ताल को जाती ढलान पर दूब की मख़मली क़ालीन बिछ गई है।
सारा वातावरण वसंत की तस्वीर बना हुआ था, मैं उसका रसपान करते-करते अपने ख़यालों में लीन चली जा रही थी। मेरी नज़र तालाब किनारे बैठी एक किशोरी पर ठहर गई। उसने 19वीं-20वीं सदी में रूस में पहनी जानेवाली पोशाक पहन रखी थी। मैं अनायास उसकी ओर बढ़ गई। वह किसी मोहक दृश्य की चित्रकारी में तल्लीन थी। मैं थोड़ी दूरी पर खड़े होकर उसको और उसके काग़ज़ पर उभरते चित्र को देखने लगी। उसे अपनी ओर लगी टकटकी का आभास हो गया और उसने मेरी तरफ़ देखा। मैंने एक मुस्कान से उसका अभिवादन किया। उसने बड़ी शिष्टता से कहा ज़्द्राव्स्तवुइचे (नमस्ते)। मैं उसके पास चली गई और हम कला और सर्वत्र बिखरे कोमल रंगों के बारे में बातें करने लगे। ग़ौर से देखने पर मुझे समझ में आया कि काग़ज़ पर उसके द्वारा उकेरा गया चित्र सामने दिख रहे दृश्य से काफ़ी अलग था। अपनी यह उलझन मैंने जब उसके सामने रखी तो उसने जवाब दिया, मैं भी इस परिवेश को देखकर थोड़ा परेशान हूँ। सभी कुछ कितना बदला-बदला लग रहा है! मैंने पूछा क्यों? वह बोली लोगों के लिबास, हाव-भाव और सब कुछ कितना अजीबोग़रीब है। मैं उसकी बात सुन कर चौंकी और पूछा, “वह कैसे?” वह मेरे सवाल और मुझसे भी अचंभित हुई। आख़िरकार हम एक दूसरे और एक दूसरे की परेशानी का कारण समझ गए, वह अभी भी 19वीं सदी के मध्य में थी और हम 21वीं सदी के तीसरे दशक में। बहरहाल इस वजह को अधिक तवज्जो दिए बिना हम अपनी बातों में मशग़ूल रहे। मैंने उसे वहाँ आने का अपना उद्देश्य बताया और यह कि यह जगह आजकल पर्यटकों के आकर्षण का बड़ा केंद्र है। हम भी यहाँ दोस्तों के साथ घूमने और इसके बारे में ज़्यादा जानने के लिए आए हैं।
वह मेरी बातें सुन कर चहक उठी और बच्चों की सी उत्सुकता से बोली कि क्या मैं आपको यहाँ की कहानी बताऊँ। मेरे लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती थी! उसने कुछ यों शुरू किया – आप अपनी आँखें बंद कीजिए और कल्पना कीजिए कि यहाँ जितनी भी बेंचें हैं उन पर कहीं शिल्पकार, कहीं चित्रकार, कहीं कलाकार, कहीं लेखक बैठे हैं। सामने आपको जो ये आकर्षण सी कुटियाएँ दिख रही हैं, वे इन्हीं में से कुछ की कार्यशालाएँ हैं। फिर उसने सवाल दाग़ा, “आप हमारा घर तो देख आई होंगी?” मेरा जवाब ‘न’ में सुनकर बोली, चलिए वहीं से मैं अपनी कहानी सिलसिलेवार तरीक़े से बताऊँगी।
वह बताने लगी हम लोगों का उपनाम मामन्तव है। मेरे दादा इवान फ़्योद्रविच 19वीं सदी के बड़े उद्यमी थे। वे रेलमार्ग बिछाने और पेट्रोल सम्बन्धी उद्यमों से जुड़े थे। मेरे पापा, सावा मामन्तव, भी बाद में इन्हीं उद्योगों से जुड़े रहे। मॉस्को से येरसलावल जाने का रेलमार्ग हमारे परिवार ने ही बनवाया था और बाकू (अज़रबैजान की राजधानी) में पैट्रोल के कई कुएँ हमारे होते थे। हम लोग आमतौर पर मॉस्को की केंद्रीय सड़क ‘गार्डन रिंग रोड’ पर रहते थे, लेकिन पापा चाहते थे कि कोई एक घर ऐसा भी हो जहाँ राजधानी की आपाधापी से बच कर जाया जा सके और प्रकृति की नैसर्गिक गोद में रहा जा सके। जागीर ‘अब्राम्त्सेवा’ की काफ़ी ख्याति मॉस्को के कुलीन घरानों के बीच थी। वह अचानक रुकी और बोली, अरे मैं आपको ‘अक्साकव’ परिवार के बारे में बताना कैसे भूल गई।
यही वह परिवार था जिससे पापा ने यह जागीर ख़रीदी थी। अक्साकव अंकल का नाम सिर्गेय अक्साकव था, उनके समय में ही इस जगह की ख्याति पूरे रूस में फैली थी। वैसे तो वे आजीवन अलग-अलग राजकीय पदों पर आसीन रहे और वही ज़िम्मेदारियाँ निभाते उनका जीवन बीतता गया लेकिन उनके अंदर साहित्यकार का संवेदनशील हृदय था। तभी तो दोस्तों के साथ शिकार पर जाने वाले क़िस्सों और इस इलाक़े की नैसर्गिक छटाओं का उन्होंने अद्भुत वर्णन अपनी किताबों में किया है। हाँ, राजकीय पदों से सेवानिवृत्ति के बाद अक्साकव अंकल बतौर लेखक सक्रिय रहे थे। उन्होंने अपने ख़ानदान की तीन पीढ़ियों को तीन सुंदर उपन्यासनुमा पुस्तकों में पिरोया है। और एक तोहफ़ा जो उन्होंने सभी रूसी बच्चों को दिया है, वह है – लाल फूल नाम की – दो बाल कथाएँ। यह बताते ही वेरा कुछ और चहक उठती है। आज मेरा हृदय भी बच्चों की तरह मचल रहा है, इसीलिए तो अब तक अपनी इस चुलबुली वार्ताकार का नाम बताना भूल गई थी। वेरा मामन्तव की छोटी बेटी और पाँच संतानों में चौथी थी। फ़िलहाल चलिए वेरा की रोचक बातों का सिलसिला जारी रखते हैं।
उसकी चाल में बालसुलभ उछाल और उत्साह इतना था कि मेरी चाल भी उसके साथ क़दम मिलाने की होड़ में लग गई थी।
अब तक हम कुछ ऊँचे-नीचे रास्तों से चलकर, ताल की परिक्रमा करके, उसमें सर्वत्र फैली सुंदरता की परछाइयाँ देख सुंदरता में ख़ुद भी डूब आए थे। मन और तन प्रकृति के साथ एकरंग हो गए थे। अब हम क़रीने से सजे मैदान यानी जागीर के ऊपरी भाग में थे। इसी हिस्से में अन्य इमारतों के साथ मुख्य रिहायशी इमारत भी थी, जिसके सक्रिय और समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक जीवन की महक से आज भी लेखकों और कलाकारों के गलियारे सुरभित रहते हैं।
वेरा बताने लगी कि अक्साकव अंकल के चित्रकार, लेखक और कलाकार दोस्त अक्सर यहाँ आया करते थे और मॉस्को तथा सेंट पीटर्सबर्ग की दायरों में बँधी ज़िंदगी से ख़ुद को यहाँ आज़ाद पा सबकी प्रतिभा में पंख लगे पाते थे। वेरा ने जो नाम बताए उनमें से मुख्य ये थे- गोगल, तुर्गेनियेव, पगोदिन, श्चेप्किन। वह आगे बोली लेकिन अक्साकव अंकल की मृत्यु के बाद यह जगह भी जैसे वीरान हो गई। वैसे तो उनका भरा-पूरा परिवार था, चौदह संतानें थीं – दस बेटे, चार बेटियाँ। बड़े बेटे कंस्तांतिन की मृत्यु के बाद शायद किसी में जागीर को जीवंत रखने का वैसा जीवट या इच्छा-शक्ति नहीं रही होगी। साहित्य और संस्कृति की दिशा में जो राह राजधानी से अब्राम्त्सेवा तक अक्साकव अंकल ने बनाई थी उस पर पदचापों की ध्वनियाँ मंद होते-होते शांत हो गईं, और इस जागीर में ख़ाक उड़ने लगी। लेकिन इसकी गतिविधियों और यहाँ प्राप्त उपलब्धियों की गूँज से संवेदनशील हृदय लंबे समय तक प्रभावित रहे।
मेरे पापा उनमें से एक थे और उन्होंने अक्साकव परिवार के किसी सदस्य से यह जागीर ख़रीद ली। पूरी जगह बहुत बदहाल थी, पापा ने उसकी मरम्मत करवाई और उसकी प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने में जी जान लगा दी।
हम अपने पूरे ताम-झाम के साथ यहाँ आते थे। मॉस्को की घर और आसपास की अनुशासन संबंधी बंदिशों के बाद हम बच्चों को यहाँ दोस्त के रूप में मिलता था – अनंत नीला आसमान, शांत सा ताल, पेड़ों की भूलभुलैया, फलों की सौग़ात और हँसने, चिल्लाने और दौड़ने की आज़ादी। हमारे मम्मी-पापा को अपने हमख़याल साथियों की संगत और जी खोल कर हर विषय पर चर्चा करने के अवसर। व्र्यूबेल अंकल ने टाइल-कला के अपने सबसे अच्छे नमूने यहीं बनाए।आज त्रेत्यिकोव कला गैलरी के कुछ उत्कृष्ट चित्रों के प्रारंभिक नमूने यहीं बने थे, लकड़ी पर नक़्क़ाशी कर उससे फ़र्नीचर बनाने का यहाँ का कारख़ाना रूस के कुलीन वर्ग की बैठकों में चर्चा का विषय होता था। अब हम मकान, जो आज एक संग्रहालय है, के एक कमरे से दूसरे में जा रहे थे। वेरा अपने और अक्साकव परिवार की हर चीज़ के बारे में बहुत भावुक होकर बता रही थी। एक कमरे में कई बेहतरीन पोर्ट्रेट के बीच एक किशोरी की तस्वीर थी। नख से शिख तक उकेरी गई वह किशोरी ऐसी थी कि उस पर से आँख कहीं दूसरी तरफ़ हटना ही नहीं चाहती थी। अचानक मुझे एहसास हुआ यह तो मेरी संगिनी वेरा है। मैंने नज़रें उसकी ओर घुमाईं तो पाया कि वह भी कौतूहल से मेरी नज़रों को जाँच रही थी कि मैं उसे पहचानूँगी कि नहीं। मेरी आँखों में अपने प्रति प्रशंसा भाव देखकर पहले तो झेंपी लेकिन फिर मेरा हाथ खींचकर घर के डाइनिंग रूम की तरफ़ भागी। यह कमरा बहुत जीवंत था। इसमें लगभग छत से फ़र्श तक एक बड़ा आईना लगा था, जिसका फ्रेम नक़्क़ाशी की गई लकड़ी से बना था। कमरे में गुलदस्ते में फूल रखे थे, खिड़कियों पर आम घरों की तरह गमलों में पौधे। दीवारों पर कहीं पोर्ट्रेट, कहीं सेरेमिक प्लेटें, कहीं कुछ और सजावट की चीज़ें। इस कमरे में संग्रहालयों वाली रूढ़िमय एकरूपता के दायरे समाप्त होते थे और घरों में पाई जाने वाली आत्मीयता और स्नेह के घेरे शुरू। उसने ईज़ल पर लगी एक तस्वीर की तरफ़ इशारा करके पूछा यह तस्वीर आपने देखी है। मैं भी उसे देख ख़ुशी से उछल पड़ी, बोली -हाँ। यह तो वलिनतीन सेरव की जगप्रसिद्ध पेंटिंग ‘The girl with peaches’ है। वेरा मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।
उसने पूछा और इस ‘लड़की’ को आप पहचानती हैं। मैंने फिर ग़ौर से तस्वीर को देखा, बालिका के चेहरे पर दौड़-भाग की मशक़्क़त के बाद फलों की ताज़गी वाली लालिमा और कोमलता थी। आड़ू की कोमलता, सरसता और ताज़गी को चेहरे में उतार देने के कारण ही शायद वह तस्वीर इतनी प्रसिद्ध थी। मेरी बग़ल में खड़ी सौम्य किशोरी वेरा की ही बालदिनों में सेरव ने तस्वीर उकेरी थी। मैं बोली, “अरे! यह भी तो तुम्हीं हो।” सेरव का चित्रकार हृदय खेलकूद कर घर लौटी बालिका के चेहरे के रंगों को उसी क्षण कैनवस पर उतारने बैठ गया था। वे तो उस प्रक्रिया में आनंद में डूब गए थे, स्थिर स्थिति में बैठना वेरा के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, यह तो आप और हम समझ ही सकते हैं।
वेरा अपने प्रति इतना आदर और आकर्षण देखकर झेंप गई और बोली गोगल अंकल का कमरा तो मैं आपको दिखाना भूल गई। वे हमारे यहाँ अक्सर आते थे। फिर उसने पूछा आप उनकी किन रचनाओं के बारे में जानती हैं? मेरे मुँह से सबसे पहले- ‘मृत आत्माएँ’ निकला। वह जवाब सुनकर बहुत ख़ुश हुई। बोली शायद गोगल अंकल की भी वह अपनी पसंदीदा कृति थी। वे जब भी आते थे, घर पर उत्सव का वातावरण हो जाता था। वे लिखते जितना अच्छा थे, उतना ही अच्छा पढ़ते भी थे, प्रस्तुति भी उतनी ही अच्छी देते थे। उन्हें बड़े तो मंत्रमुग्ध होकर सुनते ही थे, हम बच्चे भी उन क्षणों में मूक हो जाते थे। उसने फिर अपना सवाल दाग़ा। बोली, बताइए गोगल की रचनाएँ जीवन के अंधकारतम पहलुओं से जुड़े होने के बावजूद क्यों इतनी पसंद की जाती हैं? मुझे इस सवाल का तुरंत कोई उत्तर नहीं सूझा। वैसे भी मेरा साहित्य से जुड़ाव शौक़िया है, मैंने कभी उसका अध्ययन नहीं किया है। मैंने उससे कहा, “तुम्हीं इस प्रश्न का उत्तर बता दो” वह बोली, “गोगल की सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि चित्र (हालात) कितना भी कुरूप क्यों न हो, वे उसका चित्रण सुंदरतम शब्दों में करके उस चित्र के प्रति भी रुचि पैदा कर देते थे।” वेरा जैसे कि सातवें आसमान पर थी, और बोली गोगल अंकल शुरुआती दिनों में बहुत रंगीन हुआ करते थे, उनकी पोशाक रंगीन ही नहीं चटकीली भी हुआ करती थी। अपनी बात की पुष्टि के लिए उसने एक तस्वीर दिखाई, जिसमें हम सबके सुपरिचित गोगल – चिपके से बाल, काले और स्लेटी रंग की पोशाक वाले – के बाल पफ़ करके ऊपर उठा कर बने थे, पीली-सी क़मीज़ पर गहरे लाल रंग का कोट था, और बो-टाई भी उसी रंग की। मैं सोचने लगी, क्या वे लेखन में इतना डूब जाया करते थे कि उसके बाद उनका जीवन और मनोवृत्ति सर्वत्र फैली विद्रूपताओं और विषमताओं की बेरंगी ख़ुद में समा लेते थे। ख़यालों की दुनिया से मुझे वेरा ने बाहर निकाला। वह गोगल का लकड़ी का वह बक्सा दिखा रही थी, जिसके साथ वह हर जगह जाते थे। इस बक्से में काग़ज़, क़लम, दवात आदि रखने की जगहें थीं और वह अक्षरशः उस कलमदान की तरह था जिसका इस्तेमाल हमारे यहाँ भी तब तक बहुत होता था, जब तक ज़मीन पर मसनद के सहारे बैठकर काम करने की जगह मेज़-कुर्सी ने न ले ली। मैंने भी पलंग पर बैठकर इस तरह के क़लमदान पर अपने स्कूल के कई कार्य पूरे किए हैं। वह क़लमदान इस बात का एक और प्रमाण था कि मानव जाति लगभग हर जगह समान-से विकास के दौरों से गुज़री है। रूस में उस समय लेखक और चित्रकार आदि काम खड़े होकर किया करते थे, उनकी मेज़ें उसी संज्ञान से बनाई जाती थीं। उस बड़े कमरे में गोगल की वह पेंटिंग भी लगी थी जिसमें वे अपनी अंतिम कृति की पांडुलिपि जला रहे हैं। कुछ आत्म-आलोचना, कुछ आलोचकों की कटु समीक्षाओं और कुछ बुरे स्वास्थ्य के कारण उनकी मनःस्थिति ऐसी बनी थी कि वे उसे जला रहे थे। बाद में स्वास्थ्य कारणों से जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई थी।
वेरा की ज़बानी वहाँ की बातों को जानने का सिलसिला बहुत ख़ुशगवार था। आख़िर में हम उस हिस्से में पहुँचे जहाँ पर पूरी साज-सज्जा के साथ थिएटर हुआ करता था। मेज़बान और मेहमान (दोनों ही संस्कृति से गहनता से सम्बद्ध होते थे) पूरी शिद्दत से जुटकर प्रस्तुतियाँ तैयार करते थे। मामन्तव एक अच्छे रंगमंच-कर्मी की ख्याति रखते थे।
अचानक जैसे कि गोगल पृष्ठभूमि में सुनाई देने लगे, लेकिन न जाने कैसे वह आवाज़ एक महिला की आवाज़ में बदल गई। जो बता रही थी कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वह जागीर अस्पताल में परिवर्तित की गई थी। थिएटर में ऑपरेशन थिएटर हुआ करता था और दूसरे कमरे मरीज़ों के वार्ड या डॉक्टरों के जाँच-कक्ष। द्वितीय विश्व युद्ध की चपेट में रूस लगभग चार साल (1418 दिन) रहा था। उससे पहले हिटलर का दावा और वादा था कि वह रूस पर हमला नहीं करेगा। लेकिन 22 जून को तड़के सवेरे, अभी सुबह के चार भी न बजे थे, कि रूस के पश्चिमी इलाक़े में एक साथ दसियों शहरों पर बमबारी हो गई थी। उसके बाद जो हुआ इतिहास में दर्ज है।
आज विडंबना यह है कि 9 मई है। रूस आज द्वितीय विश्व युद्ध का विजय दिवस मनाता है। बर्लिन में 8 मई को रात में जब तक युद्ध समाप्ति के संधि-पत्र पर हस्ताक्षर हुए थे, घड़ी की सुइयाँ रूस में 9 मई को बढ़ गई थीं। आज रूस में विजय दिवस तो मनाया जा रहा है, लेकिन लोगों के दिलों में यह सवाल है कि इस दिवस की अमृत वर्षगाँठ के चार वर्ष पूर्व ही देश को अपनी सीमाओं की रक्षा और राष्ट्र की अखंडता बनाए रखने के लिए युद्ध की कार्रवाई क्यों करनी पड़ रही है? और वह भी उस देश के साथ जो पिछले युद्ध में रूस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा था और सुदूर इतिहास में, आज भिन्न देशों का दर्जा रखने के बावजूद, ये देश कभी कीवस्काया-रूस यानी ‘कियेव का रूस’ के नाम से जाने जाते थे, अर्थात् एक थे।
युद्ध की यादों और बातों से जब मेरा ध्यान टूटा तो मैंने जाना कि वेरा तो मेरी कल्पना की उपज थी। मामन्तव की जागीर दिखाने की शुरुआत गाइड ने जिस कमरे से की थी, उसमें किसी अनाम चित्रकार की एक तस्वीर – ‘चित्रकारी करती वेरा’ – थी जिसमें वेरा ताल के किनारे बैठकर चित्रकारी कर रही है। और वहीं से वेरा और हम साथ हो लिए थे।
संस्मरण से निकलकर चलिए एक नज़र इस जागीर के कुछ तथ्यों पर भी डाल लें।
मॉस्को के उत्तर–पूर्व में से 60 किलोमीटर की दूरी पर वोरी नदी के तट पर बसा अब्राम्त्सेवा आज एक ऐतिहासिक, कलात्मक एवं साहित्यिक संग्रहालय और अभ्यारण्य है। सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद निजी सम्पत्ति उन्मूलन नियम लागू होने के बाद इसका राष्ट्रीयकरण किया गया और 10 अक्टूबर 1919 को इसे संग्रहालय और अभ्यारण्य का दर्जा प्राप्त हुआ। यह स्थल न केवल मॉस्कोवासियों को बेहद प्रिय है बल्कि देश की राजधानी घूमने आने वाला हर सैलानी भी यहाँ ज़रूर जाना चाहता है, कला और साहित्य के समंदर में डुबकी लगाना चाहता है।
आज जिस रूप में यह जगह है, उसका निर्माण 18 वीं सदी की शुरुआत में कुलीन घराने के फ़्योदर इवानोविच गलोविन ने करवाया था, वे पीटर प्रथम के पोतसमूह के प्रमुखों में से थे और सेवानिवृत्ति के बाद आकर यहाँ बस गए थे।
अब्राम्त्सेवा को 19वीं सदी के मध्य से रूसी बुद्धिजीवियों का स्वर्ग होने की संज्ञा प्राप्त है। इसे साहित्यिक और सांस्कृतिक गौरव मिलने का सिलसिला तब शुरू हुआ जब लेखक सिर्गेय अक्साकव ने इसे ख़रीदा और मॉस्को तथा सेंट पीटर्सबर्ग के तनावग्रस्त वातावरण से स्वयं मुक्ति पाने और अपने मित्रों को तनावमुक्त करने के लिए यहाँ जमावड़े शुरू किए। अक्साकव की मृत्यु के बाद कुछ समय तक यह जगह वीरान पड़ी रही लेकिन जब से यह समाजसेवी और लेखक सव्वा मामंतव की मिलकियत बनी, इसे मानो दूसरी ज़िन्दगी मिल गई। लेखक, चित्रकार, मूर्तिकार घूमने, प्रेरणा प्राप्त करने और अपने काम को नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए यहाँ आने लगे, यहाँ उन्होंने किताबें लिखीं, नए ख़यालों को एक–दूसरे से साझा किया, अपनी और दूसरों की कृतियों पर मंचन किए, अद्भुत पेंटिग्स बनाईं जो आज रूस के सबसे प्रसिद्ध संग्रहालयों की शान बढ़ा रही हैं।
अब्राम्त्सेवा को 19वीं सदी के मध्य से रूसी बुद्धिजीवियों का स्वर्ग होने की संज्ञा प्राप्त है।
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–प्रगति टिपणीस
