मौसम कैसे भी करवट क्यों न ले, वसंत गर्माहट लाने में देर करे या घोड़े पर सवार हो कर आए; विलो (Willow) प्रजाति का एक पेड़ है जो रूसी भाषा में वेरबा कहलाता है, वह ऑर्थोडॉक्स ईस्टर (रूसी में पास्ख़ा) से एक हफ़्ते पहले खिलता ही है। कैथोलिक ईसाई जिस दिन को पाम संडे (Palm Sunday) की तरह ईस्टर से एक हफ़्ते पहले मनाते हैं, उसे ही रूस के ऑर्थोडॉक्स ईसाई ‘वेरबनोए वसक्रिसेनिये’ यानी वेरबा इतवार कहते हैं। कई बार समस्त ईसाई जगत यह दिन एक ही रविवार को मनाता है और कई बार ये दिन लम्बे अंतराल पर होते हैं। इस साल यानी वर्ष 2024 में पाम रविवार ऑर्थोडॉक्स ईसाईयों को छोड़कर बाक़ी सबने 24 मार्च को मनाया और रूस के ऑर्थोडॉक्स श्रद्धालुयों ने वेरबा इतवार 28 अप्रैल को मनाया। इस बार इन दोनों के बीच पूरे 35 दिनों की दूरी रही।

ईस्टर की तरह यह इतवार भी ईसाई धर्म में बड़ा महत्त्व रखता है। ईस्टर अगर ईसा मसीह के पुनर्जीवन की पावन घटना से जुड़ा है तो पाम या वेरबा इतवार ही वह दिन है जिसने उस महान और चमत्कारिक घटना के लिए भूमि तैयार की थी। मान्यता यह है कि इसी दिन ईसा मसीह ने जेरुसलेम में एक गधे पर बैठकर प्रवेश किया था। गधे पर इसलिए क्योंकि उन इलाक़ों में गधे को शांति का प्रतीक माना जाता था जब कि घोड़े को युद्ध का। शहरवासियों ने अपने चोग़े और पाम की टहनियाँ अपने पूज्य राजा येशु के स्वागत में पूरे शहर में बिछा दी थीं। आजकल लोग वेरबा इतवार से एक दिन पहले पाम या वेरबा टहनियों को गिरजाघर में ले जाकर उन्हें पादरी से पवित्र कराते हैं और अगले दिन उन्हें आपस में बाँटते हैं और अपने घरों में इन्हें अन्य धार्मिक वस्तुओं बाइबिल आदि के पास रखते हैं। रूस में लोग इन टहनियों को गुलदानों में पानी डालकर रखते हैं, जिससे वे ईस्टर तक बनी रहती हैं। पाम इतवार के दिन ईसा मसीह के विजयोल्लास पूर्ण प्रवेश से निश्चित रूप से वहाँ का शासन हिल गया था और उसी ख़लबली में शुक्रवार को वे येशु को सूली पर चढ़ा देते हैं। सूली पर चढ़े बग़ैर येशु का पुनरुत्थान संभव कैसे होता? कहते हैं कि रविवार की सुबह जब लोग येशु की क़ब्र पर आए तो वहाँ पर शरीर की जगह चंद फूल बिखरे हुए थे यानी पुनरुत्थान हो गया था। पुनरुत्थान से जुड़ा है उठान।

मैं जब से सोवियत संघ में आई हूँ, तब से पास्ख़ा पर्व का मनना देख रही हूँ। लेकिन स्वर्ग की ओर उनके आरोहण और उन्नयन की घटनाओं के बारे में मुझे अभी कुछ दिन पहले ही मालूम हुआ।

सैर करने के अनगिनत फ़ायदों में से एक उससे लगातार हासिल होती जानकारी है। सात दशक से अधिक समय के लिए रूस सोवियत संघ का हिस्सा था। उस दौरान कुछ ही गिरजाघर प्रार्थनाघरों की तरह काम करते थे और दूसरों का इस्तेमाल अन्य प्रयोजनों के लिए होता था। सोवियत सरकार की धरोहर-संरक्षण नीति के चलते पुराने गिरजाघरों को बतौर सांस्कृतिक धरोहर सुरक्षित रखा गया था और इसीलिए आज सैर करते सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के चर्च रास्ते में मिलते रहते हैं। संयोग कुछ यों बना कि वेरबा इतवार के दिन बल्शाया निकीत्स्काया सड़क पर जाना हुआ। घुमक्कड़ी में क़दम एक चर्च की ओर बढ़ गए। उसकी सुंदरता को बढ़ाने का काम साफ़ नीला आसमान तो कर ही रहा था, साथ ही उसके ठीक सामने के चेरी के छोटे-छोटे पेड़ अपने नए सफ़ेद फूलों से सबको लुभा रहे थे। इस चर्च को लोग ‘बल्शोये वज़निसेनिये’ नाम से बुलाते हैं। वज़निसेनिये का अर्थ होता है आरोहण, और बाल्शोये का महान, यानी ‘बल्शोये वज़निसेनिये’ से तात्पर्य होता है ‘महान आरोहण’। उसी दिन यह सवाल मन में उठा कि इस आरोहण का ईसाई धर्म में क्या स्थान है। पूछताछ और थोड़ा शोध करने पर यह पता चला कि ईस्टर के दिन हुए पुनरुत्थान के चौथे दिन यानी गुरुवार को आरोहण करके येशु स्वर्ग पहुँच गए थे और वहाँ उन्नयन प्राप्त होने पर भगवान के दाईं ओर बैठने का स्थान उन्हें प्राप्त हुआ। ईसाई धर्म में येशु की मृत्यु, पुनरुत्थान और उन्नयन तीन अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं, और वही ईसाई-आस्था का आधार भी हैं। 

बल्शोये वज़निसेनिये गिरजाघर के बग़ल से अंदर जाने वाली सड़क उसी के नाम पर ‘वज़निसेन्स्की पेरेउलक’ (गली) कहलाती है। कहने को तो यह एक गली है पर इस पर खड़ी सभी इमारतें ख़ासा महत्त्व रखती हैं। मिसाल के तौर पर इमारत नंबर 9 का बड़ा साहित्यिक महत्त्व है। यह भवन राजकुमार प्योतर अन्द्रेयविच व्याज़ेमस्की (1792-1878) का था जो स्वयं एक कवि और आलोचक थे। राजनयिक और साहित्यकार अलिक्सान्दर ग्रिबायेदव (1795 – 1829) का उनके यहाँ आना-जाना रहा था, जिन्होंने अपना काव्यात्मक नाटक ‘बुद्धि से दुःख’ इसी भवन में साल 1824 में सुनाया था। व्याज़ेमस्की और पूश्किन अच्छे दोस्त थे, पूश्किन (1799 – 1837) ने भी अपना ऐतिहासिक नाटक ‘बरीस गदुनोव’ साल 1826 में पहली बार यहीं  प्रस्तुत किया था और 1830 में वे यहाँ रहे भी थे। ऐसी बातें और तथ्य स्मारकीय-महत्त्व की इमारतों के बाहर घातु-पट्टी पर आमतौर से लिखे रहते हैं। यानी शहर की गलियाँ भी संग्रहालयों का काम करती हैं। इस गली के दोनों तरफ़ खड़ी इमारतें किसी न किसी लेखक, वैज्ञानिक, वास्तुशिल्पी, संगीतकार की जानकारी-पट्टियों से सुसज्जित थीं। उनमें से कुछ राजाओं आदि की जागीरें भी रही थीं। सेंट अन्द्रेई ऐंग्लिकन चर्च भी गली के दूसरी तरफ़ था, यानी कैथोलिक चर्च। यह चर्च प्रार्थना के लिए रविवार तथा हफ़्ते के किसी एक दिन और खुलता है। कैथलिक जगत इस साल ईस्टर 1 अप्रैल को मना चुका है। रूस में ईस्टर के उपलक्ष्य पर गिरजाघरों और संगीत भवनों में वाद्ययंत्रऑर्गन के कॉन्सर्ट होते रहते हैं, उस दिन वहाँ भी एक हो रहा था। हमने बंद दरवाज़े के पीछे से मधुर संगीत वहाँ बिताये कुछ मिनटों के दौरान सुना। 

रूस और ऑर्थोडॉक्स जगत इस साल पास्ख़ा (ईस्टर) 5 मई को मनाएगा। अपने रूसी साथियों से बात करने पर पता चला कि इस त्योहार से जुड़ी कुछ परम्पराएँ जो अभी तक चली आ रही हैं, वे रूस द्वारा ईसाई धर्म को स्वीकारने से पहले की हैं, जैसे अंडो को सुन्दर रंगों में रंगने और कुलीच (ईस्टर केक) बनाने की। तब अण्डों को प्रकृति के जागने का प्रतीक माना जाता था, यही वह समय होता है जब लम्बी सर्दी के बाद वनस्पति, जीव-जंतु, इंसान सभी स्वयं को नयी शक्ति से पूर्ण पाते हैं। अंडे प्रायः लाल रंगों में रंगे जाते थे, लाल रंग को बढ़ते और तपते सूर्य का प्रतीक माना जाता है। अण्डों पर लोग तीनों लोकों – धरती, पाताल और स्वर्ग – का चित्रण करने की कोशिश करते थे। ईसाई धर्म अपनाने के बाद परम्पराएँ वही बनी रहीं सिर्फ़ प्रतीकों में सन्निहित अर्थ बदल गए हैं। आज बहुतों का यह मानना है कि मारिया मग्दलीना कुछ अन्य स्त्रियों के साथ येशु को सलीब पर चढाने के तीसरे दिन उनकी क़ब्र पर कोई अनुष्ठान करने पहुँची थीं और साथ गयीं महिलाओं को खिलाने के लिए कुछ अंडे भी साथ ले गई थीं। वहाँ पहुँचकर उन्हें यह समझ में आया था कि येशु का पुनरुत्थान हो चुका है और अपनी टोकरी के अंडे उन्हें लाल मिले थे। दूसरी कथा यह कहती है कि लाल रंग सलीब पर बहे ईसा के ख़ून का है या फिर वह इस बात का द्योतक है कि स्वर्ग का राज्य ईसा मसीह के लिए ही है। एक और पक्ष इस परम्परा का यह है कि ईस्टर के पहले वाले महीने लोग उपवास करते हैं, जीव-जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी तरह के पदार्थों का सेवन नहीं करते हैं, यहाँ तक कि दूध, दही, मक्खन आदि का भी नहीं। इसलिए उस समय मुर्ग़ियों से मिलने वाले अण्डों को ख़राब होने से बचा लेने का सबसे अच्छा उपाय उन्हें ठीक से उबाल कर रख लेना ही रहा होगा और त्यौहार के आने पर सुन्दर रंगों में रंग कर अपने घरों को थोड़ा और रंगीन बना लेने का। बहरहाल क़िस्से-कहानियाँ कितने भी क्यों न हों लोकमत यही रहा है कि अंडे सम्पूर्ण जीवन क्रम का और लाल, नारंगी जैसे उष्ण रंग सूरज और उसकी गर्मी के द्योतक रहे होंगे। छह-छह महीने जहाँ सूरज नहीं निकलता है और सारा माहौल बर्फ़ से ढका रहता है, वहाँ के लिए सूरज के गरमाने और धरती में अंकुर फूटने के मायने बिलकुल अलग होते हैं!

पास्ख़ा के आसपास यहॉँ जनजीवन में एक अलग रौनक होती है ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहॉँ होली, दीवाली और ईद के समय। लोग अपने घरों की सफ़ाई करने लगते हैं, अण्डों को रंगने और कुलीच (ईस्टर ब्रेड) बनाने की नई विधियाँ तलाशते हैं, उन्हें बनाने का सामान जुटाते हैं और शुक्रवार का दिन (जिस दिन येशु को सलीब पर चढ़ाया गया था) इन कामों में ख़ुद को मसरूफ़ रखते हैं। शनिवार के दिन ईस्टर कैसे मनाएँगे उसकी योजना बनाने के साथ ही चर्च जाकर अपने अण्डों और कुलीचों को पवित्र कराने का समय भी निर्धारित करते हैं। आमतौर पर लोग रात को ही चर्च जाना पसंद करते हैं। शहर के मुख्य गिरजाघर में (मॉस्को में Christ the Saviour चर्च में) ईस्टर सम्बन्धी प्रार्थना और अन्य अनुष्ठान होते हैं, जो रात के ग्यारह बजे शुरू होकर तीन बजे तक चलते हैं। आजकल इस पूरे कार्यक्रम का सीधा प्रसारण विभिन्न टीवी चैनलों पर भी होता है, ये आयोजन और प्रसारण सोवियत संघ के विघटन के बाद से शुरू हुए। इस शनिवार मेट्रो रात के तीन बजे तक चलती है।

मुझे अब भी साल 1982 और उसके बाद के सभी वर्षों में त्बिलीसी में पास्ख़ा के दिन होने वाले आयोजनों और उनकी ख़ुशनुमा हलचल याद है। इस हलचल को मात्र वसंत के आगमन का हर्षोल्लास नहीं कहा जा सकता, लोगों के लिए इस दिन का विशेष महत्त्व होना उस गहमागहमी और रौनक की वजह होती थी और आज भी है। कल ही मेरी सहेली आन्या ने बताया कि सोवियत रूस में भी ये सारे आयोजन होते थे और तब भी यहाँ ख़ासी उमंग और चहल-पहल होती थी।

एक बार कुछ दोस्तों ने त्बिलीसी के मेट्रो स्टेशन मरजानिश्वीली के पास अपने घर ईस्टर की पूर्वसंध्या पर बुलाया था, मेट्रो से बाहर आते ही वहाँ की सड़कों और गलियों में जो माहौल था, वह बिलकुल वैसा था जो अपने यहाँ ईद की नमाज़ पढ़ने जाने से पहले या दीवाली की पूजा के पहले का होता है। हर कोई किसी जल्दी में था, अपनी धुन में तल्लीन, लेकिन शिकायत या परेशानी का लेशमात्र चेहरों पर नहीं था। इतनी पुरानी होने के बावजूद इस बात का स्पष्ट रूप से मनपटल पर दर्ज होना बहुत कुछ बताता है। बड़े-बूढ़े जल्दी में थे ताकि ईस्टर के अनुष्ठान के लिए सभी तैयारियाँ समय पर हो जाएँ और नौजवान लोगों की फ़िक्र यह थी कि वे उन सब कामों को जल्दी से जल्दी निपटाएँ जो घर के बड़ों ने बताए हैं और खुद को जल्दी ही टीवी पर शुरू होने वाले विशेष कार्यक्रमों के लिए फ़ारिग़ कर लें। बात दरअसल यह है कि पुरानी पीढ़ी के लोगों को उनकी मान्यताओं और आस्थाओं से अलग करना संभव नहीं था, लेकिन राष्ट्र-निर्माण में लगी कम्युनिस्ट सरकार यह चाहती थी कि युवा पीढ़ी धर्म-सम्बन्धी बातों से दूर रहे। ईस्टर के पहले वाले शनिवार को टीवी पर सबसे अधिक लोकप्रिय फ़िल्में (आमतौर पर ये विदेशी फ़िल्में होती थीं) और संगीत कार्यक्रम दिखाए जाते थे ताकि नौजवान चर्च जाने की बजाय घरों पर रहें। धर्मान्धता जिससे बड़ी मुश्किल से देश उबर रहा था वह वापस सबको अपने चंगुल में न ले ले। हम लोगों की भी ईस्टर पर ख़ूब मौज हो जाती थी। शनिवार को जम कर अच्छे कार्यक्रम देखने को मिलते थे और इतवार को  कोई न कोई ईस्टर-भोज पर ज़रूर बुलाता था। मैं आज तक यह कहते नहीं थकती कि जॉर्जियन लोगों के घर हम पैदल लम्बी से लम्बी दूरी तय करके पहुँच जाते थे लेकिन वापसी में पेट इतने भरे होते थे कि चलना दूभर हो जाता था; पास के बस स्टॉप या मेट्रो तक की दूरी का हर क़दम बड़ी मुश्किल से पार होता था। जॉर्जियन लोग अपनी मेहमाननवाज़ी और पकवानों के लिए पूरे सोवियत संघ में जाने जाते थे। मात्र उनके इस पक्ष से रूबरू होने के लिए वहाँ की यात्रा की जा सकती है, अन्यथा भी इस छोटे से देश और इसके सहृदय  लोगों के पास सैलानियों के लिए बहुत कुछ दिलचस्प एवं रोचक है।

ईस्टर और उससे जुड़े सभी पर्वों पर आज भी रूस में वही जोश-ओ-ख़रोश दीखता है जिससे त्बिलीसी में पहली बार रूबरू होने पर मुझे भारत के तीज-त्यौहार याद आ गए थे। ऑर्थोडॉक्स ईस्टर से उस पहली मुलाक़ात से आज तक चालीस वर्ष बीत चुके हैं और लोगों में इस पर्व के लिए उत्साह किंचित भी कम होता नहीं दिखता, उलटे बढ़ता ही जा रहा है। मेरे ख़याल से यह धर्म की तरफ़ बढ़ते रुझान से ज़्यादा अपनी पुरानी परम्पराओं को जाने-अनजाने जीवित रखने तथा जीवन और वसंत का उत्सव मनाने का पर्व अधिक है। अब जब प्रकृति के प्रफुल्लित होने, सूरज द्वारा धरती को जगाने और लोगों के मनों में उमंगों के मचलने का जश्न मन रहा हो, तो कैसे कोई उससे दूर रहे, उसका हिस्सा न बने।

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-प्रगति टिपणीस

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