गुजराती से अनुवादित
अनुवादक : आलोक गुप्त
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(1) वह पेड़ कहाँ गया
बहुत वर्षों बाद
गया था पाठशाला में
नई खपरैल, छोटा- सा नया बाग है वहाँ
दो रंगीन फूल भी खिले हैं
फिर भी कुछ खाली-खाली क्यों लग रहा है?
मैदान खाली, पाठशाला भवन खाली
गांव खाली — मानो ब्रह्मांड ही खाली-खाली हो
कहाँ गया हुआ पेड़? वह
जिस पर चढ़ डालियों पर झूलते थे
छाया में खेलते थे उसकी
यूं दो विशाल शाखाएं फैलाए
खड़ा था वह — सोचता
बांहें फैलाकर, तदाकार हो, खड़ा रहा
धरती से
पैरों के तलवों में होकर धँसता हुआ
वृक्ष- चैतन्य मेरे कलेवर में संचरित होता
बाहु-शाखाओं द्वारा आकाश को टिकाए रहा
नीचे झुका
धरती की धूल सिर से लगाने
चुटकी में आई
तने के अवशेष की दीमक
( रचनाकाल -1979)
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(2)एक चिड़िया को कुछ
एक चिड़िया को कुछ कहना था
झिझकती थी वह मनुष्य के पास आते
उड़ गई दूर, ऊँचे वृक्ष की ऊँची डाली पर
आगा- पीछा देखे बिना,
भूख, थकान. विरह, भय में
उसने कुछ बड़बड़ा दिया
सुन लिया बहती हुई नदी ने
‘मैं इसे पहुंचा दूँगी
रास्ते में मिल जाएगा अगर’
लुढ़कती फिसलते मैदानों से बहती हुई
लोथपोथ हो सागर में सो गई
बुदबुद रव से कुछ कहना चाहती
‘कोई बात नहीं
दुनिया के चारों के नारों पर पहुँचा दूँगा’
—- कहता हुआ सागर उठ चला
रात- दिन अनवरत चट्टानों पर सर पटकते
संदेश के मूलाक्षर को ही भूल बैठा
एक चिड़िया को कुछ कहना था—–
(रचनाकाल -1979)
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(3) सपनों का एक शहर
सपनों का एक शहर था
झोंपड़पट्टी में रहने वालों का
सड़क से उठाया गया
सुलगती सिगरेट का एक ठूँठ
चमकने लगा उसकी एकाध फूँक से
वह रुपहला शहर
चूस कर फिर फेंके गए ठूँठ के साथ सुलगने लगा वह
बसते हैं महलवासी
तब से सपनों की झोंपड़पट्टी में
सपनों का एक शहर
फिर से बसेगा
झोंपड़पट्टी की ख़ाक से
(रचनाकाल -1979)