.
नवयुग शंखध्वनि जगा रही, तू जाग जाग, मेरे विशाल!’ 1933
कवि देशवासियों की सुषुप्त राष्ट्रीयता की भावना से पराजित नहीं होता, उनमें पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ने की ललक और आत्मविश्वास भरने के लिए ओजस्वी स्वर में ललकारता है:
‘यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है.
भारत अपने घर में ही हार गया है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।‘
दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने हज़ारों लोगों के समक्ष दिनकर की इन पंक्तियों का उद्घोष किया जो विदेशी सरकार के विरुद्ध जनता की विद्रोह वाणी बन गई।
दिनकर का काव्य केवल भावना प्रधान काव्य नहीं, उसमें चिंतन की गहनता है। ‘कुरुक्षेत्र’, ‘उर्वशी’, ‘रश्मिरथी’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ प्रबंध काव्यों में युगानुकूल नवीन दृष्टि को ध्यान में रखकर कथानक रचा गया है। वे मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए सदा उत्कंठित रहे। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू से घनिष्ठ और आत्मीय संबंध होने के बावजूद दिनकर ने हिंदी को अपेक्षित वरीयता देने से हिचकिचाहट और अंग्रेज़ी के वर्चस्व को बनाए रखने की उनकी नीति की निर्भीकता से आलोचना की:
‘घातक है, जो देवता सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।’
व्यावहारिक जीवन में दिनकर की सहानुभूति समाज के शोषित, दीन-दुखी तथा उपेक्षित वर्ग के प्रति रही। जब वे एक ओर पूँजीपतियों के कुत्तों को राजसी भोग भोगते देखते हैं और दूसरी ओर किसान के बच्चों को माँ के सूखे स्तन चूसते जाड़े की रात में ठिठुरते हुए प्राण गँवाते देखते हैं तो वे अर्थव्यवस्था के विनाश के लिए अधीर हो जाते हैं:
‘हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।’
उनकी प्रसिद्ध रचना ‘रश्मिरथी’ केवल कर्ण की संघर्ष पूर्ण जीवन गाथा नहीं, एक प्रबुद्ध प्रेरणा है जो यह दर्शाती है कि व्यक्ति का जन्म नहीं बल्कि उसके चरित्र और कर्म ही उसको परिभाषित करते हैं। सामाजिक भेदभाव, निष्ठा, त्याग और न्याय जैसे सर्वकालिक विषयों पर कर्ण के माध्यम से कवि ने गहन चिंतन किया है। सूर्यपुत्र कर्ण के तेज, ओज और संघर्ष को महाभारत के कथानक से ऊपर उठाकर नैतिकता और वफ़ादारी की नयी भूमि पर खड़ा कर गौरवांवित किया है। ‘रश्मिरथी’ केवल कर्ण की गाथा नहीं, संघर्ष, स्वाभिमान और समानता की गाथा है जिसके भुजदंड ही उसकी पहचान है। राज्यसभा में गुरु द्रोणाचार्य ने उसकी जाति पूछी, कर्ण का उत्तर:
‘जाति जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूँ जाति? जाति है ये मेरे भुजदंड।’ और दुर्योधन के शब्द:
’मूल जानना बड़ा कठिन हैं नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का?’ जाति-पाति, गोत्र आदि की संकीर्णता से हटकर व्यक्ति के कर्म में विश्वास करने वाली कवि की दृष्टि उदार मानवतावादी मानसिकता की परिचायक है।
दिनकर की रचनाओं में वीर रस के साथ रौद्र, करुण और शांत रसों के साथ ‘रसवंती’ और ‘उर्वशी’ में शृंगार रस का परिपाक हुआ है।
दिनकर की राष्ट्रीयता पर सत्य और अहिंसा के प्रभाव के दो स्रोत प्रतीक परंपरा और गाँधी जी का प्रभाव हैं। सन 1946 में प्रकाशित ‘कुरुक्षेत्र’ में महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर युद्ध और शांति के कठिन विषय पर कवि ने अपने विचार भीष्म और युधिष्ठिर के संवादों द्वारा प्रस्तुत किए हैं। द्वितीय महायुद्ध काल में रचे गए इस प्रबंध काव्य की मूल प्रेरणा हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व है। दिनकर महात्मा गाँधी से प्रभावित थे , किंतु, गाँधी जी की अहिंसा की नीति को वे नकारते हैं। वे क्रांति के उपासक कवि हैं। क्रांति में हिंसा अवश्यंभावी है। इसलिए वे एक सीमा तक हिंसा को आवश्यक समझते हैं। पर यह ‘हिंसा’ हिंसा के लिए नहीं है, उसका उद्देश्य जनजागरण और पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ना है। कवि ने हिंसा का दायित्व भी उस पर नहीं रखा है जो तलवार उठाता है, बल्कि हिंसा के लिए दोषी वह है जो दूसरों के अधिकारों को छीनता है। दिनकर ने अहिंसा की नीतियों का विरोध करते हुए शक्ति और क्रांति के महत्व को रेखांकित किया। ‘रश्मिरथी’ में शक्ति और क्षमा के संतुलन के महत्व को, ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो’, द्वारा प्रतिपादित किया है। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में यह स्पष्ट है:
‘गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गलाकर जो तकली गढ़ते हैं
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का।’
गाँधी जी की अहिंसा की साहस पूर्ण आलोचना करने वाले कवि का हिंदी जगत ने पूरे जोश से स्वागत किया। दिनकर के अनुसार क्रांति और हिंसा ‘विषस्य विषमौषधम की भाँति उस समय की माँग थी। उनकी राष्ट्रीयता में आवेग और आवेश की प्रधानता जनमन की सोई हुई राष्ट्रीयता को जगाने के लिए आवश्यक थी। उन्होंने भीष्म, परशुराम आदि के माध्यम से कर्म और क्रांति का प्रेरक वर्णन किया है। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में राष्ट्रीयता आपद धर्म के रूप में व्यक्त हुई है। यह युद्ध काल की राष्ट्रीयता है जिसमें शक्ति, तलवार और क्रांति का महत्व सहज ही मान्य हो जाता है। उन्होंने भारतीय जनता के आक्रोश को उग्र राष्ट्रवाद का शंखनाद करके व्यक्त किया है। भारत की सीमा पर चीन के आक्रमण ने दिनकर की इस आस्था को दृढ़ किया कि अपने देश की सीमा और संस्कृति की रक्षा करने के लिए हमें दृढ़ सैन्य शक्ति का सहारा लेना पड़ेगा। साथ ही अपने जीवन दर्शन में मानवतावाद और परमार्थ के साथ युद्ध को भी स्थान देना पड़ेगा। हाल ही में पाकिस्तान के साथ हुए प्रसंग के संदर्भ में दिनकर की सोच वर्तमान काल में भी प्रासंगिक है। राष्ट्रीयता की यह समयोचित परिभाषा है और दिनकर उसके ओजस्वी कवि हैं।
दिनकर की गद्य रचना का चरम उत्कर्ष शोध और अनुशीलन के आधार पर मानव सभ्यता के इतिहास का चार अध्यायों में किया गया अध्ययन, ‘संस्कृति के चार अध्याय’ अपनी जड़ों का संधान करने वाले शोधार्थियों के लिए एक मूल्यवान संदर्भ ग्रंथ है। उनका विश्वास है कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रान्तियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रान्तियों का इतिहास है।
दिनकर हृदय से कवि और कर्म से क्रांतिकारी थे। उनका जीवन देश भक्ति, सादगी और सेवा का प्रतीक है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रिय भूमिका रही। और स्वाधीन भारत में देश के निर्माण में योगदान के रूप में फलीभूत हुई। उनकी विरासत आज भी जन मानस में देशप्रेम की प्रेरणा का संचार करती है। न्याय, स्वतंत्रता और मानवता की संवेदना उनकी रचनाओं को कालजयी और कवि को सर्वकालिक बनाती है। उनकी कविताएँ आज के संदर्भ में समाज को दिशा निर्देश देने में समर्थ हैं। देशप्रेम और सामाजिक जागरूकता की भावना के कारण वे राष्ट्रकवि की सर्वोच्च पदवी के सच्चे अधिकारी बने। दिनकर की पुण्य स्मृति को श्रद्धांजलि देते हुए मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ।