द्वितीय अध्याय / तृतीय वल्ली / भाग १ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः ।

तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।

तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन ।

एतद्वै तत् ॥ १ ॥

ब्रह्माण्ड रूप है, वृक्ष पीपल का सनातन काल से,

उर्ध्व मूल अधो है शाखा,मूल ब्रह्म विशाल से।

ब्रह्म तत्व विशुद्ध अमृत, लोक उसके आधीन है,

नचिकेता यही वह ब्रह्म जो ब्रह्माण्ड में आसीन है॥ [ १ ]


यदिदं किं च जगत् सर्वं प्राण एजति निःसृतम् ।

महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २ ॥

इस दृश्यमान जगत का कारण ब्रह्म पुरुषोत्तम अहे,

अतिशय दयालु प्रभु तथापि, भय स्वरूप भी है महे।

परब्रह्म का यह महत भय मय रूप जो भी जानते,

तत्वज्ञ वे होते अमर, विधना की विधि पहचानते॥ [ २ ]


भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।

भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ ३ ॥

भय स्वरूप के भय से ही तो तप्त होती अग्नि है,

भय से ही तो सूर्य तपता और धरा में ध्वनि है।

इसी भय से इन्द्र वायु मृत्यु देव भी प्रवृत हैं,

सब ध्रुव नियम नियमित इसी से सृष्टि में आवृत हैं॥ [ ३ ]


इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक्षरीरस्य विस्रसः ।

ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥ ४ ॥

शेष मानव जन्म होने से पूर्व अति, अति पूर्व ही,

यदि भजन साधक कर सके तो जन्म पाये अपूर्व ही।

बिन भजन साक्षात्कार के,यह जन्म व्यर्थ है सिद्ध है,

पुनि विविध योनी लोक में, वह कल्पों तक आबद्ध है॥ [ ४ ]


यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके ।

यथाऽप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके

छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥ ५ ॥

दर्पण में आकृति यथा बिम्बित, ब्रह्म अंतःकरण में,

गन्धर्व लोक में,ब्रह्मलोक में, और दिवि संवरण में।

धुप और छाया की तरह परमात्मा दृष्टव्य है,

यथा स्वप्न में और जल में, दृश्य दिव्य के भव्य हैं॥ [ ५ ]


इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत् ।

पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति ॥ ६ ॥

बहु विविध रूपों में इन्द्रियों की जो पृथक सत्ता मही,

उनकी उदय लय की प्रवृति अति पृथक न जाए कही।

पर आत्मा का स्वरूप उनसे है विलक्षण सर्वथा,

शुचि, नित्य, चेतन, एक रस और न बदलने की प्रथा॥ [ ६ ]


इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।

सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ॥ ७ ॥

मन इन्द्रियों से श्रेष्ठ अति तो मन से बुद्धि श्रेष्ठ है,

है श्रेष्ठ बुद्धि से आत्मा , जीवात्मा अति श्रेष्ठ है।

जीवात्मा से श्रेष्ठ अतिशय ,प्रकृति का वह अंश है,

अव्यक्त शक्ति और प्रकृति से ही बंधा जीवंश है॥ [ ७ ]


अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिङ्ग एव च ।

यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ॥ ८ ॥

आकार हीन अव्यक्त व्यापक दिव्य पुरुषोत्तम महे,

को जान, बन्धन मुक्त जीव हो, दिव्य सुख कैसे कहें।

आनंदमय अमृत स्वरूपी ब्रह्म ईशानं महा,

है सर्वदा अन्तःसमाहित, मूढ़ मति कहता कहों॥ [ ८ ]


न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य

न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।

हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो

य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ ९ ॥

प्रत्यक्ष रूप में विषय चक्षु का,ब्रह्म तो न कदापि है,

अनुपम, अगोचर, ब्रह्म, नित, सर्वत्र व्याप्त तथापि है।

वह सतत चिंतन, ह्रदय निर्मल,बुद्धि ध्यान के योग से,

मिलता जिसे ,छूटे वही, बहु जन्म मृत्यु के भोग से॥ [ ९ ]


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