गुजराती से अनुवादित
अनुवादक : आलोक गुप्त
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(1)नहीं रोकूँगी
नहीं रोकूँगी
वेदना का वरदान देकर भले चला जाए पिया!
साज सजी खड़ी ऊँटनी को
अपनी दुखी वाणी से नहीं टोकूँगी!
कोई कमी नहीं लगती थी,
एक तुझसे ही यह घर भरा- भरा लगता था,
सभी सुखों की सुगंध का गर्व से गजरा गूँथती थी।
बीत चुकी है अब वर्षा ऋतु प्रवाह नहीं है
ताक रही हूँ कोरी रेत।
नहीं रोकूँगी, वेदना का वरदान देकर भले चला जाए पिया !
खुले हुए होंठ अबोल रहें, दरवाजे हैं ऐसे अधखुले
हवा को घूमती फिरती देखती हूँ, भूल गई हूँ भान
सदा के लिए एक ऐसा झोका आ जाए
कि फिर इस तरह नहीं जागना पड़े
नहीं रोकूँगी, वेदना का वरदान देकर भले चला जाए पिया !
दूर का सब कुछ स्पर्श पहुँच जाता है
परंतु द्रवित होता है अकेला दुखी हृदय
अग्निपंखों से जो चिर संग में उड़ता रहता
वह असीम पड़ गया है सूना;
आखिरी क्षण की साँस ले रहा है
छाती पर ढला हुआ सिर।
नहीं रोकूँगी, वेदना का वरदान देकर भले चला जाए पिया !
रचनाकाल
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(2)ठीकरे की कढ़ाई की आँच
ठीकरे की कढ़ाई की हल्की आँच में
उष्मा ले रहा है गारे से लीपा घर,
हिमशीत अंधकार में ठिठुर गया है बाहर का सकल चराचर।
ओढ़नी में अपने को सिमटे सिकुड़ते हुए
भरपूर आनंद ले रही हूँ
रंग जमाती इस आधी रात का।
किसी की थोड़ी सी गतिविधि से
हवा को हल्का धक्का लगता है
अमलतास की सूखी फली के बजने में
जैसे कंकाल की वेदना मुखर हो जाती हो
अटका हुआ पीला पत्ता भी गिर पड़ता है
घड़ी भर
झींगुर की आवाज से वीराना मुखर बन जाता है।
कहीं राख की पर्त फटती है
हो जाती है आंखें उष्ण
सपनों का साथ मिलने पर सूखी नहीं लगती यह रात।
सोने वालों को सुबह दी मुर्गी में बाँग
और कटीले अंधकार की डाल पर
फूट पड़ा अंकुर लाल।
रचनाकाल
अनुवाद: आलोक गुप्त