मूल लेखक – व्लादिमीर व्लादिमीरोविच नाबोकोव

(मूल अँग्रेज़ी से अनुवादप्रगति टिपणीस)

इतने सालों में चौथी बार वे फिर इस बात पर सिर खपा रहे थे कि उस नौजवान को सालगिरह पर क्या तोहफ़ा दिया जाए जिसका दिमाग़ लाइलाजी की हद तक बिगड़ चुका था, जिसे न ही किसी चीज़ की चाह थी और न ही तमन्ना। इंसान के हाथ की बनी चीज़ों को या तो वह बुराई का गढ़ मानता था, या फिर उनमें उसे कोई जानलेवा साज़िश छिपी दीखती थी, जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ वही महसूस कर सकता था, या फिर वे चीज़े उसे ऐसी सहूलियतों के लिए बनी लगती थीं जिनकी उसकी ख़याली दुनिया में कोई जगह नहीं थी। उसके लिए कुछ भी ऐसा नहीं ख़रीदा जा सकता था जिससे उसे ठेस पहुँचे या डर लगे (इसलिए गैजेट जैसी चीजों का सवाल ही नहीं उठता था); बहुत सारी चीज़ों को नकारने के बाद उसके माता पिता ने तोहफ़ा चुन ही लिया। उन्हें एक टोकरी में अलग-अलग फलों की जेली वाले दस छोटे जार बहुत अच्छे लगे, उन्हें लगा कि यह तोहफ़ा लज़्ज़तदार भी है और हर तरह से महफ़ूज़ भी।

उनकी शादी के कई वर्षों बाद उसका जन्म हुआ था। और अब वे काफ़ी बूढ़े हो चुके हैं। माँ ने बिखरे हुए अपने भूरे बालों को बड़ी लापरवाही से चिमटियों में समेटा हुआ था। उसके कपड़े सस्ते और बेरंग थे। जबकि उसकी उम्र की दूसरी औरतें आमतौर पर उसके बिलकुल विपरीत थीं, मिसाल के तौर पर उनकी पड़ोसन श्रीमती सोल का चेहरा गुलाबी रंग की सभी छटाओं से लिपा-पुता रहता था और सिर पर हमेशा जंगली फूलों का सेहरानुमा कुछ होता था। लेकिन उसका चेहरा इतना सफ़ेद और सपाट होता था कि सभी ऐब वासंती धूप में आसानी से प्रकट हो जाते थे। उसके पति अपने देश में काफ़ी कामयाब कारोबारी हुआ करते थे, लेकिन अब वे न्यूयॉर्क में अपने भाई आइज़ैक पर पूरी तरह निर्भर थे। आइज़ैक लगभग चालीस साल से अमरीका में रह रहा था और पूरी तरह से अमरीकी हो चुका था। वे दोनों उस से बहुत कम मिलते थे और आपस में वे उसे ‘प्रिंस’ के नाम से पुकारते थे।

उस शुक्रवार उनके बेटे का जन्मदिन था और सब कुछ गड़बड़ हो रहा था। जिस मेट्रो ट्रेन में वे जा रहे थे, वह बिजली न होने के कारण लगभग पन्द्रह मिनट के लिए दो स्टेशनों के बीच अटक गई थी। उस दौरान उन्हें अपने दिलों की धड़कन और अख़बारों की सरसराहट के अलावा कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मेट्रो से उतरकर जो बस उन्हें लेनी थी वह देर से चल रही थी और उन्हें सड़क के किनारे लंबे समय तक खड़े होकर उसका इंतजार करना पड़ा, और जब वह आई तो हाई-स्कूल के बातूनी बच्चों से भरी हुई थी। जब वे सैनिटेरियम की ओर जाने वाले भूरे-से रास्ते पर पहुँचे तो बारिश शुरू हो गई। सैनिटोरियम में भी उन्हें इंतजार करना पड़ा। अपने कमरे में आमतौर पर कुछ न कुछ करते रहने वाले  तथा उदास, परेशान और मुहांसों से भरे चेहरे वाले उनके बेटे के बजाय उनसे मिलने एक नर्स आई। वे उस नर्स को जानते थे और यह भी कि उसे उनकी कोई परवाह नहीं थी। आकर उस नर्स ने बहुत साफ़ शब्दों में बताया कि उनके बेटे ने अपनी जान लेने की फिर कोशिश की। उसने यह भी कहा कि अब वह बिलकुल ठीक है लेकिन उन लोगों से मिलने पर वह फिर उत्तेजित हो सकता है। उस अस्पताल में काम करने वालों की इतनी कमी थी कि सब कुछ वहाँ पर अस्त-व्यस्त सा होता था। चीज़ें बड़ी आसानी से  गुम या इधर-उधर हो जाती थीं, इसलिए उन दोनों ने सोचा कि तोहफ़ा वहाँ नहीं छोड़ना चाहिए और अपनी अगली मुलाक़ात के समय उसे लाना चाहिए।

इमारत से बाहर आकर उसने अपने पति के छाता खोलने का इंतज़ार किया और फिर उसकी बाँह पकड़कर चलने लगी। उसका पति रुक-रूककर अपना गला साफ़ करता रहा, जो  परेशान होने पर वह हमेशा करता है। सड़क के दूसरी ओर के बस-स्टॉप पर पहुँचकर उसके पति ने छाता बंद कर दिया। कुछ फीट की दूरी पर तेज़ हवा में लहराते और बारिश की बूँदों से ओतप्रोत पेड़ के नीचे की गड़ही में उन्होंने एक छोटे-से बेपर पंछी को असहाय छटपटाते देखा।

मेट्रो स्टेशन तक के लम्बे सफ़र के दौरान उन दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई, उसकी नज़र बार-बार पति के बूढ़े हाथों पर पड़ जाती थी, जिनसे उसने छतरी का हैंडल पकड़ रखा था और वे  रुक-रुककर झटक-से जाते थे। पति की सूजी नसों और भूरी धब्बेदार त्वचा को देखते समय उसे यह महसूस हुआ कि उसकी आँखों में आँसू बड़ी तेज़ी से उमड़ रहे हैं। अपने मन को किसी और चीज़ की ओर लगाने की कोशिश में उसने अपने चारों ओर देखना शुरू किया और यकायक उसे आश्चर्य एवं करुणा भरा एक हल्का-सा झटका लगा। एक छोटी लड़की जिसके बाल काले और पैर के नाख़ून गंदे तथा भद्दे लाल रंग में रंगे थे, एक बूढ़ी औरत के कन्धों पर सिर रखकर रो रही थी। और वह औरत किसी से बहुत मिलती जुलती थी?  वह रिबेका बरीसवना से मिलती-जुलती थी, जिसकी बेटी ने वर्षों पहले मिन्स्क के सलोविचिक परिवार के किसी मर्द से शादी की थी।

पिछली बार जब उनके बेटे ने यह करने की कोशिश की थी, तो डॉक्टर के अनुसार उसका तरीक़ा बिलकुल नया और नायाब था; वह ज़रूर कामयाब हो गया होता अगर एक ईर्ष्यालु साथी-मरीज़ ने यह सोचकर उसे रोक न लिया होता कि वह तो उड़ना सीख जाएगा। वह तो बस अपनी दुनिया में एक छेद करके उससे भाग निकलना चाहता था। उसकी दिमाग़ी हालत के बारे में कुछ दिनों पहले एक विस्तृत रिपोर्ट एक वैज्ञानिक मासिक में छपी थी, जिसे सैनिटोरियम के डॉक्टर ने उन्हें पढ़ने के लिए दिया। लेकिन वह और उसका पति वह रिपोर्ट बहुत पहले ही पढ़ चुके थे और बीमारी के बारे में अपनी समझ बना चुके थे। रिपोर्ट में बीमारी को ‘रेफ़रेंशिअल मेनिया यानी स्व-सम्बद्ध उन्माद’ कहा गया था। इस बीमारी से ग्रस्त आदमी  यह समझता है कि उसके आसपास होने वाली हर चीज उसकी शख़्सियत और ज़िन्दगी से किसी न किसी गुप्त तरीक़े से जुड़ी हुई है। वह वास्तविक लोगों को इस साज़िश से जुड़ा नहीं मानता है क्योंकि वह स्वयं को अन्य लोगों की तुलना में बहुत अधिक बुद्धिमान समझता है। वह जहाँ भी जाता है क़ुदरत का साया अविश्वसनीय रूप से उस पर बना रहता है। तारों से लदे आसमान में तैरते बादल उसके बारे में जानकारी एकत्र कर धीमे संकेतों के माध्यम से एक-दूसरे को देते रहते हैं। रात के समय पेड़ भी उसके विचारों के बारे में चर्चा उदास इशारों में करते हैं। कंकड़-पत्थर, दाग़-धब्बे और सूरज की किरणें मिलकर ऐसे पैटर्न बनाती हैं जो उन संदेशों को बहुत फूहड़ तरीक़े से पेश करते हैं, जिन्हें उसे रोकना होता है। हर चीज़ एक पहेली है और हर पहेली की विषय-वस्तु वह । उसके चारों ओर जासूस हैं। उनमें से कुछ बस निगेहबानी करते हैं, जैसे काँच की सतहें और थमे हुए जलाशय; और दूसरे – जैसे दुकान की खिड़कियों पर टंगे कोट – ऐसे गवाह हैं जो पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं, उनके दिल हत्यारों के से हैं; उनके अलावा बहता पानी, तूफ़ान वग़ैरह पागलपन की हद तक उन्मादी हैं, और उसके बारे में विकृत राय रखते हैं, और उसकी हरकतों का हमेशा ग़लत मतलब निकालते हैं। उसे हमेशा चौकस रहना चाहिए और अपने जीवन का हर पल, हर मौक़ा चीज़ों के बीच बहती संकेतों की तरंगों को समझने में लगाना चाहिए। साँस के साथ जो हवा वह छोड़ता है उसे भी क्रमांक देकर फ़ाइल में सहेज लिया जाता है। काश, उसमें दिलचस्पी केवल उसके इर्द-गिर्द की वस्तुओं तक ही सीमित होती, लेकिन अफ़सोस, ऐसा नहीं था! दूरी जितनी बढ़ती जाती थी, उसके ख़िलाफ़ साज़िश का पैमाना उतना ही तेज होता जाता था। उसकी रक्त कोशिकाओं की परछाइयाँ आकार में लाखों गुना बढ़ी हुईं दूर तक फैले मैदानों पर फैलती है; और दूर बहुत दूर पर खड़े दुरूह और भीमकाय पहाड़ उसके होने का परम सच ग्रेनाइट और बिलखते देवदारों के ज़रिये बताते हैं।

जब वे मेट्रो की गड़गड़ाहट और उसकी बदबूदार हवा से बाहर आए तो दिन के बाक़ी बचे हुए हिस्से स्ट्रीट लाइट में घुल-मिल चुके थे। वह रात के खाने के लिए मछली ख़रीदना चाहती थी इसलिए उसने जेली के जारों वाली टोकरी पति को थमाई और घर जाने को कहा। अपने किराये के फ़्लैट वाली इमारत में जब वह तीसरी मंज़िल पर पहुँचा तो उसे याद आया कि उसने अपनी चाबियाँ दिन में उसे दे दी थीं। वह चुपचाप सीढ़ियों पर बैठ गया और तब चुपचाप उठ भी गया, जब लगभग दस मिनट बाद वह सीढ़ियों पर तेज़ी से चढ़ती हुई आई। वह मंद-मंद मुस्कुरा रही थी और अपनी बेवकूफ़ी से नाख़ुश अपना सिर भी हिला रही थी। दो कमरों के अपने फ़्लैट में वे जैसे ही दाख़िल हुए, वह आईने के पास गया। अपने मुँह के कोनों को दोनों अँगूठों से ठेलते हुए उसने अपनी डेंटल प्लेट को निकाला जो नई होने के बावजूद बहुत तकलीफ़देह थी। जब तक वह मेज़ पर खाना लगा रही थी वह बैठकर रूसी में एक अख़बार पढ़ने लगा। अख़बार पढ़ते हुए ही उसने उन चीज़ों को खाया जिनके लिए दाँतों की ज़रूरत नहीं थी। वह उसके मूड समझती थी इसलिए चुप थी। जब वह सोने चला गया, तो वह लिविंग रूम में ही ताश की पुरानी गड्डी और पुराने फ़ोटो एलबम लिए बैठी रही।

संकरे अहाते के उस पार, जहाँ अँधेरे में रखे सिगरेट फेंकने  के डिब्बों पर बारिश की टाप सुनी जा सकती थी, केवल खिड़कियों में हल्की रोशनी नज़र आ रही थी। और उनमें से एक में काली पतलून पहने एक आदमी सिर के नीचे अपने हाथ बाँधे लेटा हुआ था पर उसकी कोहनियाँ हवा में थीं और बिस्तर गंदा था। वह उठी, उसने पर्दा बंद किया और तस्वीरें देखने लगी। जब वह बच्चा था तो अधिकतर बच्चों के मुक़ाबले हर बात पर थोड़ा ज़्यादा अचरज प्रकट करता था। एलबम से उनकी जर्मन नौकरानी, जिसे वे लीपज़िग में छोड़ आए थे, और मोटे चेहरे वाले उसके प्रेमी की तस्वीर फ़र्श पर गिर गयी, वह एलबम के पन्ने पलटती गई: मिन्स्क, क्रान्ति, लीपज़िग, बर्लिन, फिर लीपज़िग, ढालान पर बना एक घर जो बहुत ही धुंधला था। इसमें उनका बेटा चार साल का है, एक पार्क में वह माथा सिकोड़े, शरमाते हुए एक चुलबुली गिलहरी से आँखें चुरा रहा है, बिलकुल वैसे ही जैसे वह हर अजनबी के साथ करता था।  एक तस्वीर में आंटी रोज़ा थीं, जिनके चेहरे की हड्डियाँ दिखाई देती हुई थीं, आँखें वहशियों-सी थीं। जब तक नाज़ियों ने उन्हें और उन जैसे सभी को मौत के घाट नहीं उतार दिया था, तब तक वे दिवालियेपन, रेल दुर्घटनाओं और कैंसर के फैलने जैसी बुरी ख़बरों की दहशत दबी दुनिया में साँस लेती रहीं। लड़का इस तस्वीर में छह साल का था – जब वह हाथ और पैर दोनों से अद्भुत पक्षियों के चित्र बनाता था और बड़ों की तरह अनिद्रा का शिकार था। यह है  उसका चचेरा भाई जो अब एक मशहूर शतरंज खिलाड़ी है। फिर से लड़के की तस्वीर, इसमें वह लगभग आठ साल का है, अब उसे समझना मुश्किल हो चुका था, वह गलियारे के वॉलपेपर से डरता था, किताब की उस तस्वीर से भी डरता था जिसमें चट्टानों वाले पहाड़ों का सुन्दर दृश्य था और बिन पत्तेवाले पेड़ की एक शाख़ा से किसी पुरानी गाड़ी का पहिया लटक रहा था। यहाँ वह दस साल का था – उसी साल उन लोगों ने यूरोप छोड़ा था। उसे यकायक सफ़र वे सभी वाक़ये याद आ गए जिनका वास्ता सिर्फ़ और सिर्फ शर्मिंदगी, बेइज़्ज़ती  और तौहीन से था। उसे वे सारे शैतान, बदसूरत, और पिछड़े हुए बच्चे भी याद आए अमरीका पहुँचने पर जिनके साथ उसे ‘स्पेशल स्कूल’ में रखा गया था। निमोनिया की लम्बी बीमारी से उबरते ही वह समय भी आया जब उसके छोटे-छोटे डर, ठोस और जटिल हो गए। उन छोटे डरों को उसके माता-पिता अपने विलक्षण एवं प्रतिभाशाली बच्चे की ख़ूबियों के अलावा कोई और नाम देने के लिए राज़ी न थे। आम और सामान्य दिमाग़ रखने वालों के लिए उसे और उसके डरों को समझना टेढ़ी खीर होता गया, जैसे-जैसे वे पुख़्ता व पेचीदा होते गए। इस सब के अलावा भी उसे और बहुत कुछ क़ुबूल करते रहना पड़ा था, क्योंकि ज़िन्दगी का मतलब ही शायद एक के बाद एक ख़ुशी का हाथ से निकलते जाना होता है। उसके सन्दर्भ में बात सिर्फ़ खुशियों तक महदूद नहीं थी बल्कि सुधार की सभी उम्मीदें एक-एक करके घटती जा रही थीं। उसने दर्द के उन तमाम ज्वार-भाटों के बारे में सोचा जिनसे उसे और उसके पति को किसी न किसी वजह से गुज़रते ही रहना पड़ा: उन अदृश्य मानवरूपी राक्षसों के बारे में सोचा जो अकल्पनीय तरह से उसके बेटे को चोट पहुँचाते रहे थे; संसार में कोमलता की दर्दनाक स्थिति और उसके भविष्य के बारे में सोचा और यह भी कि कैसे कोमलता या तो कुचल दी जाती है या बर्बाद कर दी जाती है, या उसे पागलपन का नाम दे दिया जाता है; उजाड़ कोनों में बुदबुदाते उपेक्षित बच्चों और उस सुन्दर जंगली घास के बारे में भी सोचा जो किसान की नज़रों से बच नहीं पाती है।

लगभग आधी रात हो चुकी थी। उसे अचानक अपने पति के कराहने की आवाज़ सुनाई दी और अगले ही पल लड़खड़ाता हुआ वह कमरे में आ गया। उसने नाइटगाउन के ऊपर अस्त्रख़ान कॉलर वाला पुराना ओवरकोट पहना हुआ था। यह ओवरकोट उसे नए नीले बाथरोब के मुकाबले ज़्यादा पसंद था।

वह कराहते हुए बोला, “मुझे नींद नहीं आ रही!”

उसने पूछा, ” क्यों नहीं आ रही है? तुम तो इतना थके हुए थे।”

“मैं सो इसलिए नहीं पा रहा हूँ, क्योंकि मैं मर रहा हूँ,” उसने कहा, और सोफे पर लेट गया।

“कहीं यह तुम्हारे पेट की वजह से तो नहीं ? मैं डॉ. सोलव को बुलाऊँ?”

 “नहीं, नहीं किसी डॉक्टर-वॉक्टर को मत बुलाओ ,”,  वह कराह उठा।

“डॉक्टरों का सत्यानाश हो, भाड़ में जाएँ वे सब! हमें जल्दी ही उसे वहाँ से निकालना होगा। अन्यथा, हम ही ज़िम्मेदार होंगे… ज़िम्मेदार!”

वह उसी पल उचककर बैठ गया, उसके दोनों पैर फ़र्श पर थे और अपने माथे पर ज़ोर-ज़ोर से मुक्के  मारने लगा।

 “ठीक है”, उसने शांत स्वर में कहा। “हम कल सुबह उसे घर ले आएँगे।”

“मुझे चाय पीनी है ,” यह कहकर वह बाथरूम की ओर चला गया।

बहुत मुश्किल से झुकते हुए उसने फ़र्श पर गिर गए ताश के पत्तों और एक-दो तस्वीरों को उठाया, पान का ग़ुलाम, हुकुम का नहला,  हुकुम का इक्का, नौकरानी एल्सा और उसका वहशी प्रेमी।

वह लौटा तो पुरजोश था, ऊँची आवाज में बोला, “मैंने सब कुछ तय कर लिया है। हम उसे अपना बेडरूम दे देंगे। हम दोनों बारी-बारी से आधी रात उसके साथ कमरे में रहेंगे और बाक़ी की रात इस सोफ़े पर बिताएँगे। हफ़्ते में कम से कम दो बार हम उसे डॉक्टर को दिखाएँगे। प्रिंस क्या कहेगा इसके बारे में हमें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी वह कुछ नहीं कहेगा, यह बंदोबस्त उसके लिए सस्ता पड़ेगा।”

तभी टेलीफोन बजा। इस वक़्त तो कभी कोई फ़ोन नहीं करता। वह कमरे के बीचों-बीच खड़ा अपने पैरों से उस चप्पल को टटोल रहा था जो उसके पाँव से उतर गई थी, और बिन दाँतों वाला पोपला मुँह बाए बच्चों की तरह वह अपनी बीवी की ओर देख रहा था। चूँकि वह उससे अधिक अंग्रेज़ी जानती थी, इसलिए कॉल हमेशा वही अटेंड करती थी।

“क्या मैं चार्ली से बात कर सकती हूँ?” एक लड़की की धीमी सी आवाज़ आई।

 “आपने कौन सा नंबर मिलाया है? . . . नहीं, यह ग़लत नंबर है।” उसने धीरे से रिसीवर नीचे रखा और उसका हाथ अनायास अपने दिल की ओर चला गया। “इसने मुझे डरा दिया था,” उसने कहा।

वह उत्तर में जल्दी से मुस्कुराया और फिर पूरे जोश से अपनी बात शुरू कर दी। कल दिन होते ही उसे ले आएँगे। उसकी ख़ुद की हिफाज़त के लिए हम सभी चाक़ू एक दराज में रखकर उस में ताला लगा देंगे। उसकी हालत जब बहुत ख़राब भी थी तब भी उसने दूसरे लोगों के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं किया। टेलीफ़ोन दूसरी बार बजा। उसी बेजान, परेशान और जवान आवाज़ ने चार्ली से बात करनी चाही ।

“आपके पास ग़लत नंबर है। मेरे ख़याल से आप ज़ीरो की जगह शायद अक्षर ‘ओ’ डायल कर रही  हैं। उसने फिर से फ़ोन रख दिया।

वे दोनों आधीरात को बेवक़्त चाय पीने बैठ गए। वह ज़ोर-ज़ोर से चुस्की ले रहा था; उसका चेहरा तमतमाया हुआ था; समय-समय पर वह अपने गिलास को गोल-गोल घुमाता ताकि चीनी ठीक से घुल जाए। उसके गंजे सिर के दोनों किनारों की नसें उभरी हुई थीं, और उसकी ठुड्डी पर बहुत ही छोटे-छोटे सफ़ेद बाल चमक रहे थे। सालगिरह का तोहफ़ा मेज़ पर रखा था। जब तक वह उसके प्याले में चाय उड़ेल रही थी, उसने चश्मा लगाया और वह चमकीले पीले, हरे और लाल छोटे जारों को दोबारा ख़ुशी से निहारने लगा। उसके बेढंगे से नम होंठ उन पर लिखे लेबल बड़े चाव से दोहरा रहे थे – ख़ुबानी, अंगूर, आलूबुख़ारा, आड़ू। वह सेब वाला जार उठाने ही वाला था कि टेलीफोन की घंटी फिर से बज उठी।

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